Monday, October 18, 2010

तहज़ीब....पुकार....और तबशीर ......

ख्मी जुबाँ बहुत कुछ कहना चाहती थी ...पर कलम ने मुँह फेर लिया ...इस बीच मन में कई चूडियाँ टूटीं ....कई पन्ने लिखे और फाड़े .....मित्रों ने सलाह दी कमजोर बनूँ .....मैंने सारे पत्थर चुन कर रख लिए ....वैसे भी अब इन पत्थरों से इमारत बनने वाली है ....ज़िन्दगी की चादर है ही कितनी ...? रात परिंदे की सी कैद में कट जाएगी और सुब्ह दुआ मांगते ....पर ये लफ्ज़ हमारे पास वैसे ही जिंदा रहेंगे जितने कसैले हम बोयेगें ....
पहली नज़्म उन्हीं लफ़्ज़ों के नाम ...और फिर कुछ उदास आवाजों में मुहब्बत के नाम .....


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तहज़ीब ....

जी चाहता है
इस मिट्टी की
सारी ख़ामोशी चुरा लूँ
और ओढ़ लूँ
किसी ताबूत में बैठ ...
यहाँ इल्म की आँखें बड़ी हैं
और मेरी तहज़ीब छोटी
तुम्हारे लफ्ज़ अभी भी जिन्दा हैं
मेरे हाथों में .....
और इसलिए भी कि ....
इनके पीछे छिपी हैं
दो गहरी उदास आँखें
जो मेरी सोच को
और पुख्ता करती हैं
मुझ से न्याय मांगती हैं
हो सके तो कभी .....
उन
आँखों से दो बूंद
आँसू
बहने देना .....!!

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फूल.....

काले लिबास में
कोई फ़कीर इक
गजरे का फूल ...
डाल गया है झोली में
पनीली आँखों में
फिर तेरा ख्याल उतरा है
सोचती हूँ ....
अगले जन्म के लिए ही सही
कुछ रेखाएं खिंचवा लूँ उसी से
हथेली में ......!!

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इक बार ....

जानती हूँ ....
तुम्हारे मंदिर में
अब जगह नहीं है मेरी
फिर भी जाने क्यों
ये सूरज ज़िस्म की डोर
खींचे लिए जाता है ...
लिखने दे इक बार ख़त मुझे
गुलाब की पत्तियों से
के मौत ने आज जरा सा
घूँघट उतारा है ......!!

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पुकार .....

हवा....
ढ़ नाची है
पत्तियों पे आज
रंग कोई सुर्ख सा
उसने चुराया है ...
ख्वाहिशें रंगसाज से
रंगवा लाई हैं दुपट्टा मेरा
ख्वाबों ने रातों में
फिर मोहब्बत को
पुकारा है .....!!

()

कोई तो दे तबशीर ....

फिर
गिरी है दुआ ...
आज फिर हाथ उठा है
रात कपड़े उतारे बैठी है
फासले गर्द से भरे हैं
अय खुदा...!
कोई तो तबशीर दे मुझे
के आज मुहब्बत
अपनी हथेली फैला
खूब रोई है .....!!

तबशीर- शुभ सुचना