Tuesday, January 29, 2013

26 जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर उन्हें भेजी गई एक नज़्म .......

26 जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर उन्हें  भेजी गई  एक नज़्म .......

इक दिन
इक कोख ने तुझे
हाथों में रंग पकड़ा
आसमां  के आगे कर दिया
पर तूने सिर्फ
इक बुत पर रंग फेरा
और अपनी मुहब्बत के सारे अक्षर
उसमें बो  दिए ....

तल्ख़ मौसमों को जैसे
राह मिल गई
जख्मों के पुल
उम्र पार कर गए ...
उसके हाथ जलती आग थी
और तेरे हाथ मुहब्बत का पानी
वह नज्मों से सिगरेटों की राख़ झाड़ती
और तुम मुहब्बतों के कैनवास पर
ज़िन्दगी के रंग भरते
वह माझा थी
तेरे ख़्वाबों की माझा *...
इक बार माँ ने तुझे जन्म दिया था
और इक बार माझा ने
अपनी मुहब्बत की आग से ...

पता नहीं क्यों इमरोज़
सोचती हूँ ...
यदि तुम एक बार
मेरी नज्मों की राख़  पर
  हाथ फेर देते तो शायद
उनके बीच  की मरी हुई मुहब्बत
मुड़ ज़िंदा हो जाती
यकीन मानों
मैं तुम्हारे रंगों को
किसी तपती आग का स्पर्श नहीं दूंगी
बस इन जर्द और ठंडे  हाथों से
इक बार उन्हें छूकर
हीर होना चाहती हूँ .....

माझा *-  इमरोज़ अमृता को माझा  बुलाते थे .

**************************

(२)

इक आज़ादी वाले दिन
माँ ने रंगों की कलम पकड़ा
उतार दिया था धरती पर
और वह ज़िन्दगी भर
कलम पकडे
भरता रहा
दूसरों की तकदीरों में
रौशनियों के रंग .....

कभी मुहब्बत बन
कभी नज्म बन
कभी राँझा बन ...

इक दिन मिट्टी ने सांस भरी
और  बिखरे हुए रिश्तों पर
लिख दिए तेरे नाम के अक्षर
और अमृता बन ज़िंदा हो गयी ..
पीले फूल  कभी सुर्ख हो जाते
तो कभी गुलाबी ....
धरती फूलों से लद गई
झूले  सतरंगी हो झुलने लगे ....

बता वह कौन सी धरती है
जहाँ  तू मिलता है ...?
मैं भी अपने जख्मों में
 भरना चाहती हूँ तेरे रंग
उन खूबसूरत पलों को
हाथों की लकीरों पर अंकित कर
टूटती  सांसों को ...
तरतीब देना चाहती हूँ ....
आज मैं भी रंगना चाहती हूँ
बरसों से बंद पड़े
दिल के कमरों को
मुहब्बत के रंगों से ...

इमरोज़ .....
क्या तुम मुझे आज के दिन
कुछ रंग उधार दोगे ....?

हरकीरत 'हीर' 

Wednesday, January 23, 2013

कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनायें .....


समकालीन भारतीय साहित्य के दिसं -जनवरी  अंक और गर्भनाल के फरवरी अंक में प्रकाशित मेरी कुछ रचनायें .....
एक खुशखबरी और समकालीन भारतीय साहित्य की कवितायेँ पढ़ दिल्ली के अशोक गुप्ता जी ने मुझे ये ख़त लिखा .....

मान्यवर हरकीरत जी,
नमस्कार. 16th दिसंबर 2012 को  दिल्ली में हुए एक सामूहिक बलात्कार कांड से समाज में जो आक्रोश उपजा है उससे जुड कर मैंने एक पुस्तक संपादित करने के काम हाथ में लिया है जिसमें यौन उत्पीडन से जुड़े आलेख, कहानिया तथा कानून विशेषज्ञों के आलेख लेने का मेरा मन है. उस पुस्तक के फ्लैप पर मैं आपकी दो कविताएं लेना चाह रहा हूँ.मैंने इस कविताओं को समकालीन भारतीय साहित्य के ताज़ा अंक (नवंबर-दिसंबर २०१२) में पढ़ा है. सचमुच यह बहुत ही मर्मस्पर्शी और अनुकूल सन्देश को प्रेषित करती कविताएं हैं. यथा प्रस्ताव चयनित कविताएं हैं, 1 तथा 7 .


बहुत बहुत धन्यवाद.
अशोक गुप्ता 
Mobile 09910075651 / 09871187875    

दुआ है ये नज्में उस आक्रोश को बढ़ाने में कामयाब हों ......

और अब पंजाबी से अनुदित एक नज़्म आप सबके लिए .....

मुहब्बत ...

