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Tuesday, December 20, 2011
जितेन्द्र जौहर के ‘सफ़र’ ने सौंपा एक ‘अभूतपूर्व साहित्यिक दस्तावेज’
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Thursday, December 1, 2011
विनम्र श्रद्धांजलि ...'' इंदिरा मामोनी रायसन '' को .........
प्रतिबंधित अलगाववादी संगठन युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और केंद्र सरकार के बीच शांति वार्ता शुरू कराने में अहम भूमिका निभाई वाली प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी अब हमारे बीच नहीं रहीं .
मंगलवार 29 नवम्बर की सुबह गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (जीएमसीएच) में लम्बी बीमारी के बाद अंतिम सांस लेने वाली 69 वर्षीया शिक्षिका इंदिरा गोस्वामी जो कि मामोनी रायसन गोस्वामी नाम से लिखती थीं। उन्हें फरवरी में मस्तिष्काघात हुआ था। तभी उन्हें इलाज के लिए नई दिल्ली ले जाया गया था, लेकिन जुलाई में उन्हें यहां वापस ले आया गया और तब से उनका जीएमसीएच में इलाज चल रहा था। वह पक्षाघात की अवस्था में अब तक वेंटिलेटर पर कोमा में थीं।
उन्हें भारतीय साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ मिला था। गोस्वामी ने उल्फा और केंद्र सरकार के बीच शांति वार्ता में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन साल 2005 में उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया।
भूपेन दा के बाद अब ब्रह्मपुत्र की उदार पुत्री कही जाने वाली प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी के निधन से साहित्य जगत में एक रिक्तता सी आ गई है जिसकी भरपाई में काफी वक्त लगेगा. उनके निधन से जो अपूर्णीय क्षति हुई है वह वर्षों तक अपनी कमी दर्शाती रहेगी . कभी उन्होंने अपने कुछ उदगार यूँ व्यक्त किये थे - '' मैं मानती हूं कि लेखक को राजनीति से नहीं जुड़ना चाहिए. उसे हमेशा मानवता का साथ देना चाहिए. लेकिन मैं अपने राज्य असम को शांत देखना चाहती हूं इसलिए मैंने वहां मध्यस्थ बनना स्वीकार किया.मैं रहती दिल्ली में हूं. दिल्ली ने मुझे बहुत कुछ दिया है. लेकिन मेरी आत्मा असम में बसी है.वहां की हर समस्या से मैं जुड़ी रही हूं. '' सच है कि इंदिरा गोस्वामी की रचनाओं में समूचा असम क्षेत्र सांस्कृतिक तौर पर रचता-बसता रहा है.
पिछले साल उन्हें 'असम रत्न सम्मान' भी दिया गया था. साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ से सम्मानित और लेखन को मानवीय सरोकारों से जोड़ कर रखने वाली इंदिराजी ने अलगाववादी संगठन युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा को वार्ता की मेज में लाने में अहम भूमिका निभाई.
गोस्वामी को उनके मौलिक लेखन के लिए जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर काफी लिखा था। उन्होंने भारत में महिला सशक्तिकरण पर जोर दिया था।
14 नवम्बर 1942 को जन्मी डा.गोस्वामी की प्रारंभिक शिक्षा शिलांग में हुई लेकिन बाद में वह गुवाहाटी आ गई और आगे की पढ़ाई उन्होंने टी सी गल्र्स हाईस्कूल और काटन कालेज एवं गुवाहाटी विश्वविद्यालय से पूरी की।
उनकी लेखन प्रतिभा के दर्शन महज 20 साल में उस समय ही हो गए जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह 1962 में प्रकाशित हुआ जबकि उनकी शिक्षा का क्रम अभी चल ही रहा था।
वह दिल्ली श्विश्वाविद्यालय में असमिया भाषा विभाग में विभागाध्यक्ष भी रही। उनकी प्रतिष्ठा की चमक के कारण उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मानद प्रोफेसर का दर्जा प्रदान किया। उन्हें डच सरकार का 'प्रिंसिपल प्रिंस क्लाउस लाउरेट' पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।
