औरत न जाने कितने रूपों में जीती है ......मैंने जब भी अपने दुपट्टे पे नज़र दौड़ाई मुझे छेद ही छेद नज़र आये.....और हर छेद से रिसता दर्द.....मैं उसी दर्द को पिरो कर फिर लायी हूँ.....जो सिसकते हुए थिरकता है.....और थिरकते हुए लहुलुहान हो जाता है.....वह अपने फटे आँचल को घुंघरुओं से आजाद कर सीना चाहता है.....पर न धागा है न सुई.........!!
(१)
ढोलक की ताल पर
वह मटकी
पावों में घुंघरु
छ्नछ्नाये
उभार
थरथराये
जुबां
होंठों पे फिराई
चुम्बन
उछले
दर्द हाट में
बिकने लगा .....!!
(२)
पूरी दुनियां में
जैसे उस वक्त रात थी
वह अपनी दोनों
खाली कलाइयों को
एकटक देखती है
और फ़िर सामने पड़ी
चूड़ियों को ....
तभी
वक्त आहिस्ता से
दरवाज़ा खोल बाहर आया
कहने लगा ....
नचनिया सिर्फ़ भरे हुए
बटुवे को देखतीं हैं
कलाइयों को नहीं...
दर्द ने करवट बदली
और आंखों के रस्ते
चुपचाप ....
बाहर चला गया ....!!
(३)
लालटेन की
धीमी रौशनी में
उसने वक्त से कहा -
मैं जीवन भर तेरी
सेवा करुँगी
मुझे यहाँ से ले चल
वक्त हंस पड़ा
कहने लगा -
मैं तो पहले से ही
लूला हूँ ....
आधा घर का
आधा हाट का ....!!
Saturday, April 25, 2009
Sunday, April 19, 2009
नज़्म
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
11:43 AM
पिछली बार का वादा था नई नज़्म का......बीते कुछ दिनों में जहाँ आप सब के साथ ने हौंसला-अफजाई की वहीँ मित्र प्रकाश बादल जी के ब्लॉग छोड़ने के फैसले ने आहात भी किया....इस बात से कि मेरे ब्लॉग पे टिप्पणी की वजह से उन्हें जाना पड़ रहा है ......मन में एक अपराधबोध सा भी है ....मेरी एक बार उनसे फ़िर गुंजारिश है कि अपने फैंसले पर पुनर्विचार करें ....... इस बीच कुछ प्रशंसकों के फोन कॉलस भी आए जिन्होनें रचनाओं की सराहना के साथ- साथ ये शिकायत भी कि आप एक ही शैली में लिखतीं हैं .....इस बार कुछ अलग लिखने की कोशिश की है ......आपसब की इनायत चाहिए.......!!
नज़्म
-----------
रात जुगनुओं ने इश्क़ का जाम भरा
तारे सेहरा बांधे दुल्हे से सजने लगे
सबा का इक झोंका उड़ा ले गया चुपके से
चाँदनी सपनों की पालकी में जा बैठी !
शब ने मदहोशी का आलम बुना
आसमां नीली चादर बिछाने लगा
मुहब्बत का मींह बरसाया बादलों ने
चाँद आशिकी का गीत गाने लगा !
हुश्न औ' इश्क नशेमंद आँखों में
प्रीत की कब्रों में सजते रहे
कभी चिनवाये गए जिंदा दीवारों में
कभी चनाब के पानी में बहते रहे !
नज़्म
-----------
रात जुगनुओं ने इश्क़ का जाम भरा
तारे सेहरा बांधे दुल्हे से सजने लगे
सबा का इक झोंका उड़ा ले गया चुपके से
चाँदनी सपनों की पालकी में जा बैठी !
शब ने मदहोशी का आलम बुना
आसमां नीली चादर बिछाने लगा
मुहब्बत का मींह बरसाया बादलों ने
चाँद आशिकी का गीत गाने लगा !
हुश्न औ' इश्क नशेमंद आँखों में
प्रीत की कब्रों में सजते रहे
कभी चिनवाये गए जिंदा दीवारों में
कभी चनाब के पानी में बहते रहे !
Sunday, April 12, 2009
वक्त की नफ़ासत
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
3:24 PM
आपसब की फरमाइश पर एक पुरानी ही नज़्म पेश कर रही हूँ .....उलझनों के बीच नया कुछ लिख ही नहीं पाई.....यह नज़्म शामिख फ़राज़ जी के ब्लॉग पे भी प्रकाशित हो चुकी है....वादा है अगली बार नया कुछ लेकर आउंगी ....!!
वक्त की नफ़ासत
बरसों पहले
जीवन मर्यादाएं
धूसर धुन्धल चित्र लिए
हस्तरेखाओं की तंग घाटियों में
हिचकोले खाती रहीं.....
उबड़ - खाबड़
बीहडों में भटकती
गहरी निस्सारता लेकर
कैद में छटपटाती
आंखों में कातरता
भय और बेबसी की
आवंछित भीड़ लिए
इक तारीकी पूरे वजूद में
उतरती रही ......
वक्त नफ़ासत पूर्ण तरीके से
सीढियों पर बैठा
तस्वीर बनाता रहा ...
तारों को
छू पाने की कोशिश में
न जाने कितने लंबे समय
और संघर्षों से
गुजर जाना पड़ा .....
