Monday, December 28, 2009
लाशें ...........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
8:10 PM
लाशें ......
(१)
दूर पहाड़ी से निकलता धुआँ आसमन में विलीन होता जा रहा है ....धुएँ में कई आकृतियाँ बनती बिगडती हैं .....और फिर धीरे- धीरे अँधेरे में गुम हो जातीं हैं ....मैं अँधेरे में छिपे मन को तलाशती हूँ तो सपनों की कई लाशें मिलती हैं .....और शब्द शोकाकुल ......
आसमां का इक नुकीला सा कोना
चुभने लगा है सांसों में
निरुपाय सी मैं देखती रहती हूँ
रौशनी को अँधेरे में घुलते हुए .....
सामने दो बांसों के बीच जलती हुई रस्सी
खामोश है ......
अन्धा कुंआं और डरावना हो गया है ......
सहसा पानी की सतह पे तैर जाते हैं
मन की लाशों के निशाँ ....
एक वाद्ययंत्र बजने लगता है
शब्द आहिस्ता-आहिस्ता
मौन साध खड़े हो जाते हैं .....!!
(२)
इससे पहले कि शब्द भी धुल जायें ....
रब्बा तेरी बनाई मोहब्बतों की मूरतें क्यों इंसानी मोहब्बत से महरूम रह जातीं हैं .....? क्या तुमने उनके लिए कोई और जहां बनाया है ....? बनाया है तो बता न ....मैं हाथों में कफ़न लिए खड़ी हूँ......
तुमने कहा था मैं आऊंगा
अपने छोटे से नये घर से
देर रात गए
तेरी बिखरी सांसों का
माथा सहलाने .....
रात भर शब्दों में छीना-झपटी
चलती रही .....
कभी एक सामने आ खड़ा होता
कभी दूसरा .....
धीरे धीरे आस साथ छोडती गई
कुछ स्याह उम्मीदें
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
ताबूतों में चली गईं ....
मैंने कुछ पन्ने साथ बाँध लिए हैं
तुम आना पढने ....
इससे पहले कि शब्द भी
धुल जायें ......!!
(१)
दूर पहाड़ी से निकलता धुआँ आसमन में विलीन होता जा रहा है ....धुएँ में कई आकृतियाँ बनती बिगडती हैं .....और फिर धीरे- धीरे अँधेरे में गुम हो जातीं हैं ....मैं अँधेरे में छिपे मन को तलाशती हूँ तो सपनों की कई लाशें मिलती हैं .....और शब्द शोकाकुल ......
आसमां का इक नुकीला सा कोना
चुभने लगा है सांसों में
निरुपाय सी मैं देखती रहती हूँ
रौशनी को अँधेरे में घुलते हुए .....
सामने दो बांसों के बीच जलती हुई रस्सी
खामोश है ......
अन्धा कुंआं और डरावना हो गया है ......
सहसा पानी की सतह पे तैर जाते हैं
मन की लाशों के निशाँ ....
एक वाद्ययंत्र बजने लगता है
शब्द आहिस्ता-आहिस्ता
मौन साध खड़े हो जाते हैं .....!!
(२)
इससे पहले कि शब्द भी धुल जायें ....
रब्बा तेरी बनाई मोहब्बतों की मूरतें क्यों इंसानी मोहब्बत से महरूम रह जातीं हैं .....? क्या तुमने उनके लिए कोई और जहां बनाया है ....? बनाया है तो बता न ....मैं हाथों में कफ़न लिए खड़ी हूँ......
तुमने कहा था मैं आऊंगा
अपने छोटे से नये घर से
देर रात गए
तेरी बिखरी सांसों का
माथा सहलाने .....
रात भर शब्दों में छीना-झपटी
चलती रही .....
कभी एक सामने आ खड़ा होता
कभी दूसरा .....
धीरे धीरे आस साथ छोडती गई
कुछ स्याह उम्मीदें
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
ताबूतों में चली गईं ....
मैंने कुछ पन्ने साथ बाँध लिए हैं
तुम आना पढने ....
इससे पहले कि शब्द भी
धुल जायें ......!!
Monday, December 21, 2009
कुछ क्षणिकाएं .........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
9:48 PM
कुछ क्षणिकाएं .........
(१)
बलात्कार के बाद .....
कुछ आवारा बादल
गली के उस पार
भागते हुए निकल गए
मैंने खिड़की से बाहर झाँका
चाँद उकडूं बैठा सिसक रहा था
अफवाह ने करवट बदली
हिन्दू - मुस्लिम दंगे भड़कने लगे ....!!
(२)
गरीबी .....
अच्छा हुआ वक़्त ने
नहीं पूछा ख़ामोशी का राज़
वर्ना उसकी आँखों में
चूल्हे की बुझी राख देख ...
फिर बरस पड़ते बादल .....!!
(३)
खंडहर होता इश्क़ ......
बेखौफ मदहोश सी ...वह फाड़े जा रही है इश्क़ की पाक चुनरी चनाब की देह पर ......
सब लिबास उधेड़ दिए
इश्क़ की जात ने
शराब में मदहोश
दूर सूखी घास पर
अधजले टुकड़े सी
खंडहर हुई जा रही है
इश्क़ की चादर .....!!
(४)
शबाब बखेरती तितलियाँ .....
भूमिगत कब्रिस्तान से
अंकुरित तितलियाँ
पौधों की जड़ों से चूस लेती हैं खून
इंसानी सोच का .....
बहुरंगी भाषाओँ से खुशबू बिखेरती हैं
शबाब की इस दाखिली पर
झुक जाता है चेहरा ...
शर्म से .....!!
(१)
बलात्कार के बाद .....
कुछ आवारा बादल
गली के उस पार
भागते हुए निकल गए
मैंने खिड़की से बाहर झाँका
चाँद उकडूं बैठा सिसक रहा था
अफवाह ने करवट बदली
हिन्दू - मुस्लिम दंगे भड़कने लगे ....!!
(२)
गरीबी .....
अच्छा हुआ वक़्त ने
नहीं पूछा ख़ामोशी का राज़
वर्ना उसकी आँखों में
चूल्हे की बुझी राख देख ...
फिर बरस पड़ते बादल .....!!
(३)
खंडहर होता इश्क़ ......
बेखौफ मदहोश सी ...वह फाड़े जा रही है इश्क़ की पाक चुनरी चनाब की देह पर ......
सब लिबास उधेड़ दिए
इश्क़ की जात ने
शराब में मदहोश
दूर सूखी घास पर
अधजले टुकड़े सी
खंडहर हुई जा रही है
इश्क़ की चादर .....!!
(४)
शबाब बखेरती तितलियाँ .....
भूमिगत कब्रिस्तान से
अंकुरित तितलियाँ
पौधों की जड़ों से चूस लेती हैं खून
इंसानी सोच का .....
बहुरंगी भाषाओँ से खुशबू बिखेरती हैं
शबाब की इस दाखिली पर
झुक जाता है चेहरा ...
शर्म से .....!!