वह देश के चुनिंदा प्रसिद्ध समकालीन लेखकों में से एक थीं। उन्हें उनके 'दोंतल हातिर उने खोवडा होवडा' ('द मोथ ईटन होवडाह ऑफ ए टस्कर'), 'पेजेज स्टेन्ड विद ब्लड और द मैन फ्रॉम छिन्नमस्ता' उपन्यासों के लिए जाना जाता है।कई साल पहले बीबीसी को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने बताया था- मेरा जन्म असम के एक पारपंरिक ज़मींदार परिवार में हुआ था. मेरे जन्म के समय नगर-ज्योतिषी ने कहा था कि ऐसे अशुभ ग्रह में जन्म लेने वाले बच्चे के दो टुकड़े कर ब्रह्मपुत्र में डाल देना चाहिए. हालांकि मेरे जन्म के समय की यह कहानी मुझे बहुत बाद में मालूम हुई क्योंकि घर में अंधविश्वास और ज्योतिष के लिए कोई जगह नहीं थी. मेरे माता-पिता पढ़े-लिखे और खुले विचारों के इन्सान थे. मां का उन बातों में बिल्कुल विश्वास नहीं था. पिता असम राज्य के शिक्षा निदेशक थे. मां की रूचि रवीन्द्र साहित्य और संगीत में थी. पुराना जमींदार परिवार था. इसलिए घर पर नौकर-चाकर के साथ-साथ आने जाने के लिए हाथी थे. एक हाथी हम भाई-बहन के खेलने के लिए भी था. बचपन में मुझें असमिया पढ़नी लिखनी नहीं आती थी. लेकिन पिता के ज़ोर देने पर मैंने असमिया सीखी और आगे चल कर इसी भाषा में मैंने अपने लेखन की शुरूआत की. मेरे लेखन के विषय, मेरे-अपने समाज की समस्याएं ही रहे हैं. जैसे मैंने ब्राह्म्ण विधवाओं की, हर पल परीक्षा से गुज़रने के सघंर्ष और विडबंनाओं को लोगों के सामने लाने की कोशिश की है. मुझे अपनी सारी रचनाएं प्रिय हैं लेकिन मुझे ‘दोतल हातिएर ओईये खोवा हाउदा” से ज्यादा लगाव रहा है.जहॉ तक सवाल पुरस्कार का है, तो मुझे खुशी है कि मुझे ज्ञानपीठ जैसा सम्मान मिला. लेकिन सम्मान और पुरस्कार के लिए मैंने कभी लिखा नहीं, बल्कि सच यह हैं कि लेखन मेरे लिए ऐसा है जैसे रगो में बहता लहू.
उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का परिचय उनके आत्मकथात्मक उपन्यास 'द अनफिनिशड आटोबायोग्राफी'में मिलता है। इसमें उन्होंने अपनी जिन्दगी के तमाम संघर्षों पर रोशनी डाली है यहां कि इस किताब में उन्होंने ऐसी घटना का भी जिक्र किया है कि दबाव में आकर उन्होंने आत्महत्या करने जैसा कदम उठाने का प्रयास किया था। तब उन्हें उनके बेपरवाह बचपन और पिता के पत्रों की यादों ने ही जीवन दिया। शायद इसी ईमानदारी तथा आत्मालोचना के बल ने उन्हें असम के अग्रणी लेखकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।
इंदिरा गोस्वामी ने अनेक उपन्यास लघु कथा संग्रह और अध्ययनशील लेख लिखे जिनमें उन्होंने समाज के मजलूम तबके के दर्द को उकेरा और एक शाब्दिक आन्दोलन का नेतृत्व करती रहीं.चिनाकी मरमा कइना हृदय एक नदीर नाम प्रिय गल्पो, उपन्यास चिनाबेर स्रोत, नीलकंठी ब्रज, अहिरोन, उने खाओआ, हौदा दशरथेर पुत्र खोज तथा संस्कार उदयभारनुर चरित्र आदि तीन समवेत उपन्यास के अलावा आत्मकथा आधा लेख दस्तावेज शामिल है. उनकी आत्मकथा 'अधलिखा दस्तावेज' साल 1988 में प्रकाशित हुई।
डा.गोस्वामी ने माधवन राईसोम आयंगर से 1966 में विवाह किया था लेकिन शादी के महज डेढ़ साल बाद कश्मीर में हुई एक सड़क दुर्घटना में माधवन की हुई मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया। इसके बाद वह पूरी तरह से टूट गईं। एक समय तो वह वृंदावन जाने का मन बना लिया था, जिसे हिंदू विधवाओं के लिए एक गंतव्य माना जाता है।उन्हें इस सदमे से उबरने में काफी वक्त लगा। वह इससे बाहर तो आई लेकिन गमजदा होकर। यह तकलीफ उनके लेखन में सहज ही महसूस की जा सकती है।
उन्हें 1983 में उनके उपन्यास 'मामारे धारा तारवल' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
तथा साल 2000 में साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और 2008 में प्रिंसीपल प्रिंस क्लॉस लॉरिएट पुरस्कार मिला। उन्हें रामायण साहित्य में विशेषज्ञता के लिए साल 1999 में मियामी के फ्लोरिडा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार मिला था। इसके अलावा उन्हें असम साहित्य सभा पुरस्कार 1988, भारत निर्माण पुरस्कार 1989, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सौहार्द्र पुरस्कार 1992, कमलकुमारी फाउंडेशन पुरस्कार १९९६ जैसे कई सम्मान व पुरस्कार मिले थे. इसके अतिरिक्त "दक्षिणी कामरूप की गाथा" पर आधारित हिंदी टी वी धारावाहिक तथा उक्त उपन्यास पर असमिया में निर्मित फिल्म "अदाज्य" को राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय ज्यूरी पुरस्कार प्राप्त।
गोस्वामी की किताबों का कई भारतीय व अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
इंदिरा गोस्वामी असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं । उनके निधन से न केवल असमिया अपितु समस्त भारतीय साहित्य जगत को अमूल्य क्षति हुई है . आज मेरी उन्हें नम आँखों से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है .