आज मैंने
अंधियारों को चीरकर
चाँद से बातें करना
सीख लिया है
रातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है मुझे
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना
समुंदरी लहरों के बीच
सीपी में बैठी एक बूंद का
मोती बन जाना
उड़ते हुए पन्ने में
किसी नज़्म का
चुपचाप आकर
मेरी गोद में
गिर जाना
आज जब
दूर दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
धैर्य सहलाता है घाव
हवाएं शंखनाद करतीं हैं
तब मैं ....
वे तमाम तपते हर्फ़
तुम्हारी हथेली पे रख
पूछती हूँ
उन सारे सवालों के
जवाब ...........!!
वक्त की नफ़ासत
बरसों पहले
जीवन मर्यादाएं
धूसर धुन्धल चित्र लिए
हस्तरेखाओं की तंग घाटियों में
हिचकोले खाती रहीं.....
उबड़ - खाबड़
बीहडों में भटकती
गहरी निस्सारता लेकर
कैद में छटपटाती
आंखों में कातरता
भय और बेबसी की
आवंछित भीड़ लिए
इक तारीकी पूरे वजूद में
उतरती रही ......
वक्त नफ़ासत पूर्ण तरीके से
सीढियों पर बैठा
तस्वीर बनाता रहा ...
तारों को
छू पाने की कोशिश में
न जाने कितने लंबे समय
और संघर्षों से
गुजर जाना पड़ा .....
आज मैंने
अंधियारों को चीरकर
चाँद से बातें करना
सीख लिया है
रातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है मुझे
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना
समुंदरी लहरों के बीच
सीपी में बैठी एक बूंद का
मोती बन जाना
उड़ते हुए पन्ने में
किसी नज़्म का
चुपचाप आकर
मेरी गोद में
गिर जाना
आज जब
दूर दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
धैर्य सहलाता है घाव
हवाएं शंखनाद करतीं हैं
तब मैं ....
वे तमाम तपते हर्फ़
तुम्हारी हथेली पे रख
पूछती हूँ
उन सारे सवालों के
जवाब ...........!!
Tuesday, April 7, 2009
खुले ज़ख्म.....!!
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
3:26 PM
मित्रो,
मैं तहेदिल आपसब की शुक्रगुजार हूँ जो आपने मुझे इतना प्यार दिया ....मैंने उम्मीद भी नहीं की थी कि इन कठिन परिस्थियों में आप सब इस तरह मेरे साथ खड़े हो लेंगे .... मेरे पास लफ्ज नहीं हैं अपनी ख़ुशी जाहिर करने के लिए ....सच कहूँ तो अब मुझे कोई रंज नहीं है नज़्म के चोरी होने का .. अब आपसब का स्नेह भरा हाथ जो है सर पर.......जाइये मुनव्वर सुल्ताना जी सजा लीजिये अपना घर चोरी के फूलों से .....
जा सजा ले अपना घर मेरे आँगन के फूलों से
हमें तो तेरे दिए खार रास आ गए............!!
पेश है एक छोटी सी नज़्म है ...".खुले ज़ख्म...
खुले ज़ख्म.....!!
आज नज्मों ने
टांका छेड़ा
और लगा दी
भूल जाने की .....
मैंने ज़ख्मों की
पट्टी खोल दी
और कहा ....
देख दर्देआशना
मेरा हर रिसता ज़ख्म
तेरी रहमतों का
मेहरबां है ....
नज्मों ने
मुस्कुरा के
मेरे हाथों से
पट्टी छीन ली
और कहा ...
तो फिर इन्हें
खुला रख
तेरी हर टीस पे
मेरे हर्फ़ बोलते हैं.....
अब मैं
ज़ख्मों को
खुला रखती हूँ
और...
मेरी हर टीस
नज़्म बन
पन्नों पे
सिसक उठती है.....!!
मैं तहेदिल आपसब की शुक्रगुजार हूँ जो आपने मुझे इतना प्यार दिया ....मैंने उम्मीद भी नहीं की थी कि इन कठिन परिस्थियों में आप सब इस तरह मेरे साथ खड़े हो लेंगे .... मेरे पास लफ्ज नहीं हैं अपनी ख़ुशी जाहिर करने के लिए ....सच कहूँ तो अब मुझे कोई रंज नहीं है नज़्म के चोरी होने का .. अब आपसब का स्नेह भरा हाथ जो है सर पर.......जाइये मुनव्वर सुल्ताना जी सजा लीजिये अपना घर चोरी के फूलों से .....
जा सजा ले अपना घर मेरे आँगन के फूलों से
हमें तो तेरे दिए खार रास आ गए............!!
पेश है एक छोटी सी नज़्म है ...".खुले ज़ख्म...
खुले ज़ख्म.....!!
आज नज्मों ने
टांका छेड़ा
और लगा दी
भूल जाने की .....
मैंने ज़ख्मों की
पट्टी खोल दी
और कहा ....
देख दर्देआशना
मेरा हर रिसता ज़ख्म
तेरी रहमतों का
मेहरबां है ....
नज्मों ने
मुस्कुरा के
मेरे हाथों से
पट्टी छीन ली
और कहा ...
तो फिर इन्हें
खुला रख
तेरी हर टीस पे
मेरे हर्फ़ बोलते हैं.....
अब मैं
ज़ख्मों को
खुला रखती हूँ
और...
मेरी हर टीस
नज़्म बन
पन्नों पे
सिसक उठती है.....!!
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