Tuesday, August 31, 2010

आज की रात .......

याद है पिछले वर्ष का ये दिन .....आप सब की शिकायत रही थी कि कम से कम आज के दिन तो कोई दर्द भरी नज़्म न लिखूं .....तो इस बार ऐसा कुछ न लिखूंगी जो आपसब को नागवार गुजरे .....बस .इस बार शब्दों का कुछ ज़श्न है ....कुछ दावतें .... कुछ जाम .....और दुआएं आप सब की .......



मृता ...
आज की रात
फिर दावतों वाली है ...
आज की रात कोख खोलेगी
इश्क की किताब ....
चाँद भर लायेगा
मुट्ठियों में हिना
सितारे रंग घोलेंगे
आसमां के आँगन में
झनझनाएगी पायल
चाँदनी भर लाएगी
तेरे-मेरे नाम का जाम .....

आज की रात फाड़ेंगे हम
अपनी-अपनी उम्र का
इक और पन्ना .......!!

Tuesday, August 24, 2010

अभी इक नज़्म मेरे अन्दर जंग छेड़े बैठी है .....

भी तो
आग का इक दरिया
लांघना बाकी है .....
अभी इक झील की गहराई को
समेटना है अपने भीतर ....
दोपहर के इस जलते सूरज की आग में
तपाना है ज़िस्म ....
इन सिसक- सिसक कर दम तोडती
हवाओं संग चलना है उनके
पत्थर हो जाने से पहले ...


इन जर्द पत्तों के
कन्धों पर रखना है हाथ .....
रात के अंधेरों में उतरते
इन नग्न अक्षरों की छाती पर
जलाना है दीया
ख़ामोशी से पहले ....

भी मेरी आँखों ने
वक़्त के कई पन्ने पढने हैं
जहाँ रिश्तों के धागे
दर्द की दरगाह पर बैठे
अपनी उम्रें गिनते हैं
जहाँ कई मासूम किलकारियां
हाड-मांस बनने से पहले ही
क़त्ल हो जाती हैं ...
जहाँ आग की लपटों से चीखें
मांगतीं हैं अपने दस्तखत .....

भी मुझे तुम्हारे बोये
उन बीजों की आँखों से
बरसती आग भी तो झेलनी है ...
रफ्ता-रफ्ता खामोश होती इन
दीवारों के माथों पर
रखने
हैं अपने
तप्त होंठ ...

अभी इक नज़्म ....
मेरे अन्दर जंग छेड़े बैठी है
कि तिनका- तिनका होती इस
ज़िन्दगी को कैसे समेटूं ...
अभी तू मुझ से
जमाने की बात मत कर ....
अभी तू मुझ से...
जमाने की बात मत कर ....!!


इसे मेरी आवाज़ में भी सुन सकते हैं ....यहाँ .....

Sunday, August 15, 2010

आज़ादी .....

फिर एक नज़्म इमरोज़ जी को ....और प्रत्युतर में इमरोज़ जी की ये नज़्म .....-कुछ आज़ादी के नए मायने सिखाती हुई ....इमरोज़ जी को ख़त रूप में भेजी अपनी नज़्म नीचे पोस्ट कर रही हूँ .........
जिन्होंने अमृता इमरोज़ को नहीं पढ़ा बता दूँ .....अमृता 'साहिर लुधियानवी' को चाहती थी और इमरोज़ अमृता को .....अमृता ने अपनी आत्मकथा में खुद इस बात को स्वीकार किया है कि वे इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम लिखती रहीं हैं ....पर अंत तक इमरोज़ ही उनका साथ निभाते रहे .....


नचाही आज़ादी माँ -बाप के पास भी नहीं होती
कि वह अपने बच्चों को दे दें ...
मनचाही आज़ादी तो मज़हब के पास भी नहीं होती
कि वह अपने लोगों को दे सके
मनचाही आज़ादी सब शायरों के पास भी नहीं होती
कि वह अपनी शायरी को दे पाएं .....

कभी-कभी कोई रेयर शायर अपनी शायरी से बाहर
निकल कर अपनी शायरी को देखता है
जिसमें उसकी ज़िन्दगी की तरह उसकी शायरी में भी
मनचाही आज़ादी कहीं नज़र नहीं आती
सोच-सोच में ही उसकी मनचाही आज़ादी
एक कहानी बन जाती है .....

एक झील के किनारे एक पार्टी चल रही है
जिसमें एक बहुत खूबसूरत औरत है
जिसको सब मुड-मुड कर देख रहे हैं
एक अमीरजादा उठकर औरत को प्रपोज कर देता है
औरत कहती है तूने मुझे पसंद किया है
तुम्हारा शुक्रिया अब मेरी पसंद सुन लो
फिर प्रपोज करना .....
इस झील के इस पार मेरा घर है तुम दूसरी तरफ
अपना घर बना लो मैं तुम्हें जब बुलाऊंगी
तुम आ जाना और जब तू मुझे बुलाएगा
मैं आ जाया करुँगी .....

ये झील पानी की भी है
और संस्कारों की भी
इस झील को पार करके हम
एक-दुसरे को आते-जाते मिलते रहेंगे
अमीरजादे ने हैरान होकर कहा
ये कैसी शादी है ....?
ये शादी नहीं आजादी है
मनचाही ज़िन्दगी ही
मनचाही आज़ादी है .......!!

......इमरोज़.......

(२)

इमरोज़ के नाम ......


मरोज़ .......
इक अरसा हुआ तेरे ख़त इंतजार में
कई शबें हादसों के साथ और बीत गयीं .....
कुछ और चुप्पियों ने सी लिए अपने होंठ
बस इक ख्याल था तेरा
नज़्म ले उतर आओगे तो
मन के किसी दुखते कोने में रख
कुछ देर महसूस लूंगी उन पलों को
जो बरसों तूने दूरियों के रेगिस्तान में
प्यार की प्यास लिए बिताएं हैं ....
उन वरकों में सहेज लूंगी जहाँ
कई चीखों ने थकने के बाद
दम तोडा है ......

