आज वर्ष का आखिरी दिन है .....नववर्ष द्वार पर है ....सोचती हूँ क्या खोया ...क्या पाया ..?....तो पाया का पलड़ा जरा भारी लगता है .....आप सब का स्नेह ...प्यार ...मित्रता ....कई तोहफे .. ....सम्मान .....तो शुक्रिया तेरा वर्ष २०१० ...अलविदा .....
इस अलविदा और स्वागत के साथ ....कुछ शब्दचित्र ....
(१)
अलविदा .....
मैंने.....
उसके चेहरे से
चादर उठाकर देखा
उसके चेहरे पर खरोंचे थीं
सीने पर गोलियों के निशां
और पाँव ज़ख़्मी थे ......
मैंने नम आँखों से
हाथों में पकड़े फूल
उसके सीने पर रखे
और कहा .....
अलविदा वर्ष .....!!
(२)
तोहफ़ा ......
उसने ...
जाते हुए गठरी में
अपना सारा समान बाँध लिया
मैंने धीमे से कहा -
कुछ तो छोड़ जाओ मेरे लिए
जिससे तुम्हें याद कर सकूँ ....?
उसने गठरी खोली ...
और कुछ खुशनुमा यादें निकाल
मेरी हथेली पे रख दीं
मैंने देखा उनमें ....
राजेन्द्र जी का दिया
हीर को तोहफा भी था .....!!
(३)
स्वागत .....
वह दर्द से कराहता
द्वार पर औंधा पड़ा था
मैंने देखा उसके हाथों में
इक पर्ची थी .....
जिस पर लिखा था -
'' स्वागत है मित्र ...''
मैंने उसके हाथों से पर्ची ली
और नववर्ष को
पकड़ा दी .....!!
(४)
दर्द की महक ....
उसने हौले से
द्वार पे दस्तक दी ...
मैंने दरवाज़ा खोला
देखा ...तो नववर्ष था
मैंने कहा -तुम्हें देने के लिए
मेरे पास कुछ नहीं है वर्ष
वह मुस्कुरा कर बोला -
मैं तुमसे कुछ लेने नहीं
देने आया हूँ हीर ....
मैंने हैरानी से पूछा -
क्या ......?
वह बोला -
'दर्द की महक' ....!!
(५)
ईमान के बीज .....
वह ....
खुश था ,बेहद खुश
आँखों में हजारों सपने ,
ख्वाहिशें , उम्मीदें , अरमान लिए
दौड़ता चला आया ....
राह में बीता वर्ष पड़ा था
उसने पूछा- 'क्या हुआ मित्र...?'
वह बोला - ताउम्र झूठ,फरेब,
भ्रष्टाचारी के दाने खाते-खाते
आँते ज़ख़्मी हो गईं हैं ....
कुछ बीज ईमान के बचा रखे हैं
इन्हें तुम ले जाओ ...
इक इल्तिज़ा है ...
इस बार इन्हें जरुर
बो देना .......!!
Friday, December 31, 2010
Sunday, December 19, 2010
आखिरी हँसी ...जिब्ह होते सपने.... और कब्र का सच .......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:26 PM
आज मन बहुत उदास है ....पोस्ट डालने का मन भी न था ...पर लगा कि आप सब इंतजार में होंगे ... पहली दो नज्में पंजाबी में लिखी थीं जिसका यहाँ हिंदी अनुवाद है .....और बाकी कुछ उदास मन की अभिव्यक्ति ....शायद इस बार मैं सबके ब्लॉग पे न आ पाऊँ .....
आखिरी हँसी ......
कविता ने ...
उसकी ओर आखिरी बार
हसरत भरी आँखों से देखा
नीम-गुलाबी होंठ फड़फड़ाये
अश्कों से भरी पलकें ऊपर उठीं
और धीमें से मुस्कुराकर बोली ......
आज तेरे घर.......
ज़िन्दगी की आखिरी हँसी
हँस चली हूँ ...... !!
(२)
मिलन .....
मुहब्बत से भरी
इक नज़्म .....
इश्क़ के कलीरे* बांधे
हौले-हौले सीढियां उतर
तारों की राह चल पड़ी ....
