Friday, November 18, 2011
इक संगोष्ठी और 'सरहद से...' मनोहरलाल बाथम का काव्य संग्रह ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
5:31 PM
इक संगोष्ठी और 'सरहद से...' मनोहरलाल बाथम का काव्य संग्रह ......
ऊपर की पंक्ति में श्री बी के सिंह, सीमा सुरक्षा बल के उपमहानिरीक्षक श्री ए के शर्मा , प्रो.प्रेमलता (अध्यक्ष हिंदी विभाग ,विक्रम विश्वविद्यालय , उज्जैन) , श्रीमती उर्मिला कुलश्रेष्ठ (उज्जैन )
नीचे की पंक्ति में श्री रामचरण बट , डॉ आनंद मंगल सिंह कुलश्रेष्ठ (प्रांतीय अध्यक्ष ,हिंदी साहित्य सम्मलेन म.प्र.) , सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक ऍम. एल. बाथम , श्रीमती पुष्पलता राठौर , श्रीमती बी के सिंह, श्रीमती सरला मिश्रा , हरकीरत 'हीर'
सरहद से लौटते हुए ......
तुम अपनी सरहद को
पाक कहते हो
मैं भी ...
दोनों की है यह एक
यह प्यार करना नहीं सिखाती
माँ की तरह
बांटती है ....
हरदम सोचता हूँ मैं
सरहद से लौटते हुए ......बाथम
शिलांग से अचानक डॉ. अकेला भाई ( संयोजक, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी ) का फोन आया १५ नवम. को बी एस
ऍफ़ में एक हिंदी संगोष्ठी और कवि सम्मलेन है आई. जी. साहब जी की खास इल्तजा है कि हीर साहिबां को जरुर बुलाया जाये ...इसलिए आप इनकार नहीं कर सकती ...आपको आना ही है ....' इंकार नहीं कर सकती....' मतलब इस बीच मैं कई बार अकेला भाई जी को इनकार कर चुकी थी कवि सम्मलेन के लिए ....पर अब फरमाइश आई जी साहब की तरफ से थी तो जाना ही पड़ा ....
कविता पाठ करते हुए .....
कार्यक्रम बहुत ही यादगार रहा ....कार्यक्रम तो बढ़िया रहा ही पर आई जी साहब की सहृदयता देख विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि ऐसे भी इंसान होते हैं ....अपने पद और ओहदे का जरा भी गुमान न था उनमें ....वे कई बार उठ कर मेरे पास आये ...पूछते रहे, रहने-खाने की कोई असुविधा तो नहीं ...? ..आप आगे आकर बैठिये पीछे क्यों बैठ गईं हैं .....? ..यहाँ तक कि आने -जाने के लिए गाड़ी की भी व्यवस्था करके दी उन्होंने ...एक रात हमें रुकना पड़ा था वहाँ उसके लिए उन्होंने विशेष अतिथि कक्ष में इंतजार करवा रखा था ...सबसे बड़ी बात थी कि उनका खुद फोन करके पूछते रहना ...मिलने आना ...अपनी पुस्तकें भेंट करना ....उफ्फ... इतनी विनम्रता ..... ?
बहुत कुछ सीखना पड़ेगा बाथम जी आपसे .......:))
सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक ऍम एल बाथम तथा डॉ आनंद मंगल कुलश्रेष्ठ के हाथों स्मृति-चिन्ह लेते हुए ....
