तेरे आँगन की मिट्टी से
उड़कर
जो हवा आई है
साथ अपने
कई सवालात लायी है
अब न
अल्फाज़ हैं मेरे पास
न आवाज़ है
खामोशी
कफ़न में सिला ख़त
लायी है ...............
तेरे रहम
नोचते हैं जिस्म मेरा
तेरी दुआ
आसमाँ चीरती है
देह से बिछड़ गई है
अब रूह कहीं
तन्हाई अंधेरों का अर्थ
चुरा लायी है ..............
दरख्तों ने की है
मक्कारी किसी फूल से
कैद में जिस्म की
परछाई है
झांझर भी सिसकती है
पैरों में यहाँ
उम्मीद जले कपडों में
मुस्कुरायी है ............
रात ने तलाक
दे दिया है सांसों को
बदन में इक ज़ंजीर सी
उतर आई है
वह देख सामने
मरी पड़ी है कोई औरत
शायद वह भी किसी हकीर की
परछाई है ................!!
Sunday, February 15, 2009
Sunday, February 8, 2009
दर्द की दवा........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
9:06 PM
मित्रो कुछ दिन पहले मुझे शामिख फ़राज़ जी का मेल आया कि वे उन व्यक्तियों के लिए ब्लॉग बनाना चाहते हैं जिनका जीवन संघर्षों के बीच गुजरा है ताकि हम उनके जीवन से प्रेरणा ले सकें , जिसके लिए उन्होंने मुझे एक प्रेरणा दायक कविता लिखने का अनुरोध किया.... आप सब से अनुरोध है कि आप उनके ब्लॉग पर भी जायें और मुझे बतायें कि मैं उसमें कितनी सफल हो पाई हूँ .......!!
और अब पेश है इक नज़म ....''दर्द की दवा......."
दर्द की दवा........
तमाम रात मैं
अधमुंदी आंखों से
तारों की लौ में
टूटे शब्दों पर टंगी
अपनी नज़म
ढूंढती रही .....
मुस्कानों का खून कर
ज़िन्दगी भी जैसे
चलते - चलते
ख़ुद अपने ही कन्धों पर
सर रख
रो लेना चाहती है ....
मैंने
रात के आगोश में डूबते
सूरज से पुछा
चाँद तारों से पुछा
अंगडाई लेती
बहारों से पुछा
सभी ने
अंधेरे में रिस्ते
मेरे ज़ख्मों को
और कुरेदना चाहा ....
मैंने अधमुंदी पलकें
खोल दीं
गर्द का गुब्बार
झाड़ दिया
और अपनी
बिखरी नज्मों को
समेटकर
सीने से लगा लिया ....
यही तो है
मेरे दर्द की दवा
मैंने उन्हें चूमा
और अपने जिस्म का
सारा सुलगता लावा
उसमें भर दिया ....!!
और अब पेश है इक नज़म ....''दर्द की दवा......."
दर्द की दवा........
तमाम रात मैं
अधमुंदी आंखों से
तारों की लौ में
टूटे शब्दों पर टंगी
अपनी नज़म
ढूंढती रही .....
मुस्कानों का खून कर
ज़िन्दगी भी जैसे
चलते - चलते
ख़ुद अपने ही कन्धों पर
सर रख
रो लेना चाहती है ....
मैंने
रात के आगोश में डूबते
सूरज से पुछा
चाँद तारों से पुछा
अंगडाई लेती
बहारों से पुछा
सभी ने
अंधेरे में रिस्ते
मेरे ज़ख्मों को
और कुरेदना चाहा ....
मैंने अधमुंदी पलकें
खोल दीं
गर्द का गुब्बार
झाड़ दिया
और अपनी
बिखरी नज्मों को
समेटकर
सीने से लगा लिया ....
यही तो है
मेरे दर्द की दवा
मैंने उन्हें चूमा
और अपने जिस्म का
सारा सुलगता लावा
उसमें भर दिया ....!!
Sunday, February 1, 2009
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
11:01 AM
जब दर्द ने रो लेना चाहा ........
अय ज़िन्दगी !
पता नहीं तू भी
क्या क्या खेल खेलती है ....
आज बरसों बाद
जब दर्द ने
ख़ुद मेरे ही कन्धों पर
सर रख रो लेना चाहा है
तब
मेरी जीस्त के
तल्खियात भरे सफहों में
न प्रेम से भीगे वो शब्द हैं
न उन्स* भरे वो हाथ
अब एसे में
तुम ही कहो
मै कैसे उसे
सांत्वना दूँ ........!?!
उन्स* -स्नेह
अय ज़िन्दगी !
पता नहीं तू भी
क्या क्या खेल खेलती है ....
आज बरसों बाद
जब दर्द ने
ख़ुद मेरे ही कन्धों पर
सर रख रो लेना चाहा है
तब
मेरी जीस्त के
तल्खियात भरे सफहों में
न प्रेम से भीगे वो शब्द हैं
न उन्स* भरे वो हाथ
अब एसे में
तुम ही कहो
मै कैसे उसे
सांत्वना दूँ ........!?!
उन्स* -स्नेह
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