Wednesday, November 5, 2008

होंद के बचे हुए टुकडे ......

बरसों के फासले
बस अंगुलियाँ काटते रहे
समूची दानवता
आंगन की मिट्‌टी में
गीत लिखती
और मैं
रेत में सरकते रिस्‍तों को
घूँट घूँट पीती रही.....

दरारों से धुँए का एक गुब्‍बार सा उठता
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड जाता
पन्‍नों पर....

इक बेबुनियादी बहस
सोच में पिसती ...
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख्‍़मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्‍मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
सब्र कश्‍तियों में डूबने लगता
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्‍मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्‍यों और मान्‍यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती .....

बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्‍तों के पत्‍ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती

लफ्‍ज़ दम तोडते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्‍बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्‌टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्‍ते से चुपचाप
बह उठता....
पर....
मौत पास आकर रूठ जाती....


और फिर इक दिन
तेज सांसों ने कसकर पकडा था मेरा हाथ
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लांघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बंद मुठ्‍ठी खोल दी ...
आह......
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
वह सुर्ख गुलाब .....

मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी

मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्‍म़ से रस्‍सियाँ खोलने लगी.....

14 comments:

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah..........
बहुत दिनों बाद आपकी कविता नज़र आई..
चलो.........

सागर नाहर said...

बहुत दर्द है कविता में.. आशा है अब उस पीड़ा से छुटकारा मिल गया होगा।
और अगर छुटकारा मिल ही गया है तो अब ज़ख्मों को क्यों कुरेदा जाये?
आपका हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में हार्दिक स्वागत है।
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
तकनीकी दस्तक

MANVINDER BHIMBER said...

हरकिरत जी, मुझे क्यों ऐसा लगता है कि मैं आपको सालों से जानती हूं। क्यों ऐसा लग रहा है कि जो आपने लिखा है वो मेरे मन की कही सुनी बातें हैं। मैंने आपका ब्लाग एक सांस में फटाफट पढ़ डाला है, उसे एक बार और पढ़ना चाहती हूं लेकिन अपने मन की कहने की जल्दी में वह काम बाद के लिये पेंडिंग कर दिया है। मेरे लिये खुषी की बात है कि इमरोज ने आपसे मेरे बारे में पूछा। एक और खुषी की बात है कि इमरोज ने आपसे पूछा जो बिलकुल मेरी तरह से सोचती है, कहती है। कई सारी बातें हैं, दिल में तुम्हे बताने के लिये, तुम्हारे इमरोज के लिये लिखे खत को भी पढ़ा है। मन में उथल पुथल मची हुई है। समझ नहीं आ रहा हैं कि क्या कहूं, कहां से ‘ाुरू करूं?
अरे हां, अखबार तो इमरोज जी ने देख लिया था, उन्होंने ही तो मुझे बताया था कि अखबार में अमृता जी के बारे में मेरा लिखा हुआ कुछ छपा है। आप बहुत दूर हो, गुहाटी में, और मैं यहां, कैसे बात हो आपसेे, मुझे आप अपना नंबर दो या जल्दी से 9927067641 या 9412201184 पर रिंग करो। बहुत अच्छा लिखती हो, बहुत कुछ कहने के लिये दिल में उबल रहा है।
manvinderb@gmail.com

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

uf!itna dard, kalyan ho
narayan narayan

रचना गौड़ ’भारती’ said...

आपकी कविता दर्द भरी है । आप अच्छा लिख्ते हैं । लिखते रहिए । आपका हर्दिक स्वागत है ।
कविता गज़ल के लिए मेरे ब्लोग पर पधारें ।

अभिषेक मिश्र said...

ज़िन्दगी के कई रूप देख चुके होने का आभास देती है आपकी ये कविता. स्वागत.

Amit K Sagar said...

Great Job. ब्लोगिंग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये. दूसरों को राह दिखाते रहिये. आगे बढ़ते रहिये, अपने साथ-साथ औरों को भी आगे बढाते रहिये. शुभकामनाएं.
--
साथ ही आप मेरे ब्लोग्स पर सादर आमंत्रित हैं. धन्यवाद.

shama said...

Aapki tippaneeke liye bohot shukrguzaar hun ! Aap aur jana chahtee hain, mere bareme, sunke achha laga ! Mere blogpe meree zindagee ek khulee kitab hai !
Ab aapki rachanayonke bareme kya kahun..mere paas mauzoom alfaaz nahi....ye rachna to lagta hai jaise kiseene mereehi baat aapse likhwa dee ho !

डॉ .अनुराग said...

देर में आप तक पहुँचने के लिए मुआफी ...पर इसमे नुकसान मेरा ही था ऐसा आपको पढ़कर लगता है ..आज ही एक बैठक में कई चीजे पढ़ गया .पर पिछली बार आपके ब्लॉग का रास्ता खुल नही रहा था .....

हम दोंनो की बीच की हवा का
यूँ अचानक खा़मोश हो जाना
और फिर दरारों में बदल जाना
मेरे लिए
कोई अनहोनी बात न थी

ये शब्द जैसे बात से करते है.......ओर ये



कई बार हमारी बेबुनियादी बहस
मेरी सोच में पिसती रहती
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख्‍़मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती

बहुत कुछ कह जाते है .........




और फिर इक दिन
तेज सांसों ने कसकर मेरा हाथ पकडा
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लांघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बंद मुठ्‍ठी खोल दी थी

सोचता हूँ कहाँ थी आप ?छुपी रही अपनी कविताएं लिए .....सीधी बात करती है ये तो

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

आपने ब्लाग बना कर अच्छा किया ।
आपकी कविताएँ पढ़ कर उन पर विस्तार से लिखूँगा
द्विज

Binod Ringania said...

ब्लाग पर देखकर अच्छा लगा। कविताएं तो पढ़ ही चुका हूँ।

vijay kumar sappatti said...

is kavita ke baaren mein jo likhun woh kam hai , itna dard ki mujhe apna dard kam mahsoos hua.

khuda aapki kavitaon ko aur pukhta banaye..

regards

vijay

सुभाष नीरव said...

हरकीरत जी, बहुत अच्छा लगा कि आपने भी ब्लॉग की दुनिया में कदम रखा और अपनी रचनाओं से नेट से जुड़े पाठकों तक पहुँचाने का निर्णय लिया। आपकी यह कविता बहुत सुन्दर है। दर्द तो आपकी हर कविता में होता ही है। शायद यह आपकी कविताओं की जान है।

पिछले एक माह से घर का नेट बंद पड़ा था इसलिए अपने ब्लॉगों पर भी काम नहीं कर पाया और नये आए ब्लॉग भी देखने का मौका नहीं मिला। मकान शिफ़्टिंग की वजह से यह सब हुआ। आज ही नए मकान में नेट चालू हुआ तो आपका ब्लॉग देखा। मेरी बधाई !

मेरा नया घर का पता और घर का नया लैंड लाईन नंबर मेरे ब्लॉगों पर जा रहा है, कृपया नोट कर लेना वहाँ से और हो सके तो मित्रों को भी बताना।
एक बार पुन: बधाई !

निर्झर'नीर said...

स बरसों के फासले में
जिन्‍दगी बस अंगुलियाँ काटती रही
समूची दानवता
मेरे आंगन की मिट्‌टी में
गीत लिखती रही
और मैं
रेत में सरकते रिस्‍तों को
घूँट घूँट पीती रही


hmmmmmmmm

dard ko lafzon mein bahane ki kala ka ek khoobsurat priyas..

sundar abhivyakti haan zindgii kuch lambii ho gayii hai.

iska sankuchit roop kuch or sundar hota.