आज अमृता का जन्मदिन है ...वह अमृता जिसकी आत्मा का इक-इक अक्षर हीर के ज़िस्म में मुस्कुराता है ...जिसकी इक-इक सतर हीर की तन्हा रातों में संग रही है ... ये नज़्म मेरी उसी अमृता को समर्पित है ....
पर उससे पहले आपसे दो खुशखबरियाँ सांझा करना चाहूंगी ....
एक तो 'द सन्डे- इन्डियन ' विकली ( संपा. अरविन्द्र चौधरी ) में वर्ष २०११ की सर्वश्रेष्ठ महिला लेखिकाओं (लगभग ५०० प्रतिभागियों में )में हमारा नाम भी शुमार है ....
दुसरे आज के ही दिन 'हिंद-युग्म' ऑन लाइन मेरे काव्य-संकलन 'दर्द की महक' का विमोचन भी कर रहा है .....
यहाँ क्लिक कर आप हिंद-युग्म के विमोचन समारोह में भी पहुँच सकते हैं ....
अमृता के जन्म दिन पर .......
आज ...
ये कब्र कैसे खुल गई ...?
ये किसने मिट्टी का लेप कर
मुझे ज़िंदा कर दिया ....?
ये किस समुन्दर की प्यास थी
जो मिट्टी में दरार पड़ी ...?
दर्द और आंसुओं की इक आवाज़
उतर आई आज की तारीख में
इश्क की कोख में ज़ुहूर हुआ
रौशनी का इक कण
आकार ले उठा
आग की शक्ल में ...
खुदा की इक इबादत
अक्षरों की धड़कन बन गई
आज ये कब्र कैसे खुल गई .....?
ज़ुहूर- उत्पन्न
(इस बीच इस खुशखबरी के साथ एक दुखद समाचार भी मिला
हमारे ब्लोगर मित्र डॉ अमर कुमार जी अब नहीं रहे ... उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि .....)
(
Wednesday, August 31, 2011
Friday, August 19, 2011
कुछ क्षणिकाएं .....
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:19 PM
आज फिर कुछ क्षणिकाएं .....
शायद अगली बार कुछ तस्वीरें पेश करूँ , अभी मुझे मिली नहीं ...हाल ही में दूरदर्शन पे 'सदभावना' विषय पर काव्यगोष्ठी हुई ...विस्तार से अगली बार .....
कुछ क्षणिकाएं .....
(१)
इक कोठरी में लगे हैं जाले
इक कोठरी में खामोशी रहती है
इक कोठरी दर्द ने ले रखी है
इक कोठरी बरसों से बंद पड़ी है
कभी रहा करता था यहाँ प्रेम
सोचती हूँ तुम्हें दिल की
किस कोठरी में रखूं .....?
(२)
वो कभी-कभी ...
छिप-छिप कर मुस्कुराया करता
जब भी गुज़रती उसकी खिड़की के सामने से
गहरी नज़रों से तकता मुझे
इक दिन जा खड़ी हुई उसके सामने
पूछा- कौन हो तुम ....?
वह बोला - तुम्हारा प्रेम नहीं हूँ मैं
मैं थके क़दमों से
लौट आई ......!!
(३)
झील ...
कभी सोती नहीं
अक्सर तारे उतर आते हैं
उसकी छाती पर ...
अटखेलियाँ करते
केले के पेड़ों की नाव पर सवार
चूम लेते उसके बंद कमल
पर झील को उस तारे से प्रेम था
जो आसमां में अकेला ही चमकता था
धूमकेतु सा .....!!
(४)
वह .....
बहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
(५)
बहुत ढूंढा ....
कई बंद दरवाजे खटखटाए
झाड़ियों के पीछे ...
बाज़ारों में , दुकानों में ...
मेले में ....
उस मोंल में भी
जो अभी-अभी .....
चिड़िया घर के सामने खुला है
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
शायद अगली बार कुछ तस्वीरें पेश करूँ , अभी मुझे मिली नहीं ...हाल ही में दूरदर्शन पे 'सदभावना' विषय पर काव्यगोष्ठी हुई ...विस्तार से अगली बार .....
कुछ क्षणिकाएं .....
(१)
इक कोठरी में लगे हैं जाले
इक कोठरी में खामोशी रहती है
इक कोठरी दर्द ने ले रखी है
इक कोठरी बरसों से बंद पड़ी है
कभी रहा करता था यहाँ प्रेम
सोचती हूँ तुम्हें दिल की
किस कोठरी में रखूं .....?
