Tuesday, December 20, 2011

जितेन्द्र जौहर के ‘सफ़र’ ने सौंपा एक ‘अभूतपूर्व साहित्यिक दस्तावेज’

जितेन्द्र जौहर के ‘सफ़र’ ने सौंपा एक ‘अभूतपूर्व साहित्यिक दस्तावेज’
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(समीक्षा त्रैमा. ‘सरस्वती-सुमन’/मुक्तक विशेषांक, अक्तू.-दिस.-११)



त्रैमा. ‘सरस्वती-सुमन’ (देहरादून) का ‘मुक्तक-विशेषांक’ (अक्‍टू.-दिस.-11) मेरे हाथों में है- आठ देश, नौ भाषाएँ, ५४ औज़ान और लगभग तीन सौ रचनाकारों के मुक्तक-रुबाइयाँ-क़त्‍आत्‌... यह है- अतिथि संपादक जितेन्द्र ‘जौहर’ जी की एक वर्ष की कड़ी मेहनत का श्रीफल...! इस विशेषांक को ‘जौहर’ जी ने तर्कपूर्ण ढंग से ‘मुरुक़ विशेषांक’ कहकर एक नया एवं सटीक शब्द गढ़ा है- ‘मुरुक़’ (यानी ‘मु+रु+क़’), जिसे प्रधान संपादक डॉ. आनन्दसुमन सिंह जी ने भी ‘मेरी बात’ में रेखांकित किया है।

ग़ौरतलब है कि इस विशेषांक ने अपने प्रकाशन के एक महीने के अन्दर ही लोकप्रियता की नयी ऊँचाइयों का स्पर्श किया है। उप्र हिन्दी संस्थान, लखनऊ के ‘निराला सभागार’ में इसके भव्य विमोचन का समाचार प्रिंट तथा इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में आते ही साहित्य-जगत में इसकी भरपूर माँग होने लगी थी। माँग तो होनी ही थी...आख़िर यह एक ‘अभूतपूर्व साहित्यिक दस्तावेज’ जो है...‘मुरुक़ दस्तावेज’...मुक्तक+रुबाई+क़ता का ‘विश्‍वकोश-सा’! एक-साथ तीन-तीन पीढ़ियों के कवियों की रचनात्मक उपस्थिति में आख़िर 1500 से अधिक मुक्‍तक/क़त्‍आत और 200 से अधिक विलक्षण प्रयोगवादी रुबाइयाँ किसी एक ही ग्रंथ में एक-साथ कहाँ मिल सकेंगी? इसमें ‘हाइकु रुबाइयाँ’, आदि बहुत कुछ ऐसा भी शामिल है, जो हिन्दी-उर्दू साहित्य में पहली बार प्रकाशित हुआ है...कमाल की खोज की है- जितेन्द्र ‘जौहर’ जी ने!

आज जब मैं खुद भी इस कार्य को लेकर बैठी हूँ, तो समझ सकती हूँ कि यह अतिथि-संपादन... वो भी ‘विशेषांक’ का कार्य... कितना मुश्किल है... ख़ासकर ‘मुक्तक विशेषांक’ तो और भी क्योंकि इसमें मात्राओं, वज़्न, लय, आदि का भी ध्यान रखना पड़ता है.... तिस पर भी जितेन्द्र जी का यह लिखना कि- ‘अभी-अभी लौटा हूँ, 'मुरुक-प्रदेश' की एक ‘रोचक’ यात्रा से...’ उनकी क़ाबलियत और विद्वता को दर्शाता है क्योंकि इस यात्रा को 'रोचक' तो वही लिख सकता है, जो खुद इसमें पारंगत हो, निपुण हो... और यह सत्य भी है। इस विशेषांक में जितेन्द्र जी ने न केवल विभिन्न साहित्यकारों, रुबाईकारों और स्वयं मुक्तक, रुबाई और क़ता की विस्तृत जानकारियाँ दीं, बल्कि 'मुरुक-संग्रहों' की एक शोधपूर्ण सूची को सामने रखा जो कि निश्‍चित रूप से विद्वानों, जिज्ञासुओं और शोधार्थियों के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। इसके अलावा इस ‘मुरुक़ विशेषांक’ में ‘जौहर’ जी ‘विविध भाषा वाटिका, दूर देश से, विनम्र श्रद्धांजलि, पर्यावरण, हास्य-व्यंग्य, नारी, दोहा-मुक्तक, हाइकु-मुक्तक’ आदि-आदि विभिन्न आयाम जोड़ दिये हैं...इसे लम्बे समय तक याद रखा जायेगा।