वह रोज़
दीया जला आती है
ईंट पर ईंट रख 
शब्दों की कचहरी में खड़ी हो
पूछती है उससे
मजबूर हुई मिटटी की जात
रिश्तों की  धार  से छुपती
वह उसे आलिंगन में ले 
गूंगे साजो से करती है बातें ....

पिंजरे से परवाज़ तक 

वह कई बार सूली चढ़ी थी
इक- दुसरे की आँखों में आँखें डाल 
साँसों के लौट आने तक
ज़िन्दगी के अनलिखे रिश्तों की
पार की कहानी लिखते 
  वे भूल गए थे 
मुहब्बतें अमीर  नहीं हुआ करती   .....
यदि धरती फूलों से ही लदी  होती
तो दरिया लहरें न चूम लेते ...?

इक दिन वह

कुदरत की बाँहों में झूल गया था 
और अक्षर-अक्षर हो
पत्थर बन गया था
मोहब्बत का पत्थर ....

गुमसुम खड़ी हवाएं

दरारों से आहें भरती रहीं
कोई रेत का तिनका
आँखों में लहू बन जलता रहा
घुप्प अँधेरे की कोख में
वह दीया  जला लौट आती है
किसी और जन्म की 
उडीक में .....!!

हरकीरत 'हीर'

Thursday, January 10, 2013

कुछ हाइकू

कुछ हाइकू पंजाबी से अनुदित .....

(१)
लम्बी लगती
वापसी ऐ रांझे
कब आओगे ...?
(੨)
पंछी प्रीत का
उड़ गया कहीं है

 संग हवा के ...
(੩)
बिछड़े -मिले   

द्वारे  ज़िन्दगी के
आँख-मिचौली
(੪)
सारी उम्र न 
शज़र  दो लफ़्जों का
खिला ऐ रब्बा ..!
(5)
धर्म वही  है
पहन के जिसको
बने तू बंदा

(6)

तेरी महक
हो अक्षर -अक्षर
बनी नज़्म है

(7)

बहते पानी
ने पूछा वजूद है
खड़े पानी का ?

(8)

रखी ग्रंथों में
तहज़ीब संभाली 
खुद किसी ना 

(9)

रब्ब जैसी है
उडीक अय रांझे
वक्त आखिरी
(1੦)
बंद हो गई
उमरों की खिड़की
तुम ना आये  


**************
(१)
खामोशियाँ हैं
आवाजों में सासों की
गुमनाम सी
(२)
क्षणभंगुर
जीवन की ये डोर
मौत का शोर
(३)

रात ख़ामोशी
संग टूट के रोई
दर्द हंसा था
(४)
दर्द की रात
छलकी है आँखों
अक्षर राये
(५)
जाने कैसे ये
गुज़रे फिर रात
छाती में आग
(६)
खो गई कहीं
है ज़िन्दगी की हँसी
नज्म रूठी है
(७)
उधड़ गईं
सुर्ख कतरने, है
स्याह अन्धेरा
(८)
कब्रें रोती  हैं
शापित समय की
मौन बुत सी
(९)

फटा है अब्र
आसमां में दर्द का
बरसे आंसू
(१०)
खुदाया ! जाने
कैसी तलब तेरी 

आज आँखों में ..!!

(११)

 सात रंगों की
आँख से टपकी है
दर्द की धूप 

(१२ )
नहीं जानती
तुम थे या था भ्रम
ख़्वाबों में  संग
(१३)
इक  दर्द था
जो  जला रात भर
संग  मेरे
था

कुछ हाइकु पर्यावरण पर ....
रोया पत्ता  .....

पत्ता रोया
बंद हैं रोम सब
लूँ साँस कैसे ?

(२)
 
 कैसे दूँ पानी
पालिथिन हैं बस
मेरे सीने में .

(३)
दमा साँस में
फेफड़ों में  कैंसर
कैसी ये हवा ?

(४)
चलो न कहीं
दम घुटता यहाँ
बोला शज़र

(५)
खड़े बुत से
सूखे पत्तों संग,ये
 रोते शज़र
.....................


दिल्ली में ५ साल की बच्ची के साथ हुए रेप केस पर कुछ हाइकु  

Manoj Shah who has been accused of brutally raping a five-year-old girl in Delhi

rape























(१)भोली सूरत
अपराधी प्रवृत्ति
कृत्य घिनौना


(२)
इक गुड़िया  की
फिर लूटी इज्ज़त
जड़ है दिल्ली
(३)
चीखें थीं मेरी
औ' देह तुम्हारी,मैं
अस्मत हारी


(४)
थे दो दरिन्दे
लूट ले गए नन्ही
मासूम हँसी


(५)
रेप शब्द है 
बना खिलौना ,हर
दिन घटना


(६)
गहरा ज़ख्म
ज़िन्दगी भर का,दे
गये  दरिंदे 


(७)
अब आई है
'बड़ी गलती ' याद
 ओ ! बदजात .?



