फिर एक नज़्म इमरोज़ जी को ....और प्रत्युतर में इमरोज़ जी की ये नज़्म .....-कुछ आज़ादी के नए मायने सिखाती हुई ....इमरोज़ जी को ख़त रूप में भेजी अपनी नज़्म नीचे पोस्ट कर रही हूँ .........
जिन्होंने अमृता इमरोज़ को नहीं पढ़ा बता दूँ .....अमृता 'साहिर लुधियानवी' को चाहती थी और इमरोज़ अमृता को .....अमृता ने अपनी आत्मकथा में खुद इस बात को स्वीकार किया है कि वे इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम लिखती रहीं हैं ....पर अंत तक इमरोज़ ही उनका साथ निभाते रहे .....
मनचाही आज़ादी माँ -बाप के पास भी नहीं होती
कि वह अपने बच्चों को दे दें ...
मनचाही आज़ादी तो मज़हब के पास भी नहीं होती
कि वह अपने लोगों को दे सके
मनचाही आज़ादी सब शायरों के पास भी नहीं होती
कि वह अपनी शायरी को दे पाएं .....
कभी-कभी कोई रेयर शायर अपनी शायरी से बाहर
निकल कर अपनी शायरी को देखता है
जिसमें उसकी ज़िन्दगी की तरह उसकी शायरी में भी
मनचाही आज़ादी कहीं नज़र नहीं आती
सोच-सोच में ही उसकी मनचाही आज़ादी
एक कहानी बन जाती है .....
एक झील के किनारे एक पार्टी चल रही है
जिसमें एक बहुत खूबसूरत औरत है
जिसको सब मुड-मुड कर देख रहे हैं
एक अमीरजादा उठकर औरत को प्रपोज कर देता है
औरत कहती है तूने मुझे पसंद किया है
तुम्हारा शुक्रिया अब मेरी पसंद सुन लो
फिर प्रपोज करना .....
इस झील के इस पार मेरा घर है तुम दूसरी तरफ
अपना घर बना लो मैं तुम्हें जब बुलाऊंगी
तुम आ जाना और जब तू मुझे बुलाएगा
मैं आ जाया करुँगी .....
ये झील पानी की भी है
और संस्कारों की भी
इस झील को पार करके हम
एक-दुसरे को आते-जाते मिलते रहेंगे
अमीरजादे ने हैरान होकर कहा
ये कैसी शादी है ....?
ये शादी नहीं आजादी है
मनचाही ज़िन्दगी ही
मनचाही आज़ादी है .......!!
......इमरोज़.......
(२)
इमरोज़ के नाम ......
इमरोज़ .......
इक अरसा हुआ तेरे ख़त इंतजार में
कई शबें हादसों के साथ और बीत गयीं .....
कुछ और चुप्पियों ने सी लिए अपने होंठ
बस इक ख्याल था तेरा
नज़्म ले उतर आओगे तो
मन के किसी दुखते कोने में रख
कुछ देर महसूस लूंगी उन पलों को
जो बरसों तूने दूरियों के रेगिस्तान में
प्यार की प्यास लिए बिताएं हैं ....
उन वरकों में सहेज लूंगी जहाँ
कई चीखों ने थकने के बाद
दम तोडा है ......
इस उम्मीद से कि
शायद कोई ज़ख्म फिर रिसने लगे
और ठहरे हुए अश्क फिर सिसक उठें....
इक लम्बा अरसा बीत गया
हीर अब भी तकती है राह तेरे खतों की
तेरी उन पाक सतरों की जिसने
इक पाक रूह को छुआ है , पढ़ा है , जाना है
जो हाथों में हाथ डाले ज़िन्दगी के अंतिम क्षणों तक
साथ चलें हैं ,मुस्कुराये हैं ,खिलखिलाए हैं ....
जानते हो इमरोज़ ....?
तुम्हारी मुहब्बत मजनू या रांझे से कहीं ऊपर है
तुम अपनी ठिठुरती मुहब्बत के लिए
सारी उम्र साहिर के नाम के कपडे सीते रहे
अपनी पीठ पर किसी और नाम के अक्षरों को
चुपचाप जरते रहे ......
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
न किसी के पास ऐसी सुई होती है जो
मुहब्बतों के फटे पैराहनों को
चाहत के धागों से
अंतिम दम तक सीता रहे ....
तभी तो हीर तकती है राह तेरे खतों की
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!
