Monday, March 29, 2010

कुछ ..मेरे अपने त्रिशूल .........

त्रिवेणी.....शुरू शुरू में जब गुलजार जी ने त्रिवेणी की फॉर्म बनाई...... तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसीलिए दिया गया कि इसमें पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी सरस्वती बहती है जो गुप्त है नज़र नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है ......तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ होता है .....आइये देखें गुलजार जी की एक त्रिवेणी.......

क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ

मौत का क्या है, एक बार मारेगी

ब्लॉग जगत में मैंने सबसे पहले डा. अनुराग जी के ब्लॉग पे त्रिवेणी पढ़ी व परिचित हुई .....फिर अपूर्व जी ने हाल ही में अपने ब्लॉग पे लाजवाब त्रिवेणियाँ डालीं ......एक और उभरते हुए फनकार ' त्रिपुरारी कुमार शर्मा ' हैं पिछले दिनों उनके ब्लॉग पे बेहतरीन दस त्रिवेणियाँ देखने को मिलीं ......इसी श्रृंखला में मेरी इक नाकाम सी कोशिश ......पर ये त्रिवेणी नहीं उसी से मिलते-जुलते मेरे अपने 'त्रिशूल' हैं ......

(१)


उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म

अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता है ....


रब्बा! ये मोहब्बत के खून की क़िस्म इतनी कम क्यूँ बनाई थी ......??


(२)


तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे

और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे


पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?


(३)


एक्वेरियम में कैद मछली को वह हर रोज़ डाल जाता है रोटी का इक टुकड़ा

और निकल पड़ता है फिर दरिया की सैर को इक नई मछली की तलाश में


घर के बाहर नाम की तख्ती पर लिखा था ........." प्रेम - निवास "


(४)


आज फिर मानसिक द्वन्द है कहीं भीतर

और इक डरी-सहमी आकृति मेरी पनाह में


आज फिर जाने कितने ज़ज्बातों की हत्या होगी ......!!


(५)


मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं

उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम


हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!



Saturday, March 20, 2010

आज दिल फिर शाद के फूलों से नहाया है

अक्सर आप सब की शिकायत रही है कि मैं इक ही मौजूअ (विषय) पर मुसलसल लिखती जा रही हूँ ..... 'मोहब्बत ' जहाँ प्यार करने वालों के लिए दुखदायी लफ्ज़ रहा ....वहीं शायर और अदबकारों का सबसे प्रिय विषय भी .....पेश है मोहब्बत से भरी इक जदीद सी नज़्म ......" आज दिल फिर शाद के फूलों से नहाया है ....."

आज दिल फिर शाद के फूलों से नहाया है......


आज दिल फिर शाद के फूलों से नहाया है
खुशबू का इक मंज़र तेरी याद बन आया है



मैंने भेजे थे कुछ पैगाम पीपल के पत्तों पर
बादल भीगी पलकों से उनके जवाब लाया है



मुआहिदा* किया जब-जब तेरा हवाओं से
दुपट्टा हया का आँखों तक सरक आया है



महजूज़* है , ममनून* है दिल का परिंदा
नगमा मोहब्बत का लबों पे उतर आया है



अय खुश्क लम्हों चलना जरा किनारे से
हीर की मजार पे सुर्ख फूल खिल आया है


मुआहिदा - ज़िक्र , मह्जूज - आनंदित , ममनून- आभारी

Monday, March 15, 2010

पिछले दिनों कविता जी ने स्त्री मुक्ति पर कुछ रचनायें मांगी थीं ....उन्हीं रचनाओं में से इक ...........


औरत दर्द और चिता ......

वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में
उदासी का इक दरिया लिए
ज़िन्दगी को नए सिरे से
समझना चाहती है ....॥

अभी तो सलीके से उसने
जीना भी नहीं सीखा था
न उसे प्यार करना आया था
कि उग आयीं हाथों पे दर्द की
अनेकों आड़ी-तिरछी रेखाएं
मैंने छू कर देखा .....
उसकी हथेलियों में नमी थी .......

आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....

क्यूँ यह ज़िन्दगी
अधूरा सा किरदार
बनकर रह जाती है
जिसे नहीं मिलती
एक पूरी कहानी जीने को ....


कुछ अदृश्य रस्सियों की
जकड़न है चारों ओर .....
इक फनियर अपनी क्रूरता से
खत्म कर देना चाहता है
बुलबुल का कलरव .....

आँखों में भय की छाया लिए
कुछ शब्द गुलों को
दिखलाते है ज़ख्म ...
अचानक गिर आई दीवार के नीचे
दबकर टूटने लगता है
चप्पू की आवाज़ का तरन्नुम ...

मैं झील की आँखों को
सहलाने लगती हूँ
कुछ गिरे हुए हिस्से को
बचाने की खातिर
बैसाखियों का सहारा दे
ईंटें टिकाने लगती हूँ
देखती हूँ मन की परतों में
घिर आयीं हैं कितनी ही
गहरी दरारें ......

दर्द पत्थर की टेक लगा
हांफने लगा है ....
शायद वह
समाज के बनाये इन
नियमों पर
जिंदा चिता पर
लेट जाना चाहता है ......!!


ज़रीब- ज़मीं नापने की ज़ंजीर

Saturday, March 6, 2010

सूखे पत्ते .....तनफ्फुर और स्याह रात ........

इक नज़्म ......

सूखे पत्ते सी ज़िन्द
टूट के गिरी यूँ ....
के इक कोरी सी नज़्म
ज़िस्म में उतर गयी है ....

काँपा है फिर वजूद
लफ़्ज़ों की अदालत में
रात तनफ्फुर* के फूल
उगाये बैठी है ......

इक हँसी सी उठी
दर्द की गली में ...
ख़ामोशी लबों से
जिरह किये बैठी हैं ......


छीना है ये किसने
पत्तों से बूंदों का लम्स
वक़्त की मुट्ठी में उम्रें
गाफ़िल* हुई बैठी हैं .....

लाँघ गया इक ख्याल
फिर तेरी दहलीज़ आज
बोसीदा* सी लाशें
ज़मीं खोदती हैं ......

ये कौन छोड़ गया
उँगलियों के निशाँ आज
के मुहब्बत दिल की सीढियां
उतरने लगी है ........

अय धूप
संभल कर चलाकर
इन रास्तों पे जरा
यहाँ स्याह रात
हुस्न लिए बैठी है ......!!


१) तनफ्फुर-घृणा, नफरत २) लम्स -स्पर्श
३) गाफ़िल-संज्ञाहीन ४) बोसीदा- सड़े-गले, फटे-पुराने