Friday, November 18, 2011
इक संगोष्ठी और 'सरहद से...' मनोहरलाल बाथम का काव्य संग्रह ......
इक संगोष्ठी और 'सरहद से...' मनोहरलाल बाथम का काव्य संग्रह ......
ऊपर की पंक्ति में श्री बी के सिंह, सीमा सुरक्षा बल के उपमहानिरीक्षक श्री ए के शर्मा , प्रो.प्रेमलता (अध्यक्ष हिंदी विभाग ,विक्रम विश्वविद्यालय , उज्जैन) , श्रीमती उर्मिला कुलश्रेष्ठ (उज्जैन )
नीचे की पंक्ति में श्री रामचरण बट , डॉ आनंद मंगल सिंह कुलश्रेष्ठ (प्रांतीय अध्यक्ष ,हिंदी साहित्य सम्मलेन म.प्र.) , सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक ऍम. एल. बाथम , श्रीमती पुष्पलता राठौर , श्रीमती बी के सिंह, श्रीमती सरला मिश्रा , हरकीरत 'हीर'
सरहद से लौटते हुए ......
तुम अपनी सरहद को
पाक कहते हो
मैं भी ...
दोनों की है यह एक
यह प्यार करना नहीं सिखाती
माँ की तरह
बांटती है ....
हरदम सोचता हूँ मैं
सरहद से लौटते हुए ......बाथम
शिलांग से अचानक डॉ. अकेला भाई ( संयोजक, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी ) का फोन आया १५ नवम. को बी एस
ऍफ़ में एक हिंदी संगोष्ठी और कवि सम्मलेन है आई. जी. साहब जी की खास इल्तजा है कि हीर साहिबां को जरुर बुलाया जाये ...इसलिए आप इनकार नहीं कर सकती ...आपको आना ही है ....' इंकार नहीं कर सकती....' मतलब इस बीच मैं कई बार अकेला भाई जी को इनकार कर चुकी थी कवि सम्मलेन के लिए ....पर अब फरमाइश आई जी साहब की तरफ से थी तो जाना ही पड़ा ....
कविता पाठ करते हुए .....
कार्यक्रम बहुत ही यादगार रहा ....कार्यक्रम तो बढ़िया रहा ही पर आई जी साहब की सहृदयता देख विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि ऐसे भी इंसान होते हैं ....अपने पद और ओहदे का जरा भी गुमान न था उनमें ....वे कई बार उठ कर मेरे पास आये ...पूछते रहे, रहने-खाने की कोई असुविधा तो नहीं ...? ..आप आगे आकर बैठिये पीछे क्यों बैठ गईं हैं .....? ..यहाँ तक कि आने -जाने के लिए गाड़ी की भी व्यवस्था करके दी उन्होंने ...एक रात हमें रुकना पड़ा था वहाँ उसके लिए उन्होंने विशेष अतिथि कक्ष में इंतजार करवा रखा था ...सबसे बड़ी बात थी कि उनका खुद फोन करके पूछते रहना ...मिलने आना ...अपनी पुस्तकें भेंट करना ....उफ्फ... इतनी विनम्रता ..... ?
बहुत कुछ सीखना पड़ेगा बाथम जी आपसे .......:))
सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक ऍम एल बाथम तथा डॉ आनंद मंगल कुलश्रेष्ठ के हाथों स्मृति-चिन्ह लेते हुए ....
मनोहर लाल 'बाथम' यानि सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक (आई जी ) से मेरा परिचय हाल ही में हुआ जब वे अपनी क्षणिकाएं देने हमारे घर आये ....इतने बड़े ओहदे पर होने के बावजूद उनकी सादगी और विनम्रता ने मुझे हैरत में डाल दिया था ...विश्वास नहीं कर पा रही थी ... (क्योंकि इस क्षणिकाओं के चक्कर में कइयों ने मुझे अपने पद और कद की ऊँचाई-लम्बाई समझाई है)....उनकी बातों में इतनी सादगी और संजीदगी थी कि कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकेगा .....बाथम साहब अपनी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए राष्ट्रपति से पुलिस पदक प्राप्त कर चुके हैं . इसके अलावा इन्हें अपनी पहली पुस्तक ' आतंकवाद : चुनौती और संघर्ष 'के लिए गोविन्दवल्लभ पन्त पुरस्कार एवं इंदिरा गाँधी राजभाषा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार एवं कई अन्य प्रशस्ति-पत्र व पुरस्कार मिल चुके हैं ....