खौफज़दा रात ....
कोयलों पर पानी
डालती रही .....!!
कलीरे -सूखे नारियल और कौड़ियों से से बने कलीरे जो शादी के वक़्त लड़की को कलाइयों में बांधे जाते हैं
(३)
जिब्ह होते सपने .....
इक खामोश शमा
चुपचाप जलती है
मैं पलटकर ....
आईने में देखती हूँ
चेहरे पर सूखे गजरे की
झड़ती पत्तियों की सी
वीरानी है .......
जिब्ह होते सपनों का
आर्त्तनाद है ......
मन किसी
गुमसुदा व्यक्ति की तरह
औंधा पड़ा है ....!!
(४)
अतिक्रम .....
जब तक ...
तुम्हारे हाथों में
जाल है , पिंजरे हैं , माचिस है
मैं समुन्द्र में रहूँ या घरों में ...
रहूंगी तो तुम्हारे
खौफ़ तले .....!!
(५)
कब्र का सच ....
इक अजीब सी
उन्मत्त कामना लिए
मैं अनिमेष सी
अपनी ही कब्र पर बैठी
रातभर लिखती रही
अपनी मृत्यु की
तारीख .....!!
आखिरी हँसी ......
कविता ने ...
उसकी ओर आखिरी बार
हसरत भरी आँखों से देखा
नीम-गुलाबी होंठ फड़फड़ाये
अश्कों से भरी पलकें ऊपर उठीं
और धीमें से मुस्कुराकर बोली ......
आज तेरे घर.......
ज़िन्दगी की आखिरी हँसी
हँस चली हूँ ...... !!
(२)
मिलन .....
मुहब्बत से भरी
इक नज़्म .....
इश्क़ के कलीरे* बांधे
हौले-हौले सीढियां उतर
तारों की राह चल पड़ी ....
खौफज़दा रात ....
कोयलों पर पानी
डालती रही .....!!
कलीरे -सूखे नारियल और कौड़ियों से से बने कलीरे जो शादी के वक़्त लड़की को कलाइयों में बांधे जाते हैं
(३)
जिब्ह होते सपने .....
इक खामोश शमा
चुपचाप जलती है
मैं पलटकर ....
आईने में देखती हूँ
चेहरे पर सूखे गजरे की
झड़ती पत्तियों की सी
वीरानी है .......
जिब्ह होते सपनों का
आर्त्तनाद है ......
मन किसी
गुमसुदा व्यक्ति की तरह
औंधा पड़ा है ....!!
(४)
अतिक्रम .....
जब तक ...
तुम्हारे हाथों में
जाल है , पिंजरे हैं , माचिस है
मैं समुन्द्र में रहूँ या घरों में ...
रहूंगी तो तुम्हारे
खौफ़ तले .....!!
(५)
कब्र का सच ....
इक अजीब सी
उन्मत्त कामना लिए
मैं अनिमेष सी
अपनी ही कब्र पर बैठी
रातभर लिखती रही
अपनी मृत्यु की
तारीख .....!!
Thursday, December 9, 2010
सौतेली...अनचाहा गर्भ ....और ..परिवर्तन ..
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
12:45 PM
(१)
पिछले दिनों इक काम वाली लड़की ने जो अपनी दास्ताँ सुनाई तो कलम खामोश न रह सकी .....
पहली नज़्म उसी के मनोभाव हैं ......दूसरी नज़्म अपना परिचय खुद देती है ....
वक़्त बदलता है ...परिवर्तन होते हैं मकानों की जगह अब बहुमंजिला इमारतें ली रही हैं ....
और ये इमारतें .....?
नाकामियों का सफ़र तय करते लोगों के काम आती हैं ....
सौतेली .....
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
रोज़ ज़िन्दगी के ...
आधे से ज्यादा कामों में मैं
उसकी सोच में बसी होती
कभी कपड़ों के ढेर में ...
कभी बर्तनों के अम्बार में ...
कभी चूल्हे की सिसकती आग में...