जितेन्द्र जी को मैं इस कार्य के लिए सलाम करती हूँ क्योंकि आसान नहीं था उनका ये ‘सफ़र’... वो भी इतनी लम्बी व अलग-अलग प्रयोगवादी मुक्तकों की यात्रा... सिर्फ़ यात्रा ही नहीं, बल्कि वे यात्रा के साथ-साथ उसका भूगोल, इतिहास और व्याकरण भी बताते गये जिसके लिए जितेन्द्र जी मेरी बधाई के वास्तविक हक़दार हैं... यह एक बेजोड़/अभूतपूर्व विशेषांक है... संभवत: भारत में अपनी तरह का यह पहला विशेषांक है, जिसमें इतने प्रयोगवादी मुरुक़ (मुक्तक-रुबाई-कता) एक साथ प्रकाशित हुए हैं- हाइकु रुबाइयाँ, मुहावरेदार, सन्‌अते‍-मुसल्लस , ज़ंजीर, ज़ुल/सह्‌-काफ़्तैन, फ़ाईलुन, मुर्सरा, एकाक्षरांतर रुबाइयाँ आदि। इसके अलावा इसमें संस्कृत, उर्दू, भोजपुरी, अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, पंजाबी, नेपाली मुक्तकों को भी बानगी के तौर पर पेश किया गया है। ...और जहाँ तक मुक्तकों का प्रश्‍न है, तो कहना पड़ेगा- ‘माशाल्लाह! चुन-चुन कर रखे हैं जौहर जी ने, जो कि पाठको व मंच-संचालकों के लिए एक अनुपम भेंट साबित होंगे। स्वयं अतिथि-संपादक जितेन्द्र ‘जौहर’ जी के मुक्तक/क़ता का एक उदाहरण देखें-

फ़कत ये फूस वाला आशियाना ही बहुत मुझको
बदन पर एक कपड़ा ये पुराना ही बहुत मुझको
मुबारक हो तुम्हें झूमर लगी ये चाँदनी ‘जौहर’
दरख़्तों का क़ुदरती शामियाना ही बहुत मुझको।

१८० पृ‍ष्‍ठ के इस ‘मुरुक़ विशेषांक’ में न सिर्फ़ भारत के, बल्कि उन्होंने आठ अन्य देशों के रचनाकारों को भी इसमें शामिल कर इसे अन्तर्राष्‍ट्रीय स्वरूप प्रदान करते हुए साहित्य-जगत को एक अज़ीम तोहफ़ा दिया है।
इसके अतिरिक्त ‘अमर-काव्य’ के अंतर्गत अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, दुष्यंत कुमार, शमशेर बहादुर सिंह, सुभद्रा कुमारी चौहान, उमर ख़य्याम, ‘जोश’ मलीहाबादी, साहिर लुधियानवी, अकबर इलाहाबादी आदि को पढ़ना अत्यन्त सुखकर लगा। पत्र-पत्रिकाओं में मुक्तक विधा पर किये जाने वाले कार्यों में ‘हरिऔध’ जी का नाम उपेक्षा का शिकार रहा है। इस बारे में जौहर जी लिखते हैं- ‘मुरुक़ पर किये जा रहे कार्यों में उनके नाम का उल्लेख न होना, किसी दुराग्रह अथवा अज्ञान का प्रतीक है...सहधर्मियों की इस भूल को न दोहराते हुए, इस विशेषांक में प्रथम प्रस्तुति के रूप में ‘हरिऔध’ जी का मुक्तक ‘अमरकाव्य’ के अन्तर्गत दिया गया है...’