मेरा बाथम साहब की सादगी ने ही नहीं उनकी कविताओं ने भी मन जीत लिया था ....'सरहद से....' काव्य संकलन उन्होंने मुझे संगोष्ठी में ही भेंट किया . इसमें सरहद की एक एक घटना ...एक-एक दृश्य दिलों को बेंध देने वाली है ....शायद इसलिए सरदार पंछी जी ने कहीं इनकी ये पुस्तक जब पढ़ी तो तुरंत इन्हें फोन कर कहा कि , 'मैं इसे पंजाबी में तर्जुमा करने की इजाज़त चाहता हूँ '....गौरतलब है कि अब तक यह पुस्तक १४ भाषाओँ में अनुदित हो चुकी है ....सरहद एक ऐसी जगह है जहाँ अक्सर गोलियों और बारूद के बीच खून के छींटे नज़र आते रहते हैं ...जहाँ न ज़ज्बातों के लिए जगह है ...न अपनों के लिए रहम की ....बाथम जी ने इसी धुएँ में बिखरे दर्द को शब्दों में उड़ेल कर रख दिया है ...जो सीधे दिल और दिमाग को चीर कर निकलता है .....
इनकी कुछ नज्मों का अंश आपके लिए ......
'जुर्म' (कामरेड हामिद के लिए )- ईद के दिन हमारी चौकी पर/पीछे के दरवाज़े से /उसने सेवइयां भेजीं चुपचाप/किसी को न बताने की शर्त थी /मेरी दीपावली की मिठाई भी शायद इसी तरह से जाती /वो हो गया रुखसत दुनिया से /मेरे साथ ईद मनाने के जुर्म में ......
'गूंगा' -हर चौथे रोज़ ही दिखती थी /दो तीन बरस के बच्चे के साथ /डॉ से गिड़गिडाती / बच्चे के बोलने के इलाज के लिए /गूंगा लफ्ज़ उसे अच्छा नहीं लगता /माँ की तरह डॉ भी उम्मीदों के साथ /की तोतली आवाज़ में ही सही / निकलेगा 'अम्मी'/कल ही की तो बात है /उस ज़ालिम के बम से /चीखों से सारी बसती गूंजी /कहते हैं पहली और आखिरी बार /गूंगा भी चीखा था / '....अम्मी' .......................
ओह....निशब्द कर देने वाली रचनायें हैं ये ....
ये सरहदें किसने बनाई यहाँ , ये क्यों डाल दी गयीं दिलों में दरारे
मैं भी इंसां तू भी इंसां फिर ये बारूद का धुआँ क्यों बीच है हमारे
इक और नज़्म देखिये -
दोनों तरफ ''- मेरी नौकरी का पहला साल/पाक सीमा पर पहला दिन /न तो तनी-तनी भौहें / न खिंची खिंची तलवारें/ फसल कट रही है दोनों तरफ/पंजाबी लोक गीतों को आँख बंद कर सुन लो/ वही जोश,थिरकन भी वही/लफ़्ज़ों-लहजों में भी सब एक सा / चेहरे के रंगों में तो मुझे /कोई फर्क नज़र नहीं आता / ट्रेक्टर जरुर अलग-अलग कंपनी के हैं / 'नए हजूर' आये लगते हैं /रेंजर ने सूबेदार से पूछा/हाँ मियाँ आओ कैसे हो ?/ अल्ला का करम हजूर /फसल अच्छी हुई /और सब ठीक है न मैंने पूछा / हाँ जानवरों का ख्याल रखना हजूर /तुम अपने भगा देना मैं अपने भगा दूंगा / अच्छी फसल को नुकसान करने वाले /दोनों तरफ मौजूद हैं मियाँ !
बाथम जी के बारे सरदार पंछी जी लिखते हैं , ''उनकी कवितायें पढ़ते-पढ़ते पाठक उसी मानसिक अवस्था में विचरने लगता है जिसमें से कवि खुद गुजरा होता है और कवितायें पढ़ते वक़्त पाठकों की आँखें भी उसी तरह सजल हो जाती हैं जिस तरह शायर की हुई होती हैं ........'' ...मैं भी यही सोच रही हूँ ...इतनी संवेदनशीलता लेकर इस कवि ने १३ साल सीमा पे कैसे काटे होंगे .....? शायद रोज़ तिल-तिल कर मरना और फिर इन शब्दों के सहारे मन को सांत्वना देना .... कितना मुश्किल होता होगा ये रोज़ का जीवन-मरण .......
लीलाधर मंडलोई कवि के बारे कहते हैं कि '' 'सरहद से' आती इन कविताओं में वहां के जनजागरण और प्रकृति के साथ एक प्रहरी का अदेखा कठिन जीवन है . जीवन जिसमें दुःख,सपने,उदासी,तिक्तता,खीज,असहायता,जिजीविषा और अकेलापन है . उसके सपने को घेरते एक ओर खेत-खलिहान, माता-पिता , बच्चे,रिश्तेदार हैं तो दूसरी ओर नए सम्बन्ध जो सरहद पर बने , देश जिनसे अनभिज्ञ है .....''