(२)
वो कभी-कभी ...
छिप-छिप कर मुस्कुराया करता
जब भी गुज़रती उसकी खिड़की के सामने से
गहरी नज़रों से तकता मुझे
इक दिन जा खड़ी हुई उसके सामने
पूछा- कौन हो तुम ....?
वह बोला - तुम्हारा प्रेम नहीं हूँ मैं
मैं थके क़दमों से
लौट आई ......!!
(३)
झील ...
कभी सोती नहीं
अक्सर तारे उतर आते हैं
उसकी छाती पर ...
अटखेलियाँ करते
केले के पेड़ों की नाव पर सवार
चूम लेते उसके बंद कमल
पर झील को उस तारे से प्रेम था
जो आसमां में अकेला ही चमकता था
धूमकेतु सा .....!!
(४)
वह .....
बहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
(५)
बहुत ढूंढा ....
कई बंद दरवाजे खटखटाए
झाड़ियों के पीछे ...
बाज़ारों में , दुकानों में ...
मेले में ....
उस मोंल में भी
जो अभी-अभी .....
चिड़िया घर के सामने खुला है
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
Sunday, August 14, 2011
आज़ादी का गीत ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
9:55 PM
उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की नज़्म ‘लम्हा-ए-आज़ादी’ का एक बड़ा लोकप्रिय शेर है:
कि आज़ादी का इक लम्हा है बेहतर
ग़ुलामी की हयाते-जाविदाँ से
आइये हम इस आज़ादी को 'जश्ने आज़ादी' बनाएं और इसका लुफ्त उठाएं ......
मनायेंगे ज़मीने -हिंद पर हम ज़श्ने आज़ादी
वतन के इश्क में हम सरों का ताज रखेंगे
बहा दो दिलों की रंजिशें
अमन की करो कुछ बात
सजी है ज़मीं तिरंगों से
आज़ादी का ज़श्न लिए आज
कुछ ख्वाहिशें हों कुछ ख्वाब हों
साथ चलने की आवाज़ हो
कुछ रस्में - ईद दस्तूर हों
कुछ होली,दिवाली का सरूर हो
कोई प्यार हो, इकरार हो
खफ़ा-रुसवा न कोई यार हो
टूटे घरौंदे , तुम जोड़ लो
गांठें दिलों की , तोड़ दो
न खंज़र हो न तलवार हो
मीठी प्यार की बयार हो
तेरे दर्द से होऊँ मैं दुखी
मेरा दर्द तेरे दिल के पार हो
मेरी साँसें माँ के नाम हो
तेरी जां वतन के काम हो
मैं जिऊँ तो देश की शान में
तू मरे तो देश की आन में
आज़ाद हैं हम, आज़ाद वतन
मत छिटको जहरीले बीज तुम
कोई चुरा न ले जाये हँसी इसकी
मत फेंको ऐसी चिंगारियाँ तुम
ज़ख़्मी हैं अभी भी रूहें इसकी
है धुंएँ में लिपटी यादें इसकी
अब और न करो लाशों की बात
कुछ तो करो अमन की बात
सजी है ज़मीं तिरंगों से
आज़ादी का जश्न लिए आज
बहा दो दिलों की रंजिशें
अमन की करो कुछ बात .
जय- हिंद ,जय भारत
Thursday, August 4, 2011
अपनी एक मित्र सर्जना के नाम ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
4:16 PM
कब्र की दीवारों से
हँसी छूटी कि...
हँसी के एवज में
फिर इक रात मर गई .....
बेतरतीब से पड़े सफ़्हों पर नज़्म तड़प-तड़प के साँसे ले रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी .....
हैलो ....आप हरकीरत 'हीर' जी बोल रही हैं ...?
जी ... ...
आप वही हैं न जो पहले हरकीरत 'हक़ीर' के नाम से लिखती थीं ....?
जी ... :) ...वही हूँ .... !
पहचाना ....?
नहीं ...
याद कीजिये ...बरसों पहले हम अज़ीज़ मित्र हुआ करती थीं .....एक साथ कवि गोष्ठियों में जाना ...सम्मेलनों में जाना, मुशायरों में जाना .....हम काफी अन्तरंग मित्र रह चुकी हैं ......
