सोचा था इस बार कोई पुरानी ही नज़्म पेश करुँगी ......मुफ्लिश जी का भी कई दिनों से अनुरोध था एक नज़्म के लिए पर रात अचानक दर्द ने अंगडाई ली ......शब्दों ने रंगों का जामा पहना और एक नज़्म पन्नों पर उतर आई ......पेश है एक छोटी सी नज़्म ...... " मोहब्बत का नाम ....!!"
मोहब्बत का नाम......!
रब्बा ....!
क्या दर्द का कोई
मौसम नहीं होता.....?
कल जब तुम खैरात में
इक आग का फूल
मेरी झोली में डाल रहे थे
मैं अन्दर ही अन्दर
कहीं दफ्न होती रही
कुछ दर्द बूंदों में
बगावत कर उठा
कुछ ओस की बूंदों में
फैलता रहा पत्तों पर
कुछ पत्तियां अनजाने ही
उग आयीं सांसों में
मैंने देखा उनमें
मोहब्बत का
नाम लिखा था .....!!
Sunday, March 29, 2009
Sunday, March 22, 2009
अंगारों के बुझने तक जीने दे........!!
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
6:48 PM
अंगारों के बुझने तक जीने दे........!!
अय ज़िन्दगी !
इक अजीब सा जिंदगीनामा है ये
जो तू लिख रही है नसीब पर
मेरे दर्द को आबाद करती
कल जब जुबां में
फ़िर इक कड़वा सच लिए
तू सामने खड़ी थी
मेरी रूह तेरे कहे लफ़्जों से
भीतर तक घायल होती रही
धुंएँ का इक गहरा गुब्बार
सीने को चीरता
कहीं अन्दर उतर गया
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
अय ज़िन्दगी !
इक अजीब सा जिंदगीनामा है ये
जो तू लिख रही है नसीब पर
मेरे दर्द को आबाद करती
कल जब जुबां में
फ़िर इक कड़वा सच लिए
तू सामने खड़ी थी
मेरी रूह तेरे कहे लफ़्जों से
भीतर तक घायल होती रही
धुंएँ का इक गहरा गुब्बार
सीने को चीरता
कहीं अन्दर उतर गया
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
Sunday, March 15, 2009
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
8:59 PM
आह! इक बेबस सी ....!!
भीगी पलकें मुंतज़िर हैं
इक उजाले के सहर के लिए
न कोई मानूस सी आह्ट
न कोई दस्तक
सबा भी ख़ामोश है
समंदर की इक भटकती हुई लहर
तलाशती है घरौंदे तपती रेत में
आज की अँधेरी रात
चाँद भी ठहर गया है
तारों के पाश में
राख़ हो चुके हैं
ख्वाबों के पैरहन
दुआएं तड़पती रहीं
तमाम रात हथेलियों में
टूटा है आसमां से कोई तारा
आह ! इक बेबस सी लिए ...!!
2)मानूस -परिचित
3)पैरहन - लिबास
भीगी पलकें मुंतज़िर हैं
इक उजाले के सहर के लिए
न कोई मानूस सी आह्ट
न कोई दस्तक
सबा भी ख़ामोश है
समंदर की इक भटकती हुई लहर
तलाशती है घरौंदे तपती रेत में
आज की अँधेरी रात
चाँद भी ठहर गया है
तारों के पाश में
राख़ हो चुके हैं
ख्वाबों के पैरहन
दुआएं तड़पती रहीं
तमाम रात हथेलियों में
टूटा है आसमां से कोई तारा
आह ! इक बेबस सी लिए ...!!
************
अर्थ- १) मुंतज़िर- प्रतीक्षक
2)मानूस -परिचित
3)पैरहन - लिबास
Sunday, March 8, 2009
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:57 PM
मित्रो, शमा जी ब्लॉग पढ़ कर आ रही हूँ ...मन भीतर तक आहात है ....यह दो छोटी कवितायें उन्हीं को समर्पित हैं .....
(१)
सिसकता चाँद .....
रात आसमां में
इक सिसकता चाँद देखा
उसकी पाजेब नही बजती थी
चूड़ियाँ भी नहीं खनकती थीं
मैंने घूंघट उठा कर देखा
उसके लब सिये हुए थे .....!!