.........हीर.......
Sunday, August 15, 2010
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76 comments:
रचना बहुत शानदार है
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!
http://iisanuii.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html
तभी तो हीर तकती है राह तेरे खतों की
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!
लाजबाब रचना ...बहुत सुन्दर...!!
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!
http://iisanuii.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html
उन्हें आज भी आजादी चाहिएआजादी जीने कीहंसने की, बतलाने कीआजादी चाहिए कमाने कीभरपेट खाने कीकरोड़ों, जो गरीबी के गुलाम हेंउन्हें आजादी चाहिए, आजादीआजादी कहने कीजुल्म न सहने कीआजादी उठने की, बैठने कीदेखने की, अपनी आंखों सेसुनने की, अपने कानों से.वो हरपल तुम्हें खून देते हैंअब तुम बताओतुम बताओ, क्या 'सुभाष' की भांति तुम उन्हें आजादी दोगे? ----------------------------
बहुत दिनों बाद पेश किया ये अंदाज़...
बहुत भाया है...भावनाओं की प्रस्तुति शानदार है.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं.
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
न किसी के पास ऐसी सुई होती है जो
मुहब्बतों के फटे पैराहनों को
चाहत के धागों से
अंतिम दम तक सीता रहे ..
स्वाधीनता दिवस की अनेक शुभकामनाएं.
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आपको बहुत बहुत बधाई .कृपया हम उन कारणों को न उभरने दें जो परतंत्रता के लिए ज़िम्मेदार है . जय-हिंद
उत्तर-प्रतिउत्तर -दोनों ही अद्भुत!!
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
सादर
समीर लाल
दोनों नज्में जज्बातों से भरी हुई ..बहुत सुन्दर
मनचाही आज़ादी माँ -बाप के पास भी नहीं होती
कि वह अपने बच्चों को दे दें ...
मनचाही आज़ादी तो मज़हब के पास भी नहीं होती
कि वह अपने लोगों को दे सके
मनचाही आज़ादी सब शायरों के पास भी नहीं होती
कि वह अपनी शायरी को दे पाएं .....
सच ही कहा औरो के लिये जीने पर ,यह आज़ादी अपने हाथ से कब फ़िसल जाती है इसका अन्दाज भी नही लग पाता ,आप को बहुत बधाई इस स्वन्त्रता दिवस की .
दो दो जबरदस्त नज्म.....हीर जी आजादी की हार्दिक शुभकामनाएं..देर से ....
एक बात पता चली है कि आप दर्द के अलावा हंसी के रसगुल्ले भी परोसती हैं....वैसे दर्द पर अपने कई लोग मुस्कुराते हैं....ये तो हमें पता है..पर जरा उस अंदाज को एक बार तो दिखाइए...इंतजार में
bas aise hi jadoo karti chaliye..meri shubhkamnayen hai :)
बहुत सुन्दर...स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!
बहुत बड़ा जिगर होना चाहिए ...और है भी इमरोज़ का ...
प्रयुत्तर में उनकी ग़ज़ल ....मनचाही ज़िन्दगी ही
मनचाही आज़ादी है...
दोनों लाजवाब ...!
इमरोज़ की मोहोबत्त ,बहुत बड़ा जिगरा चाहिए ,........किस तरह करू सलाम मैं लायक ही नहीं इतना काश!!!!!!!!!!!! कि हो पाता ...........अमृता ,इमरोज़ और हरकीरत 'हीर' को सलाम अपुन का.....................सादर चरण वंदन ......................
ज़िस्म जलता हैं मेरा ..........रूह तकती हैं तुझे .............और मैं आज भी सोचता हूँ ........जी भर कर जी लेता हूँ उन सत्रह मिनट की ख़ालिस आज़ादी को...............जो तेरी बाहों में मेरे हिस्से पूरी ज़िन्दगी बन कर छा गयी.......................
मनचाही ज़िन्दगी ही
मनचाही आज़ादी है .......!!
बस ऐसी आज़ादी मिल नहीं पाती ।
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
कमल की बात कही है ।
दोनों ही रचनाएँ अपने आप में ग़ज़ब हैं जी ।
आज़ादी की सालगिरह की मुबारक ।
मनचाही ज़िन्दगी ही
मनचाही आज़ादी है .......!!
Bade achche shabdon me aapne aazaadi ka matlab bayan kiya hai.