मनोहर लाल 'बाथम' यानि सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक (आई जी ) से मेरा परिचय हाल ही में हुआ जब वे अपनी क्षणिकाएं देने हमारे घर आये ....इतने बड़े ओहदे पर होने के बावजूद उनकी सादगी और विनम्रता ने मुझे हैरत में डाल दिया था ...विश्वास नहीं कर पा रही थी ... (क्योंकि इस क्षणिकाओं के चक्कर में कइयों ने मुझे अपने पद और कद की ऊँचाई-लम्बाई समझाई है)....उनकी बातों में इतनी सादगी और संजीदगी थी कि कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकेगा .....बाथम साहब अपनी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए राष्ट्रपति से पुलिस पदक प्राप्त कर चुके हैं . इसके अलावा इन्हें अपनी पहली पुस्तक ' आतंकवाद : चुनौती और संघर्ष 'के लिए गोविन्दवल्लभ पन्त पुरस्कार एवं इंदिरा गाँधी राजभाषा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार एवं कई अन्य प्रशस्ति-पत्र व पुरस्कार मिल चुके हैं ....
मेरा बाथम साहब की सादगी ने ही नहीं उनकी कविताओं ने भी मन जीत लिया था ....'सरहद से....' काव्य संकलन उन्होंने मुझे संगोष्ठी में ही भेंट किया . इसमें सरहद की एक एक घटना ...एक-एक दृश्य दिलों को बेंध देने वाली है ....शायद इसलिए सरदार पंछी जी ने कहीं इनकी ये पुस्तक जब पढ़ी तो तुरंत इन्हें फोन कर कहा कि , 'मैं इसे पंजाबी में तर्जुमा करने की इजाज़त चाहता हूँ '....गौरतलब है कि अब तक यह पुस्तक १४ भाषाओँ में अनुदित हो चुकी है ....सरहद एक ऐसी जगह है जहाँ अक्सर गोलियों और बारूद के बीच खून के छींटे नज़र आते रहते हैं ...जहाँ न ज़ज्बातों के लिए जगह है ...न अपनों के लिए रहम की ....बाथम जी ने इसी धुएँ में बिखरे दर्द को शब्दों में उड़ेल कर रख दिया है ...जो सीधे दिल और दिमाग को चीर कर निकलता है .....
इनकी कुछ नज्मों का अंश आपके लिए ......
'जुर्म' (कामरेड हामिद के लिए )- ईद के दिन हमारी चौकी पर/पीछे के दरवाज़े से /उसने सेवइयां भेजीं चुपचाप/किसी को न बताने की शर्त थी /मेरी दीपावली की मिठाई भी शायद इसी तरह से जाती /वो हो गया रुखसत दुनिया से /मेरे साथ ईद मनाने के जुर्म में ......
'गूंगा' -हर चौथे रोज़ ही दिखती थी /दो तीन बरस के बच्चे के साथ /डॉ से गिड़गिडाती / बच्चे के बोलने के इलाज के लिए /गूंगा लफ्ज़ उसे अच्छा नहीं लगता /माँ की तरह डॉ भी उम्मीदों के साथ /की तोतली आवाज़ में ही सही / निकलेगा 'अम्मी'/कल ही की तो बात है /उस ज़ालिम के बम से /चीखों से सारी बसती गूंजी /कहते हैं पहली और आखिरी बार /गूंगा भी चीखा था / '....अम्मी' .......................
ओह....निशब्द कर देने वाली रचनायें हैं ये ....
ये सरहदें किसने बनाई यहाँ , ये क्यों डाल दी गयीं दिलों में दरारे
मैं भी इंसां तू भी इंसां फिर ये बारूद का धुआँ क्यों बीच है हमारे
इक और नज़्म देखिये -
दोनों तरफ ''- मेरी नौकरी का पहला साल/पाक सीमा पर पहला दिन /न तो तनी-तनी भौहें / न खिंची खिंची तलवारें/ फसल कट रही है दोनों तरफ/पंजाबी लोक गीतों को आँख बंद कर सुन लो/ वही जोश,थिरकन भी वही/लफ़्ज़ों-लहजों में भी सब एक सा / चेहरे के रंगों में तो मुझे /कोई फर्क नज़र नहीं आता / ट्रेक्टर जरुर अलग-अलग कंपनी के हैं / 'नए हजूर' आये लगते हैं /रेंजर ने सूबेदार से पूछा/हाँ मियाँ आओ कैसे हो ?/ अल्ला का करम हजूर /फसल अच्छी हुई /और सब ठीक है न मैंने पूछा / हाँ जानवरों का ख्याल रखना हजूर /तुम अपने भगा देना मैं अपने भगा दूंगा / अच्छी फसल को नुकसान करने वाले /दोनों तरफ मौजूद हैं मियाँ !