इस विशेषांक में एक और सुखद आश्चर्य देखने को मिला... जितेन्द्र जी और उनकी धर्मपत्‍नी रीना जी के बनाये चित्र ...भावों के अनुरूप हर चित्र में उनकी कलाकृति को देखना अलग ही आनंद देता है...!

पत्रिका के प्रधान संपादक डॉ। आनंदसुमन जी हार्दिक बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने सुपरिचित कवि/समालोचक जितेन्द्र ‘जौहर’ जी को यह दायित्व देकर हम पर इनायत की...जिससे यह ख़ूबसूरत दस्तावेजी विशेषांक एक विशुद्ध साहित्यिक धरोहर के रूप में सामने आया है। निश्‍चित रूप से यह अंक उन शोधार्थियों एवं विश्वविद्यालयों के लिए भी संग्रहणीय है, जो ‘मुरुक’ पर शोध करना चाहते हैं...!
अगर आप इच्छुक हैं पत्रिका के इस विशेष अंक के लिए तो संपर्क करें जितेंदर जौहर जी से ०९४५०३२०४७२ पर ......

पत्रिका: त्रैमा. ‘सरस्वती सुमन
(मुक्तक विशेषांक, अक्तू.-दिस.-११)
कुल पृष्‍ठ सं.: 180 पृष्, बड़ा आकार (लगभग 300 मुक्तककार)
मूल्य: रु 500/- (पाँच वर्षीय शुल्क)
अतिथि संपादक: जितेन्द्रजौहर’ (सोनभद्र, उप्र)
प्रधान संपादक: डॉ. आनन्द सुमन सिंह (देहरादून)

( अंत में सभी से क्षमा चाहते हुए ...पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण किसी के ब्लॉग पे नहीं पा रही हूँ ...कृपया अन्यथा लें .....)


Thursday, December 1, 2011

विनम्र श्रद्धांजलि ...'' इंदिरा मामोनी रायसन '' को .........

विनम्र श्रद्धांजलि ...'' इंदिरा मामोनी रायसन '' को .........

प्रतिबंधित अलगाववादी संगठन युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और केंद्र सरकार के बीच शांति वार्ता शुरू कराने में अहम भूमिका निभाई वाली प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी अब हमारे बीच नहीं रहीं .

मंगलवार 29 नवम्बर की सुबह गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (जीएमसीएच) में लम्बी बीमारी के बाद अंतिम सांस लेने वाली 69 वर्षीया शिक्षिका इंदिरा गोस्वामी जो कि मामोनी रायसन गोस्वामी नाम से लिखती थीं। उन्हें फरवरी में मस्तिष्काघात हुआ था। तभी उन्हें इलाज के लिए नई दिल्ली ले जाया गया था, लेकिन जुलाई में उन्हें यहां वापस ले आया गया और तब से उनका जीएमसीएच में इलाज चल रहा था। वह पक्षाघात की अवस्था में अब तक वेंटिलेटर पर कोमा में थीं।

उन्हें भारतीय साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ मिला था। गोस्वामी ने उल्फा और केंद्र सरकार के बीच शांति वार्ता में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन साल 2005 में उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया।

भूपेन दा के बाद अब ब्रह्मपुत्र की उदार पुत्री कही जाने वाली प्रख्यात असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी के निधन से साहित्य जगत में एक रिक्तता सी आ गई है जिसकी भरपाई में काफी वक्त लगेगा. उनके निधन से जो अपूर्णीय क्षति हुई है वह वर्षों तक अपनी कमी दर्शाती रहेगी . कभी उन्होंने अपने कुछ उदगार यूँ व्यक्त किये थे - '' मैं मानती हूं कि लेखक को राजनीति से नहीं जुड़ना चाहिए. उसे हमेशा मानवता का साथ देना चाहिए. लेकिन मैं अपने राज्य असम को शांत देखना चाहती हूं इसलिए मैंने वहां मध्यस्थ बनना स्वीकार किया.मैं रहती दिल्ली में हूं. दिल्ली ने मुझे बहुत कुछ दिया है. लेकिन मेरी आत्मा असम में बसी है.वहां की हर समस्या से मैं जुड़ी रही हूं. '' सच है कि इंदिरा गोस्वामी की रचनाओं में समूचा असम क्षेत्र सांस्कृतिक तौर पर रचता-बसता रहा है.