कवि ....
सौ से ऊपर जवान / इतनी ही बंदूकें /तीन घोड़े एक गाड़ी/दस ऊँट और कुछ कुत्ते /यही मेरी रियासत /मेरा परिवार/यही मेरे सुख दुःख के साथी /दोस्त माँ-बाप और बच्चे ....
स्वयं बाथम जी ' मेरी बात' में लिखते हुए कहते हैं - ''प्रहरी का जीवन एक ऐसे अंधकार में होता है जिसे एक सामान्य व्यक्ति नहीं जनता . उसके लिए वह देश पर प्राण न्योछावर करने वाला एक आदर्श प्रतीक है . किन्तु उसका अज्ञातवास और अकेलापन कौन जनता है ? किसी अदेखी अचीन्ही भूमि पर प्रहरी अपना अकेलापन कभी फ्लेमिंगो की दोस्ती , कभी समुन्द्र की लहरों , कभी पेड़ -पौधों , कभी विराट रेगिस्तान ,कभी चिट्ठियों कभी हममुकाम दोस्तों तो कभी यादों के सहारे काटता है .... ''
बाथम जी की कवितायें प्रहरियों के जीवन की वह दास्ताँ है जिससे आम जन-जीवन बिलकुल अनभिग्य है ...सीमाओं के बीच होने वाले हादसे , घटनाएं ,वाद-विवाद नित धुएँ को हवा देने वाले होते हैं इसी धुएँ के बीच ये प्रहरी ईद भी मनाते हैं ,दिवाली भी और गुरपुरब भी ...सच्च में जीने का सलीका तो कोई इनसे सीखे .....
एक मंदिर है इसी दो सौ गज में / नमाज़ भी पढ़ी जाती है /क्रिसमस पर केक भी कटता है /वाहे गुरु की आवाजें रोज़ सुन लेना /रहने का सलीका सीखना हो अगर/बी ओ पी में चले आना ( बार्डर आउट पोस्ट )
मैं समीक्षा नहीं लिखती ..मेरे पास कितनी ही पुस्तकें आई पड़ी हैं मैं अक्सर सभी से यही कहती हूँ कि मैं समीक्षक नहीं हूँ ..न बाथम जी की इस पुस्तक की मैंने ये समीक्षा की है ...बस बाथम जी की ये कवितायें थीं जिन्होंने मुझे लिखने पर मजबूर किया क्योंकि ये दिल को छूती हुई रचनायें हैं जिसे पढ़ कर सहज ही कोई आह ..भर उठे ....
अंत में बाथम जी की ही एक कविता से अंत करती हूँ ....
न सुरों की सरहदें
न शब्दों की सरहदें
न हवाओं की सरहदें
न पक्षियों की सरहदें
सरहदें मुल्क की
मैं मुल्क का प्रहरी
मैं होना चाहता हूँ
सुर
शब्द
हवा
और पक्षी .......
अगर आपको इन रचनाओं ने जरा भी प्रभावित किया हो तो बाथम जी का न . ये है .....०९४३५५२२३४३ उन्हें फोन जरुर करें .....
प्रकाशक -शिल्पायन
शाहदरा , दिल्ली -110032
दूरभाष -011-२२८२११७४
मूल्य -125
Friday, November 4, 2011
बिक गया अमृता का मकां ......
बिक गया अमृता का मकां ......
ਉਸ ਨਾਲ ਰਲ ਕੇ
ਇੱਟ ਇੱਟ ਕਮਾ ਕੇ
ਇੱਟ ਇੱਟ ਲਾ ਕੇ
ਇਕ ਮਕਾਨ ਬਣਾਇਆ ਸੀ
ਤੇ ਸਾਹ ਸਾਹ ਜਿਉਂ ਕੇ
ਇਕ ਸਾਥ ਵੀ…
ਸਾਥ ਤੇ ਸਾਥ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਵੀ
ਇਕ ਮਕਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਇਹ ਮੈਨੂੰ ਉਸ ਦੇ ਜਾਣ ਦੇ ਬਾਅਦ
ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਹੈ…
ਹੁਣ ਸਾਮਾਨ ਤੇ ਮੇਰਾ
ਕੱਲ੍ਹ ਦੇ ਮਕਾਨ ਵਿਚ ਹੈ
ਤੇ ਮੈਂ ਸ਼ਿਫਟ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ-
ਸਾਥ ਦੇ ਮਕਾਨ ਵਿਚ…
ਮੇਰਾ ਨਵਾਂ ਪਤਾ
ਮਕਾਨ ਨੰਬਰ ਗਲੀ ਨੰਬਰ ਸੜਕ ਨੰਬਰ
ਇਲਾਕਾ ਤੇ ਸ਼ਹਿਰ ਮੈਂ ਹੀ ਹਾਂ
ਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਦਾ ਪਤਾ
ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ
ਆਪਣਾ ਆਪ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ…
-ਇਮਰੋਜ਼.....