बाथम जी के बारे सरदार पंछी जी लिखते हैं , ''उनकी कवितायें पढ़ते-पढ़ते पाठक उसी मानसिक अवस्था में विचरने लगता है जिसमें से कवि खुद गुजरा होता है और कवितायें पढ़ते वक़्त पाठकों की आँखें भी उसी तरह सजल हो जाती हैं जिस तरह शायर की हुई होती हैं ........'' ...मैं भी यही सोच रही हूँ ...इतनी संवेदनशीलता लेकर इस कवि ने १३ साल सीमा पे कैसे काटे होंगे .....? शायद रोज़ तिल-तिल कर मरना और फिर इन शब्दों के सहारे मन को सांत्वना देना .... कितना मुश्किल होता होगा ये रोज़ का जीवन-मरण .......
लीलाधर मंडलोई कवि के बारे कहते हैं कि '' 'सरहद से' आती इन कविताओं में वहां के जनजागरण और प्रकृति के साथ एक प्रहरी का अदेखा कठिन जीवन है . जीवन जिसमें दुःख,सपने,उदासी,तिक्तता,खीज,असहायता,जिजीविषा और अकेलापन है . उसके सपने को घेरते एक ओर खेत-खलिहान, माता-पिता , बच्चे,रिश्तेदार हैं तो दूसरी ओर नए सम्बन्ध जो सरहद पर बने , देश जिनसे अनभिज्ञ है .....''
कवि ....
सौ से ऊपर जवान / इतनी ही बंदूकें /तीन घोड़े एक गाड़ी/दस ऊँट और कुछ कुत्ते /यही मेरी रियासत /मेरा परिवार/यही मेरे सुख दुःख के साथी /दोस्त माँ-बाप और बच्चे ....
स्वयं बाथम जी ' मेरी बात' में लिखते हुए कहते हैं - ''प्रहरी का जीवन एक ऐसे अंधकार में होता है जिसे एक सामान्य व्यक्ति नहीं जनता . उसके लिए वह देश पर प्राण न्योछावर करने वाला एक आदर्श प्रतीक है . किन्तु उसका अज्ञातवास और अकेलापन कौन जनता है ? किसी अदेखी अचीन्ही भूमि पर प्रहरी अपना अकेलापन कभी फ्लेमिंगो की दोस्ती , कभी समुन्द्र की लहरों , कभी पेड़ -पौधों , कभी विराट रेगिस्तान ,कभी चिट्ठियों कभी हममुकाम दोस्तों तो कभी यादों के सहारे काटता है .... ''
बाथम जी की कवितायें प्रहरियों के जीवन की वह दास्ताँ है जिससे आम जन-जीवन बिलकुल अनभिग्य है ...सीमाओं के बीच होने वाले हादसे , घटनाएं ,वाद-विवाद नित धुएँ को हवा देने वाले होते हैं इसी धुएँ के बीच ये प्रहरी ईद भी मनाते हैं ,दिवाली भी और गुरपुरब भी ...सच्च में जीने का सलीका तो कोई इनसे सीखे .....
एक मंदिर है इसी दो सौ गज में / नमाज़ भी पढ़ी जाती है /क्रिसमस पर केक भी कटता है /वाहे गुरु की आवाजें रोज़ सुन लेना /रहने का सलीका सीखना हो अगर/बी ओ पी में चले आना ( बार्डर आउट पोस्ट )
मैं समीक्षा नहीं लिखती ..मेरे पास कितनी ही पुस्तकें आई पड़ी हैं मैं अक्सर सभी से यही कहती हूँ कि मैं समीक्षक नहीं हूँ ..न बाथम जी की इस पुस्तक की मैंने ये समीक्षा की है ...बस बाथम जी की ये कवितायें थीं जिन्होंने मुझे लिखने पर मजबूर किया क्योंकि ये दिल को छूती हुई रचनायें हैं जिसे पढ़ कर सहज ही कोई आह ..भर उठे ....