Saturday, December 12, 2009
सुन अमृता क्या तूने भी ओढ़ी थी मोहब्बत में झूठ की चादर......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
9:25 PM
वह समुंदर में पांसे फेंकती
पूरे चाँद की रात ....
हुस्न का मुजरा करती
घुंघरूओं की रुनझुन
छलने लगती बुर्के की ओट में
मोहब्बत की ज़मीं ....
मेरे सामने के पहाड़
एक-एक कर ढहते गए ....
बेवफा चांदनी ...
गढ़ने लगती जुबां की सेज ....
नित नए 'स्वाद ' की चूरी
तोड़ डालती जिस्म की प्यास
उमर की जुंबिश उड़ा ले गई
शर्म की चुनरी .....
सुन अमृता
क्या तूने भी ओढ़ी थी
मोहब्बत में झूठ की चादर .....?
सोचती हूँ
ख़ामोशी के बाद भी
मैं क्यों न दे पाई तुझे तलाक ....
आज ...
बेआबरू सी मैं
रख कर चल देती हूँ
अपने ही कंधे पे हया की लाश ......
नहीं रांझिया
मैं तेरी मोहब्बत को यूँ ......
शर्मसार न होने दूंगी
देख मैंने बाँध लिया है इसे गठरी में
आ ले जा मुझे और कब्र बना दे .....!!
पूरे चाँद की रात ....
हुस्न का मुजरा करती
घुंघरूओं की रुनझुन
छलने लगती बुर्के की ओट में
मोहब्बत की ज़मीं ....
मेरे सामने के पहाड़
एक-एक कर ढहते गए ....
बेवफा चांदनी ...
गढ़ने लगती जुबां की सेज ....
नित नए 'स्वाद ' की चूरी
तोड़ डालती जिस्म की प्यास
उमर की जुंबिश उड़ा ले गई
शर्म की चुनरी .....
सुन अमृता
क्या तूने भी ओढ़ी थी
मोहब्बत में झूठ की चादर .....?
सोचती हूँ
ख़ामोशी के बाद भी
मैं क्यों न दे पाई तुझे तलाक ....
आज ...
बेआबरू सी मैं
रख कर चल देती हूँ
अपने ही कंधे पे हया की लाश ......
नहीं रांझिया
मैं तेरी मोहब्बत को यूँ ......
शर्मसार न होने दूंगी
देख मैंने बाँध लिया है इसे गठरी में
आ ले जा मुझे और कब्र बना दे .....!!
Sunday, November 29, 2009
कुछ क्षणिकायें ........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:34 PM
सुइयों की पोटली है .....जो अक्सर सुलगाती रहती है इक आग ....वह अंधेरे में छोटी-बड़ी लकीरें खींचती है .....सीढियों से अँधेरा उतर कर आता है .....और रख देता हैं पाँव.....बड़ी लकीर मिट जाती है .....वह फ़िर छोटी हो जाती है ....बहुत छोटी .....हक़ीर सी .....!! '' कुछ क्षणिकायें .....''
(१)
तलाक
......................
वहशी बादल
जमकर बरसे फ़िर कल रात
सुई जुबां से लहू कुरेदती रही
सबा तो खामोश रही दोनों के बीच
बस तेरा चेहरा तलाक मांगता रहा .....!!
(२)
कफ़न
....................
मैं कफ़न उतार के बैठी थी
कुछ हसीं रूहें .....
चुरा ले गई कफ़न मेरा
तुम यूँ न बिछड़ना मुझ से
मोहब्बत यतीम हो जाएगी ......!!
(३)
पत्थर होते छाले
...................................
मेरे इश्क़ के कतरे
पत्थरों पे गिरते रहे
और रफ्ता -रफ्ता दिल के छाले
पत्थर होते गए.....!!
(४)
गिला
.............
गुज़र जाता अगर दरिया चुपचाप
मैं ख्यालों को रख लेती ज़ख्मों तले
गिला तो इस बात का है
वह जाते-जाते छू गया ......!!
(५)
तू ही बता
.........................
मैंने ज़िस्म में
जितने भी मुहब्बतों के बीज थे
तेरे नाम की लकीरों पे बो दिए हैं
अब तू ही बता मैं ख्यालों को
किस ओर मोडूं .....!?!
(६)
अर्थियाँ
.........................
मोहब्बत खिलखिला के
हंसने ही वाली थी के गुज़र गई
कुछ अर्थियाँ फ़िर करीब से .....!!
(१)
तलाक
......................
वहशी बादल
जमकर बरसे फ़िर कल रात
सुई जुबां से लहू कुरेदती रही
सबा तो खामोश रही दोनों के बीच
बस तेरा चेहरा तलाक मांगता रहा .....!!
(२)
कफ़न
....................
मैं कफ़न उतार के बैठी थी
कुछ हसीं रूहें .....
चुरा ले गई कफ़न मेरा
तुम यूँ न बिछड़ना मुझ से
मोहब्बत यतीम हो जाएगी ......!!
(३)
पत्थर होते छाले
...................................
मेरे इश्क़ के कतरे
पत्थरों पे गिरते रहे
और रफ्ता -रफ्ता दिल के छाले
पत्थर होते गए.....!!
(४)
गिला
.............
गुज़र जाता अगर दरिया चुपचाप
मैं ख्यालों को रख लेती ज़ख्मों तले
गिला तो इस बात का है
वह जाते-जाते छू गया ......!!
(५)
तू ही बता
.........................
मैंने ज़िस्म में
जितने भी मुहब्बतों के बीज थे
तेरे नाम की लकीरों पे बो दिए हैं
अब तू ही बता मैं ख्यालों को
किस ओर मोडूं .....!?!
(६)
अर्थियाँ
.........................
मोहब्बत खिलखिला के
हंसने ही वाली थी के गुज़र गई
कुछ अर्थियाँ फ़िर करीब से .....!!
Tuesday, November 24, 2009
शीरीं-फरहाद .......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:36 PM
खुदा ने जब दिलों में मोहब्बत के बीज बोये इश्क के छींटे कुछ पाक रूहों पर पड़े ....उन्हीं पाक रूहों में सस्सी - पुन्नू ....हीर-राँझा ...सोहनी-महींवाल ....लैला- मजनू जैसे इश्क के फरिश्ते पैदा हुए ...जो इस हसद और दुश्मनियों की दुनिया से अलग दिलों की दुनिया में बसते थे ....सीने में फौलाद सा जिगर और दिलों में तूफानों से जूझने का जूनून रखते थे .....कहते हैं मोहब्बत करनेवालों के दिलों में खुदा बसता है शायद इसलिए ये खुदा को ज्यादा अजीज़ होते हैं और इन्हें जल्द अपने पास बुला लेते हैं ताकि उनके नाम से धरती पर मुहब्बत जिंदा रहे ...ऐसी ही एक पाक रूह थी शीरीं - फरहाद की ........शीरीं को पाने के लिए पहाड़ में नहर निकालने जैसा नामुमकिन काम ...... मुहब्बत ने वो भी कर दिखाया ....पर दस वर्षों के हाथों के छाले साजिशों का शिकार हो गए ...और '' कसरे शीरीं '' दोनों की कब्रगाह बन गया.......
