Sunday, March 22, 2009

अंगारों के बुझने तक जीने दे........!!

अंगारों के बुझने तक जीने दे........!!

अय ज़िन्दगी !
इक अजीब सा जिंदगीनामा है ये
जो तू लिख रही है नसीब पर
मेरे दर्द को आबाद करती

कल जब जुबां में
फ़िर इक कड़वा सच लिए
तू सामने खड़ी थी
मेरी रूह तेरे कहे लफ़्जों से
भीतर तक घायल होती रही

धुंएँ का इक गहरा गुब्बार
सीने को चीरता
कहीं अन्दर उतर गया
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही

भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!

57 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे ....
सुन्दर भावाभिब्यक्ति.

Anonymous said...

बेहतरीन रचना। मैं सोचता हूं कि जब तक जिंदगी रहे तब तक अंगारे दहकते रहें सीने में।

Yogesh Verma Swapn said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

bahut umda, dard se labrez, asha ki kiran.

संध्या आर्य said...

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे

yahi to jindgi hai.stabdh si ,apahij si ,gum si
............jindgi ke dard ko bahut hi badhiya jama pahanaya hai......bahut khub

"अर्श" said...

main kuchh kahane ke laayak nahi is rachana pe... dard ka ye pahalu...uffff...


arsh

MANVINDER BHIMBER said...

तुम मिले
तो कई जन्म मेरी नजम मे धड़के
फिर मेरी साँस ने तुमारि सांस का घुट पिया
तब मस्तक मे कई काल पलट गए

इरशाद अली said...

महान लोगों को पढ़ने का मौका मिल रहा है, और क्या कहूं। जिन्दगी पर आज ही दो शानदार नज्में जो पढ़ी। कहां से मिलती है इतनी ऊर्जा आप लोगों को। जब छोटा सा तब उस्तादों को पढ़ा था। आज अपने सामने पाता हूं तो हैरान होता हूं।

ओम आर्य said...

जिन्दगी दर्द को हिन् तो आबाद करने की मशीन है, जाने कब इसके कल-पुर्जे बिखरेंगे और कब इस दर्द से निजात मिलेगी.
इस दर्द के लिए 'बधाई' कहना ठीक रहेगा क्या?

बवाल said...

बस इतनी दुआ है
अय खुदा
अंगारों के बुझने तक
जीने दे
बहुत लाजवाब बात कही जी आपने।

के सी said...

पूरी कविता में से कुछ पंक्तियाँ चुनना , भला ये काम मैं क्यों करू? और आपको पढ़ कर मुझे कोई दूसरा शायर याद आ जाये भला इतने गए गुजरे भी नहीं आपके तौर तरीके... और ऐसा भी नहीं कि परवीन शाकिर और गुलजार जैसों की किताबें मिलना बंद हो गयी है कह तो मैं भी सकता हूँ कि उन्होंने कब क्या कहा! पर बात जब ईमानदारी से लेखन कि हो या फिर हरकीरत हकीर की हो तो इससे जुदा मेरे शब्द नहीं होते आप हमेशा अच्छा लिखती हैं जो दिल को कहीं ना कहीं से छू जाता है.

समय चक्र said...

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
बेहतरीन रचना .. बहुत लाजवाब..

Arvind Mishra said...

हूँ ! अव्यक्त पीडा की अकथ कहानी को अभिव्यक्त करते मार्मिक शब्द !

रश्मि प्रभा... said...

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
.........
bhawon me doobi rachna

ताऊ रामपुरिया said...

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!


बहुत ही सुंदर और लाजवाब. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

श्यामल सुमन said...

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!


सुन्दर प्रस्तुति। वाह। कहते हैं कि-

बाँटी हो जिसने तीरगी उसकी है बन्दगी।
हर रोज नयी बात सिखाती है जिन्दगी।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Vinay said...

बहुत सुन्दर मनो-दर्शन

---
चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें

कडुवासच said...

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!!!!

ਬਲਜੀਤ ਪਾਲ ਸਿੰਘ said...

Jindgi se rubru hona aapke himmat aur jazbaat ki khoobsurti hai....!!!

Unknown said...

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Jai..HO....

Prem Farukhabadi said...

Harkirat Haqeer ji ,

धुंएँ का इक गहरा गुब्बार
सीने को चीरता
कहीं अन्दर उतर गया
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही
bahut achchhi lagi.

seema gupta said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
" ye panktiyan anayas hi dil ko chu gyi....ek ummid ki kiran smete hain ye panktiyan.."

Regards

Dr. Tripat Mehta said...

bade hi sundar lafzo ko batora hai aapne...badha ho

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर भावाभिव्‍यक्ति ... आपको पढना अच्‍छा लगा।

Sanjay Grover said...

आपको परफैक्ट मैन बनना है या परफैक्ट वुमैन, हरिकीर्तन ‘लकीर के फकीर’ जी !

अनिल कान्त said...

दर्द से रूबरू करा दिया आपने

Dr.Bhawna Kunwar said...

सारी ही रचना साँस रोककर पढ़ती चली गई... बहुत खुबसूरत रचना ...कुछ पंक्तियाँ दिल को छू गई...

भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली

दिगम्बर नासवा said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

दर्द को और जिंदगी से किये उल्हाने को, बेबसी को बेहतरीन तरीके से उतारा है आपने इस रचना में. जिंदगी से जिंदगी को रोशन रखने की, जिन्दगी के अंगारों को बुझने की प्रतीक्षा करती बहूत सुन्दर अभिव्यक्ति

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

pata nahin aapne apna takhllus haqeer kyon rakha hai. blog ke aane se itna to hua ke aap jaise partibhayen saamne aa rhi hain.