स्मृतियों में कुछ धुंधलके से चित्र उभरने लगे ....कुछ कब्रे जिन पर कई वर्षों से मिट्टी डाल चुकी थी आज बदन से मिट्टी झाड़ने लगीं थीं .....
कुछ याद आया ....?
नहीं .....
मैं कुछ और याद दिलाऊँ ...?
................
जय हिंद ...!
आपको याद है हमारी मुलाकात हमेशा 'जय-हिंद' से हुआ करती थी ....
.................
कुछ और ......?
जब पुस्तकालय में पहली बार आपकी नज्मों की समीक्षा हुई थी ...पत्रकारों के सवालों के बीच आप बेहद घबरा गई थीं तब मैंने ही तो संभाली थी सारी स्थिति .....वरना आपकी ऐसी-तैसी हो जाती ....उसने चुहलबाजी की ....और फिर घर आकर हम खूब हँसे थे ...... :)
कुछ याद आया .....?
हाँ ....कुछ- कुछ .....तुम रविकांत के काफी करीब थी ....कुछ याद करते हुए मैंने कहा ....और मैना थापा के भी ....
वह मुस्कुरा पड़ी .....
'हाँ ....मैं वही रीता सिंह हूँ.....
रीता सिंह ......?
नहीं तब शायद तुम किसी और नाम से लिखती थी ....
हाँ ....'सर्जना' .....सर्जना के नाम से .....
धुंधलके से छंट कर एक दुबली पतली नाटी सी खूबसूरत नेपाली लड़की सामने आ खड़ी हुई थी ....
हैरानी से पूछा , '' इतने सालों बाद ....?''
हाँ ....मेरे एक मित्र ने तुम्हारा न. दिया और बताया कि तुम किसी 'सरस्वती-सुमन' नामक पत्रिका का सम्पादन कर रही हो .....
हाँ ....एक अंक की अतिथि संपादिका हूँ .....
पर मैं हैरान थी इस सम्पादन ने मुझे बरसों बिछड़ी सखी से मिलवा दिया ...
पर तुम्हारे ये मित्र हैं कौन ....जानूँ तो ....?
मैं यकदम से अपनत्व पर आ गई थी .....
लखनऊ के हैं ..'राजेन्द्र परदेसी जी ' ....वह मुस्कुरा कर बोली ....
अरे हाँ ...! ....मुझे याद आया अभी पिछले ही दिनों वे सिलचर आये हुए थे ...मुझे फोन भी किया , पर मैं मिल नहीं पाई ....उनकी तो क्षणिकाएं भी आ चुकी हैं ..
उनका साक्षात्कार मैंने ही लिया था वह बोली ....सेंटिनल में छपा था तुमने देखा होगा ....?
नहीं मैं सेंटिनल नहीं लेती .....
फिर लम्बी बातचीत चलती रही .वह मुस्कुरा रही थी ....हँस रही थी ...खिलखिला रही थी ......उसने बताया वह कहीं फारेस्ट डिपार्टमेंट में जाब कर रही है ...शौहर आर्मी में हैं ...दो बेटियाँ हैं .....और ....और ....कि उसे कैंसर है ....युट्रेस में सिस्ट है ... गाल ब्लैडर में स्टोन है .....
मुझे लगा कि किसी ने मुझे बहुत ऊँची ईमारत से नीचे धकेल दिया हो ...मेरी साँसे तेज होती जा रही थीं ...डर रही थी कि कहीं वह कह न दे कि तुम किस दर्द का छलावा लिए बैठी हो ...जीना तो मुझ से सीख .....
अचानक तूफ़ान के साथ तेज बारिश होने लगी ...मैंने अपनी आवाज़ बिजली की कड़कड़ाहट में गुम कर ली .... .मेरे सारे प्रश्न उसकी मुस्कराहट के आगे शर्मिंदा थे .....रात कई चेहरों में गुजरती रही ...रविकांत , दिनकर , सौमित्रम , शमीम , प्रेमलता ...सर्जना ....यादें स्मृतियों के बाहुपाश में मुस्कुराती , आँसू भरती रहीं ....उन दिनों खूब कविगोष्ठियाँ हुआ करती थीं ..लिखने का भी जूनून था ..सर्जना कविताओं के साथ कहानियाँ भी लिखा करती ...बहुत ही मिलनसार ...पलभर में ही किसी के यूँ नजदीक आ जाती जैसे बरसों से जान - पहचान हो ...वर्ना मुझ जैसी ख़ामोशी पसंद तो सिर्फ धुआं ही तलाशती रहती .... न जाने कब , कैसे इतनी गहरी दोस्ती हो गई थी हमारी ...