अंत में बाथम जी की ही एक कविता से अंत करती हूँ ....
न सुरों की सरहदें
न शब्दों की सरहदें
न हवाओं की सरहदें
न पक्षियों की सरहदें
सरहदें मुल्क की
मैं मुल्क का प्रहरी
मैं होना चाहता हूँ
सुर
शब्द
हवा
और पक्षी .......
अगर आपको इन रचनाओं ने जरा भी प्रभावित किया हो तो बाथम जी का न . ये है .....०९४३५५२२३४३ उन्हें फोन जरुर करें .....
प्रकाशक -शिल्पायन
शाहदरा , दिल्ली -110032
दूरभाष -011-२२८२११७४
मूल्य -125
Friday, November 4, 2011
बिक गया अमृता का मकां ......
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हरकीरत ' हीर'
at
10:25 PM
मेरी यही पोस्ट डेली न्यूज़ की पत्रिका खुशबू में कुछ इस प्रकार छपी जो मुझे मेल से वर्षा जी ने भेजी ....
बिक गया अमृता का मकां ......
ਉਸ ਨਾਲ ਰਲ ਕੇ
ਇੱਟ ਇੱਟ ਕਮਾ ਕੇ
ਇੱਟ ਇੱਟ ਲਾ ਕੇ
ਇਕ ਮਕਾਨ ਬਣਾਇਆ ਸੀ
ਤੇ ਸਾਹ ਸਾਹ ਜਿਉਂ ਕੇ
ਇਕ ਸਾਥ ਵੀ…
ਸਾਥ ਤੇ ਸਾਥ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਵੀ
ਇਕ ਮਕਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਇਹ ਮੈਨੂੰ ਉਸ ਦੇ ਜਾਣ ਦੇ ਬਾਅਦ
ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਹੈ…
ਹੁਣ ਸਾਮਾਨ ਤੇ ਮੇਰਾ
ਕੱਲ੍ਹ ਦੇ ਮਕਾਨ ਵਿਚ ਹੈ
ਤੇ ਮੈਂ ਸ਼ਿਫਟ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ-
ਸਾਥ ਦੇ ਮਕਾਨ ਵਿਚ…
ਮੇਰਾ ਨਵਾਂ ਪਤਾ
ਮਕਾਨ ਨੰਬਰ ਗਲੀ ਨੰਬਰ ਸੜਕ ਨੰਬਰ
ਇਲਾਕਾ ਤੇ ਸ਼ਹਿਰ ਮੈਂ ਹੀ ਹਾਂ
ਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਦਾ ਪਤਾ
ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ
ਆਪਣਾ ਆਪ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ…
-ਇਮਰੋਜ਼.....
अमृता की संजोयी यादें अब मलवे के ढेर में दफ़्न हो गयीं हैं ....
पिछले दिनों क्षणिकाओं के लिए इमरोज़ जी को कई बार फोन किया ....हर बार वो कहते जल्द ही भेज रहा हूँ ...मैं इन्तजार करती और फिर फोन करती ....आज करीबन चार महीने बाद इमरोज़ जी का कोरियर आया ...करीब ३५ पन्नो की सामग्री ...कुछ क्षणिकाएं ..कुछ नज्में ...कुछ शायरी ....बस नहीं था तो वो पता ....''२५ हौज ख़ास, दिल्ली '' ....
कई बार पन्ने पलट कर देखा इमरोज़ , एन -१३, ग्रेटर कैलाश-१, फस्ट फ्लोर , न्यू दिल्ली .....पर हौज खास कहीं न दिखा ....