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
तो कभी बिस्तर पर फैले
फटे कम्बल में से कंपकंपाती
ठण्ड में खनकती उसकी हँसी में
वह हर पल मेरे साथ होती .....
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
(२)
अनचाहा गर्भ ....
मद्धिम बूढी लालटेन
अँधेरे का सीना चीर
देखने का असफल प्रयास करती है
तम से आवृत कोई स्त्री ...
अपनी गोद से ...
कुछ ,धीमे से नीचे रखती है
और थके क़दमों से, लौट जाती है
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
मन में एक साथ ...
कई चिताएं जलने लगती हैं .....!!
(३)
परिवर्तन .....
खुला दरवाजा
अधखुली खिड़कियाँ ...
उखड़ा पलस्तर ...
बरसों से कोई परिचित सी पदचाप
सुनने की आस में .....
इक पुराना जीर्ण, उपेक्षित सा मकां
आहिस्ता-आहिस्ता खंडहर हो गया है
शायद इसके गिरने के बाद यहाँ ....
एक बहुमंजिला इमारत बन जाये .....
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
पिछले दिनों इक काम वाली लड़की ने जो अपनी दास्ताँ सुनाई तो कलम खामोश न रह सकी .....
पहली नज़्म उसी के मनोभाव हैं ......दूसरी नज़्म अपना परिचय खुद देती है ....
वक़्त बदलता है ...परिवर्तन होते हैं मकानों की जगह अब बहुमंजिला इमारतें ली रही हैं ....
और ये इमारतें .....?
नाकामियों का सफ़र तय करते लोगों के काम आती हैं ....
सौतेली .....
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
रोज़ ज़िन्दगी के ...
आधे से ज्यादा कामों में मैं
उसकी सोच में बसी होती
कभी कपड़ों के ढेर में ...
कभी बर्तनों के अम्बार में ...
कभी चूल्हे की सिसकती आग में...
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
तो कभी बिस्तर पर फैले
फटे कम्बल में से कंपकंपाती
ठण्ड में खनकती उसकी हँसी में
वह हर पल मेरे साथ होती .....
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
(२)
अनचाहा गर्भ ....
मद्धिम बूढी लालटेन
अँधेरे का सीना चीर
देखने का असफल प्रयास करती है
तम से आवृत कोई स्त्री ...
अपनी गोद से ...
कुछ ,धीमे से नीचे रखती है
और थके क़दमों से, लौट जाती है
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
मन में एक साथ ...
कई चिताएं जलने लगती हैं .....!!
(३)
परिवर्तन .....
खुला दरवाजा
अधखुली खिड़कियाँ ...
उखड़ा पलस्तर ...
बरसों से कोई परिचित सी पदचाप
सुनने की आस में .....
इक पुराना जीर्ण, उपेक्षित सा मकां
आहिस्ता-आहिस्ता खंडहर हो गया है
शायद इसके गिरने के बाद यहाँ ....
एक बहुमंजिला इमारत बन जाये .....
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
Wednesday, November 24, 2010
ख़त ...सिसकता चिराग़ .....और ज़िक्र ...
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
11:35 PM
आज की तम्हीद बड़ी मायने रखती है ....आज इक अज़ीज़ मित्र मुफ़लिस (अब दानिश भारती )जी का जन्म दिन है .....तोहफे में पहली नज़्म उनके नाम ......मुफ़लिस जी से मेरा परिचय भी बड़ा रोमांचक है ....न वो तब ब्लोगर थे और न मैं .....उनकी एक ग़ज़ल किसी पत्रिका में छपी थी ....ग़ज़ल पसंद आई....नम्बर भी नीचे दिया गया था ....मैंने तुरंत समस किया '' मुफ़लिस जी आपकी ग़ज़ल बेहद पसंद आई '' ....जवाब में उन्होंने लिखा....'' शुक्रिया जनाब ..'' ...मैंने फिर कहा...'' मैं 'जनाब' नहीं 'जनाबी हूँ'' ....और सितम देखिये वो आज भी कभी मुझे मेल करते हैं तो 'जनाबी' ही लिखते हैं .... कई बार जब ज्यादा परेशां होती तो उन्हें फोन करती ....कहती..., '' जी चाहता है ख़ुदकुशी कर लूँ ''....वे हंस कर कहते... '' कैसे करोगी ...? फंदा मत लगाना उससे जीभ बाहर निकल आती है ''...और मैं उस कल्पना से खिलखिलाकर हंस पड़ती .......