फरहाद.........
शीरीं का सब्र टूट पड़ा था
वह बेतहाशा दौड़ पड़ी
तेशा रुका , हथौड़ा थमा
आँखें मिलन की आस में
चमक उठीं ....
जी चाहा ...दौड़कर भींच ले
मोहब्बत को सीने में
पर वचन ने मुँह मोड़ लिया
तेशा फ़िर चलने लगा
पहाड़ टूटने लगा
बेताब धड़कने
फ़िर मिलन की आग में
जलने लगीं.......
हुश्न खुदाई करता
और मुहब्बत दुआ मांगती
ज़िन्दगी जैसे इबादत बन गई ....
फटे हाथ , ज़ख़्मी पाँव
फ़िर भी बदन में जूनून
लबों पे मुहब्बत का नाम
आह ! फरहाद .....
तू किस मिटटी का बना था...?
बरसों पहले सीने में
कुछ मोहब्बत के पेड़ उगे थे
जिसके कुछ पत्ते
सूखकर झड़ने लगे थे ...
आज उन्हें फ़िर से टांकने लगी हूँ
शायद खुदा मुझ पर भी
मेहरबां हो जाए .....
एक चित्रकार की कलम
पत्थरों पे मुहब्बत के गीत लिखती
और हथौड़े की ठक-ठक
संगीत के सात स्वरों में
नृत्य करती ....
कसरे- शीरीं
जिसके चप्पे-चप्पे पे
फरहाद की अंगुलियाँ
जाम पीती रही ....
इक दिन बना देतीं हैं
हुश्नोआब की तस्वीर
मुहब्बत काँप उठती है
इसकी सजा जानते हो ....?
मैं दिल में छिपा लूँगा .....
पर .......
सुल्ताना की तीखी नज़रें
दिल के आर-पार हो गयीं
साजिशों की बुझी राख
फ़िर दहकने लगी .....
शीरीं को कैद
और फरहाद को पहाड़ तोड़कर
नहर निकालने जैसा
आदेश .....
कहते हैं ...
इन खुदाबंद लोगों में
मोहब्बत की फौलाद सी ताकत होती है
जो पहाड़ों में भी रास्ता बना दे.....
इक दिन ...
कोहकन ने तोड़ डाला कोह
नहर बहने लगी...
आसमां ने किलकारी मारी
परिंदे बाहें फैला गले मिलने लगे
पेड़ - पौधों ने कानों में कुछ कहा
शीरीं दौड़ पड़ी ....
साजिशों का रंग बदला
मुहब्बत के क़त्ल की झूठी अफवाह
फरहाद को रोक न सकी ....
नहर के पानी में उठे बुलबुले
लाल होते गए ...
शीरीं ने भी कटार की नोक पर
लिख दिया मुहब्बत का नाम
'' शीरीं-फरहाद ....''
और हमेशा-हमेशा के लिए
अमर हो गए.......!!
फरहाद.........
शीरीं का सब्र टूट पड़ा था
वह बेतहाशा दौड़ पड़ी
तेशा रुका , हथौड़ा थमा
आँखें मिलन की आस में
चमक उठीं ....
जी चाहा ...दौड़कर भींच ले
मोहब्बत को सीने में
पर वचन ने मुँह मोड़ लिया
तेशा फ़िर चलने लगा
पहाड़ टूटने लगा
बेताब धड़कने
फ़िर मिलन की आग में
जलने लगीं.......
हुश्न खुदाई करता
और मुहब्बत दुआ मांगती
ज़िन्दगी जैसे इबादत बन गई ....
फटे हाथ , ज़ख़्मी पाँव
फ़िर भी बदन में जूनून
लबों पे मुहब्बत का नाम
आह ! फरहाद .....
तू किस मिटटी का बना था...?
बरसों पहले सीने में
कुछ मोहब्बत के पेड़ उगे थे
जिसके कुछ पत्ते
सूखकर झड़ने लगे थे ...
आज उन्हें फ़िर से टांकने लगी हूँ
शायद खुदा मुझ पर भी
मेहरबां हो जाए .....
एक चित्रकार की कलम
पत्थरों पे मुहब्बत के गीत लिखती
और हथौड़े की ठक-ठक
संगीत के सात स्वरों में
नृत्य करती ....
कसरे- शीरीं
जिसके चप्पे-चप्पे पे
फरहाद की अंगुलियाँ
जाम पीती रही ....
इक दिन बना देतीं हैं
हुश्नोआब की तस्वीर
मुहब्बत काँप उठती है
इसकी सजा जानते हो ....?
मैं दिल में छिपा लूँगा .....
पर .......
सुल्ताना की तीखी नज़रें
दिल के आर-पार हो गयीं
साजिशों की बुझी राख
फ़िर दहकने लगी .....
शीरीं को कैद
और फरहाद को पहाड़ तोड़कर
नहर निकालने जैसा
आदेश .....
कहते हैं ...
इन खुदाबंद लोगों में
मोहब्बत की फौलाद सी ताकत होती है
जो पहाड़ों में भी रास्ता बना दे.....
इक दिन ...
कोहकन ने तोड़ डाला कोह
नहर बहने लगी...
आसमां ने किलकारी मारी
परिंदे बाहें फैला गले मिलने लगे
पेड़ - पौधों ने कानों में कुछ कहा
शीरीं दौड़ पड़ी ....
साजिशों का रंग बदला
मुहब्बत के क़त्ल की झूठी अफवाह
फरहाद को रोक न सकी ....
नहर के पानी में उठे बुलबुले
लाल होते गए ...
शीरीं ने भी कटार की नोक पर
लिख दिया मुहब्बत का नाम
'' शीरीं-फरहाद ....''
और हमेशा-हमेशा के लिए
अमर हो गए.......!!
Saturday, November 14, 2009
तुम भी जलाना इक शमा मेरे नाम की कब्र पर ...........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:09 PM
कुछ और नज्में इमरोज़ की ......और इक प्यारा सा ख़त नज़्म रूप में ......हर बार एक ही आग्रह ....कवि या लेखक कभी 'हक़ीर' नहीं हुआ करते ......और रख देते इक मोहब्बत की तड़पती रूह का नाम ...'हीर' .....सोचती हूँ उम्र भर की तलाश में इक यही नाम ही तो कमा पाई हूँ ....तो क्यों न 'हीर' हो जाऊं ... वे मुझे 'हीर' ही लिखते हैं ......
पेश है इमरोज़ को लिखा एक ख़त ....''तुम भी जलाना इक शमा मेरे नाम की कब्र पर .....''
इमरोज़
तेरे हाथों की छुअन
तेरी नज्मों की सतरों में
साँस ले रही है ....
और इन्हें छूकर मैंने
जी लिए हैं वे तमाम एहसास
जो बरसों तूने गुजारे थे
अपनी पीठ पर ....
किसी और नाम की
तड़प लिए ....
आज मैं ...
उस रूह सी पाक हो गई हूँ
जो तेरे सीने में
इश्क के नाम से धड़कती रही
तेरे ख्यालों ,तेरी साँसों
तेरी लकीरों में
जीती- मरती रही .....