प्रकाश पाखी said...

दर्द दिल के करीब हो तो लफ्जों में सांस होती है, ग़मों को जिन्दगी बना कर लिखी हर नज्म ख़ास होती है
सजदा कर जब रूह में उतर जाएँ गम-ऐ-जिन्दगी,
तब तू, तेरी दुआ औ इबादत खुदा के कुछ पास होती है
हरकीरत जी रचना भावपूर्ण एवं सुन्दर है, अगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा ...
साथ ही मेरी पोस्ट पर आपकी उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए आभार ....

राज भाटिय़ा said...

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
एक बहुत ही सुंदर रचना के लिये आप का धन्यवाद

Alpana Verma said...

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
-बड़ी ही खूबसूरती से शब्दों को 'कविता में अभिव्यक्ति देने उतार दिया है.
वाह! ati सुन्दर!

neera said...

एक और खूबसूरत दर्द!

Mumukshh Ki Rachanain said...

पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही

भाव-व्यक्ति की अच्छी मिसाल , सुन्दर रचना.......................

चन्द्र मोहन गुप्त

hem pandey said...

'बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!'
- यह बेबसी क्यों ?

रजनीश 'साहिल said...

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!

jeevan ki adbhut lalak dikhai di in panktiyon me. bahut sundar kavita.

Ashk said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें.
nirashaon ke madhya ashaon kee roshnee dikhatee ye panktiyaan apke ashavadee drishtikon kee parichayak hain
kavita ne bahut samay tak svyam mein duboye rakha.

सुशील छौक्कर said...

दर्द भरी, जिदंगी के करीब की यह रचना अपने साथ बाहा ले गई।
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!

मेरे वश में नही कुछ कहना शब्दों और भावों की जादूगर आप है मैं नहीं।

manu said...

हर कीरत जी,,,,,
हमेशा की तरह लाजवाब,,,,,,
मुझे कुछ मिला hi नहीं नया कमेंट करने के लिए,,,,
आपका स्तर बहुत ही ऊंचा है,,,
कमेंट सदा इतने ऊंचे नहीं हो पाते,,,,,
शुक्र है के आपके पास ऐसी कोई क्वालिटी नहीं है,,, के पल पल
,,आपको अपना रंग hi बदलना पड़े,,,,,
बहुत से लोग होते है,,, के जो भी देखा उसी पर लिख मारा,,,,जैसा मर्जी,,,,
पर आपके लिखे को हर बार पढ़ना अछा लगता है,,
नए दर्द को उकेरती है आपकी कलम,,

Dr. Amarjeet Kaunke said...

भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली

bahut hi dard bhara ahsas hai...nazam pathak k bhitar tak utar jati hai...amarjeet kaunke

Anonymous said...

I love every positive poems...
This one is really cute

अंगारों के बुझने तक जीने दे ...
और उसके बाद भी मुझे जीने दे...

रवीन्द्र दास said...

alfaz gum n the, aapne to shabdon se adhik kah diya. vah kya kavita hai! chhoo gai gahre tak

KK Yadav said...

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
बहुत सुन्दर अभिव्यक्तियाँ...बधाई !!
________________________________
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

डॉ .अनुराग said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!

well crafted....beautiful lines...so much positive feeling inspite of those wounds...encourageous....you are such a gem writer ...

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

हरकीरत जी ,
आपके हर शब्द ...हर वाक्य..को बार बार कई बार पढने का मन होता है ...
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली

बहुत ..कुछ सोचने को मजबूर करने वाली पंक्तियाँ .
हेमंत कुमार

गौतम राजऋषि said...

हम्म्म्म्म...क्या कहूँ सोच रहा हूँ
सोच रहा हूँ ये दर्द-दर्द जो आप उड़ेलती रहती हैं उस पर कुछ कहूँ
सोच रहा हूँ इस जिंदगीनामे के सारे वरक एक झटके में पढ़ लूँ

...फिर अल्फ़ाज़ सारे गुम हो जाते हैं

vijay kumar sappatti said...

harkirat ,
i think this is your original composition style ,let me say.. ki bahut dino ke baad ,phir se aapki kalam me wahi purani baat nazar aayi hai .. specially last ke 3 paragraphs:

मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!

is baar shabd ji uthe hai aur composition bhi thoughtful flow me move hoti hai ..
good ..very good work of words..
wah ..
dil se badhai sweekar karen ..

रविकांत पाण्डेय said...

बहुत अच्छा लगा आपके ब्लाग पर आकर। दिल को छू लेनेवाली मार्मिक रचना के लिये बधाई स्वीकारें।

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah...........

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत ख़ूब! लिखती रहिये।

Poonam Agrawal said...

bas itni dua hai....ay khuda ....angaaron ke bujhne tak jeene de....

Atyant sunder bhaav liye hai ye panktiyan....yuhi man ke bhavon ko panno per ootarte rahiye.....
Badhai

RAJ SINH said...

kitna kuch to kah diya sab ne. fir bhee tareef kam hee hai. aapke lekhan ka ehsas sirf mahsoos hee kiya ja sakta hai.
saral shabd .gahree vedna.

Arnold said...

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Gurinderjit Singh (Guri@Khalsa.com) said...

जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

Harkirat Ji,
सब्ज़ पत्ते zaroor खिलखिलायेगें..
This para is the fullfilment of pyas jo nazam mehsoos kar rhi thi..
As ususal! Beautiful and sensational as ever!

Kavi Kulwant said...

bahut khoob...

Anonymous said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

kumar zahid

kumar zahid said...

जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें

Anonymous said...

पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही

सुन्दर भावाभिब्यक्ति.