Sunday, November 29, 2009
कुछ क्षणिकायें ........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:34 PM
सुइयों की पोटली है .....जो अक्सर सुलगाती रहती है इक आग ....वह अंधेरे में छोटी-बड़ी लकीरें खींचती है .....सीढियों से अँधेरा उतर कर आता है .....और रख देता हैं पाँव.....बड़ी लकीर मिट जाती है .....वह फ़िर छोटी हो जाती है ....बहुत छोटी .....हक़ीर सी .....!! '' कुछ क्षणिकायें .....''
(१)
तलाक
......................
वहशी बादल
जमकर बरसे फ़िर कल रात
सुई जुबां से लहू कुरेदती रही
सबा तो खामोश रही दोनों के बीच
बस तेरा चेहरा तलाक मांगता रहा .....!!
(२)
कफ़न
....................
मैं कफ़न उतार के बैठी थी
कुछ हसीं रूहें .....
चुरा ले गई कफ़न मेरा
तुम यूँ न बिछड़ना मुझ से
मोहब्बत यतीम हो जाएगी ......!!
(३)
पत्थर होते छाले
...................................
मेरे इश्क़ के कतरे
पत्थरों पे गिरते रहे
और रफ्ता -रफ्ता दिल के छाले
पत्थर होते गए.....!!
(४)
गिला
.............
गुज़र जाता अगर दरिया चुपचाप
मैं ख्यालों को रख लेती ज़ख्मों तले
गिला तो इस बात का है
वह जाते-जाते छू गया ......!!
(५)
तू ही बता
.........................
मैंने ज़िस्म में
जितने भी मुहब्बतों के बीज थे
तेरे नाम की लकीरों पे बो दिए हैं
अब तू ही बता मैं ख्यालों को
किस ओर मोडूं .....!?!
(६)
अर्थियाँ
.........................
मोहब्बत खिलखिला के
हंसने ही वाली थी के गुज़र गई
कुछ अर्थियाँ फ़िर करीब से .....!!
(१)
तलाक
......................
वहशी बादल
जमकर बरसे फ़िर कल रात
सुई जुबां से लहू कुरेदती रही
सबा तो खामोश रही दोनों के बीच
बस तेरा चेहरा तलाक मांगता रहा .....!!
(२)
कफ़न
....................
मैं कफ़न उतार के बैठी थी
कुछ हसीं रूहें .....
चुरा ले गई कफ़न मेरा
तुम यूँ न बिछड़ना मुझ से
मोहब्बत यतीम हो जाएगी ......!!
(३)
पत्थर होते छाले
...................................
मेरे इश्क़ के कतरे
पत्थरों पे गिरते रहे
और रफ्ता -रफ्ता दिल के छाले
पत्थर होते गए.....!!
(४)
गिला
.............
गुज़र जाता अगर दरिया चुपचाप
मैं ख्यालों को रख लेती ज़ख्मों तले
गिला तो इस बात का है
वह जाते-जाते छू गया ......!!
(५)
तू ही बता
.........................
मैंने ज़िस्म में
जितने भी मुहब्बतों के बीज थे
तेरे नाम की लकीरों पे बो दिए हैं
अब तू ही बता मैं ख्यालों को
किस ओर मोडूं .....!?!
(६)
अर्थियाँ
.........................
मोहब्बत खिलखिला के
हंसने ही वाली थी के गुज़र गई
कुछ अर्थियाँ फ़िर करीब से .....!!
