Friday, February 26, 2010

कुछ रफ़ाकत के रंग ......कुछ मुहब्बत के फूल .....कुछ तल्ख़ हवाओं से गुंजारिश और अदब की चुनरी होली में ..........

भी पिछले वर्ष की ही तो बात है .....यही दिन था होली का ......आँखें जाने किसकी तलाश में थीं .....दूर कहीं गुलाल उड़ते देखा तो कदम यूँ ही चल पड़े उधर .....बरसों हो गए होली खेले .......शायद कुछ छींटे पड़ जायें .....या कोई सिरफिरा रंग डाल धीरे से कह दे ....''बुरा मानों होली है ...'''.....बचपन की कुछ यादें हैं होली की बस......बीजी रसोई संभाल रही होतीं तो पापा पीछे से जाकर चुपके से रंग देते उसे......रोमानियत के कई रंग उतर आते बीजी के चेहरे पर झूठ-मुठ के गुस्से के साथ ....और हमारी मुस्कुराहटें खिल उठतीं .....दो दिन पहले सुबीर जी का ब्लॉग होली के रंग में सराबोर देखा ......विचित्र शक्लों में कुछ 'नामचीन' ब्लोगर.....मन गुदगुदा गया .....सुबीर जी की बात आई तो उनके लिए सम्मान सिमट आया ....अभी हाल ही में उनके उपन्यास ''ये वो शहर तो नहीं '' को ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन पुरस्कार की घोषणा डा. नामवर सिंह जी ने की .....उन्हें बधाई ये मुकाम हासिल करने के लिए ........
इस बार ...कुछ रफ़ाकत के रंग ......कुछ मुहब्बत के फूल .....कुछ तल्ख़ हवाओं से गुंजारिश और अदब की चुनरी होली में ..........


(१)

रफ़ाकत के रंग ......


मैंने घोले हैं
कई रफ़ाकत* के रंग पानी में
आओ धो लें ......
अपनी - अपनी अदावतें* इसमें
शायद अबके खिल आये
शोख रंग गालों पे.......

(२)

मुहब्बत के फूल........


मैंने बीजे हैं
कुछ मुहब्बत के फूल
अबके होली में .....
इन्हें सींचना तुम
वो सुर्ख रंग
जो तलाशते थे तुम
इन्हीं में है ......

(३)

कुछ तल्ख़ हवाओं से गुंजारिश .....


जब भी छूती हूँ
रौशनी के रंग
कुछ खंडहर हुए
उदासी के रंग
साथ हो लेते हैं ......
अय तल्ख़ हवाओ
अबके ....
गुजर जाना जरा
किनारे से .......

(४)

आँखों में दफ़्न हैं ......


इन आँखों में
दफ़्न हैं ....
हजारों रंग मुहब्बत के
कभी फुर्सत मिले
तो पढना इन्हें
फासले कम हो जायेंगे .....

(५)

अदब की चुनरी .....


मैंने रंग ली है चुनरी
अदब* के रंगों से ....
जब ओढती हूँ इसे
दर्द का रंग
उतर जाता है ......

रफ़ाकत- मित्रता , अदावत - दुश्मनी, अदब-साहित्य

Tuesday, February 16, 2010

कुछ कड़वाहटें ...ख़ामोशी ...और रब्ब से इक सवाल .........

तू हादसों की तफ़सील सुनाती रही ज़िन्दगी
मैं रफ्ता-रफ्ता तुझे तलाक देती रही .....




कुछ कड़वाहटें ....ख़ामोशी ....और रब्ब से इक सवाल .........


(१)

ख़ामोशी की गलियों में ......


कुछ दिन गुजारे हैं फिर
ख़ामोशी की गलियों में
वहाँ पेड़ों की छाया नहीं थी
सांसों का भी कोई पता नहीं

बस पत्ते पैर छूते रहे .......

(२)

तड़पती है काया .....

सफ़्हों पे तड़पती है
हर्फों की काया
कई दिनों से वह* मुझे
घूँट-घूँट जो पीती रही .....

वह* - मौत
(३)

कड़वाहटें .....

मैंने घोल दीं हैं हवाओं में
सारी कड़वाहटें उम्रों की
अब यहाँ कोई पत्ता
इश्क़ का नहीं खिलता
कांपती है जुबाँ मोहब्बत के नाम से
कई छाले इश्क़ के बदन से
फूटते हैं ......

(४)

मन की लाशें ....


जब मन की लाशें
डूबती हैं कुएं में
रस्सी पीटती है छाती
मौत हिफाजत से रखती है पैर
रूहें अपना वंश बढ़ाने लगती हैं
इक पत्थर धीरे-धीरे तोड़ता है चूडियाँ
सांसों की .......

(५)

मौत.......

तुमने देखी है
नीली आँखों वाली
सुनहरी मौत .....?
मैंने बांध रखी है
हथेली पे ......

(६)

रब्ब से सवाल ......

बीजती हूँ सवाल
तो उग आता है पसीना
रब्बा तेरी दुनियाँ की किसी कोख में
जवाब नहीं उगते क्या .....?

(७)

मर्सिया.....

जब भी उठता है
धुआँ लफ़्ज़ों में
ज़िस्म की चिता जलने लगती है
धीरे-धीरे हवाएं गाने लगतीं हैं
मर्सिया .......