अमृता की संजोयी यादें अब मलवे के ढेर में दफ़्न हो गयीं हैं ....
पिछले दिनों क्षणिकाओं के लिए इमरोज़ जी को कई बार फोन किया ....हर बार वो कहते जल्द ही भेज रहा हूँ ...मैं इन्तजार करती और फिर फोन करती ....आज करीबन चार महीने बाद इमरोज़ जी का कोरियर आया ...करीब ३५ पन्नो की सामग्री ...कुछ क्षणिकाएं ..कुछ नज्में ...कुछ शायरी ....बस नहीं था तो वो पता ....''२५ हौज ख़ास, दिल्ली '' ....
कई बार पन्ने पलट कर देखा इमरोज़ , एन -१३, ग्रेटर कैलाश-१, फस्ट फ्लोर , न्यू दिल्ली .....पर हौज खास कहीं न दिखा ....
आज अचानक नेट पे एक पंजाबी साईट खोलते वक़्त इन पंक्तियों पर नज़रें जड़ सी गई ....'' इमरोज़-अमृता का हौज खास का घर ढह गया है '' उफ्फ.....दिल धक् सा रह गया .....अभी पिछले ही साल एक अज़ीज़ मित्र मेरी नज्में लेकर इमरोज़ जी के पास गए थे ...उन्होनें उस मकान की इक-इक वस्तू का कुछ यूँ ज़िक्र किया जैसे अमृता आज भी वहाँ साँस ले रही हो ...घर की इक -इक दीवार कैनवास बनी हुई थी और अमृता हर दीवार का आसमां ....उसके एवार्ड, उसकी तस्वीरें , उसकी पुस्तकें .....खुद इमरोज़ जी भी यूँ बात कर रहे थे जैसे अमृता अब भी उनके साथ हो ...पूछने पर उन्होंने कहा भी ,'अमृता गई ही कहाँ है , वो तो आज भी जिन्दा है ...घर की इक-इक दीवार में , छत पर खिले इक-इक फूल की महक में , इक-इक पत्ती में वह नज़्म बन खड़ी है ...मैं रोज़ सवेरे शाम इन्हें पानी देता हूँ वो मेरे साथ मुस्कुराती है ...हर ओर अमृता की होंद का एहसास ...'अमृता-इमरोज़' की सांझी नेम प्लेट , 'नागमणि' का नाम , वह दरवाजा जिस पर गुरमुखी में अमृता ने लिखा था ,'' परछाइयों को पकड़ने वालो ,छाती में जलती आग की कोई परछाई नहीं होती '' ....उफ्फ....कितना मुश्किल हुआ होगा इमरोज़ के लिए वह घर छोड़ना ....उन तमाम यादों को टूट कर बिखरते हुए देखना ....अमृता को गए ६ वर्ष हो गए ....उसकी यादें ...उसके सपने ...उसके दर्द उस घर के इक-इक ईंट में बसे हैं ....उफ्फ....यूँ लग रहा है जैसे जीते जी किसी ने मेरा कोई अंग काट लिया हो ....इमरोज़ ने क्यूँ कर जरा होगा ये सब ....दिल माना नहीं तुरंत फोन लगाया उन्हें ....पर मेरी आवाज़ भरी हुई थी ...सीधे पूछ बैठी ..अमृता की यादों को क्यूँकर ढहने दिया आपने ...उन्होंने कहा ढहा नहीं बेच दिया ...बच्चों को कुछ रकम की जरुरत थी ....यहाँ हमने दो फ़्लैट लिए हैं ....पर तुम मन छोटा न करो मैं अमृता की तमाम यादें अपने साथ ले आया हूँ ....वह नेम प्लेट , दरवाज़ा, तमाम तस्वीरें ,एवार्ड , उसका पलंग ....बल्कि अमृता का एक अलग से कमरा बना दिया है ..उससे भी अधिक सुन्दर ....कभी दिल्ली आई तो तुम्हें दिखाऊंगा ...और तुम कोई नज़्म क्यों नहीं भेज रही ..? लिख भी रही हो या नहीं ..? मैंने अभी ३१ को इक नज़्म लिखी है तुम्हें भेजता हूँ ...तुम्हें पता है न अमृता आई भी ३१ को थी और गई भी ३१ को ...?...मैंने शीर्षक भी '३१ ...' ही रखा है ....उन्होंने विषय मोड़ दिया था ...पर मेरा मन अभी भी हौज खास के उसी मकां में उलझा था ...कभी अमृता ने चाहा था कि उसका वह कमरा मियुजियम बने पर अब अमृता की तमाम यादों पर इक बहुमंजिला ईमारत तामीर होने जा रही थी ...क्या अमृता उस मिट्टी को छोड़ पायेगी ....? उसकी रूह उसकी आत्मा वहाँ के जर्रे-जर्रे में बसी है .....आह ....!...आज इतना तो कहूँगी कि पंजाब की साहित्यिक संस्थाएं , पंजाब सरकार , पंजाब साहित्य अकादमी अपने साहित्कारों की निशानियाँ सँभालने में नाकाम रही .....