Tuesday, November 24, 2009
शीरीं-फरहाद .......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:36 PM
खुदा ने जब दिलों में मोहब्बत के बीज बोये इश्क के छींटे कुछ पाक रूहों पर पड़े ....उन्हीं पाक रूहों में सस्सी - पुन्नू ....हीर-राँझा ...सोहनी-महींवाल ....लैला- मजनू जैसे इश्क के फरिश्ते पैदा हुए ...जो इस हसद और दुश्मनियों की दुनिया से अलग दिलों की दुनिया में बसते थे ....सीने में फौलाद सा जिगर और दिलों में तूफानों से जूझने का जूनून रखते थे .....कहते हैं मोहब्बत करनेवालों के दिलों में खुदा बसता है शायद इसलिए ये खुदा को ज्यादा अजीज़ होते हैं और इन्हें जल्द अपने पास बुला लेते हैं ताकि उनके नाम से धरती पर मुहब्बत जिंदा रहे ...ऐसी ही एक पाक रूह थी शीरीं - फरहाद की ........शीरीं को पाने के लिए पहाड़ में नहर निकालने जैसा नामुमकिन काम ...... मुहब्बत ने वो भी कर दिखाया ....पर दस वर्षों के हाथों के छाले साजिशों का शिकार हो गए ...और '' कसरे शीरीं '' दोनों की कब्रगाह बन गया.......
फरहाद.........
शीरीं का सब्र टूट पड़ा था
वह बेतहाशा दौड़ पड़ी
तेशा रुका , हथौड़ा थमा
आँखें मिलन की आस में
चमक उठीं ....
जी चाहा ...दौड़कर भींच ले
मोहब्बत को सीने में
पर वचन ने मुँह मोड़ लिया
तेशा फ़िर चलने लगा
पहाड़ टूटने लगा
बेताब धड़कने
फ़िर मिलन की आग में
जलने लगीं.......
हुश्न खुदाई करता
और मुहब्बत दुआ मांगती
ज़िन्दगी जैसे इबादत बन गई ....
फटे हाथ , ज़ख़्मी पाँव
फ़िर भी बदन में जूनून
लबों पे मुहब्बत का नाम
आह ! फरहाद .....
तू किस मिटटी का बना था...?
बरसों पहले सीने में
कुछ मोहब्बत के पेड़ उगे थे
जिसके कुछ पत्ते
सूखकर झड़ने लगे थे ...
आज उन्हें फ़िर से टांकने लगी हूँ
शायद खुदा मुझ पर भी
मेहरबां हो जाए .....
एक चित्रकार की कलम
पत्थरों पे मुहब्बत के गीत लिखती
और हथौड़े की ठक-ठक
संगीत के सात स्वरों में
नृत्य करती ....
कसरे- शीरीं
जिसके चप्पे-चप्पे पे
फरहाद की अंगुलियाँ
जाम पीती रही ....
इक दिन बना देतीं हैं
हुश्नोआब की तस्वीर
मुहब्बत काँप उठती है
इसकी सजा जानते हो ....?
मैं दिल में छिपा लूँगा .....
पर .......
सुल्ताना की तीखी नज़रें
दिल के आर-पार हो गयीं
साजिशों की बुझी राख
फ़िर दहकने लगी .....
शीरीं को कैद
और फरहाद को पहाड़ तोड़कर
नहर निकालने जैसा
आदेश .....
कहते हैं ...
इन खुदाबंद लोगों में
मोहब्बत की फौलाद सी ताकत होती है
जो पहाड़ों में भी रास्ता बना दे.....
इक दिन ...
कोहकन ने तोड़ डाला कोह
नहर बहने लगी...
आसमां ने किलकारी मारी
परिंदे बाहें फैला गले मिलने लगे
पेड़ - पौधों ने कानों में कुछ कहा
शीरीं दौड़ पड़ी ....
साजिशों का रंग बदला
मुहब्बत के क़त्ल की झूठी अफवाह
फरहाद को रोक न सकी ....
नहर के पानी में उठे बुलबुले
लाल होते गए ...
शीरीं ने भी कटार की नोक पर
लिख दिया मुहब्बत का नाम
'' शीरीं-फरहाद ....''
और हमेशा-हमेशा के लिए
अमर हो गए.......!!
फरहाद.........
