आये थे कुछ वादों के साथ ....लौट गए ख़ामोशी से ...इस बार की ये तेरी ख़ामोशी खूब खलेगी वर्ष .....
ऐसा लगता है ये वर्ष जल्द बीत गया ...कई वादे थे ....उम्मीदें थी ..चाहतें थी ...पर सब की सब अधूरी ..... नए वर्ष की झोली में डाल चुपचाप लौट गया .... ...ऐसे वक़्त में नव वर्ष का स्वागत करूँ भी तो कैसे .....नव वर्ष वाले दिन से ही फिर अस्पताल में हूँ ...वहीँ बैठ कुछ नज्में लिखीं ...सामने आती हुई मौत का इक भयानक रूप है कि दर्द से रूह भी काँप उठे ...इन नज्मों में रब्ब से बस उनके लिए दुआएं हैं ....
अस्पताल से ...............
(१)
ये अस्पताल है
यहाँ पेड़ों पे नहीं उगती हँसी
सफ़ेद कपड़ों में सिर्फ मौत हँसती है
उड़ती राख़ में स्याह शिकस्त है
ऐसे में ये किसके क़दमों की आहट है
जाने की .....फिर .. फिर ...आने की ....
इस खिड़की से नहीं झांकती कभी ज़िन्दगी
फिर ये कौन आया है ...?
उफ्फ ....कैसी इंसानी सूरते हैं
हड्डियों का पिंजर है
और विकराल सी इक गंध
कंधों की चादर पे मौत नज़्म लिखती है
जहर का रंग बढ़ता जा रहा है
बदन का मांस अर्थी सजाता है
मिट्टी हक़ माँगती है
अल्लाह ...!
रात कफ़न लिए खड़ी है और ऐसे में नव वर्ष
द्वार पर दस्तक लिए खड़ा है .....
(२)
कैंसर से जूझता है बदन
लाल त्वचा ,जलन, बेचैनी
बैगनी होकर फटता ज़िस्म
अन्दर का लाल मांस बाहर आना चाहता है
मुसलसल झरती..धंसती सांसें ....
मैं बटोर कर खड़ी हूँ
स्मृतियाँ
दर्द की नीली चादर
मेरी शिराओं में फैल रही है
कोई काँटों की जड़े बोये जा रहा है
असहाय-कातर
विवशता का चरम है
कनपटी की कोई नस रह-रह कर फट रही है
छटपटाहट ...अन्धकार ....
ज़िन्दगी दूर होती जा रही है
एकटक...स्थिर ....
और मुट्ठी बंद है .......
(३)
खुदाया !
ये जहरीले रंग देखते -देखते
इस बदन से भी जहर रिसने लगा है
मिट्टी बौखला गई है
आँखें छत फाड़ती हैं
नज़्म मौत लिखती है
और तू तड़प ....
दुआ है
तुझसे नए वर्ष में
रिहा कर अब दर्द को
तड़प की इस कैद से .....
मुक्ति दे ...मुक्ति दे ...मुक्ति दे .....!!
Monday, January 2, 2012
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