26 जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर उन्हें भेजी गई एक नज़्म .......
इक दिन
इक कोख ने तुझे
हाथों में रंग पकड़ा
आसमां के आगे कर दिया
पर तूने सिर्फ
इक बुत पर रंग फेरा
और अपनी मुहब्बत के सारे अक्षर
उसमें बो दिए ....
तल्ख़ मौसमों को जैसे
राह मिल गई
जख्मों के पुल
उम्र पार कर गए ...
उसके हाथ जलती आग थी
और तेरे हाथ मुहब्बत का पानी
वह नज्मों से सिगरेटों की राख़ झाड़ती
और तुम मुहब्बतों के कैनवास पर
ज़िन्दगी के रंग भरते
वह माझा थी
तेरे ख़्वाबों की माझा *...
इक बार माँ ने तुझे जन्म दिया था
और इक बार माझा ने
अपनी मुहब्बत की आग से ...
पता नहीं क्यों इमरोज़
सोचती हूँ ...
यदि तुम एक बार
मेरी नज्मों की राख़ पर
हाथ फेर देते तो शायद
उनके बीच की मरी हुई मुहब्बत
मुड़ ज़िंदा हो जाती
यकीन मानों
मैं तुम्हारे रंगों को
किसी तपती आग का स्पर्श नहीं दूंगी
बस इन जर्द और ठंडे हाथों से
इक बार उन्हें छूकर
हीर होना चाहती हूँ .....
**************************
(२)
इक आज़ादी वाले दिन
माँ ने रंगों की कलम पकड़ा
उतार दिया था धरती पर
और वह ज़िन्दगी भर
कलम पकडे
भरता रहा
दूसरों की तकदीरों में
रौशनियों के रंग .....
कभी मुहब्बत बन
कभी नज्म बन
कभी राँझा बन ...
इक दिन मिट्टी ने सांस भरी
और बिखरे हुए रिश्तों पर
लिख दिए तेरे नाम के अक्षर
और अमृता बन ज़िंदा हो गयी ..
पीले फूल कभी सुर्ख हो जाते
तो कभी गुलाबी ....
धरती फूलों से लद गई
झूले सतरंगी हो झुलने लगे ....
बता वह कौन सी धरती है
जहाँ तू मिलता है ...?
मैं भी अपने जख्मों में
भरना चाहती हूँ तेरे रंग
उन खूबसूरत पलों को
हाथों की लकीरों पर अंकित कर
टूटती सांसों को ...
तरतीब देना चाहती हूँ ....
आज मैं भी रंगना चाहती हूँ
बरसों से बंद पड़े
दिल के कमरों को
मुहब्बत के रंगों से ...
इमरोज़ .....
क्या तुम मुझे आज के दिन
कुछ रंग उधार दोगे ....?
हरकीरत 'हीर'
इक दिन
इक कोख ने तुझे
हाथों में रंग पकड़ा
आसमां के आगे कर दिया
पर तूने सिर्फ
इक बुत पर रंग फेरा
और अपनी मुहब्बत के सारे अक्षर
उसमें बो दिए ....
तल्ख़ मौसमों को जैसे
राह मिल गई
जख्मों के पुल
उम्र पार कर गए ...
उसके हाथ जलती आग थी
और तेरे हाथ मुहब्बत का पानी
वह नज्मों से सिगरेटों की राख़ झाड़ती
और तुम मुहब्बतों के कैनवास पर
ज़िन्दगी के रंग भरते
वह माझा थी
तेरे ख़्वाबों की माझा *...
इक बार माँ ने तुझे जन्म दिया था
और इक बार माझा ने
अपनी मुहब्बत की आग से ...
पता नहीं क्यों इमरोज़
सोचती हूँ ...
यदि तुम एक बार
मेरी नज्मों की राख़ पर
हाथ फेर देते तो शायद
उनके बीच की मरी हुई मुहब्बत
मुड़ ज़िंदा हो जाती
यकीन मानों
मैं तुम्हारे रंगों को
किसी तपती आग का स्पर्श नहीं दूंगी
बस इन जर्द और ठंडे हाथों से
इक बार उन्हें छूकर
हीर होना चाहती हूँ .....
माझा *- इमरोज़ अमृता को माझा बुलाते थे .
**************************
(२)
इक आज़ादी वाले दिन
माँ ने रंगों की कलम पकड़ा
उतार दिया था धरती पर
और वह ज़िन्दगी भर
कलम पकडे
भरता रहा
दूसरों की तकदीरों में
रौशनियों के रंग .....
कभी मुहब्बत बन
कभी नज्म बन
कभी राँझा बन ...
इक दिन मिट्टी ने सांस भरी
और बिखरे हुए रिश्तों पर
लिख दिए तेरे नाम के अक्षर
और अमृता बन ज़िंदा हो गयी ..
पीले फूल कभी सुर्ख हो जाते
तो कभी गुलाबी ....
धरती फूलों से लद गई
झूले सतरंगी हो झुलने लगे ....
बता वह कौन सी धरती है
जहाँ तू मिलता है ...?
मैं भी अपने जख्मों में
भरना चाहती हूँ तेरे रंग
उन खूबसूरत पलों को
हाथों की लकीरों पर अंकित कर
टूटती सांसों को ...
तरतीब देना चाहती हूँ ....
आज मैं भी रंगना चाहती हूँ
बरसों से बंद पड़े
दिल के कमरों को
मुहब्बत के रंगों से ...
इमरोज़ .....
क्या तुम मुझे आज के दिन
कुछ रंग उधार दोगे ....?
हरकीरत 'हीर'