Friday, January 22, 2010
कुछ क्षणिकाएं ............
(१)
जहरीला धुंआ ...
नज्में भी चीखतीं हैं
अपने जिस्म की परछाई देख
कितना जहरीला था वो धुंआ
जो तुम उगलते रहे ....!!
(२)
फासलों की रातें....
देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही....
आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!
(३)
बदलती औरत ...
न हवा ने मिन्नतें की
न क़दमों पे गिरी
न की ख़ुदकुशी के लिए
की रस्सी की तलाश
बस चुपके से ....
कानून के आँखों की
बंधी पट्टी
खोल दी ...!!
(४)
मौत की मुस्कराहट ...
रात वह फिर आई ख़्वाब में
चुपके से रख गई
कुछ लफ्ज़ गई झोली में
मैंने देखा ....
मौत की मुस्कराहट
कितनी हँसी थी ...!!
(५)
तब तुझे मानूं....
कुछ परिंदे उड़ गए थे
कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी
इसमें रज़ा कोई
अय खुदा ...!
किसी दिन
ज़िस्म की कैद से भी
आज़ाद कर
तब तुझे मानूं....!!
(६)
ख़ामोशी ...
कपड़ों से
दाग धोते-धोते
उसकी ख्वाहिशें भी
सफ़ेद हो गई थीं
वह अब ...
लफ़्ज़ों से भी ज्यादा
खामोश रहने लगी है ..!!
(७)
खलिश....
यूँ करीब से
न गुजरा कर
अय सबा
तेरे क़दमों की
आहट भी
खलिश दे जाती है
कभी मुहब्बत ...
मेरे दर आई जो नहीं ...!!
Sunday, January 17, 2010
इमरोज़ का एक ख़त हीर के लिए.......... "
पारदर्शी वफा ही
वफा हुंदी है .......
आपणे आप लई वी
ते ज़िन्दगी दे
हर रिश्ते लई वी .........
इस बार जवाब जरा देर से आया ......ख़त वापस लौट आया था ....फोन किया तो कहते हैं ...." उसी कोरियर से तुरंत वापस भेजो मैं इन्तजार कर रहा हूँ "....पेश है वही नज़्म ...." इमरोज़ का एक ख़त हीर के लिए.......... "
वह इक अल्हड सी लड़की
अल्हड सी उम्र में
अक्षरों से खेलने लगी थी
खेलते खेलते
इक दिन उसे
अक्षरों से प्यार हो गया .....
जैसे जैसे वह जवान होती गई
अक्षर भी जवान होते गए
और अक्षरों के साथ-साथ
प्यार की चाहत भी ....
वह अभी
प्यार के बराबर नहीं हुई थी
कि किसी की प्यार के बराबर की नज़्म
उसने पढ़ ली .....
पढ़ते-पढ़ते जैसे वह हीर हो गयी
अब हीर को अपना आप
प्यार के बराबर होता नज़र आ रहा था
वह जब भी अपने आप को
प्यार के बराबर का देखती
उसे किसी बंसरी कि आवाज़
सुनाई देने लगती .....
बंसरी की आवाज़ सुनते ही वह
बुल्ले शाह की तरह
नाचते-नाचते गाने लगती .....
राँझा-राँझा कहती नी मैं
आपे राँझा हो गई
मुहब्बत के रंग में डूबा
हर दिल ... हीर भी है
और राँझा भी .......!!
Sunday, January 10, 2010
आकाशवाणी का सर्वभाषा कवि सम्मलेन व कुछ ब्लोगर मीट......
पहले का नाम याद नहीं दुसरे हैं सुभाष नीरव , लक्ष्मी शंकर बाजपेयी , अलका सिन्हा और मैं .....
जी हाँ , मैं बात कर रही हूँ आकाशवाणी की तरफ से कल गुवाहाटी में ६३ बरसों बाद हुए उस सर्वभाषा कवि सम्मलेन की ....जिसकी महक अभी तक रगों में दौड़ रही है .....देश भर से आये प्रतिष्ठित व् सम्मानित सर्वभाषाओं के २२ कवि और उतने ही उनके अनुवादक ....शाम ५ बजे से रात्रि ९ बजे तक चले इस कार्यक्रम का शुभारंभ होता है आकाशवाणी की महानिदेशिका अलका पाठक जी के दीप प्रज्वलन से ( जिनके लगभग २५ संकलन आ चुके हैं )....तदुपरांत सभी कवियों का सम्मान किया जाता है असमिया गमछा , राज्यिक पशु ' गैंडे' के प्रतिक चिन्ह और एक खुशबूदार गुलाब से .....!
संचालन करती तशरीह देती है दिल्ली आकाशवाणी के स्टेशन डाइरेक्टर लक्ष्मी शंकर बाजपेयी जी की मदहोश कर देने वाली कशिश आवाज़ ......
यह कार्यक्रम किसी न किसी प्रान्त में हर वर्ष आयोजित किया जाता है ....साल भर हर भाषा की ढेरों कविताओं में
से किसी एक कविता का चुनाव किया जाता है .....तदुपरांत ही उन कवियों को इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है ....कुछ हिंदी अनुवादक स्थानीय व् कुछ उन्हीं के प्रान्तों के .....इन चुनिन्दा कविताओं का तर्जुमा हर प्रान्त स्थानीय भाषा में भी किया जाता है ....मसलन असम में असमिया में , पंजाब में पंजाबी में , गुजरात में गुजराती में .....इस कार्यक्रम को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या रात्रि १० बजे आकाशवाणी से प्रसारित किया जाता है .....!