बस इक ....
ख्याल सा दिल में आता है
कहीं तू मिल जाता
तो चूम लेती तेरा वह आकाश
जहाँ बेपनाह मोहब्बत
रंगों का नूर लिए
बरसती है ......
खिल जाती चाँदनी
गर एक घूँट जाम
तेरे कैन्वस का पी लेती ...
गर रख देता तू कुछ सुर्ख रंग
स्याह लबों पे ...
घुल जाती रंगों में चांदनी
रफ्ता-रफ्ता उतर जाती
रात की बाँहों में ....
गर तू लिखता इक नज़्म
'हीर' के लिए ......
देख मैंने....
उतार दिया है जामा 'हक़ीर' का
और 'हीर' हो गई हूँ ...
'हीर' जो शमा बन
हर मोहब्बत करने वालों की कब्र पर
सदियों से जलती रही है
इमरोज़....
तुम भी जलाना इक शमा
मेरे नाम की कब्र पर ...... .!!
पेश है इमरोज़ को लिखा एक ख़त ....''तुम भी जलाना इक शमा मेरे नाम की कब्र पर .....''
इमरोज़
तेरे हाथों की छुअन
तेरी नज्मों की सतरों में
साँस ले रही है ....
और इन्हें छूकर मैंने
जी लिए हैं वे तमाम एहसास
जो बरसों तूने गुजारे थे
अपनी पीठ पर ....
किसी और नाम की
तड़प लिए ....
आज मैं ...
उस रूह सी पाक हो गई हूँ
जो तेरे सीने में
इश्क के नाम से धड़कती रही
तेरे ख्यालों ,तेरी साँसों
तेरी लकीरों में
जीती- मरती रही .....
बस इक ....
ख्याल सा दिल में आता है
कहीं तू मिल जाता
तो चूम लेती तेरा वह आकाश
जहाँ बेपनाह मोहब्बत
रंगों का नूर लिए
बरसती है ......
खिल जाती चाँदनी
गर एक घूँट जाम
तेरे कैन्वस का पी लेती ...
गर रख देता तू कुछ सुर्ख रंग
स्याह लबों पे ...
घुल जाती रंगों में चांदनी
रफ्ता-रफ्ता उतर जाती
रात की बाँहों में ....
गर तू लिखता इक नज़्म
'हीर' के लिए ......
देख मैंने....
उतार दिया है जामा 'हक़ीर' का
और 'हीर' हो गई हूँ ...
'हीर' जो शमा बन
हर मोहब्बत करने वालों की कब्र पर
सदियों से जलती रही है
इमरोज़....
तुम भी जलाना इक शमा
मेरे नाम की कब्र पर ...... .!!
Monday, November 9, 2009
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब वो पहले सी महक नहीं आती ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:12 PM
आज की शाम फ़िर बड़ी बेवफा निकली ....मन है कि यादों की पुरानी गठरी खोले बैठा है ....जरा से पन्ने पलटती हूँ तो शब्द इक तड़प लिए इधर -उधर बिखरे नजर आते हैं .....मैं सहानुभूति के लिए कंधे पे हाथ रखती हूँ तो ...छूते ही इक नज़्म उतर आती है .......
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब वो पहले सी महक नहीं आती
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर वो खुशबू नहीं आती
चलो अब लौट जायें , ख्यालों से उतर जायें
खलिश ये और गमे-दिल की सही नहीं जाती
बहुत रोया है रातों को , बहुत तड़पा है दिल मेरा
तेरे ख़्वाबों में गुजरी वो रातें बिसारी नहीं जातीं
आ फेर लें मुँह तान लें फ़िर वही अजनबी सी चादर
बेरुखी ये तेरे दिल की , अब और सही नहीं जाती
बदल ली हैं राहें अब , कदम भी हैं लौट आए
न जाने क्यों ख्यालों से तेरी आहटें नहीं जातीं
आ अय दर्द थाम ले मुझको अपनी बाँहों में
ये मय अब आखिरी प्याले की उठाई नहीं जाती
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब .........................
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर ..............!!
**************************
साथ ही पहें दो मुक्तक भी .....
बुलावे पे उनके जो न गए सनम
(2)
लिखा जो ये हथेली पे नाम वो किसका है ?
यूँ बनना,सजना,संवारना सब किसका है ?
तुम जो कहते हो 'हीर' को प्यार तुझसे नहीं
बता छाया आँखों में खुमार फिर किसका है ..?!!
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब वो पहले सी महक नहीं आती
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर वो खुशबू नहीं आती
चलो अब लौट जायें , ख्यालों से उतर जायें
खलिश ये और गमे-दिल की सही नहीं जाती
बहुत रोया है रातों को , बहुत तड़पा है दिल मेरा
तेरे ख़्वाबों में गुजरी वो रातें बिसारी नहीं जातीं
आ फेर लें मुँह तान लें फ़िर वही अजनबी सी चादर
बेरुखी ये तेरे दिल की , अब और सही नहीं जाती
बदल ली हैं राहें अब , कदम भी हैं लौट आए
न जाने क्यों ख्यालों से तेरी आहटें नहीं जातीं
आ अय दर्द थाम ले मुझको अपनी बाँहों में
ये मय अब आखिरी प्याले की उठाई नहीं जाती
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब .........................
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर ..............!!
**************************
साथ ही पहें दो मुक्तक भी .....
बुलावे पे उनके जो न गए सनम
ख्वाबों में आके यार मेरा छेड़ गया
वो जो बरसों से थे कहीं सुकूत पड़े
तेरा इश्क़ वो दिल के तार छेड़ गया ...
(2)
लिखा जो ये हथेली पे नाम वो किसका है ?
यूँ बनना,सजना,संवारना सब किसका है ?
तुम जो कहते हो 'हीर' को प्यार तुझसे नहीं
बता छाया आँखों में खुमार फिर किसका है ..?!!
Friday, November 6, 2009
नसीब के पन्ने.......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:56 AM
वह कई अंगारे सीने में दबाये बैठी थी ......बरसों यूँ ही सुलगती रही .....धीरे - धीरे अंगारे राख़ में बदलते गए .....आज भी वह जिस्म झाड़ती है तो दर्द के कई पत्ते गिर पड़ते हैं ....उन्हीं पत्तों से समेट कर लाई हूँ ये नज़्म ...." नसीब के पन्ने" .......
वह आग सीने में दबाये बैठी थी
जब तन्हाई जिस्म तोड़ती
वह खोल देती सारे
खिड़कियाँ, दरवाजे ...
खिड़की से बाहर बाहें फैला ..
कसकर भींच लेती अँधेरा
आसमान से टपक पड़ते
दो कतरे लहू के ......
वह फेंकने लगती
बरसों से इकठ्ठा की ख्वाहिशें
तोड़ डालती सारे ख्वाब
सपने मिट्टी में कब्र खोदते
दीवारों से उखड़ आई खामोशी
एक-एक कर ओढ़ने लगती
दर्द की चादर......
वह बाँध लेती...