Regards,
हीर तकती है राह तेरे खतों की,
इमरोज़ के नाम कही नज़्म में आपने फिर से अहसास कराया दर्द और मुहब्बत के बीच की पाकीजगी को.
-
आजादी और आजादी पर्व की बधाई आपको!!
अच्छी प्रस्तुति .....
स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाये और बधाई
इमरोज़* की शाइरी लाजवाब.
इमरोज़ जी की नज़्म लाजवाब.
# इक अरसा हुआ तेरे ख़त के इन्जार में
इन्जार = इंतज़ार, जल्दबाजी में त्रुटि हो गयी है.
* इमरोज़ मतलब 'आज़ के दिन की'
तुम अपनी ठिठुरती मुहब्बत के लिए
सारी उम्र साहिर के नाम के कपडे सीते रहे
वाह...वाह...वाह...कमाल की पंक्तियाँ हैं...अभी हाल ही में अमृता इमरोज़ पर एक किताब पढने को मिली...जिसमें उन दोनों के अनछुए पलों को कैद किया हुआ है...अद्भुत किताब है...एक सांस में पढ़ गया...
आपकी इस पोस्ट के लिए धन्यवाद...
नीरज
....अभी कई आज़ादिया आनी बाकी है ...खास तौर से जेहन की
"Wowwww"
ek shaandaar rachna ...........dil ko chhuti hui........:)
दोनों ही रचनाओं के लिये निशब्द हूँ……………बस उस ख्याल मे डूब -उतर रही हूं।
मनचाही ज़िन्दगी ही
मनचाही आज़ादी है .
bahut sundar rachana..
इसे कहते हैं धमाका
बधाई...
hi..
Muhabbat ek
chah hai...
deewangi hai...
ahsaas hai...
pyaas hai...
talash hai....
bandgi hai...
dua hai...
sada hai....
asar hai....
geet hai...
gazal hai....
ashar hai...
nazm hai....
Muhabbat "Emroz" hai...
"Emroz" Muhabbat hai...
*******************
Donon nazmen...sundar...
Deepak...
जानते हो इमरोज़ ....?
तुम्हारी मुहब्बत मजनू या रांझे से कहीं ऊपर है
तुम अपनी ठिठुरती मुहब्बत के लिए
सारी उम्र साहिर के नाम के कपडे सीते रहे
अपनी पीठ पर किसी और नाम के अक्षरों को
चुपचाप जरते रहे ......
बहुत सुन्दर लिखा है, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है की इन पंक्तियों को पढ़ कर इमरोज़ जी के दिल को ठेस पहुच सकती है!माफ़ कीजिएगा!
:)
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!
आदाब !
एक सुंदर रचना से साक्षत्कार हुआ है!......धन्यवाद हरकीरत!...अपने उपन्यास के बारे में अभी बहुत कुछ बताना बाकी है...लेकिन जैसा कि मैने बताया, अभी मै छुट्टी पर हूं!.....जर्मनी से मेरी बेटी, दामाद और द्यौते आए हुए है!...इन सभी के साथ खूब एन्जोए कर रही हूं!... कुछ दिनों बाद अवश्य अपने ब्लॉग पर आउंगी!
kyaa kahoo poori nazm pi gai hoon
imroz ki aapko tlaash he to fir
puri kyun nhin hoti koi btlaao
shiddt se kisi ko chaaho
jese piroye hen alfaaz khubsurt nsm men aapne
bs yhi krte jaao sb mil jaayegaa achchi rchna ke liyen bdhaayi. akhtar khan akela kota rajsthan
निलेश जी ,
ठेस तब न लगी जब अमृता उनकी पीठ पर साहिर का नाम लिखती रही तो अब क्या लगेगी .....
इमरोज़ और अमृता ने जमाने की इतनी बातें सुनी हैं कि अब ये बातें उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं .....
इस नज़्म को पढने के बाद ही इमरोज़ जी उपरोक्त नज़्म भेजी है ....इस बीच कई बार फोन पर बातचीत ....कहते हैं तुम दूसरी अमृता हो .....
शब्द ही नहीं है कुछ कहने को बस विमुग्ध हूँ |
bahut hi umdaah rachna....
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!
mere blog par is baar
rashtriya dhwaj ka mahatwa...
bhavnaon ke athaah saagar
me prem ke motee ki chamak
in shabd tarangon ka hindola
sa jhooltee hai aapki
rachnaon me.