शीरीं का सब्र टूट पड़ा था
वह बेतहाशा दौड़ पड़ी
तेशा रुका , हथौड़ा थमा
आँखें मिलन की आस में
चमक उठीं ....
जी चाहा ...दौड़कर भींच ले
मोहब्बत को सीने में
पर वचन ने मुँह मोड़ लिया
तेशा फ़िर चलने लगा
पहाड़ टूटने लगा
बेताब धड़कने
फ़िर मिलन की आग में
जलने लगीं.......
हुश्न खुदाई करता
और मुहब्बत दुआ मांगती
ज़िन्दगी जैसे इबादत बन गई ....
फटे हाथ , ज़ख़्मी पाँव
फ़िर भी बदन में जूनून
लबों पे मुहब्बत का नाम
आह ! फरहाद .....
तू किस मिटटी का बना था...?
बरसों पहले सीने में
कुछ मोहब्बत के पेड़ उगे थे
जिसके कुछ पत्ते
सूखकर झड़ने लगे थे ...
आज उन्हें फ़िर से टांकने लगी हूँ
शायद खुदा मुझ पर भी
मेहरबां हो जाए .....
एक चित्रकार की कलम
पत्थरों पे मुहब्बत के गीत लिखती
और हथौड़े की ठक-ठक
संगीत के सात स्वरों में
नृत्य करती ....
कसरे- शीरीं
जिसके चप्पे-चप्पे पे
फरहाद की अंगुलियाँ
जाम पीती रही ....
इक दिन बना देतीं हैं
हुश्नोआब की तस्वीर
मुहब्बत काँप उठती है
इसकी सजा जानते हो ....?
मैं दिल में छिपा लूँगा .....
पर .......
सुल्ताना की तीखी नज़रें
दिल के आर-पार हो गयीं
साजिशों की बुझी राख
फ़िर दहकने लगी .....
शीरीं को कैद
और फरहाद को पहाड़ तोड़कर
नहर निकालने जैसा
आदेश .....
कहते हैं ...
इन खुदाबंद लोगों में
मोहब्बत की फौलाद सी ताकत होती है
जो पहाड़ों में भी रास्ता बना दे.....
इक दिन ...
कोहकन ने तोड़ डाला कोह
नहर बहने लगी...
आसमां ने किलकारी मारी
परिंदे बाहें फैला गले मिलने लगे
पेड़ - पौधों ने कानों में कुछ कहा
शीरीं दौड़ पड़ी ....
साजिशों का रंग बदला
मुहब्बत के क़त्ल की झूठी अफवाह
फरहाद को रोक न सकी ....
नहर के पानी में उठे बुलबुले
लाल होते गए ...
शीरीं ने भी कटार की नोक पर
लिख दिया मुहब्बत का नाम
'' शीरीं-फरहाद ....''
और हमेशा-हमेशा के लिए
अमर हो गए.......!!
Saturday, November 14, 2009
तुम भी जलाना इक शमा मेरे नाम की कब्र पर ...........
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:09 PM
कुछ और नज्में इमरोज़ की ......और इक प्यारा सा ख़त नज़्म रूप में ......हर बार एक ही आग्रह ....कवि या लेखक कभी 'हक़ीर' नहीं हुआ करते ......और रख देते इक मोहब्बत की तड़पती रूह का नाम ...'हीर' .....सोचती हूँ उम्र भर की तलाश में इक यही नाम ही तो कमा पाई हूँ ....तो क्यों न 'हीर' हो जाऊं ... वे मुझे 'हीर' ही लिखते हैं ......
पेश है इमरोज़ को लिखा एक ख़त ....''तुम भी जलाना इक शमा मेरे नाम की कब्र पर .....''
इमरोज़
तेरे हाथों की छुअन
तेरी नज्मों की सतरों में
साँस ले रही है ....
और इन्हें छूकर मैंने
जी लिए हैं वे तमाम एहसास
जो बरसों तूने गुजारे थे
अपनी पीठ पर ....