ऊपर इमरोज़ की 'नए पते' पर लिखी इक नज़्म का हिंदी अनुवाद ......
उसके साथ मिलकर
ईट-ईट कमा कर
ईंट ईंट लगा कर
इक मकां बनाया था
और साँस-साँस जी कर
इक साथ भी ....
साथ और साथ का एहसास भी
इक मकां होता है
यह मुझे उसके जाने के बाद
पता चला है .....
अब सामान तो मेरा
कल के मकां में है
पर मैं सिफ्ट कर गया हूँ
साथ के मकां में ....
मेरा नया पता
मकान न. ,गली न.,सड़क न .
इलाका और शहर मैं ही हूँ
और अपने आप का पता
और कोई नहीं होता
अपना आप ही होता है ....
इमरोज़ .....(अनु: हरकीरत 'हीर')
*************************
यकीं नहीं होता
अब भी इमरोज़ ...
क्यूँ कर बाँट दी तुमने साँसे
यकीं मानों वो अब भी वहीँ है
क्यूँकर लगने दी तुमने
अपनी सांसों की कीमत ?
वह देख वह अब भी तड़प रही है
उस मलवे के ढेर तले ....
अपनी उसी नज़्म को तलाशती
जो कई बार उसने
तुम्हारी पीठ पर लिखी थी ...
याद होगा तुम्हें ....
यहीं ज़िन्दगी के कई पन्ने जन्में थे
यहीं ज़िस्म के कई अक्षर खिले
यहीं मोहब्बत ने दीयों में तेल डाला
यहीं ख़ामोशी ने लिबास उतारा
यहीं इश्क ने उम्र की कड़वाहट पी ...
तुमने क्यूँकर बोली लगने दी ....?
इमरोज़ ....!
तुमने क्यूँकर बाँट दी साँसें .....
वह घर घर नहीं था ...
मंदिर था इश्क का
वहीँ बैठ अमृता ने लिखे
कई पत्थरों पे फरमान
अम्बर के आले में सूरज को जलाया
धागे जोड़-जोड़ कर फटे शालुओं को सिया
आज तेरे हाथों से ये रौशनी कैसे गिर गई
इमरोज़ ....!
तूने छाती को चीरकर
दर्द क्यों न दिखलाया.... ?
इमरोज़ तूने क्यूँकर बाँट दी साँसे .....?
इमरोज़ तूने क्यूँकर बाँट दी साँसे .....??
हीर......
Saturday, October 22, 2011
दिवाली पर कुछ क्षणिकाएं ....
दो सांसों की बीच की ख़ामोशी में है ग़र , बुझता दीया
लिख दो ढाई अक्षर प्रेम के, जी जायेगा दिल का दीया ....
(१)
अमावस की रात .....
इक कंपकंपाती ..
सूत के धागे की लौ
इक लम्बी दर्द भरी साँस के बाद
सो जाना चाहती है
आँखें भींचकर
उफ्फ.......
कितनी खौफजदा है यह
कोहरे भरी लम्बी रात ......!
(अस्पताल से )
(२)
उम्र का दीया .....
उम्र का दीया छूती हूँ तो
सिर्फ कुछ काली सी लकीरें
उभर आती हैं ...
रब्बा...!
धुआँ उठने के लिए ही सही
कुछ बूंदें ज़िस्म में
बची रहने दे
अभी फर्ज को
कुछ दिन और जीना है ......!!
(३)
आखिरी बूंद तक.......
वह....
नहीं थकती
दौड़े चले आते हैं उसके पास
दुःख, दर्द, ज़ख्म ,
अपमान , अपशब्द, तिरस्कार
अवहेलना , आँसू, गम, खौफ़ , ख़ामोशी जैसे
अनगिनत शब्द .....
वह नहीं थकती .....
ताउम्र उन्हें संभाले रखती है
थपथपाकर रुमाल में
दीये की बाती सी जलती रहती है
तेल की आखिरी बूंद तक.......
(४)
रौशनी का रंग .....
ज़िन्दगी के .....
कितने ही दीये
वक़्त की कोख में बुझे हैं
टटोलती हूँ तो पत्थरों का
कोई हिस्सा नहीं पिघलता
इन आँखों में अब नहीं है कोई
हँसी तसव्वुर ....
फिर तू ही बता ...
इस रक्त-मांस की देह में मैं
रौशनी का रंग कैसे भरूं ....?
(५)
आस की लौ....
कई बार ....
दरवाज़ा खटखटाया है
ज़िन्दगी के कुछ हिस्से
कभी मेरी पकड़ में नहीं आये
जब-जब मुट्ठी खोली
दर्द तर्जुमा करने लगा
आज मैंने फिर छाती की आग को जलाया है
देखना है इन जलती-बुझती आँखों में
आस की लौ टिमटिमाती है या नहीं .....!