Shubhkamnaye
देर से आने के लिये क्षमा। वैसे जम हम आज़ाद हैं तो कभी भी आ जा सकते हैं अभी देर नही हुत्यी। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
आपकी रचनाओं के बारे मे तो हमेशा ही निश्बद हो जाती हूँ। हर चीज़ सीमा मे बन्धी रहे तो उपयोगी रहती है। सीमा से बाहर हुयी नही कि तबाही मचा देती है जैसे हमारे आज़ाद नेता और भ्रष्टाचारी आज़ादी का दुरुपयोग कर रहे हैं। अच्छी लगी दोनो रचनायें। बधाई
निर्मला जी ,
यह एक बहस का मुद्दा है ....
स्वतंत्र सम्बन्ध ....अब कानून ने भी इसे मान्यता दे दी है .....
तो क्या कहेंगे .....?
दुसरे ये इमरोज़ जी के विचार हैं ....मैं तो बस उन्हें नमन करती हूँ
क्योंकि उन्होंने जिन मुश्किलों में अमृता का साथ निभाया वो भी दस वर्ष छोटे होते हुए
क्या कोई कर सकता है .....?
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
न किसी के पास ऐसी सुई होती है जो
मुहब्बतों के फटे पैराहनों को
चाहत के धागों से
अंतिम दम तक सीता रहे ....
तभी तो हीर तकती है राह तेरे खतों की
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!
आभार
तुम अपनी ठिठुरती मुहब्बत के लिए
सारी उम्र साहिर के नाम के कपडे सीते रहे
अपनी पीठ पर किसी और नाम के अक्षरों को
चुपचाप जरते रहे ......
kya aisee mohabbatein hoti hain ab bhi..shayad !
ek alag hi kism ki rachna... behatreen hamesha ki tareh!
"Azaadi" .... so eksaag dhula aaian hain aaj ke waqt mein aadmi aur aura ke rishte ka..
जी रितिका जी इमरोज़ ऐसी ही मोहब्बत की मिसाल हैं ...आज भी इमरोज़ अमृता के बेटे व बहू के साथ दिल्ली हौज़ ख़ास में रहते हैं .....कमरे में अमृता के बनाये चित्र ...उनकी पुस्तकें ...यादें ..इमरोज़ की पेंटिंग्स ......वो तो कहते हैं अमृता मरी ही नहीं ...इसलिए उनका ज़िक्र भूतकाल में नहीं करते ...वर्तमान में ही करते हैं ..
.अद्भुत इंसान हैं वो .....
उनका पहला काव्य -संकलन जल्द ही प्रकाशित हो रहा है .....!!
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
ख़ूब ,बहुत ख़ूब!
वाक़ई हर किसी में ये जज़्बा नहीं होता
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का ।
आपकी यह रचनायें भी हमेशा की तरह लाजवाब, दिल को छूते शब्द, गहरे भाव, अनुपम ।।
इस रचना में खो गया ...... बस बार बार पढ़ने का मन करता है ... गहरे में इस एहसास में डूबने को मन करता है ... ग़ज़ब का लिखा है ... speachless ...
राज को राज रहने दो...यह गीत गा रहा हूं.....अगर गलत है तो मैं उन महाश्य जी की पोस्ट पर गदर मचा दूंगा....जिनसे मुझे पता चला की आप हंसी के रसगुल्ले भी मारती हैं खुद खाती हैं या नही पता नहीं मुझे.....पर मुझे पूरा भरोसा है कि वो एकदम सही होंगे, क्योंकी वो अन्यथा कोई बात नहीं लिखते
हीर जी....हम तो अपनी हर कसक पर मुस्कुरा देते हैं. कभी खुले बादल की तरह बरस पढ़ते हैं....कभी पूरवाई की तरह फूलों को छेड़ जाते हैं....अपनी तो यही दास्तां है...जाने क्यों बचपन से ही ये गीत अच्छा लगता था कि
मैने हंसने का वादा किया था कभी
इसलिए अब सदा मुस्कुराता हूं मैं
..
जाने क्यों..जाने कैसे..जाने कब..मैने खुद से ये वादा किया था..इस जन्म में या किसी और जन्म में..मालूम नहीं.....खैर....बाकी आप बताएं की सच क्या है..क्या आप हंसी के रसगुल्ले मारती हैं कि नहीं...