किसी और नाम की
तड़प लिए ....
आज मैं ...
उस रूह सी पाक हो गई हूँ
जो तेरे सीने में
इश्क के नाम से धड़कती रही
तेरे ख्यालों ,तेरी साँसों
तेरी लकीरों में
जीती- मरती रही .....
बस इक ....
ख्याल सा दिल में आता है
कहीं तू मिल जाता
तो चूम लेती तेरा वह आकाश
जहाँ बेपनाह मोहब्बत
रंगों का नूर लिए
बरसती है ......
खिल जाती चाँदनी
गर एक घूँट जाम
तेरे कैन्वस का पी लेती ...
गर रख देता तू कुछ सुर्ख रंग
स्याह लबों पे ...
घुल जाती रंगों में चांदनी
रफ्ता-रफ्ता उतर जाती
रात की बाँहों में ....
गर तू लिखता इक नज़्म
'हीर' के लिए ......
देख मैंने....
उतार दिया है जामा 'हक़ीर' का
और 'हीर' हो गई हूँ ...
'हीर' जो शमा बन
हर मोहब्बत करने वालों की कब्र पर
सदियों से जलती रही है
इमरोज़....
तुम भी जलाना इक शमा
मेरे नाम की कब्र पर ...... .!!
पेश है इमरोज़ को लिखा एक ख़त ....''तुम भी जलाना इक शमा मेरे नाम की कब्र पर .....''
इमरोज़
तेरे हाथों की छुअन
तेरी नज्मों की सतरों में
साँस ले रही है ....
और इन्हें छूकर मैंने
जी लिए हैं वे तमाम एहसास
जो बरसों तूने गुजारे थे
अपनी पीठ पर ....
किसी और नाम की
तड़प लिए ....
आज मैं ...
उस रूह सी पाक हो गई हूँ
जो तेरे सीने में
इश्क के नाम से धड़कती रही
तेरे ख्यालों ,तेरी साँसों
तेरी लकीरों में
जीती- मरती रही .....
बस इक ....
ख्याल सा दिल में आता है
कहीं तू मिल जाता
तो चूम लेती तेरा वह आकाश
जहाँ बेपनाह मोहब्बत
रंगों का नूर लिए
बरसती है ......
खिल जाती चाँदनी
गर एक घूँट जाम
तेरे कैन्वस का पी लेती ...
गर रख देता तू कुछ सुर्ख रंग
स्याह लबों पे ...
घुल जाती रंगों में चांदनी
रफ्ता-रफ्ता उतर जाती
रात की बाँहों में ....
गर तू लिखता इक नज़्म
'हीर' के लिए ......
देख मैंने....
उतार दिया है जामा 'हक़ीर' का
और 'हीर' हो गई हूँ ...
'हीर' जो शमा बन
हर मोहब्बत करने वालों की कब्र पर
सदियों से जलती रही है
इमरोज़....
तुम भी जलाना इक शमा
मेरे नाम की कब्र पर ...... .!!
Monday, November 9, 2009
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब वो पहले सी महक नहीं आती ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:12 PM
आज की शाम फ़िर बड़ी बेवफा निकली ....मन है कि यादों की पुरानी गठरी खोले बैठा है ....जरा से पन्ने पलटती हूँ तो शब्द इक तड़प लिए इधर -उधर बिखरे नजर आते हैं .....मैं सहानुभूति के लिए कंधे पे हाथ रखती हूँ तो ...छूते ही इक नज़्म उतर आती है .......