(६)
मोहब्बत का दीया ....
टूटती उम्मीदों के साथ
न जाने दिल के कितने दीये बुझे हैं
ऐसे में एक बार फिर तुम्हारा ख़त
ठहरी ख़ामोशी को
रुला गया है .....
मेरे लहू में अब
नहीं बचा कोई इश्क का कतरा
बता ! मैं मोहब्बत का दीया
कैसे जलाऊँ .....?
(७)
मन्नतों के चिराग ....
अय खुदा !
अब पेड़ पर से
मेरी बाँधी वह कतरन खोल दे
मेरी मन्नतों के चिराग
बुझने लगे हैं .....
(८)
तेरा नाम .....
इस घुप्प ...
अँधेरी रात में
तेरा नाम लेकर
रक्खा जो हाथ
दिल की कब्र पर
चिराग जल उठा .....
(९)
बाती ....
बाती हूँ
जलती हूँ
तड़पती हूँ
मेरा पैगाम है
मोहब्बत फैलाना
कुछ चीखती आवाजें
टूटे शीशे , रस्सियाँ ,
रक्त के कतरे ...
नहीं रोक सकते
मेरी मोहब्बत को .....
(१०)
इस बार आओ तो ....
इस बार आओ तो
जला जाना मन का वह दीप भी
जो बरसों पहले
जाते वक़्त
प्रेम.....
बुझा गया था .....
(११)
दीया .....
कहते हैं मोहब्बत
देह को ....
आखिरी बूंद तक
जिलाए रखती है
रांझेया...!
आज हीर फिर
अपने ज़िस्म की रुई से
तेरी मजार पर
मोहब्बत का .....
दीया जलाने आई है .....!!
( आप सब को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं ....और एक बार फिर राजेन्द्र स्वर्णकार जी का शुक्रिया जिन्होंने मुझे दूरदर्शन पर हुए कवि सम्मलेन की तस्वीरें लगाने का आग्रह किया उन्हीं तस्वीरों की बदौलत मुझे दिल्ली आकाशवाणी ने अपनी नज्मों की सी डी भेजने का आग्रह किया .....जिसका प्रसारण ३१ अक्तू. रात ९:३० पर होगा ....)
Tuesday, September 13, 2011
दूरदर्शन पर हुए कवि सम्मलेन की कुछ तस्वीरें .....
पिछली बार आद. राजेन्द्र जी की शिकायत थी कि मैंने झूठे इंद्रजाल में उलझा दिया .....
देखिये उनकी टिपण्णी .....:))
आदरणीय दराल साहब !
आपको हीरजी की पिछली पोस्ट पर मुझसे पूछे गए 'ऐंद्रजालिक' शब्द का अर्थ अब मिल गया न ?
आपको याद ही होगा - हीर जी ने कहा था -
शायद अगली बार कुछ तस्वीरें पेश करूँ .......
आप-हमको बहला दिया , हमें भ्रम में डाल दिया , सम्मोहित कर दिया , हम पर ज़ादू-इंद्रजाल कर दिया ,
… और इनकी नई पोस्ट में आपको तस्वीरें नज़र आईं ?
और इतने सारे - सौभाग्य से दिल ख़ुश करने के बहाने दे दिए कि किसी को पिछली पोस्ट में ख़ुद इनके अपनेआप किए वादे के बारे में पूछना तक याद नहीं रहा … :))
हीर जी ने उलझा दिया न सबको इंद्रजाल में ......!!
तो लीजिये राजेन्द्र जी हमने तोड़ दिया ये इंद्रजाल .....:))
पर इसके लिए हमें काफी मेहनत करनी पड़ी ...दूरदर्शन वालों ने काफी अनुरोध के बाद यह सी डी दी और हमने सी डी से ये कुछ तस्वीरें निकाली ....
एंकर कबीर और प्रीति तिवारी
सामने मंच पर सभी कवि विराजमान हैं और कुर्सियों पर ऑडियंस ......
इन्हें तो आप जानते ही होंगे .....:))
कवि सम्मलेन के पहले वंदना गीत पेश करती एक गायिका ......
और इन्हें भी .....??
यहाँ मेरी बगल में हैं कबीर , उनकी बगल में असमिया के युवा गायक भुइयां इन्होने कवि सम्मलेन के अंत में एक हिंदी गीत पेश किया था ,मेरी दूसरी और कवि चन्द्रप्रकाश पोद्दार , केन्द्रीय हिंदी निदेशालय के पूर्वोत्तर के प्रभारी उमाकांत खुबालकर और कवि किशोर जैन .....
:))
ये हैं ज़ीना बरुआ , उमाकांत खुबलकर ,डॉ सुधा श्रीवास्तव ,हरकीरत 'हीर'और चन्द्रप्रकाश पोद्दार
कैसी लगी .....:))