Friday, May 11, 2012

मोहब्बत का फूल .......

पिछले दिनों जो इमरोज़ जी पर पोस्ट लिखी , वह यहाँ के दैनिक समाचार पत्र में भी छपी   ...मैंने  उसकी कटिंग इमरोज़ जी को  भेजी थी  .....जवाब में उन्होंने तुरंत  ५,६ पृष्ठों की  एक  लम्बी  नज़्म लिखकर भेजी ...नज़्म क्या थी हीर के लिए मोहब्बत से भीगे अल्फ़ाज़  थे  ...मैं पढ़ती गई और भीगती  गई ...इमरोज़ जी का अपनत्व ये स्नेह ...? शायद इसमें भी रब्ब की कोई रज़ा हो ....रब्ब जाने .......नज़्म पंजाबी में थी ..(.वे पंजाबी में ही लिखते हैं )....सारी नज़्म को यहाँ दे पाना  मुश्किल है ...अंतिम पन्ने का ही अनुवाद कर यहाँ पेश कर रही हूँ ......


रांझे की हीर को
लिखना आता था या नहीं
पता नहीं ....
पर मेरी हीर को लिखना आता है ...
और  शीशा  बनना भी आता है
आज जब मैंने  उस शीशे में देखा
अपने आप की जगह
या तो हीर दिखी या रब्ब दिखा.......

ज़िन्दगी भी हीर है और कलम भी

हीर कलम से ज़िन्दगी लिख .....
                      इमरोज़ .......


मेरा जवाब इमरोज़ जी के लिए ........
मरोज़ ....
आँखें बह चली हैं
कितनी ही बार मैं तुम्हारे लिखे
इक-इक हर्फ़ को पढ़ती रही, चूमती रही
कितना सादा था यह लम्हा
मैंने हर लम्हे को अँगुलियों के पोरों से
छुआ और सहलाया है  ....
और फिर इनके साथ
कई-कई बार मैंने
अपना जन्मदिन मनाया....
तुमने ही तो कहा था
मोहब्बत का जन्मदिन
हर रोज़ होता है ......

वक़्त खड़ा कभी मुस्कुरा कर
मुझे देखता रहा और कभी मैं वक़्त को .....

मैंने ....
ख्यालों ही ख्यालों में कुछ फूल चुने
हर फूल सादगी का ज़िस्म था
ठीक उसी तरह जैसे तुम्हारे ख़त की
इक-इक सतर ...
.मैंने ग्रन्थ के चार फेरे लिए
और सारे फूल उसके रूमाले* में डाल दिए
आज तक मुझे' हीर' होना समझ न आया था
पर आज मैं समझ गई थी
हीर होना भी और राँझा होना भी .....

पता है ...?
आज ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत दिन है
रब्ब से भी ज्यादा  खुबसूरत ...
ज़िन्दगी से भी ....
अपने आप से भी ...
आज न लफ़्ज़ों की जरुरत है ,
न पानी की ,न हवा की और न ही रोटी की ....
आज किसी चीज की भूख नहीं ....

आज तुम्हारे ख़त में लिखा
ये मोहब्बत का....
इक-इक अक्षर मेरा है ...
सांसों की तरह पाक और साफ
तहज़ीब तक ले जाता हुआ
सच्च ...! मोहब्बत फूल भी है , खुशबू भी
और ज़िन्दगी भी .....
 कुदरत की सबसे खूबसूरत सोच है मोहब्बत......
आज मैंने अपने आपको
इक फूल भेंट किया है
मोहब्बत का फूल .......
इमरोज़...!
वक़्त भले ही मेरे साथ चले न चले
मैं मोहब्बत के साथ चल पड़ी हूँ ....
हाँ इमरोज़...!
मैं मोहब्बत के साथ चल पड़ी हूँ ........!!

                                        हीर.......


रूमाले*- गुरु ग्रन्थ साहिब के ऊपर डाली गई चादर