सुब्ह सोकर उठी तो लगा कुछ गलत हो गया ...उन दिनों सर्जना की एक नज़्म मुझे बेहद पसंद थी सोचा क्यों न आज उसी के बहाने उसे फोन करूँ और आग्रह करूँ सुनाने का ....फोन किया तो पता चला कि वह अस्पताल में है ...पर उसकी मुस्कराहट फिर मेरी हँसी उड़ा रही थी .....
तुम्हें याद है सर्जना ...तुम्हारी एक कविता मुझे बेहद पसंद थी 'कफ़न' शीर्षक' की ...मैं अक्सर तुम्हें सुनाने का आग्रह करती .....?
अरे ...! छोड़ न उसे ...सुन मैंने अभी-अभी अस्पताल में एक कविता लिखी है ...उसे सुन .....
ज़िन्दगी की है
चाहत मुझे
फिर क्यों डरूँ...?
मैं कष्टों से
जीवन की तकलीफों से
संकट से , बाधाओं से
जो करतीं हैं ...
निराश मन को
बन जाता है निर्बल भाव
और टूटने लगता है विश्वास
मुझे ज़िन्दगी से प्यार है
जीना चाहती हूँ मैं
साहस से ...
दुःख-कष्टों को लघु करके
धीरज को बढाती हूँ मैं
तो .....
स्वयं बौने हो जाते हैं दुख
मेरी सहनशक्ति के सामने
और फिर एक बार
जीत जाती है
ज़िन्दगी ......!!
मैंने धीमें से फोन रखा और सारी कब्रें खोल दीं और अपने दर्द तलाशने लगी .....
हँसी छूटी कि...
हँसी के एवज में
फिर इक रात मर गई .....
बेतरतीब से पड़े सफ़्हों पर नज़्म तड़प-तड़प के साँसे ले रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी .....
हैलो ....आप हरकीरत 'हीर' जी बोल रही हैं ...?
जी ... ...
आप वही हैं न जो पहले हरकीरत 'हक़ीर' के नाम से लिखती थीं ....?
जी ... :) ...वही हूँ .... !
पहचाना ....?
नहीं ...
याद कीजिये ...बरसों पहले हम अज़ीज़ मित्र हुआ करती थीं .....एक साथ कवि गोष्ठियों में जाना ...सम्मेलनों में जाना, मुशायरों में जाना .....हम काफी अन्तरंग मित्र रह चुकी हैं ......
स्मृतियों में कुछ धुंधलके से चित्र उभरने लगे ....कुछ कब्रे जिन पर कई वर्षों से मिट्टी डाल चुकी थी आज बदन से मिट्टी झाड़ने लगीं थीं .....
कुछ याद आया ....?
नहीं .....
मैं कुछ और याद दिलाऊँ ...?
................
जय हिंद ...!
आपको याद है हमारी मुलाकात हमेशा 'जय-हिंद' से हुआ करती थी ....
.................
कुछ और ......?
जब पुस्तकालय में पहली बार आपकी नज्मों की समीक्षा हुई थी ...पत्रकारों के सवालों के बीच आप बेहद घबरा गई थीं तब मैंने ही तो संभाली थी सारी स्थिति .....वरना आपकी ऐसी-तैसी हो जाती ....उसने चुहलबाजी की ....और फिर घर आकर हम खूब हँसे थे ...... :)
कुछ याद आया .....?
हाँ ....कुछ- कुछ .....तुम रविकांत के काफी करीब थी ....कुछ याद करते हुए मैंने कहा ....और मैना थापा के भी ....
वह मुस्कुरा पड़ी .....
'हाँ ....मैं वही रीता सिंह हूँ.....
रीता सिंह ......?
नहीं तब शायद तुम किसी और नाम से लिखती थी ....
हाँ ....'सर्जना' .....सर्जना के नाम से .....
धुंधलके से छंट कर एक दुबली पतली नाटी सी खूबसूरत नेपाली लड़की सामने आ खड़ी हुई थी ....
हैरानी से पूछा , '' इतने सालों बाद ....?''
हाँ ....मेरे एक मित्र ने तुम्हारा न. दिया और बताया कि तुम किसी 'सरस्वती-सुमन' नामक पत्रिका का सम्पादन कर रही हो .....