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब वो पहले सी महक नहीं आती
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर वो खुशबू नहीं आती
चलो अब लौट जायें , ख्यालों से उतर जायें
खलिश ये और गमे-दिल की सही नहीं जाती
बहुत रोया है रातों को , बहुत तड़पा है दिल मेरा
तेरे ख़्वाबों में गुजरी वो रातें बिसारी नहीं जातीं
आ फेर लें मुँह तान लें फ़िर वही अजनबी सी चादर
बेरुखी ये तेरे दिल की , अब और सही नहीं जाती
बदल ली हैं राहें अब , कदम भी हैं लौट आए
न जाने क्यों ख्यालों से तेरी आहटें नहीं जातीं
आ अय दर्द थाम ले मुझको अपनी बाँहों में
ये मय अब आखिरी प्याले की उठाई नहीं जाती
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब .........................
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर ..............!!
**************************
साथ ही पहें दो मुक्तक भी .....
बुलावे पे उनके जो न गए सनम
(2)
लिखा जो ये हथेली पे नाम वो किसका है ?
यूँ बनना,सजना,संवारना सब किसका है ?
तुम जो कहते हो 'हीर' को प्यार तुझसे नहीं
बता छाया आँखों में खुमार फिर किसका है ..?!!
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब वो पहले सी महक नहीं आती
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर वो खुशबू नहीं आती
चलो अब लौट जायें , ख्यालों से उतर जायें
खलिश ये और गमे-दिल की सही नहीं जाती
बहुत रोया है रातों को , बहुत तड़पा है दिल मेरा
तेरे ख़्वाबों में गुजरी वो रातें बिसारी नहीं जातीं
आ फेर लें मुँह तान लें फ़िर वही अजनबी सी चादर
बेरुखी ये तेरे दिल की , अब और सही नहीं जाती
बदल ली हैं राहें अब , कदम भी हैं लौट आए
न जाने क्यों ख्यालों से तेरी आहटें नहीं जातीं
आ अय दर्द थाम ले मुझको अपनी बाँहों में
ये मय अब आखिरी प्याले की उठाई नहीं जाती
न जाने क्यूँ तेरी बातों में अब .........................
ख़त तो अब भी आते हैं तेरे मगर ..............!!
**************************
साथ ही पहें दो मुक्तक भी .....
बुलावे पे उनके जो न गए सनम
ख्वाबों में आके यार मेरा छेड़ गया
वो जो बरसों से थे कहीं सुकूत पड़े
तेरा इश्क़ वो दिल के तार छेड़ गया ...
(2)
लिखा जो ये हथेली पे नाम वो किसका है ?
यूँ बनना,सजना,संवारना सब किसका है ?
तुम जो कहते हो 'हीर' को प्यार तुझसे नहीं
बता छाया आँखों में खुमार फिर किसका है ..?!!
Friday, November 6, 2009
नसीब के पन्ने.......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:56 AM
वह कई अंगारे सीने में दबाये बैठी थी ......बरसों यूँ ही सुलगती रही .....धीरे - धीरे अंगारे राख़ में बदलते गए .....आज भी वह जिस्म झाड़ती है तो दर्द के कई पत्ते गिर पड़ते हैं ....उन्हीं पत्तों से समेट कर लाई हूँ ये नज़्म ...." नसीब के पन्ने" .......
वह आग सीने में दबाये बैठी थी
जब तन्हाई जिस्म तोड़ती
वह खोल देती सारे
खिड़कियाँ, दरवाजे ...
खिड़की से बाहर बाहें फैला ..
कसकर भींच लेती अँधेरा
आसमान से टपक पड़ते
दो कतरे लहू के ......
वह फेंकने लगती
बरसों से इकठ्ठा की ख्वाहिशें
तोड़ डालती सारे ख्वाब
सपने मिट्टी में कब्र खोदते
दीवारों से उखड़ आई खामोशी
एक-एक कर ओढ़ने लगती
दर्द की चादर......
वह बाँध लेती...
जिस्म पर रस्सियाँ
बेतरतीब धड़कती धडकनों पर
लिख देती मिट्टी का नसीब
राख कहकहा लगाती
रात इक कोने में बैठी
पलटती रहती
चुपचाप
नसीब के पन्ने ........!!
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