पिछली पोस्ट पर इमरोज जी से जुड़ी एक घटना का जिक्र करना चाहता था। पर नहीं कर पाया....खुद को रोक लिया..पर आज नहीं.वो घटना शेयर करता हूं... ।
इमरोज जी हमारे ऑफिस आए थे जब उनकी और अमृता प्रीतम औऱ उनके बीच शायद खतों की एक किताब आई थी। हमने प्रशनों के माध्यम से उन्हें खोलना चाहा था। तभी जैसा की आखिर होता है टीवी की दुनिया में....एंकर और रिपोर्टर महाश्य के एक उटपटांग सवाल के जबाव में वो हल्के से मुस्कुराए..तभी मैं समझ गया कि ये किस मोहब्बत की बात कर रहे हैं...मेरे दिल में जैसे उजाला हुआ...मोहब्बत क्या होती है...कैसे होती है....मैं हंस पड़ा..मुझे देख कर पास खड़ा रिपोर्टर मुझे देखता रहा..पर उसे समझ में नहीं आया की मैं क्यों हंसा..वो बाद में स्टूडियो से निकलने पर उनसे पूछ बैठा ता बातों बातों में कि अमृता का जिक्र वो है में क्यों करते हैं....तो मैंने उसे रोका...और इमरोज मुस्कुराते रहे..में भी...वो बेचारा क्या जाने मोहब्बत किस शे का नाम है.... अगर हुई भी न हो तो उसका एहसास तो किसी के ना होने पर भी होता है....मगर ... इस इंटरव्यू से कुछ दिन पहले ही मैंने रसीदी टिकट पढ़ी थी। एक बार पढ़ने के बाद दोबारा कई बार। बेहत ही खूबसूरत औऱ प्यारी किताब। इंसानी जज्बातों से पूरी तरह लबरेज आत्मकथा लगी मुझे। मैं इमरोज जी को अपने रिपोर्टर के साथ बाहर छोड़ने आया। अमूमन मैं बहुत ही कम लोगो को दिल से बाहर छोड़ने जाता हूं। पर इमरोज की बात ही अलग थी। मैं अनायास ही उनके साथ चल पड़ा। लगा जैसे बरसों से जानता हूं उन्हें...
और ये भी एक अजीब संयोग रहा या कहें की दुर्भाग्य की वो उनके बाद किसी चित्रकार, लेखक या एक युग का इंटरव्यू नहीं चला आज तक। किसी औऱ अन्य कारण से चला हो तो चला हो। पर किताब पर अब तक नहीं....और अपन इतने धनवान तो नहीं कि टीवी चैनल ही खोल लें औऱ एक कार्यक्रम मोहब्बत या कहें कि ऐसी शख्सियतों के नाम पर कर दें। दूरदर्शन की बात अलग है। ....................काफी कुछ लिखना चाहता हूं....पर फिलहाल यहीं रोक रहा हूं वरना एक पोस्ट टिप्पणी में हो जाएगी..।
वैसे हो गई है एक पूरी पोस्ट हीहीहीहीहीही
रोहित जी ,
अच्छा लगा आपने अमृता इमरोज़ का ज़िक्र किया ....इमरोज़ का मुस्कुराना मुझे भी मुस्कुरा गया .....
रही दर्द की बात ...तो शायद अब मेरी रग -रग में बस गया है ....इसके संग रहना ,,,,इसे महसूस करना ...इसे साथ लेकर चलना अच्छा लगता है ...जो मिला उससे खुश हूँ मैं ...गिला नहीं अब .....
@राज को राज रहने दो...यह गीत गा रहा हूं.....अगर गलत है तो मैं उन महाश्य जी की पोस्ट पर गदर मचा दूंगा....जिनसे मुझे पता चला की आप हंसी के रसगुल्ले भी मारती हैं
चलिए इतना तो पता चल गया कि वो ब्लोगर हैं ....तो निश्चित रूप से 'दराल जी ' होंगे ...आजकल हंसी-मजाक उन्हीं के साथ चल रहा है .....क्यों ...?
हाँ , इमरोज़ जी कि जो जानकारी आपके पास है उस पर एक पूरी पोस्ट तैयार कर अपने ब्लॉग में डालिए ......!!
बड़ी ही सुन्दर लगी आपकी प्रेरित रचना।
Mujhe to ye post bahut achhi lagi.
बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
न किसी के पास ऐसी सुई होती है जो
मुहब्बतों के फटे पैराहनों को
चाहत के धागों से
अंतिम दम तक सीता रहे
bahut hi behatareen bhavabhivykti,
bilku sateek baat.
hardik badhai swikaren.
poonam
हीरजी टिप्पणी के लिये धन्यवाद
जी हा चिन्मयी मेरी और इन्द्रनील की बेटी है ..
आप तो केवल लिखने के लिए नहीं सचमुच की हीर हैं। अगर आप ऐसे ही लिखती रहीं तो हम भी रांझे हो ही जाएंगे।
इमरोज जी ने जितनी सादगी से आजादी की व्याख्या की है वह चमत्कृत करती है। उनको लिखा गया आपका पत्र भी दिल की गहराईयों से फूटता लगता है।
बहुत अच्छी रचना
आभार
जी नहीं....फिर से राज को राज रहने दो..वाला गीत ...ये पता चला वहां से कि सेंस ऑफ हयूमर आपका गजब का है..तो जाहिर है हंसी के रसगुल्ले भी होंगे आपके पास....।
हरकीरत जी अभी वो आजादी आनी बाकी है जब हर भारतीय अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाएगा। कब तक आऐगी ऐसी आजादी? कुछ मोहब्बतें ऐसी होती है जो मिशाल बनकर हम सब के दिलों में बसा करती है ऐसी ही है ये अमृता जी और इमरोज जी की मोहब्बत।
Hum me se har kisee ko chahiye aajadi, wah aajadi jo hum apne aap ko de nahee sakte. kyun ki ajadi ke sath hee jude hote hain kuch bandhan jinhe todana mumkin nahee hota.
Amruta kee najm bahut sunder hai.'Swaatantrata diwas achche se hee beeta hoga iske aage bhee humaree wyaktigat swatantrata bhee barkarar rahe.
और इक खुशखबरी आपके साथ .....
इमरोज़ जी का पहली बार समस आया है .....( अब तक तो मैं यही समझती थी उन्हें समस करना नहीं आता ....)
लिखते हैं .......
Heer it self means azadi let us injoy it ......
"बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
न किसी के पास ऐसी सुई होती है जो
मुहब्बतों के फटे पैराहनों को
चाहत के धागों से
अंतिम दम तक सीता रहे ...."
इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया, बहुत अच्छा प्रयास है आपका.....
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा...उम्मीद है आगे भी ऐसा ही अच्छा पड़ने को मिलेगा....इसी उम्मीद में आको फॉलो कर रहा हूँ...
कभी फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयेइगा:-
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हरकीरत 'हीर' जी,
आप मेरे ब्लॉग पर आयीं और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाएं दी, इसके लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ....आपके कुछ सवालो के जवाब दे रहा हूँ....
मिर्ज़ा ग़ालिब - सरलीकरण से आशय उर्दू, और फारसी के उन दुरूह शब्दों से है...जिनकी वजह से लोग ग़ालिब साहब के कलाम को पढ़ नहीं पाते, और अगर पढ़ते भी हैं तो समझ नहीं पाते .....मैं यथासंभव उन शब्दों को सरल आम भाषा में प्रयोग होने वाले शब्दों में ढालने की कोशिश करता हूँ, हाँ वही तक जिससे ग़ज़ल का बहाव, उसकी सुन्दरता नष्ट न हो....रही बात अर्थ को नीचे लिख देने की, तो वो आप कही भी पढ़ सकते है...पर उससे भावो को समझने की दिक्कत होती हैं , पहले नीचे मतलब देखिओ, फिर पढो , फिर मतलब देखो | मेरा प्रयास उन लोगो के लिए है, जिन्होंने सिर्फ ग़ालिब का नाम शताब्दियों के शायर के रूप में सुना है , पर ये नहीं जानते की ऐसा क्यूँ है, ताकि वो उन्हें पढ़ कर समझ सके की ग़ालिब जैसा शायर ...सदियों में पैदा होता है |
रही बात अपने बारे में बताने की तो मैं एक आम आदमी हूँ, जिसका सिर्फ इतना सोचना है...की वो एक इंसान बना रह सके, जैसा खुदा ने उसे बनाया है | और आपको लगा मैं इतनी उम्र में साहित्य की अच्छी समझ रखता हूँ, तो ये आपकी ज़र्रानवाज़ी है |
आपसे एक गुज़ारिश है, अगर वाकई आपको मेरा कोई भी ब्लॉग पसंद आया हो, तो कृपया उसे फॉलो करके उत्साह बढ़ाये.....धन्यवाद
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देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ
अब आगे तो क्या कहूँ
"तभी तो हीर तकती है राह तेरे खतों की
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!"