जिस्म पर रस्सियाँ
बेतरतीब धड़कती धडकनों पर
लिख देती मिट्टी का नसीब
राख कहकहा लगाती
रात इक कोने में बैठी
पलटती रहती
चुपचाप
नसीब के पन्ने ........!!
Friday, October 30, 2009
मोहब्बत........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:12 PM
"मोहब्बत" ....दवा भी है ... दर्द भी, ....सुकूं भी है .... बेकरारी, बेकसी भी , .....करार भी है... बेताबी भी ,.....विश्वास भी है फरेब भी .... किसी शायर का बडा प्यारा सा शे'र याद आ रहा है ......
मुहब्बतों के खेल में जो पास था गवां दिया
ये दर्दे दिल सही मगर मुझे कुछ मिला तो है
उसे ....
आज भी याद है
कहाँ से शुरू हुए थे शब्द
वो बेतरतीब सी धड़कती धडकने
वो खामोशी , वो इन्तजार ...
वो सारा आसमां
मुट्ठी में भर लेती
रात जब मुट्ठी खोलती
तो चाँद ,तारे , आसमां
सारा जहां अपना सा लगता ....
वो तमाम नज्में
जो अब तक अनछुई थीं
स्पर्श के एहसासों से
गुनगुनाने लगीं थीं
वह अपनी अँगुलियों के पोरों से
लिख डालता हर बार इक नई ग़ज़ल
वह छुई- मुई सी सुन्दरता के
बन जाती कई गीत .....
वो मुस्कुरा के पूछता ...
डायरी मिल्क या
किट- कैट....?
वो खिलखिला के कहती
किट - कैट ....
वो उदास हो जाता ...
बातों ही बातों में वे गढ़ लेते
कई हसीं नगमें...
वो ख़त लिखता
तो रोमानियत के कई आवरण
खोल देता ....
वह समेट लेती
अहसासों का समुंद्र
होंठों की छुअन
ख़त में लिखी सतरों को
और भी पाक कर देती ...
दूर कहीं आसमां
मिलन का भ्रम देता
सामने दरख्त पर बैठे
दो पंक्षी घंटों बैठ
ज़िन्दगी की बातें करते...
वक्त बीतता गया .......
वर्ष बीतते गए .....
वह आज भी लिखती है नज्में
पर वह कहीं आस-पास नहीं होता
वह भी लिखता है गजलें
पर वह कहीं आस-पास नहीं होती.....!!
मुहब्बतों के खेल में जो पास था गवां दिया
ये दर्दे दिल सही मगर मुझे कुछ मिला तो है
उसे ....
आज भी याद है
कहाँ से शुरू हुए थे शब्द
वो बेतरतीब सी धड़कती धडकने
वो खामोशी , वो इन्तजार ...
वो सारा आसमां
मुट्ठी में भर लेती
रात जब मुट्ठी खोलती
तो चाँद ,तारे , आसमां
सारा जहां अपना सा लगता ....
वो तमाम नज्में
जो अब तक अनछुई थीं
स्पर्श के एहसासों से
गुनगुनाने लगीं थीं
वह अपनी अँगुलियों के पोरों से
लिख डालता हर बार इक नई ग़ज़ल
वह छुई- मुई सी सुन्दरता के
बन जाती कई गीत .....
वो मुस्कुरा के पूछता ...
डायरी मिल्क या
किट- कैट....?
वो खिलखिला के कहती
किट - कैट ....
वो उदास हो जाता ...
बातों ही बातों में वे गढ़ लेते
कई हसीं नगमें...
वो ख़त लिखता
तो रोमानियत के कई आवरण
खोल देता ....
वह समेट लेती
अहसासों का समुंद्र
होंठों की छुअन
ख़त में लिखी सतरों को
और भी पाक कर देती ...
दूर कहीं आसमां
मिलन का भ्रम देता
सामने दरख्त पर बैठे
दो पंक्षी घंटों बैठ
ज़िन्दगी की बातें करते...
वक्त बीतता गया .......
वर्ष बीतते गए .....
वह आज भी लिखती है नज्में
पर वह कहीं आस-पास नहीं होता
वह भी लिखता है गजलें
पर वह कहीं आस-पास नहीं होती.....!!
Thursday, October 22, 2009
रितिका के नाम .......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
3:14 PM
आसमां के चाँद पे तो जीवन के आसार दिखाई देने लगे हैं .....पर धरती का चाँद आज भी रातों में सिसकता है ....समाज के बनाये रस्मों - रिवाजों में बंधी ये नारी जब भी अपने हक के लिए खामोशी का लिबास उतारती है तो उसे मौत की सजा मिलती है .....जी हाँ ; पिछले दिनों (२५ सितं.) इस शहर में ऐसा ही एक दिल दहला देने वाला हादसा हुआ ....रितिका जैन जो पहले ही अपने शौहर की बेवफाई का ग़म झेल रही थी अपने देवर व सास द्वारा जिन्दा जला दी जाती है ......मन तभी से बेचैन था ......कुछ न कर पाने का मलाल भी ....आज इस नज़्म को लिखते वक्त न जाने कितनी बार आँखें नम हुई होंगी .....बस जहन में एक ही सवाल कौंधता है ....क्यों .....? क्यों...... ?? क्यों .....???
पर जवाब नदारद होता .......
रितिका तुम्हें नम आंखों से ये नज़्म समर्पित है .......
वह कपड़ों से
अंगारों की राख़ झाड़ती
तो ज़ख्मों की कई सुइयां गिर पड़तीं
जुबां दर्द का शोर मचाती
तो सन्नाटे के कई टुकड़े
कोरे कागज़ पर, स्याह रंग फैला देते
और फ़िर इक दिन, यही स्याह रंग
लील जाता है उसे
आग की शक्ल में ......
आह .....!!
ज़मीं बिक जाती है पर
उसके दुःख का बंटवारा नहीं होता
दूर कहीं पहाड़ी के नीचे हरियाली थी
मगर उसके लिए वहाँ तक पहुँच पाना
नामुमकिन.....
इक दिन न जाने कहाँ से
इक आवारा मौज
बहा ले गई थी,उसके बदन की खुशबू
जब हवाओं ने विरोधी रुख अख्तियार किया
तो बादल बागी हो गया था
और फ़िर फैलती गयीं बिस्तर पे
दर्द की सिलवटें .......
दीवारों की खामोशी से अब
उस पर लगीं तसवीरें
तिड़कने लगीं ...
खिलौने टूटते तो
कितने ही हर्फ़ जिंदा दफ्न हो जाते
ए.सी.की सर्द हवा
तल्खी में तब्दील हो
हलक में मुर्दा सांसें लेने लगतीं
शीशे में बंद मछलियाँ
काँटों की झाड़ से
आँखें फोड़ने लगतीं .....
घडी की ज़र्द आँखें,
बर्तनों की सिसकन,
गुलदानों की उदासी में अब
चिराग़ टूटने लगे थे ...
वह जानती थी
इन पेशेवालियों की हँसी
कार में फैली
मंहगे परफ्यूम की खुशबू
लुढ़की बोतलों
जेबों में खिलखिलाते
टूथपिकों का राज .....