मुफ़लिस जी बहुत ही अच्छे इंसान हैं ....दिल के भी उतने ही सरल ...साफ...और नेक ....कई बार मुझे दुविधाओं में सलाह देते ....हिदायत देते ..और मशवरा भी ....
आज के दिन दुआ है रब्ब उन्हें कामयाबी की हर मंजिल दे ...उनके फ़न को और हुनर बख्शे ...वे अदब नवाजों में गिने जायें ....
आज फिर पेश हैं कुछ क्षणिकाएं .....
(१)
तेरा जन्म ....
पत्तों के ....
लबों की ये थरथराहट ....
शाखों की ये मुस्कराहट ...
आँखों में अज़ब सी चमक लिए ...
अजनबी सी ये सबा ...
आज ये ....
कैसा पता दे रही है ....?
(२)
तेरी याद ...
जब भी ....
तेरी याद का परिंदा
मेरी छत की मुंडेर पर
बैठता है ....
मेरे मकान की नीव हिलने लगती है
आ इक बार ही सही ....
अपनी मोहब्बत की इक ईंट लगा जा
कहीं ये ढह न जाये .....!!
(३)
ख़त .....
कुछ अक्षर ...
जो कभी तुम्हारे सीने पर
सर रख कर खूब खिलखिलाए थे
आज फिर भेजे हैं ख़त में
हो सके तो इन्हें ...
रोने देना ....
मोहब्बत अब ....
जिंदा रहना चाहती है .....!!
(४)
सिसकता चिराग़ .....
आज ये फिर ...
तेरी कमी सी
जाने कैसी खली है ...
के मेरी कब्र के......
टूटे आले पर रखा रखा चिराग़
सिसक उठा है ....
मेरी उम्र की मीआद
अब घटने लगी है ........!!
(५)
ज़िक्र ...
उनका ज़िक्र ...
कुछ यूँ करती है सबा
के इस खुश्करात के सीने पर
उग आता है .....
मीठा - मीठा सा दर्द
इश्क़ का .......!!
(६)
रंग.....
शायद मैं ....
कागज़ का वह टुकड़ा थी
जहाँ मोहब्बत का कोई हर्फ़
रंग नहीं लाया .....
ऐसे में तुम ही कहो
मैं तुम्हारे लिए
मोहब्बत का हर्फ़
कैसे लिखती .....!!
मुफ़लिस जी बहुत ही अच्छे इंसान हैं ....दिल के भी उतने ही सरल ...साफ...और नेक ....कई बार मुझे दुविधाओं में सलाह देते ....हिदायत देते ..और मशवरा भी ....
आज के दिन दुआ है रब्ब उन्हें कामयाबी की हर मंजिल दे ...उनके फ़न को और हुनर बख्शे ...वे अदब नवाजों में गिने जायें ....
आज फिर पेश हैं कुछ क्षणिकाएं .....
(१)
तेरा जन्म ....
पत्तों के ....
लबों की ये थरथराहट ....
शाखों की ये मुस्कराहट ...
आँखों में अज़ब सी चमक लिए ...
अजनबी सी ये सबा ...
आज ये ....
कैसा पता दे रही है ....?
(२)
तेरी याद ...
जब भी ....
तेरी याद का परिंदा
मेरी छत की मुंडेर पर
बैठता है ....
मेरे मकान की नीव हिलने लगती है
आ इक बार ही सही ....
अपनी मोहब्बत की इक ईंट लगा जा
कहीं ये ढह न जाये .....!!
(३)
ख़त .....
कुछ अक्षर ...
जो कभी तुम्हारे सीने पर
सर रख कर खूब खिलखिलाए थे
आज फिर भेजे हैं ख़त में
हो सके तो इन्हें ...
रोने देना ....
मोहब्बत अब ....
जिंदा रहना चाहती है .....!!
(४)
सिसकता चिराग़ .....