गहरे भाव और व्यथा सहेजे हुए ये प्रस्तुति भावुक कर गई
Hi...
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आयें और मेरा मान बढा दें........
www.deepakjyoti.blogspot.com
दीपक...
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!
फिर से याद दिला दी उस पाक मुहब्बत की दास्तान....इमरोज़ जैसा जिगर तो बस एक ही बनाया ईश्वर ने..
दोनों नज्में बहुत ही सुन्दर...गहरे अहसासों से लबरे
लबरेज़ *
हीरजी !
गुवाहाटी के एक ख़ास दोस्त ने बताया कि गुवाहाटी में एक बड़े प्रोग्राम में एक बड़ी नज़्मगो शिरकत करने वाली हैं । कहीं वो आप तो नहीं ?
इमरोजजी का एस एम एस … मुबारक !
जवाब देना तो नहीं भूल गईं ?
राजेन्द्र स्वर्णकार
तभी तो हीर तकती है राह तेरे खतों की
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!
...gahre pyarbhre ahsas kee bolti tahreer....
राजेन्द्र जी ,
जी नहीं मैं वो नहीं .....शायद कोई और हो ....
गुवाहाटी में मुझे तो किसी ऐसे कार्यक्रम की जांनकारी नहीं ....
कौन हैं आपके मित्र ....?
हाँ इमरोज़ जी को जवाब दिया था ...ये भी बताया क़ि आपकी ही नज़्म डाली है इस बार ..
उन्होंने जो जवाब दिया कुछ इस प्रकार था ....
Tum nazm bani raho heer bani raho shukariya apne aap hota rahe ga
हीर जी
इतने गहरे जज्बातों से यह भरी नज्म के लिए तारीफ के बोल कम पड रहे है।
आपका लिंक मिला तथा पढकर बहुत अच्छा लगा।
पुराना अंदाज लौट आया है....
दो पाए, पहले भी आजाद थे, आज भी आजाद हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जंगली थे अब सामाजिक प्राणी कहलाते हैं. यह फर्क हमें आदमी बनाता है.
वैसे प्रेमियों की दुनियां निराली कवियों के बयां जुदा होते हैं.
मनचाही आज़ादी तो मुश्किल है क्योंकि मन तो एक स्वतंत्र पक्षी है और इसकी अनंत सीमाएँ होती है..वैसे हरकिरत जी आपने खूबसूरत शब्दों और भावों में मनचाही आज़ादी को खूब दर्शाया..
बेहतरीन प्रस्तुति....ऐसे सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई..
Two unique poems.
nice...and very very nice
aur jyada to unko likha jata hai
jo kabhi kabhi achha likhte hai apki to har alfaaz andaj-e -baya hai
thank's
mam
अब सिर्फ लाजबाब कहना बाकी है .
इमरोज़ जी ने आजादी की सच्चाई बता दी और आपने परिभाषा .दोनों ही परिपूर्ण .
पिछले मार्च में इमरोज़ जी का लम्बा interview विदिओग्रफ किया है .जल्दी आप सब के सामने हाज़िर करूंगा .
हीर जी, बेहद आदाब, कुछ लिखूं इतनी ताक़त नहीं पर अमृता प्रीतम जी मेरी पसंदीदा रचनाकार हैं. खुशनसीब हूँ कि उनकी बहुत सी क़ताबें मेरी लायब्रेरी में हैं जिन्हें मैंने पढ़ी. अमृता जी ने साहिर के सम्बन्ध में जितनी सादगी से बयान किया है इमरोज जी ने उसी सादगी के साथ स्वीकार भी किया - " साहिर के घर नमाज पढ़ते हुए पा लेने कि शक्ल में" सचमुच इमरोज जी अलग ही हैं...
आपने सही कहा
"बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का.."
आपसे जानकर कि "इमरोज कहते हैं तुम दूसरी अमृता हो.." समझ आया कि मुझे आपकी नज़्म पढ़ते हुए ऐसा क्यों लगा जैसे मैं अमृता प्रीतम जी को पढ़ रहा हूँ.
बेहद आदाब.
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