आज अचानक नेट पे एक पंजाबी साईट खोलते वक़्त इन पंक्तियों पर नज़रें जड़ सी गई ....'' इमरोज़-अमृता का हौज खास का घर ढह गया है '' उफ्फ.....दिल धक् सा रह गया .....अभी पिछले ही साल एक अज़ीज़ मित्र मेरी नज्में लेकर इमरोज़ जी के पास गए थे ...उन्होनें उस मकान की इक-इक वस्तू का कुछ यूँ ज़िक्र किया जैसे अमृता आज भी वहाँ साँस ले रही हो ...घर की इक -इक दीवार कैनवास बनी हुई थी और अमृता हर दीवार का आसमां ....उसके एवार्ड, उसकी तस्वीरें , उसकी पुस्तकें .....खुद इमरोज़ जी भी यूँ बात कर रहे थे जैसे अमृता अब भी उनके साथ हो ...पूछने पर उन्होंने कहा भी ,'अमृता गई ही कहाँ है , वो तो आज भी जिन्दा है ...घर की इक-इक दीवार में , छत पर खिले इक-इक फूल की महक में , इक-इक पत्ती में वह नज़्म बन खड़ी है ...मैं रोज़ सवेरे शाम इन्हें पानी देता हूँ वो मेरे साथ मुस्कुराती है ...हर ओर अमृता की होंद का एहसास ...'अमृता-इमरोज़' की सांझी नेम प्लेट , 'नागमणि' का नाम , वह दरवाजा जिस पर गुरमुखी में अमृता ने लिखा था ,'' परछाइयों को पकड़ने वालो ,छाती में जलती आग की कोई परछाई नहीं होती '' ....उफ्फ....कितना मुश्किल हुआ होगा इमरोज़ के लिए वह घर छोड़ना ....उन तमाम यादों को टूट कर बिखरते हुए देखना ....अमृता को गए ६ वर्ष हो गए ....उसकी यादें ...उसके सपने ...उसके दर्द उस घर के इक-इक ईंट में बसे हैं ....उफ्फ....यूँ लग रहा है जैसे जीते जी किसी ने मेरा कोई अंग काट लिया हो ....इमरोज़ ने क्यूँ कर जरा होगा ये सब ....दिल माना नहीं तुरंत फोन लगाया उन्हें ....पर मेरी आवाज़ भरी हुई थी ...सीधे पूछ बैठी ..अमृता की यादों को क्यूँकर ढहने दिया आपने ...उन्होंने कहा ढहा नहीं बेच दिया ...बच्चों को कुछ रकम की जरुरत थी ....यहाँ हमने दो फ़्लैट लिए हैं ....पर तुम मन छोटा न करो मैं अमृता की तमाम यादें अपने साथ ले आया हूँ ....वह नेम प्लेट , दरवाज़ा, तमाम तस्वीरें ,एवार्ड , उसका पलंग ....बल्कि अमृता का एक अलग से कमरा बना दिया है ..उससे भी अधिक सुन्दर ....कभी दिल्ली आई तो तुम्हें दिखाऊंगा ...और तुम कोई नज़्म क्यों नहीं भेज रही ..? लिख भी रही हो या नहीं ..? मैंने अभी ३१ को इक नज़्म लिखी है तुम्हें भेजता हूँ ...तुम्हें पता है न अमृता आई भी ३१ को थी और गई भी ३१ को ...?...मैंने शीर्षक भी '३१ ...' ही रखा है ....उन्होंने विषय मोड़ दिया था ...पर मेरा मन अभी भी हौज खास के उसी मकां में उलझा था ...कभी अमृता ने चाहा था कि उसका वह कमरा मियुजियम बने पर अब अमृता की तमाम यादों पर इक बहुमंजिला ईमारत तामीर होने जा रही थी ...क्या अमृता उस मिट्टी को छोड़ पायेगी ....? उसकी रूह उसकी आत्मा वहाँ के जर्रे-जर्रे में बसी है .....आह ....!...आज इतना तो कहूँगी कि पंजाब की साहित्यिक संस्थाएं , पंजाब सरकार , पंजाब साहित्य अकादमी अपने साहित्कारों की निशानियाँ सँभालने में नाकाम रही .....