वह फ़िर भी खामोश थी ......
अब रात
हौले- हौले जलने लगी थी
चाँद की तन्हाई ...
तकिये पर
हजारों कहानियां लिख डालती...
इक दिन वह
एल्बम से अपने बचपन की यादें निकालती है
देखती है सहेलियों के गोल घेरे के बीच
वह कमर पर हाथ रखे रानी बनी खड़ी है
होंठ धीरे- धीरे बुदबुदाने लगते हैं
इतना-इतना पानी
घर- घर रानी ...
इतना-इतना पानी
घर - घर रानी
इतना-इतना पानी
घर - घर रानी.........!!
पर जवाब नदारद होता .......
रितिका तुम्हें नम आंखों से ये नज़्म समर्पित है .......
वह कपड़ों से
अंगारों की राख़ झाड़ती
तो ज़ख्मों की कई सुइयां गिर पड़तीं
जुबां दर्द का शोर मचाती
तो सन्नाटे के कई टुकड़े
कोरे कागज़ पर, स्याह रंग फैला देते
और फ़िर इक दिन, यही स्याह रंग
लील जाता है उसे
आग की शक्ल में ......
आह .....!!
ज़मीं बिक जाती है पर
उसके दुःख का बंटवारा नहीं होता
दूर कहीं पहाड़ी के नीचे हरियाली थी
मगर उसके लिए वहाँ तक पहुँच पाना
नामुमकिन.....
इक दिन न जाने कहाँ से
इक आवारा मौज
बहा ले गई थी,उसके बदन की खुशबू
जब हवाओं ने विरोधी रुख अख्तियार किया
तो बादल बागी हो गया था
और फ़िर फैलती गयीं बिस्तर पे
दर्द की सिलवटें .......
दीवारों की खामोशी से अब
उस पर लगीं तसवीरें
तिड़कने लगीं ...
खिलौने टूटते तो
कितने ही हर्फ़ जिंदा दफ्न हो जाते
ए.सी.की सर्द हवा
तल्खी में तब्दील हो
हलक में मुर्दा सांसें लेने लगतीं
शीशे में बंद मछलियाँ
काँटों की झाड़ से
आँखें फोड़ने लगतीं .....
घडी की ज़र्द आँखें,
बर्तनों की सिसकन,
गुलदानों की उदासी में अब
चिराग़ टूटने लगे थे ...
वह जानती थी
इन पेशेवालियों की हँसी
कार में फैली
मंहगे परफ्यूम की खुशबू
लुढ़की बोतलों
जेबों में खिलखिलाते
टूथपिकों का राज .....
वह फ़िर भी खामोश थी ......
अब रात
हौले- हौले जलने लगी थी
चाँद की तन्हाई ...
तकिये पर
हजारों कहानियां लिख डालती...
इक दिन वह
एल्बम से अपने बचपन की यादें निकालती है
देखती है सहेलियों के गोल घेरे के बीच
वह कमर पर हाथ रखे रानी बनी खड़ी है
होंठ धीरे- धीरे बुदबुदाने लगते हैं
इतना-इतना पानी
घर- घर रानी ...
इतना-इतना पानी
घर - घर रानी
इतना-इतना पानी
घर - घर रानी.........!!
Thursday, October 15, 2009
दिवाली इस बार तुम आई तो .....
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:44 PM
सोचती हूँ दिवाली
इस बार तुम आई तो
तुझे कहाँ रखूंगी ......
पिछले वर्ष की तरह
इस बार भी तुम आओगी
उसी नीम के पेड़ पर
जहाँ हर बार मैं तुम्हें
टांग देती हूँ लड़ियों में
दीवारों पर ,
कोने में उपजे कैक्टस पर
या काँटों की उस झाड़ पर
जो मन के किसी कोने में कहीं उपजी है
वर्षों से ......
ठूंठ दरख्त की टहनियों में
टांग दूंगी तुम्हें
और देखा करुँगी एकटक
कैसा लगता है
हरियाली के बिना
रौशनी का जहां ......
इस बार भी तुम आओगी
वही आंखों में
हजारों सवाल लिए
हाथों में मेंहदी ,
कलाइयों में चूडियाँ ,
माथे पे बिंदिया ,
महावर, रंगोली ,
वन्दनवार सब कहाँ है ....?
मैं फ़िर हौले से मुस्कुरा दूंगी
वही बेजां सी फीकी मुस्कराहट
जो हर बार तुम्हारे सामने परोस देती हूँ
मिठाई के थाल में
और कहती हूँ ......
''स्वागत है ".....
जानती हूँ इस बार भी तुम
चुरा लाओगी वही
रंगोली का लाल टीका
पड़ोसी के आँगन से
और जड़ दोगी मेरे माथे पे
आर्शीवाद स्वरुप
और कहोगी .....
"सदा सुहागिन रहो".....
वर्षों से तुम इसी तरह तो मुझे
जीना सिखलाती रही हो
कभी दीया बन, कभी बाती बन ,
कभी तेल बन ...
बस दूसरों के लिए जीना
सिखलाती रही हो ....
" स्वागत है दिपावली ....."
इस बार तुम आई तो
तुझे कहाँ रखूंगी ......
पिछले वर्ष की तरह
इस बार भी तुम आओगी
उसी नीम के पेड़ पर
जहाँ हर बार मैं तुम्हें
टांग देती हूँ लड़ियों में
दीवारों पर ,
कोने में उपजे कैक्टस पर
या काँटों की उस झाड़ पर
जो मन के किसी कोने में कहीं उपजी है
वर्षों से ......
ठूंठ दरख्त की टहनियों में
टांग दूंगी तुम्हें
और देखा करुँगी एकटक
कैसा लगता है
हरियाली के बिना
रौशनी का जहां ......
इस बार भी तुम आओगी
वही आंखों में
हजारों सवाल लिए
हाथों में मेंहदी ,
कलाइयों में चूडियाँ ,
माथे पे बिंदिया ,
महावर, रंगोली ,
वन्दनवार सब कहाँ है ....?
मैं फ़िर हौले से मुस्कुरा दूंगी
वही बेजां सी फीकी मुस्कराहट
जो हर बार तुम्हारे सामने परोस देती हूँ
मिठाई के थाल में
और कहती हूँ ......
''स्वागत है ".....
जानती हूँ इस बार भी तुम
चुरा लाओगी वही
रंगोली का लाल टीका
पड़ोसी के आँगन से
और जड़ दोगी मेरे माथे पे
आर्शीवाद स्वरुप
और कहोगी .....
"सदा सुहागिन रहो".....
वर्षों से तुम इसी तरह तो मुझे
जीना सिखलाती रही हो
कभी दीया बन, कभी बाती बन ,
कभी तेल बन ...
बस दूसरों के लिए जीना
सिखलाती रही हो ....
" स्वागत है दिपावली ....."