कविता पाठ आरम्भ होता है अभिराज़ राजेंद्र मिश्र जी की संस्कृत ग़ज़ल से जिसका हिंदी रूपांतर श्री राम कुमार lआत्रेय जी ने सस्वर पढ़ा .....तदुपरांत असमिया कविता की बारी थी जिसका अनुवाद मुझे पढना था ....अब मैंने कैसा पढ़ा या मेरी आवाज़ कैसी थी ये जानने के लिए आपको सुभाष नीरव जी के कमेन्ट का इन्तजार करना पड़ेगा.....जी हाँ मैं बात कर रही हूँ छ: छ: ब्लॉग चलाने वाले सुभाष जी
का.........सुभाष जी आ रहे हैं ये तो हमें कार्ड में छपे नामोंसे ही पता चल गया था .....फिर उनका फोन भी
आ चूका था यह जानने कि वहाँ ठण्ड कितनी है गर्म कपड़ों की जरुरत है या नहीं ....वगैरह वगैरह .......तस्वीर से थोड़े भिन्न पर फिर भी हमने एक दुसरे को पहचान लिया था .....बहुत ही मिलनसार और नम्रता इतनी की फख्र होने लगे .....!
खैर ........सारे कवियों में सबसे मधुर आवाज़ लगी कोकिला स्वर वाली अलका सिन्हा जी की ....(इनके तीन काव्य संकलन और एक कहानी संग्रह छप चुके हैं ) इन्होने कश्मीरी भाषा का अनुवाद पढ़ा ......उफ्फ्फ्फ़ ....आवाज़ इतनी कोमल और मीठी कि लगा सच-मुच कश्मीर की वादियों की सैर कर रहे हों .....और गुवाहाटी के कबीर जी कि दिलकश आवाज़ के जादू ने तो उन्हें तुरंत दिल्ली आकाशवाणी में न्योता दे दिया ....और अंत में हिंदी के प्रतिष्ठित कवि डा. बलदेव वंशी जी ( ६० से अधिक पुस्तकें )
की कविता' पत्थर भी बोलते हैं ' ने इतनी वाहवाही लूटी कि जी चाहा एक दो फरमाइश और रख दें पर यहाँ स्वीकृत कविताओं का ही पाठ था .....बाजपेयी जी की रोमानी आवाज़ में नज़्म सुनने की इच्छा भी पूरी हो गई .....उर्दू के कवि बशर नवाज़ जी नहीं पहुँच पाए थे उनकी नज़्म का पाठ स्वयं बाजपेयी जी ने किया ......
कुछ रोचक व् यादगार मुलाकातें .....
अपनासंकलन नहीं लाये कोई ...'' मैं पूछती हूँ ...
अमीरों की अँगुलियों में अंगूठी के लिए और जगह नहीं है
(१)
खेतों में फसल नहीं अब - रेत है
तालाबों में मछलियां नहीं - दरारें हैं
पर्वतों में नहीं बचे दरख्त- अग्नि है
पेड़ों में भी अब नहीं है परिंदे- बस रक्त है
शहर की अँगुलियों में अब नहीं बची जगह अंगूठी की
हिनहिनाती हुई मौत
पुकारती है
हर दिशा ....!!
( २)
हजारों लोग महज़
ख्वाबों में ही सो पाते हैं अब
आँखों की चाहत बन जाती है
सावन का आकाश
चमक उठती है मौत
बिल्ली की आँखों सी
तितलियों ने
फूलों के कानों में
चुपके से ये मंत्र फूंका
के अब जंगल भी समझने लगे हैं
तूफानों से जूझने की भाषा ...
क्षुधाग्नि ....
क्रोधाग्नि .....
मृतप्राय तृण पुनर्जीवित हो
अचानक बो देते हैं बीज प्रकाश के
मेढकों के गीत....
फसल बोने के गीत
जिन्हें सुन-सुन देखता रहूँगा मैं चिरदिन
आसमां में लिखे उस श्वेत गुलाब का
अनग्न अनंत यौवन ......!!
आप चाहें तो इस कार्यक्रम को आकाशवाणी में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या रात्रि १० बजे सुन सकते हैं .......
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अंत में एक त्रिवेणी .......
चनाब बहुत देर तक सांसों में बहती-उतरती रही ...!!
उपेन्द्र रैणा ,सुभाष नीरव जी , लक्ष्मी शंकर बाजपेयी जी , अलका सिन्हा और मैं
Sunday, January 3, 2010
टांक लेने दे उसे मोहब्बत के पैरहन पर इश्क़ का बटन ......!!
उछाले हैं कुछ मोहब्बत के अल्फाज़
जिसमें दस्तकें हैं चाहतों की
तेरे जिस्म के सन्नाटे
मुट्ठियों में भर लाई है सबा....
खोलती हूँ तो बिखर जाते हैं
कई कतरे इश्क़ के....
मैंने आसमां की ओर देखा
इक बड़ी प्यारी सी नज़्म थी
चाँद की झोली में .......
रब्बा.... !
ये औरत को ब्याहने वाले लोग
क्यों चिन देते हैं उसे दीवारों में .....?
आज मैंने भी लिखे हैं ....
कुछ जलते अक्षर स्याह सफ़्हों पर
तुम भी आना उस राख को सहेजने ....
के तेरे कन्धों पे चाँद ने हंसी बांटी है
के ज़मीं देखती है अब फूलों की सूरत
के इश्क़ अपना लिबास सीने लगा है ....
ठहर अय सुब्ह .....!
रात की सांसें रुकी हैं अभी
टांक लेने दे उसे
मोहब्बत के पैरहन पर
इश्क़ का बटन ......!!