ऊपर इमरोज़ की 'नए पते' पर लिखी इक नज़्म का हिंदी अनुवाद ......
उसके साथ मिलकर
ईट-ईट कमा कर
ईंट ईंट लगा कर
इक मकां बनाया था
और साँस-साँस जी कर
इक साथ भी ....
साथ और साथ का एहसास भी
इक मकां होता है
यह मुझे उसके जाने के बाद
पता चला है .....
अब सामान तो मेरा
कल के मकां में है
पर मैं सिफ्ट कर गया हूँ
साथ के मकां में ....
मेरा नया पता
मकान न. ,गली न.,सड़क न .
इलाका और शहर मैं ही हूँ
और अपने आप का पता
और कोई नहीं होता
अपना आप ही होता है ....
इमरोज़ .....(अनु: हरकीरत 'हीर')
*************************
यकीं नहीं होता
अब भी इमरोज़ ...
क्यूँ कर बाँट दी तुमने साँसे
यकीं मानों वो अब भी वहीँ है
क्यूँकर लगने दी तुमने
अपनी सांसों की कीमत ?
वह देख वह अब भी तड़प रही है
उस मलवे के ढेर तले ....
अपनी उसी नज़्म को तलाशती
जो कई बार उसने
तुम्हारी पीठ पर लिखी थी ...
याद होगा तुम्हें ....
यहीं ज़िन्दगी के कई पन्ने जन्में थे
यहीं ज़िस्म के कई अक्षर खिले
यहीं मोहब्बत ने दीयों में तेल डाला
यहीं ख़ामोशी ने लिबास उतारा
यहीं इश्क ने उम्र की कड़वाहट पी ...
तुमने क्यूँकर बोली लगने दी ....?
इमरोज़ ....!
तुमने क्यूँकर बाँट दी साँसें .....
वह घर घर नहीं था ...
मंदिर था इश्क का
वहीँ बैठ अमृता ने लिखे
कई पत्थरों पे फरमान
अम्बर के आले में सूरज को जलाया
धागे जोड़-जोड़ कर फटे शालुओं को सिया
आज तेरे हाथों से ये रौशनी कैसे गिर गई
इमरोज़ ....!
तूने छाती को चीरकर
दर्द क्यों न दिखलाया.... ?
इमरोज़ तूने क्यूँकर बाँट दी साँसे .....?
इमरोज़ तूने क्यूँकर बाँट दी साँसे .....??
हीर......
बिक गया अमृता का मकां ......
ਉਸ ਨਾਲ ਰਲ ਕੇ
ਇੱਟ ਇੱਟ ਕਮਾ ਕੇ
ਇੱਟ ਇੱਟ ਲਾ ਕੇ
ਇਕ ਮਕਾਨ ਬਣਾਇਆ ਸੀ
ਤੇ ਸਾਹ ਸਾਹ ਜਿਉਂ ਕੇ
ਇਕ ਸਾਥ ਵੀ…
ਸਾਥ ਤੇ ਸਾਥ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਵੀ
ਇਕ ਮਕਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਇਹ ਮੈਨੂੰ ਉਸ ਦੇ ਜਾਣ ਦੇ ਬਾਅਦ
ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਹੈ…
ਹੁਣ ਸਾਮਾਨ ਤੇ ਮੇਰਾ
ਕੱਲ੍ਹ ਦੇ ਮਕਾਨ ਵਿਚ ਹੈ
ਤੇ ਮੈਂ ਸ਼ਿਫਟ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ-
ਸਾਥ ਦੇ ਮਕਾਨ ਵਿਚ…
ਮੇਰਾ ਨਵਾਂ ਪਤਾ
ਮਕਾਨ ਨੰਬਰ ਗਲੀ ਨੰਬਰ ਸੜਕ ਨੰਬਰ
ਇਲਾਕਾ ਤੇ ਸ਼ਹਿਰ ਮੈਂ ਹੀ ਹਾਂ
ਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਦਾ ਪਤਾ
ਹੋਰ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ
ਆਪਣਾ ਆਪ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ…
-ਇਮਰੋਜ਼.....