(८)
खींच लो जुबां
कर दो नंगा इन्हें
सरे -बाज़ार


(९)
अदालत दे
न दे ,रब्ब देना तू
सजा रूह की
  

Sunday, January 6, 2013

इबादत प्रेम की (ताँका )

 

ताँका विधा में लिखी गई कुछ रचनायें ......

 

इबादत प्रेम की (ताँका )


1
ये कतरने
सियाह कपड़ों की
न धागा कोई
बता मैं कैसे सीऊँ ?
बदन ज़खमी है !
2
कैसी आवाज़ें
बदन पे रेंगती
ड़ी मेखों सी
पास ही कहीं कोई
आज टूटी है चूड़ी 
3
किताबे -दर्द 
लिखी यूँ ज़िन्दगी ने
भूमिका थी मैं
आग की लकीर -सी
हर इक दास्ताँ की
4
'हीर-राँझा' है
इबादत प्रेम  की
बंदे पढ़ ले
मिल जा ,जो
तू दिल में लिख ले
5
कुँआरे लफ्ज़
कटघरे में खड़े
मौन ठगे- से ...
फिर चीख उठी है
कोख से तू गिरी है  
6
वह नज़्म है
ज़िन्दगी लिखती है
वह गीत है
खुद को जीती भी है
खुद को गाती भी है !
7
नहीं मिलता
कभी बना बनाया
प्यार का रिश्ता
प्यार तराशना है
प्यार उपासना है  ।
8
पिंजरे कभी
उमर नहीं देते
रिश्ते भी नहीं ,
कानून न रिश्तों का
न ही पिंजरों का है  ।

Tuesday, January 1, 2013

बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़ के लौ.......

नव वर्ष आया पर साथ में इतना दर्दनाक हादसा  लाया कि जेहन में न कोई ख़ुशी रही  न उठकर  उसका स्वागत करने की हिम्मत .....
16 दिसम्बर की वह  चलती बस में की गई इतनी घिनौनी हरकत
(गैंग रेप )कि  जिसे सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं पर जिसने उसे भोगा , झेला ,सहा और 13 दिनों तक उस दर्द के साथ ज़िंदा रही  (29 दिस को उसकी मौत सिंगापुर के किसी अस्पताल में हो जाती है )उसने कैसे जरा होगा ये सब  हम तो सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं  ....
अपने आप को उस स्थिति में रखती हूँ तो आंसू थमते नहीं ......
रब्ब दामिनी की आत्मा को मुक्ति दे इसी दुआ के साथ पेश है दामिनी को समर्पित कुछ हाइकू और एक  ग़ज़ल .....
इसे संवारने में सहयोग दिया है चरनजीत मान जी ने ......



कुछ हाइकू दामिनी को नम आँखों से .....(श्रद्धांजलि स्वरूप )

(1)
तू बुझी नहीं
ये मशाल है अब
मेरे हाथों में
(2)

दिल ज़ख़्मी है
रूह छलनी , पर
आँखों में आग
(3)

हम करेंगे
सजा मुकम्मल
काट अंगों को
(4)

मोमबत्तियां
नहीं, हैं ये जलते
हुए अंगारे
(5)

इक सरिया
आर-पार अंगों के
उफ़्फ़ या रब्बा !
(6)
इंसा नहीं वो
हैवान भी नहीं वो
थे वो दरिंदे
(7)

जम गई है
बरफ़ सी भीतर
जैसे मुझ में
(9)
उफ्फ !क्यों तूने
मज़लूम की चीखें
सुनी न रब्बा .. !

(10)

अय कमीनों
है थू -थू तुझ पर
हर नज़र

(11)

थमा गई तू
जिस्म अपना जला
जलती शमा

(12)

रो रही आत्मा
संग तेरे दामिनी
है जग सारा


बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़ के लौ.......

ज अँगारों के बिस्तर पे बसर करती है
देख हर लड़की ही आज आँख को तर करती है

खुद तो हूँ बुझ गई देकर के मैं हाथों में मशाल
देखना क्या कि चिंगारी ये कहर  करती है


एक मज़लूम की चीखें न सुनी रब तूने
मौत के बाद यह फरयाद क़बर करती है

नहीं महफूज़ आबरू किसी लड़की की यहाँ
अब कि डर-डर के यह दिल्ली भी बसर करती है

देह भी लूट दरिन्दों ने ली,सांसें छीनी
बददुआ जा तेरे  जीवन को ज़हर करती है

अै खुदा़ आँधियों ने दी उजाड़ ज़ीस्त मेरी
यह हवाएं भी तुझे रो- रो खबर करती है


बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़  के लौ
दामिनी आज भी हर बस में सफ़र करती है

कमीनो शर्म करो जाओ , कहीं डूब मरो
आज देखे जो तुम्हें थू-थू नज़र करती है