पिछले साल उन्हें 'असम रत्न सम्मान' भी दिया गया था. साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ से सम्मानित और लेखन को मानवीय सरोकारों से जोड़ कर रखने वाली इंदिराजी ने अलगाववादी संगठन युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा को वार्ता की मेज में लाने में अहम भूमिका निभाई.

गोस्वामी को उनके मौलिक लेखन के लिए जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर काफी लिखा था। उन्होंने भारत में महिला सशक्तिकरण पर जोर दिया था।

14 नवम्बर 1942 को जन्मी डा.गोस्वामी की प्रारंभिक शिक्षा शिलांग में हुई लेकिन बाद में वह गुवाहाटी आ गई और आगे की पढ़ाई उन्होंने टी सी गल्र्स हाईस्कूल और काटन कालेज एवं गुवाहाटी विश्वविद्यालय से पूरी की।

उनकी लेखन प्रतिभा के दर्शन महज 20 साल में उस समय ही हो गए जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह 1962 में प्रकाशित हुआ जबकि उनकी शिक्षा का क्रम अभी चल ही रहा था।

वह दिल्ली श्विश्वाविद्यालय में असमिया भाषा विभाग में विभागाध्यक्ष भी रही। उनकी प्रतिष्ठा की चमक के कारण उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मानद प्रोफेसर का दर्जा प्रदान किया। उन्हें डच सरकार का 'प्रिंसिपल प्रिंस क्लाउस लाउरेट' पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।

वह देश के चुनिंदा प्रसिद्ध समकालीन लेखकों में से एक थीं। उन्हें उनके 'दोंतल हातिर उने खोवडा होवडा' ('द मोथ ईटन होवडाह ऑफ ए टस्कर'), 'पेजेज स्टेन्ड विद ब्लड और द मैन फ्रॉम छिन्नमस्ता' उपन्यासों के लिए जाना जाता है।कई साल पहले बीबीसी को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने बताया था- मेरा जन्म असम के एक पारपंरिक ज़मींदार परिवार में हुआ था. मेरे जन्म के समय नगर-ज्योतिषी ने कहा था कि ऐसे अशुभ ग्रह में जन्म लेने वाले बच्चे के दो टुकड़े कर ब्रह्मपुत्र में डाल देना चाहिए. हालांकि मेरे जन्म के समय की यह कहानी मुझे बहुत बाद में मालूम हुई क्योंकि घर में अंधविश्वास और ज्योतिष के लिए कोई जगह नहीं थी. मेरे माता-पिता पढ़े-लिखे और खुले विचारों के इन्सान थे. मां का उन बातों में बिल्कुल विश्वास नहीं था. पिता असम राज्य के शिक्षा निदेशक थे. मां की रूचि रवीन्द्र साहित्य और संगीत में थी. पुराना जमींदार परिवार था. इसलिए घर पर नौकर-चाकर के साथ-साथ आने जाने के लिए हाथी थे. एक हाथी हम भाई-बहन के खेलने के लिए भी था. बचपन में मुझें असमिया पढ़नी लिखनी नहीं आती थी. लेकिन पिता के ज़ोर देने पर मैंने असमिया सीखी और आगे चल कर इसी भाषा में मैंने अपने लेखन की शुरूआत की. मेरे लेखन के विषय, मेरे-अपने समाज की समस्याएं ही रहे हैं. जैसे मैंने ब्राह्म्ण विधवाओं की, हर पल परीक्षा से गुज़रने के सघंर्ष और विडबंनाओं को लोगों के सामने लाने की कोशिश की है. मुझे अपनी सारी रचनाएं प्रिय हैं लेकिन मुझे ‘दोतल हातिएर ओईये खोवा हाउदा” से ज्यादा लगाव रहा है.जहॉ तक सवाल पुरस्कार का है, तो मुझे खुशी है कि मुझे ज्ञानपीठ जैसा सम्मान मिला. लेकिन सम्मान और पुरस्कार के लिए मैंने कभी लिखा नहीं, बल्कि सच यह हैं कि लेखन मेरे लिए ऐसा है जैसे रगो में बहता लहू.

उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का परिचय उनके आत्मकथात्मक उपन्यास 'द अनफिनिशड आटोबायोग्राफी'में मिलता है। इसमें उन्होंने अपनी जिन्दगी के तमाम संघर्षों पर रोशनी डाली है यहां कि इस किताब में उन्होंने ऐसी घटना का भी जिक्र किया है कि दबाव में आकर उन्होंने आत्महत्या करने जैसा कदम उठाने का प्रयास किया था। तब उन्हें उनके बेपरवाह बचपन और पिता के पत्रों की यादों ने ही जीवन दिया। शायद इसी ईमानदारी तथा आत्मालोचना के बल ने उन्हें असम के अग्रणी लेखकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।

इंदिरा गोस्वामी ने अनेक उपन्यास लघु कथा संग्रह और अध्ययनशील लेख लिखे जिनमें उन्होंने समाज के मजलूम तबके के दर्द को उकेरा और एक शाब्दिक आन्दोलन का नेतृत्व करती रहीं.चिनाकी मरमा कइना हृदय एक नदीर नाम प्रिय गल्पो, उपन्यास चिनाबेर स्रोत, नीलकंठी ब्रज, अहिरोन, उने खाओआ, हौदा दशरथेर पुत्र खोज तथा संस्कार उदयभारनुर चरित्र आदि तीन समवेत उपन्यास के अलावा आत्मकथा आधा लेख दस्तावेज शामिल है. उनकी आत्मकथा 'अधलिखा दस्तावेज' साल 1988 में प्रकाशित हुई।

डा.गोस्वामी ने माधवन राईसोम आयंगर से 1966 में विवाह किया था लेकिन शादी के महज डेढ़ साल बाद कश्मीर में हुई एक सड़क दुर्घटना में माधवन की हुई मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया। इसके बाद वह पूरी तरह से टूट गईं। एक समय तो वह वृंदावन जाने का मन बना लिया था, जिसे हिंदू विधवाओं के लिए एक गंतव्य माना जाता है।उन्हें इस सदमे से उबरने में काफी वक्त लगा। वह इससे बाहर तो आई लेकिन गमजदा होकर। यह तकलीफ उनके लेखन में सहज ही महसूस की जा सकती है।

उन्हें 1983 में उनके उपन्यास 'मामारे धारा तारवल' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

तथा साल 2000 में साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और 2008 में प्रिंसीपल प्रिंस क्लॉस लॉरिएट पुरस्कार मिला। उन्हें रामायण साहित्य में विशेषज्ञता के लिए साल 1999 में मियामी के फ्लोरिडा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार मिला था। इसके अलावा उन्हें असम साहित्य सभा पुरस्कार 1988, भारत निर्माण पुरस्कार 1989, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सौहार्द्र पुरस्कार 1992, कमलकुमारी फाउंडेशन पुरस्कार १९९६ जैसे कई सम्मान व पुरस्कार मिले थे. इसके अतिरिक्त "दक्षिणी कामरूप की गाथा" पर आधारित हिंदी टी वी धारावाहिक तथा उक्त उपन्यास पर असमिया में निर्मित फिल्म "अदाज्य" को राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय ज्यूरी पुरस्कार प्राप्त।

गोस्वामी की किताबों का कई भारतीय व अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

इंदिरा गोस्वामी असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं । उनके निधन से न केवल असमिया अपितु समस्त भारतीय साहित्य जगत को अमूल्य क्षति हुई है . आज मेरी उन्हें नम आँखों से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है .