(२)
छूटती जाती ज़िंदगी .......
जीवन और मृत्यु
जैसे दो विपरीत दिशाओं से आकर
एक ही बिन्दु पर मिल गए हैं
दिल में आग की इक लपट सी है
और यह काली रात
बेड़ियों का गला दबा
ज़िन्दगी को छू लेना चाहती है
मैं हथेली की लकीरों को
कुरेदने लगती हूँ
खून की कुछ बूंदें रिसकर
अंगुलिओं की दरारों से
बहने लगतीं हैं
जैसे ज़िन्दगी हाथों से
छूटती जा रही हो ......!!
(१)
सिसकता चाँद .....
रात आसमां में
इक सिसकता चाँद देखा
उसकी पाजेब नही बजती थी
चूड़ियाँ भी नहीं खनकती थीं
मैंने घूंघट उठा कर देखा
उसके लब सिये हुए थे .....!!
(२)
छूटती जाती ज़िंदगी .......
जीवन और मृत्यु
जैसे दो विपरीत दिशाओं से आकर
एक ही बिन्दु पर मिल गए हैं
दिल में आग की इक लपट सी है
और यह काली रात
बेड़ियों का गला दबा
ज़िन्दगी को छू लेना चाहती है
मैं हथेली की लकीरों को
कुरेदने लगती हूँ
खून की कुछ बूंदें रिसकर
अंगुलिओं की दरारों से
बहने लगतीं हैं
जैसे ज़िन्दगी हाथों से
छूटती जा रही हो ......!!
Sunday, March 1, 2009
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
9:04 PM
ठहर जरा आसमां ज़ख्म ढक लेने दे कहीं तेरे आब से ये धुल न जायें .....!!
(१)
अपने अपने हिस्से का दर्द ....
बरसों तलक
अकेले ही
पीती रही
अपने हिस्से का दर्द
आज जब उनकी बारी आई
तो तलाशने लगे
मेरे ही आँचल का छोर
(2)
टूटती उम्मीद ....
रात बहते हुए अश्कों ने
पूछा मुझसे ...
जब बरसों तलक
न बही थीं तुम्हारी आँखें
फिर ये आज क्यों.....?
मैंने मुस्कुरा कहा....
अब इक उम्मीद सी
जगने लगी थी ....
(३)
दुःख ....
दुःख कभी खत्म नही होते
सिर्फ़ छद्दम वेश
धारण कर लेते हैं
किसी जादू के
पिटारे से .....
(4)
औरत हूँ ...
रात कुछ तारे
ज़मीं पे उतर आए
पूछने लगे ....
ये मोती क्यों ....?
मैंने कहा ....
औरत हूँ...!!
(५)
दर्द के नश्तर ......
कुछ अनसिये ज़ख्म
वक़्त बे वक़्त
सिसक उठते हैं
नासूर की टीस लिए
जब ....
यादों के कुछ टुकड़े
चुभो जाते हैं
दर्द के नश्तर ....!!
(१)
अपने अपने हिस्से का दर्द ....
बरसों तलक
अकेले ही
पीती रही
अपने हिस्से का दर्द
आज जब उनकी बारी आई
तो तलाशने लगे
मेरे ही आँचल का छोर
(2)
टूटती उम्मीद ....
रात बहते हुए अश्कों ने
पूछा मुझसे ...
जब बरसों तलक
न बही थीं तुम्हारी आँखें
फिर ये आज क्यों.....?
मैंने मुस्कुरा कहा....
अब इक उम्मीद सी
जगने लगी थी ....
(३)
दुःख ....
दुःख कभी खत्म नही होते
सिर्फ़ छद्दम वेश
धारण कर लेते हैं
किसी जादू के
पिटारे से .....
(4)
औरत हूँ ...
रात कुछ तारे
ज़मीं पे उतर आए
पूछने लगे ....
ये मोती क्यों ....?
मैंने कहा ....
औरत हूँ...!!
(५)
दर्द के नश्तर ......
कुछ अनसिये ज़ख्म
वक़्त बे वक़्त
सिसक उठते हैं
नासूर की टीस लिए
जब ....
यादों के कुछ टुकड़े
चुभो जाते हैं
दर्द के नश्तर ....!!
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