अमृता की संजोयी यादें अब मलवे के ढेर में दफ़्न हो गयीं हैं ....
पिछले दिनों क्षणिकाओं के लिए इमरोज़ जी को कई बार फोन किया ....हर बार वो कहते जल्द ही भेज रहा हूँ ...मैं इन्तजार करती और फिर फोन करती ....आज करीबन चार महीने बाद इमरोज़ जी का कोरियर आया ...करीब ३५ पन्नो की सामग्री ...कुछ क्षणिकाएं ..कुछ नज्में ...कुछ शायरी ....बस नहीं था तो वो पता ....''२५ हौज ख़ास, दिल्ली '' ....
कई बार पन्ने पलट कर देखा इमरोज़ , एन -१३, ग्रेटर कैलाश-१, फस्ट फ्लोर , न्यू दिल्ली .....पर हौज खास कहीं न दिखा ....
आज अचानक नेट पे एक पंजाबी साईट खोलते वक़्त इन पंक्तियों पर नज़रें जड़ सी गई ....'' इमरोज़-अमृता का हौज खास का घर ढह गया है '' उफ्फ.....दिल धक् सा रह गया .....अभी पिछले ही साल एक अज़ीज़ मित्र मेरी नज्में लेकर इमरोज़ जी के पास गए थे ...उन्होनें उस मकान की इक-इक वस्तू का कुछ यूँ ज़िक्र किया जैसे अमृता आज भी वहाँ साँस ले रही हो ...घर की इक -इक दीवार कैनवास बनी हुई थी और अमृता हर दीवार का आसमां ....उसके एवार्ड, उसकी तस्वीरें , उसकी पुस्तकें .....खुद इमरोज़ जी भी यूँ बात कर रहे थे जैसे अमृता अब भी उनके साथ हो ...पूछने पर उन्होंने कहा भी ,'अमृता गई ही कहाँ है , वो तो आज भी जिन्दा है ...घर की इक-इक दीवार में , छत पर खिले इक-इक फूल की महक में , इक-इक पत्ती में वह नज़्म बन खड़ी है ...मैं रोज़ सवेरे शाम इन्हें पानी देता हूँ वो मेरे साथ मुस्कुराती है ...हर ओर अमृता की होंद का एहसास ...'अमृता-इमरोज़' की सांझी नेम प्लेट , 'नागमणि' का नाम , वह दरवाजा जिस पर गुरमुखी में अमृता ने लिखा था ,'' परछाइयों को पकड़ने वालो ,छाती में जलती आग की कोई परछाई नहीं होती '' ....उफ्फ....कितना मुश्किल हुआ होगा इमरोज़ के लिए वह घर छोड़ना ....उन तमाम यादों को टूट कर बिखरते हुए देखना ....अमृता को गए ६ वर्ष हो गए ....उसकी यादें ...उसके सपने ...उसके दर्द उस घर के इक-इक ईंट में बसे हैं ....उफ्फ....यूँ लग रहा है जैसे जीते जी किसी ने मेरा कोई अंग काट लिया हो ....इमरोज़ ने क्यूँ कर जरा होगा ये सब ....दिल माना नहीं तुरंत फोन लगाया उन्हें ....पर मेरी आवाज़ भरी हुई थी ...सीधे पूछ बैठी ..अमृता की यादों को क्यूँकर ढहने दिया आपने ...उन्होंने कहा ढहा नहीं बेच दिया ...बच्चों को कुछ रकम की जरुरत थी ....यहाँ हमने दो फ़्लैट लिए हैं ....पर तुम मन छोटा न करो मैं अमृता की तमाम यादें अपने साथ ले आया हूँ ....वह नेम प्लेट , दरवाज़ा, तमाम तस्वीरें ,एवार्ड , उसका पलंग ....बल्कि अमृता का एक अलग से कमरा बना दिया है ..