Friday, April 23, 2010

३० नंबर की बीड़ी ......

ज़िन्दगी तेरा ज़िक्र अब ......रात के वजूद पर टिकी सुब्ह का सा है ...जिसे सूरज कहीं रख कर भूल गया है ....इंतजार के पन्ने अब सड़ने लगे हैं ....और दीवारे अभी बहुत ऊंची हैं .....बहुत ......
डालना कुछ और चाहती थी ....इक बड़ी प्यारी सी नज़्म उतरी थी ...पर शब्दों ने मुँह फेर लिया .....सागर की कविता (वही जिसपर हल्का सा विवाद हुआ था ) के एवज में भी कुछ लिखा था वह भी धरा रह गया ......शायद अगली बार ......

जाने कब
मिट्टी के ढेर को
उड़ा ले गयी थी सबा
कब्र की कोख से
उठने लगा था धुआं
रात....अभी बहुत
लम्बी है .....

तूने कभी पीया है
बीड़ी में डालकर
जहरीले अक्षरों का ज़हर ?
नहीं न ?
कभी पीना भी मत
फेंफडे बगावत कर उठेंगे ...

औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......

ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई


और फिर ...
३० नंबर की ये बीड़ी
प्रतिवाद स्वरूप
खड़ी हो जाती है
विल्स के एवज में .....!!

Sunday, April 18, 2010

बड़े मदहोश लम्हे थे सनम जब सामने आये.....

पिछले दिनों वीनस जी ने ग़ज़ल कि दिशा में इक नया ब्लॉग शुरू किया था ......" आइये इक शेर कहें "....जिसे किन्हीं निजी कारणों से वीनस जी को बंद कर देना पड़ा ......खैर जितने दीं कक्षा चली हमने खूब मज़े लूटे ....और वहीँ से लुट-पिट के आई ये ग़ज़ल .....
मत्ला दिया था समीर जी ने .............

फरिश्ते इस ज़मीं पर आके , अक्सर टूट जाते हैं
संभल कर साथ में चलना, ये रिश्ते टूट जाते हैं

ग़ज़लगोओं से इल्तिजा है कि इस ग़ज़ल में रह गयी खामियों पर अपने नज़रीयात पेश करें .........



ग़ज़ल

क्यूँ ये चाहतों के सिलसिले यूँ छूट जाते हें
बता क्यूँ दिल मोहब्बत से भरे ये टूट जाते हें ?

नज़र जो मुंतजिर होती कभी हम लौट ही आते
घरौंदे ये उम्मीदों के भला क्यूँ टूट जाते हैं...?


शजर हमने लगाये जो , वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर ही छूट जाते हैं


जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में , चमन वो लूट जाते हैं


वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं


सदा जो मुस्कुरा कर हैं कभी देते सनम मुझको
बहारें लौट आतीं फिर गिले भी छूट जाते हें


घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर , वो 'हीर' टूट जाते हैं

बहर - १२२२,१२२२,१२२२,१२२२
मुन्तज़िर - प्रतीक्षक

Friday, April 9, 2010

कब्र और नज़्म .......

न इश्क़ दरिया है ........न इश्क़ है शराब ....इश्क़ मरहम है ....हर रिसते ज़ख्म पर रखा ...ईमान है ...इश्क़ खुदा है ...कभी इश्क़ की किताब कायदे से पढ़ लेना ...ज़िन्दगी संवर जाएगी ...... .....


जाने ये कैसी
बेमुरब्बत सी हवा चली
के बुझती आँखों में
फिर हसरत लिए
हूँ अडोल सी खड़ी ....


इश्क़ ने खोले हैं
दिल के कोरे वरके
चुपके से इक नज़्म
हुस्न का काफिया
तोड़ चली ......


उठने लगी है
चाँद के ज़िस्म से
हिज्र की इक आग सी
चाँदनी पंचम स्वर में
गीत गाने लगी .......


आज लफ़्ज़ों ने
छेड़ दी है जो तान
इश्क़ की ...
कब्र तो आँखें मूंदे
पड़ी रही ...
और नज़्म ......
अक्षर- अक्षर उसे
पढ़ती रही .....!!

Monday, April 5, 2010

" मिर्ज़ा-ग़ालिब ".....आज टी. वी आन करते ही सामने स्क्रीन पे यही फिल्म चल रही थी ....और वही ग़ज़ल जिसका शे'र पिछली पोस्ट में तिलक राज़ जी लिख गए थे ........
हमने माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक
अब तक मुझे मालूम न था कि ये ग़ज़ल इस फिल्म में है ......पूरी फिल्म देख डाली.... ...शेरो-शायरी के बीच अद्भुत त्रिकोणीय प्रेम-कहानी
है ग़ालिब जी की ......अभी तक जेहन में डूब उतर रही है ......
ये न थी हमारी किस्मत के विसाले यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तजार होता ....
इस ग़ज़ल के साथ ही अंत में प्रेमिका ग़ालिब की बाँहों में दम तोड़ देती है ......इक और ग़ज़ल की पंक्तियाँ अंत में बैक ग्राउंड में बजतीं हैं .....

'शमा बुझती है तो उसमें से धुंआ उठता है
शोला ऐ इश्क सिया पोश हुआ मेरे बाद'



इसी सिलसिले में आज इक ग़ज़ल पेश कर रही हूँ ......इसे मुकम्मल रूप से सजाया संवारा है 'तिलक राज़' जी ने ......



जिस पर गरूर है तू वो भी दिखा के देख
फ़न को बुलंदियों पर कुछ यूँ सजा के देख



मुझको हबीब कितने उल्फ़त ने दे दिए हैं
हैबत से न बनेंगे, इक तो बना के देख


तेरी गली की राहें मुझको पता हैं लेकिन
आवाज़ दे कभी तो, मुझको बुला के देख


मत पूछ क्या मिला है उसको गले लगा के
दिल में मुहब्बतों का गुलशन लगा के देख


ऐसा तो वो नहीं था , बातों में आ गया है
उसकी नज़र से अपनी नज़रें मिला के देख


गर इश्क़ है खता तो , मुझसे खता हुई है
मुंसिफ सजा बता मत, मुझको सुना के देख


तुझे 'हीर' में मिलेंगे मैखाना और मंदिर
भूले से ही कभी पर , नज़रें उठा के देख


हबीब- मित्र ,हैबत- आतंक

बह्र: मफ़ऊल फायलातुन
मफ़ऊल फायलातुन