हाँ ....एक अंक की अतिथि संपादिका हूँ .....
पर मैं हैरान थी इस सम्पादन ने मुझे बरसों बिछड़ी सखी से मिलवा दिया ...
पर तुम्हारे ये मित्र हैं कौन ....जानूँ तो ....?
मैं यकदम से अपनत्व पर आ गई थी .....
लखनऊ के हैं ..'राजेन्द्र परदेसी जी ' ....वह मुस्कुरा कर बोली ....
अरे हाँ ...! ....मुझे याद आया अभी पिछले ही दिनों वे सिलचर आये हुए थे ...मुझे फोन भी किया , पर मैं मिल नहीं पाई ....उनकी तो क्षणिकाएं भी आ चुकी हैं ..
उनका साक्षात्कार मैंने ही लिया था वह बोली ....सेंटिनल में छपा था तुमने देखा होगा ....?
नहीं मैं सेंटिनल नहीं लेती .....
फिर लम्बी बातचीत चलती रही .वह मुस्कुरा रही थी ....हँस रही थी ...खिलखिला रही थी ......उसने बताया वह कहीं फारेस्ट डिपार्टमेंट में जाब कर रही है ...शौहर आर्मी में हैं ...दो बेटियाँ हैं .....और ....और ....कि उसे कैंसर है ....युट्रेस में सिस्ट है ... गाल ब्लैडर में स्टोन है .....
मुझे लगा कि किसी ने मुझे बहुत ऊँची ईमारत से नीचे धकेल दिया हो ...मेरी साँसे तेज होती जा रही थीं ...डर रही थी कि कहीं वह कह न दे कि तुम किस दर्द का छलावा लिए बैठी हो ...जीना तो मुझ से सीख .....
अचानक तूफ़ान के साथ तेज बारिश होने लगी ...मैंने अपनी आवाज़ बिजली की कड़कड़ाहट में गुम कर ली .... .मेरे सारे प्रश्न उसकी मुस्कराहट के आगे शर्मिंदा थे .....रात कई चेहरों में गुजरती रही ...रविकांत , दिनकर , सौमित्रम , शमीम , प्रेमलता ...सर्जना ....यादें स्मृतियों के बाहुपाश में मुस्कुराती , आँसू भरती रहीं ....उन दिनों खूब कविगोष्ठियाँ हुआ करती थीं ..लिखने का भी जूनून था ..सर्जना कविताओं के साथ कहानियाँ भी लिखा करती ...बहुत ही मिलनसार ...पलभर में ही किसी के यूँ नजदीक आ जाती जैसे बरसों से जान - पहचान हो ...वर्ना मुझ जैसी ख़ामोशी पसंद तो सिर्फ धुआं ही तलाशती रहती .... न जाने कब , कैसे इतनी गहरी दोस्ती हो गई थी हमारी ...
सुब्ह सोकर उठी तो लगा कुछ गलत हो गया ...उन दिनों सर्जना की एक नज़्म मुझे बेहद पसंद थी सोचा क्यों न आज उसी के बहाने उसे फोन करूँ और आग्रह करूँ सुनाने का ....फोन किया तो पता चला कि वह अस्पताल में है ...पर उसकी मुस्कराहट फिर मेरी हँसी उड़ा रही थी .....
तुम्हें याद है सर्जना ...तुम्हारी एक कविता मुझे बेहद पसंद थी 'कफ़न' शीर्षक' की ...मैं अक्सर तुम्हें सुनाने का आग्रह करती .....?
अरे ...! छोड़ न उसे ...सुन मैंने अभी-अभी अस्पताल में एक कविता लिखी है ...उसे सुन .....
ज़िन्दगी की है
चाहत मुझे
फिर क्यों डरूँ...?
मैं कष्टों से
जीवन की तकलीफों से
संकट से , बाधाओं से
जो करतीं हैं ...
निराश मन को
बन जाता है निर्बल भाव
और टूटने लगता है विश्वास
मुझे ज़िन्दगी से प्यार है
जीना चाहती हूँ मैं
साहस से ...
दुःख-कष्टों को लघु करके
धीरज को बढाती हूँ मैं
तो .....
स्वयं बौने हो जाते हैं दुख
मेरी सहनशक्ति के सामने
और फिर एक बार
जीत जाती है
ज़िन्दगी ......!!
मैंने धीमें से फोन रखा और सारी कब्रें खोल दीं और अपने दर्द तलाशने लगी .....
……….
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