Wednesday, October 7, 2009
करवाचौथ ..........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
6:42 PM
मोहब्बत का प्रतिक करवाचौथ ......जिस जमीं पर मोहब्बत साँस लेती है उसकी सलामती की दुआ ख़ुद ब ख़ुद दिल कर उठता है ....पर जहां ज़मीं रुखी और खुरदरी हो ....हवाएं विपरीत दिशा में बह रही हो ....वहाँ ...ये रिश्ते सिर्फ़ रस्म का जमा पहन लेते हैं .......
वह फ़िर जलाती है
दिल के फांसलों के दरम्यां
उसकी लम्बी उम्र का दीया ...
कुछ खूबसूरती के मीठे शब्द
निकालती है झोली से
टांक लेती है माथे पे ,
कलाइयों पे , बदन पे .....
घर के हर हिस्से को
करीने से सजाती है
फ़िर....गौर से देखती है
शायद कोई और जगह मिल जाए
जहाँ बीज सके कुछ मोहब्बत के फूल
पर सोफे की गर्द में
सारे हर्फ़ बिखर जाते हैं
झनझना कर फेंके गए लफ्जों में
दीया डगमगाने लगता है
हवा दर्द और अपमान से
काँपने लगती है
आसमां फ़िर
दो टुकडों में बंट जाता है ....
वह जला देती है सारे ख्वाब
रोटी के साथ जलते तवे पर
छौक देती है सारे ज़ज्बात
कढाही के गर्म तेल में
मोहब्बत जब दरवाजे पे
दस्तक देती है
वह चढा देती है सांकल ....
दिनभर की कशमकश के बाद
रात जब कमरे में कदम रखती है
वह बिस्तर पर औंधी पड़ी
मन की तहों को
कुरेदने लगती है ....
बहुत गहरे में छिपी
इक पुरानी तस्वीर
उभर कर सामने आती है
वह उसे बड़े जतन से
झाड़ती है ,पोंछती है
धीरे -धीरे नक्श उभरते हैं
रोमानियत के कई हसीं पल
बदन में साँस लेने लगते हैं ....
वह धीमें से ....
रख देती है अपने तप्त होंठ
उसके लबों पे और कहती है
आज करवा चौथ है जान
खिड़की से झांकता चौथ का चाँद
हौले -हौले मुस्कुराने लगता है .....!!
वह फ़िर जलाती है
दिल के फांसलों के दरम्यां
उसकी लम्बी उम्र का दीया ...
कुछ खूबसूरती के मीठे शब्द
निकालती है झोली से
टांक लेती है माथे पे ,
कलाइयों पे , बदन पे .....
घर के हर हिस्से को
करीने से सजाती है
फ़िर....गौर से देखती है
शायद कोई और जगह मिल जाए
जहाँ बीज सके कुछ मोहब्बत के फूल
पर सोफे की गर्द में
सारे हर्फ़ बिखर जाते हैं
झनझना कर फेंके गए लफ्जों में
दीया डगमगाने लगता है
हवा दर्द और अपमान से
काँपने लगती है
आसमां फ़िर
दो टुकडों में बंट जाता है ....
वह जला देती है सारे ख्वाब
रोटी के साथ जलते तवे पर
छौक देती है सारे ज़ज्बात
कढाही के गर्म तेल में
मोहब्बत जब दरवाजे पे
दस्तक देती है
वह चढा देती है सांकल ....
दिनभर की कशमकश के बाद
रात जब कमरे में कदम रखती है
वह बिस्तर पर औंधी पड़ी
मन की तहों को
कुरेदने लगती है ....
बहुत गहरे में छिपी
इक पुरानी तस्वीर
उभर कर सामने आती है
वह उसे बड़े जतन से
झाड़ती है ,पोंछती है
धीरे -धीरे नक्श उभरते हैं
रोमानियत के कई हसीं पल
बदन में साँस लेने लगते हैं ....
वह धीमें से ....
रख देती है अपने तप्त होंठ
उसके लबों पे और कहती है
आज करवा चौथ है जान
खिड़की से झांकता चौथ का चाँद
हौले -हौले मुस्कुराने लगता है .....!!
Friday, October 2, 2009
इमरोज़....मोहब्बत की एक अदीम मिसाल .......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:05 PM
इमरोज़ ......इक ऐसा नाम....जो आने वाली पीढी के लिए ......मोहब्बत की अदीम मिसाल होगा .....उनके साथ कई बार नज्मों के उत्तर-प्रत्युत्तर का सिलसिला चला .....वो हर नज़्म का जवाब नज़्म से देते .....पिछले दिनों अमृता के जन्मदिन पर भेजी गई नज़्म का जवाब उन्होंने एक लम्बी नज़्म से दिया .....ये नज़्म महज़ एक जवाब नहीं थी .....उन तमाम मोहब्बत करने वालों के लिए एक पैगाम भी थी ......वो पैगाम जिसे हम समाज के सामने कबूलने से कतराते हैं ....हम ज़िन्दगी को ढो तो लेते हैं पर जीने की हिमाकत नहीं कर पाते....इमरोज़ जी ने उसे कबूला भी और जिया भी ......पेश है इमरोज़ जी वही नज़्म ...." आदर "........
आदर........
किताबें पढने से लिखना पढ़ना आ जाता है
ज़िन्दगी पढ़ने से जीना
और प्यार करने से प्यार करना ......
सिगलीगरों ने पढ़ाई तो कोई नहीं की
पर ज़िन्दगी से पढ़ लिया लगता है
सिगलीगरों की लड़की जवान होकर
जिसके साथ जी चाहे चल फ़िर सकती है
दोस्ती कर सकती है
और जब वह अपना मर्द चुन लेती है
एक दावत करती है अपना मर्द चुनने की खुशी में
अपने सारे दोस्तों को बुलाती है
और सबसे कहती है कि आज अपनी दोस्ती पूरी हो गई
और उसका मन चाहा सबसे हाथ मिलाता है
फ़िर सब मिलके दावत का जश्न करते हैं ......
कुछ दिनों से ये दावत और ये दिलेरी जीने की
मुझे बार बार याद आती रही है
जो पढ़े लिखों की ज़िन्दगी में अभी तक नहीं आई
मेरे एक दोस्त को ज़िन्दगी के आखिरी पहर में
मोहब्बत हो गई ...
एक सयानी और खूबसूरत औरत से
दोस्त आप भी बहुत सयाना है- अच्छा है
मोहब्बत होने के बाद वो अपने घर में अपना नहीं रहा
घर में होते हुए भी घर में नहीं हो पाता
अब वो घरवाला ही नहीं रहा
पत्नी के पास पति भी नहीं रहा
पत्नी तो एक तरह से छूट चुकी थी
पर संस्कार नहीं छूट रहे थे .....
पता नहीं वो
आप नहीं जा पा रहा था
या जाना नहीं चाह रहा था
या संस्कार नहीं छोड़े जा रहे थे
मोहब्बत दूर खड़ी रास्ता देख रही थी
उसका जो अभी जाने के लिए तैयार नहीं था ......
जब पत्नी को पति की मोहब्बत का पता चला
पत्नी पत्नी नहीं रही न ही कोई रिश्ता रिश्ता रहा
मोहब्बत ये इल्जाम कबूल नहीं करती
पूछा सिर्फ़ हाज़र को जा सकता है
गैर हाज़र पति को क्या पूछना ....?