आज ये फिर ...
तेरी कमी सी
जाने कैसी खली है ...
के मेरी कब्र के......
टूटे आले पर रखा रखा चिराग़
सिसक उठा है ....
मेरी उम्र की मीआद
अब घटने लगी है ........!!
(५)
ज़िक्र ...
उनका ज़िक्र ...
कुछ यूँ करती है सबा
के इस खुश्करात के सीने पर
उग आता है .....
मीठा - मीठा सा दर्द
इश्क़ का .......!!
(६)
रंग.....
शायद मैं ....
कागज़ का वह टुकड़ा थी
जहाँ मोहब्बत का कोई हर्फ़
रंग नहीं लाया .....
ऐसे में तुम ही कहो
मैं तुम्हारे लिए
मोहब्बत का हर्फ़
कैसे लिखती .....!!
Monday, November 15, 2010
दौड़ .....आत्म-हत्या ....और क़दमों के निशां ....
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
4:09 PM
न जाने क्यों नफरत के बीज से छाती पे उगते जा रहे हैं...आँखें मोहब्बत की खोज में किसी टूटे सिरे की पनाह में हैं ...कई बार गांठे लगा चुकी हूँ ....कच्चे धागे की पकड़ पता नहीं और कितनी दूर साथ दे .... तभी अचानक किसी अज़ीज़ मित्र के ये अक्षर सामने आ खड़े होते हैं ...."कभी सूर्य चमकता है कभी बारिश हो जाती है लेकिन . . . इन्द्रधनुष बन जाने के लिये इन्ही दोनों की ज़रुरत होती है" ....मैं फिर अपना जमीर तलाशने लगती हूँ .....बीज एक-एक कर रुईं की मानिंद आसमां में विलीन हो जाते हैं .....मैं इन कच्चे धागों के साथ एक धागा और जोड़ देती हूँ फर्ज़ का.......
दुआ है रब्ब उस मित्र को इन्द्रधनुष के सातों रंग दे .....
(१)
दौड़ .....
ज़िन्दगी ....
इक न खत्म होनेवाली
दौड़ है .....
जड़ों के नीचे फिसलता है पानी
दरकती है ज़िस्म की ज़मीं
दूर कहीं परछइयां सी सिमटती हैं
प्यार-मोहब्बत का खेल
अनवरत चलता है
पृष्ठभूमि पर ......
हर सिम्त इक दुगंध सी फैली है
सीवर के खुले ढक्कन की सी
उफ्फ़......!
सांसों में इक तेज भभका
बड़बड़ाता सा घुस आया है
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!
(२)
आत्म-हत्या ....
कुछ मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
(३)
क़दमों के निशां ....
यहाँ कोई शज़र
दूर तलक साथ नहीं देता
सन्नाटे वाबस्ता
पलटते हैं पन्ने ....
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
यहाँ .....
कोई आँख का मुरीद नहीं
लकीरें तिडकती हैं हाथों से
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेत चीखती आवाज़
यक-ब-यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
दुआ है रब्ब उस मित्र को इन्द्रधनुष के सातों रंग दे .....
(१)
दौड़ .....
ज़िन्दगी ....
इक न खत्म होनेवाली
दौड़ है .....
जड़ों के नीचे फिसलता है पानी
दरकती है ज़िस्म की ज़मीं
दूर कहीं परछइयां सी सिमटती हैं
प्यार-मोहब्बत का खेल
अनवरत चलता है
पृष्ठभूमि पर ......
हर सिम्त इक दुगंध सी फैली है
सीवर के खुले ढक्कन की सी
उफ्फ़......!
सांसों में इक तेज भभका
बड़बड़ाता सा घुस आया है
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!
(२)
आत्म-हत्या ....
कुछ मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
(३)
क़दमों के निशां ....
यहाँ कोई शज़र
दूर तलक साथ नहीं देता
सन्नाटे वाबस्ता
पलटते हैं पन्ने ....
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
यहाँ .....
कोई आँख का मुरीद नहीं
लकीरें तिडकती हैं हाथों से
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेत चीखती आवाज़
यक-ब-यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
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