उससे भी अधिक सुन्दर ....कभी दिल्ली आई तो तुम्हें दिखाऊंगा ...और तुम कोई नज़्म क्यों नहीं भेज रही ..? लिख भी रही हो या नहीं ..? मैंने अभी ३१ को इक नज़्म लिखी है तुम्हें भेजता हूँ ...तुम्हें पता है न अमृता आई भी ३१ को थी और गई भी ३१ को ...?...मैंने शीर्षक भी '३१ ...' ही रखा है ....उन्होंने विषय मोड़ दिया था ...पर मेरा मन अभी भी हौज खास के उसी मकां में उलझा था ...कभी अमृता ने चाहा था कि उसका वह कमरा मियुजियम बने पर अब अमृता की तमाम यादों पर इक बहुमंजिला ईमारत तामीर होने जा रही थी ...क्या अमृता उस मिट्टी को छोड़ पायेगी ....? उसकी रूह उसकी आत्मा वहाँ के जर्रे-जर्रे में बसी है .....आह ....!...आज इतना तो कहूँगी कि पंजाब की साहित्यिक संस्थाएं , पंजाब सरकार , पंजाब साहित्य अकादमी अपने साहित्कारों की निशानियाँ सँभालने में नाकाम रही .....
ऊपर इमरोज़ की 'नए पते' पर लिखी इक नज़्म का हिंदी अनुवाद ......
उसके साथ मिलकर
ईट-ईट कमा कर
ईंट ईंट लगा कर
इक मकां बनाया था
और साँस-साँस जी कर
इक साथ भी ....
साथ और साथ का एहसास भी
इक मकां होता है
यह मुझे उसके जाने के बाद
पता चला है .....
अब सामान तो मेरा
कल के मकां में है
पर मैं सिफ्ट कर गया हूँ
साथ के मकां में ....
मेरा नया पता
मकान न. ,गली न.,सड़क न .
इलाका और शहर मैं ही हूँ
और अपने आप का पता
और कोई नहीं होता
अपना आप ही होता है ....
इमरोज़ .....(अनु: हरकीरत 'हीर')
*************************
यकीं नहीं होता
अब भी इमरोज़ ...
क्यूँ कर बाँट दी तुमने साँसे
यकीं मानों वो अब भी वहीँ है
क्यूँकर लगने दी तुमने
अपनी सांसों की कीमत ?
वह देख वह अब भी तड़प रही है
उस मलवे के ढेर तले ....
अपनी उसी नज़्म को तलाशती
जो कई बार उसने
तुम्हारी पीठ पर लिखी थी ...
याद होगा तुम्हें ....
यहीं ज़िन्दगी के कई पन्ने जन्में थे
यहीं ज़िस्म के कई अक्षर खिले
यहीं मोहब्बत ने दीयों में तेल डाला
यहीं ख़ामोशी ने लिबास उतारा
यहीं इश्क ने उम्र की कड़वाहट पी ...
तुमने क्यूँकर बोली लगने दी ....?
इमरोज़ ....!
तुमने क्यूँकर बाँट दी साँसें .....
वह घर घर नहीं था ...
मंदिर था इश्क का
वहीँ बैठ अमृता ने लिखे
कई पत्थरों पे फरमान
अम्बर के आले में सूरज को जलाया
धागे जोड़-जोड़ कर फटे शालुओं को सिया
आज तेरे हाथों से ये रौशनी कैसे गिर गई
इमरोज़ ....!
तूने छाती को चीरकर
दर्द क्यों न दिखलाया.... ?
इमरोज़ तूने क्यूँकर बाँट दी साँसे .....?
इमरोज़ तूने क्यूँकर बाँट दी साँसे .....??
हीर......
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