वह चुपचाप हालात को देख रही है
और अपने अकेले हो जाने को मान कर
अपने आप के साथ जीना सोच रही है ......
मोहब्बत ये इल्जाम कबूल नहीं करती
कि वो घर तोड़ती है
वह तो घर बनाती है
ख्यालों से भी खूबसूरत घर .......
सच तो ये है मोहब्बत बगैर
घर बनता ही नहीं ......
पत्नी अब एक औरत है
अपने आप की आप जिम्मेदार और ख़ुदमुख्तियार
चुपचाप चारों तरफ़ देखती है
घर में बड़ा कुछ बिखरा हुआ नज़र आता है
कल के रिश्ते की बिखरी हुई मौजूदगी
और एक अजीब सी खामोशी भी
वह सब बिखरा हुआ बहा देती है
और चीजों को संवारती है सजाती है
और सिगलीगरों की तरह एक दावत देने की
तैयारी करती है .......
इस तैयारी में बीते दोस्त दिन भी जैसे
उसमें आ मिले हों
मर्द को विदा करने के लिए .....
वह जा रहे मर्द की मर्ज़ी का खाना बनाती है
उसके सामने बैठकर उसे खाना खिलाती है
वो आँखें होते हुए भी आँखें नहीं मिलाता
सयानप होते हुए भी कुछ नहीं बोलता
वो चुपचाप खाना खाता है ....
उसकी सारी हौंद चुप रह कर भी बोल रही है
कि वो मोहब्बत में है
यहाँ चुप रहना ही सयानप है
कोई सफाई देने की जरुरत ही नहीं
कारण की भी नहीं
मोहब्बत का कोई कारण नहीं होता ....
जाते वक्त औरत
पैरों को हाथ लगाने की बजाये
मर्द से पहली बार हाथ मिलाती है
और कहती है- पीछे मुड़कर न देखना
आपकी ज़िन्दगी आपके सामने है
और 'आज ' में है
अपने आज का ख्याल रखना
मेरे फ़िक्र अब मेरे हैं
और मैं अपना ख्याल रख सकती हूँ .....
जो कभी नहीं हुआ वह आज हो रहा है
पर आज ने रोज़ आना है
ज़िन्दगी को आदर के साथ जीने के लिए भी
आदर के साथ विदा करने के लिए भी
और आदर से विदा होने के लिए भी .......!!
..... इमरोज़....
अदीम - अप्राप्य
आदर........
किताबें पढने से लिखना पढ़ना आ जाता है
ज़िन्दगी पढ़ने से जीना
और प्यार करने से प्यार करना ......
सिगलीगरों ने पढ़ाई तो कोई नहीं की
पर ज़िन्दगी से पढ़ लिया लगता है
सिगलीगरों की लड़की जवान होकर
जिसके साथ जी चाहे चल फ़िर सकती है
दोस्ती कर सकती है
और जब वह अपना मर्द चुन लेती है
एक दावत करती है अपना मर्द चुनने की खुशी में
अपने सारे दोस्तों को बुलाती है
और सबसे कहती है कि आज अपनी दोस्ती पूरी हो गई
और उसका मन चाहा सबसे हाथ मिलाता है
फ़िर सब मिलके दावत का जश्न करते हैं ......
कुछ दिनों से ये दावत और ये दिलेरी जीने की
मुझे बार बार याद आती रही है
जो पढ़े लिखों की ज़िन्दगी में अभी तक नहीं आई
मेरे एक दोस्त को ज़िन्दगी के आखिरी पहर में
मोहब्बत हो गई ...
एक सयानी और खूबसूरत औरत से
दोस्त आप भी बहुत सयाना है- अच्छा है
मोहब्बत होने के बाद वो अपने घर में अपना नहीं रहा
घर में होते हुए भी घर में नहीं हो पाता
अब वो घरवाला ही नहीं रहा
पत्नी के पास पति भी नहीं रहा
पत्नी तो एक तरह से छूट चुकी थी
पर संस्कार नहीं छूट रहे थे .....
पता नहीं वो
आप नहीं जा पा रहा था
या जाना नहीं चाह रहा था
या संस्कार नहीं छोड़े जा रहे थे
मोहब्बत दूर खड़ी रास्ता देख रही थी
उसका जो अभी जाने के लिए तैयार नहीं था ......
जब पत्नी को पति की मोहब्बत का पता चला
पत्नी पत्नी नहीं रही न ही कोई रिश्ता रिश्ता रहा
मोहब्बत ये इल्जाम कबूल नहीं करती
पूछा सिर्फ़ हाज़र को जा सकता है
गैर हाज़र पति को क्या पूछना ....?
वह चुपचाप हालात को देख रही है
और अपने अकेले हो जाने को मान कर
अपने आप के साथ जीना सोच रही है ......
मोहब्बत ये इल्जाम कबूल नहीं करती
कि वो घर तोड़ती है
वह तो घर बनाती है
ख्यालों से भी खूबसूरत घर .......
सच तो ये है मोहब्बत बगैर
घर बनता ही नहीं ......
पत्नी अब एक औरत है
अपने आप की आप जिम्मेदार और ख़ुदमुख्तियार
चुपचाप चारों तरफ़ देखती है
घर में बड़ा कुछ बिखरा हुआ नज़र आता है
कल के रिश्ते की बिखरी हुई मौजूदगी
और एक अजीब सी खामोशी भी
वह सब बिखरा हुआ बहा देती है
और चीजों को संवारती है सजाती है
और सिगलीगरों की तरह एक दावत देने की
तैयारी करती है .......
इस तैयारी में बीते दोस्त दिन भी जैसे
उसमें आ मिले हों
मर्द को विदा करने के लिए .....
वह जा रहे मर्द की मर्ज़ी का खाना बनाती है
उसके सामने बैठकर उसे खाना खिलाती है
वो आँखें होते हुए भी आँखें नहीं मिलाता
सयानप होते हुए भी कुछ नहीं बोलता
वो चुपचाप खाना खाता है ....
उसकी सारी हौंद चुप रह कर भी बोल रही है
कि वो मोहब्बत में है
यहाँ चुप रहना ही सयानप है
कोई सफाई देने की जरुरत ही नहीं
कारण की भी नहीं
मोहब्बत का कोई कारण नहीं होता ....
जाते वक्त औरत
पैरों को हाथ लगाने की बजाये
मर्द से पहली बार हाथ मिलाती है
और कहती है- पीछे मुड़कर न देखना
आपकी ज़िन्दगी आपके सामने है
और 'आज ' में है
अपने आज का ख्याल रखना
मेरे फ़िक्र अब मेरे हैं
और मैं अपना ख्याल रख सकती हूँ .....
जो कभी नहीं हुआ वह आज हो रहा है
पर आज ने रोज़ आना है
ज़िन्दगी को आदर के साथ जीने के लिए भी
आदर के साथ विदा करने के लिए भी
और आदर से विदा होने के लिए भी .......!!
..... इमरोज़....
अदीम - अप्राप्य
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