इस उम्मीद से कि
शायद कोई ज़ख्म फिर रिसने लगे
और ठहरे हुए अश्क फिर सिसक उठें....


इक लम्बा अरसा बीत गया
हीर अब भी तकती है राह तेरे खतों की
तेरी उन पाक सतरों की जिसने
इक पाक रूह को छुआ है , पढ़ा है , जाना है
जो हाथों में हाथ डाले ज़िन्दगी के अंतिम क्षणों तक
साथ चलें हैं ,मुस्कुराये हैं ,खिलखिलाए हैं ....

जानते हो इमरोज़ ....?
तुम्हारी मुहब्बत मजनू या रांझे से कहीं ऊपर है
तुम अपनी ठिठुरती मुहब्बत के लिए
सारी उम्र साहिर के नाम के कपडे सीते रहे
अपनी पीठ पर किसी और नाम के अक्षरों को
चुपचाप जरते रहे ......

बहुत बड़ा जिगरा चाहिए
दर्द में भी मुस्कुराने का ,जीने का, हंसने का
हर किसी के पास नहीं होता ये ज़ज्बा
न किसी के पास ऐसी सुई होती है जो
मुहब्बतों के फटे पैराहनों को
चाहत के धागों से
अंतिम दम तक सीता रहे ....

तभी तो हीर तकती है राह तेरे खतों की
तेरी तहरीरों में ही सही वह छू लेना चाहती है
तेरे भीतर की वह पाक मुहब्बत .......!!


.........हीर.......

Tuesday, August 10, 2010

दो लफ़्ज़ों का फूल ........

जाने कितनी खामोशियाँ है
जो आवाज़ मांगतीं हैं ......
और वक़्त चाहकर भी उन्हें
मुनासिफ फैंसला नहीं सुना पाता ....
बस ये खुशबू है कुछ तेरे ज़िक्र की
जो उम्र की रंगत में हौले-हौले मुस्कुरा रही है ......


(१)

ख़ामोशी ....

संदेशों के बाद
शुक्रवार की शाम
आये थे बादल ....
हलकी बूंदा-बांदी के बाद
एक उदास सी नज़्म छोड़ गए
सफ़्हों पर ......

तुम्हारी ख़ामोशी अब
कुछ कहने लगी है ......!!

(२)

शुकराना ....

तुम्हारी नज़रों के
शुकराने के साथ-साथ
कुछ मोहब्बत के हर्फ़ भी
उड़कर चले आये थे मेरे दर
मैंने उन्हें दिल का दरवाज़ा खोल
अन्दर बैठा लिया है ...........

जाने क्यूँ .....
आज चाँद के चहरे पे
मुस्कराहट है ........!!

(३)

दो लफ़्ज़ों का फूल ....

मैंने हथेलियों पे
चाहत की बूंदें सजा रखी हैं
तुम आना अपनी आँखों से छुआ
इनमें भर जाना .....
मुहब्बत के रंग ....
देख धुले हुए आसमां में
चाँद तारों का काफिला
इश्क़ की अलामत* लिए
उतर आया है .....
मैंने सारी चांदनी भर ली है
बाहों में .......
हवा भी तेरे आस-पास होने का
पता दे गई है ......
आ कुछ तो लिख दे
मेरे नसीब पे तू

आज ...
अँधेरे की कोख से
दो लफ़्ज़ों का फूल खिला है .....!!

अलामत- निशाँ, चिन्ह
(४)

गुलाब के खिलने तक .....

तु आना
अपने हाथों में ...
सूरज की पहली किरण लेकर
मैं मोहब्बत के सारे दरवाज़े
खोल दूंगी .......
देह की दुनियाँ से दूर
जहाँ अंधेरों की सिलवटें
नहीं होती .....
हम बाँट लेगें ....
अपनी-अपनी मोहब्बत
गुलाब के खिलने तक ......!!

Monday, August 2, 2010

ये रिश्ते .......

मेरे तसव्वुर की आँखें भर आतीं , जब याद आती है शब घूँघट वाली
मैं कैसे कहूँ ये रिश्ते मोहब्बत बांटते हें ,जब रही अपनी झोली खाली


अचानक दूरदर्शन से कबीर जी (गुवाहाटी दूरदर्शन के न्यूज़ रीडर ऍफ़ एम रेडियो के उदघोषक) का फोन आया कि सितम्बर को लाइव शो है ....आपको जरुर आना है ....विषय होगा 'रिश्ते-नाते '......मैंने कहा कि इस विषय पर अभी हाल ही में नज़्म लिखी है ''आग में जलते रिश्ते '' तो उन्होंने कहा नज्में छोटी हों तो बेहतर है .....अब मैं सोचने बैठी तो कुछ यूँ नज्में उतर पड़ीं ....हालांकि अभी काफी वक़्त पड़ा है पर इस बीच शायद पंजाब जाना हो जाये ......
और हाँ इक खुशखबरी और ....कल ही दिल्ली से लक्ष्मी शंकर बाजपेई जी का समस आया आपकी रचनायें ''साहित्य अमृत'' में छपीं हैं ...खुशी की बात इसलिए की इन बड़ी पत्रिकाओं में लगभग साल भर बाद बारी आती है छपने की.....तो लीजिये पेश है फिर कुछ क्षणिकाएं ......


(१)

तवायफ ....

हाँ रिश्तों का
मीनाबाज़ार लगा है
हर रोज़ इक नया रिश्ता बनता है
इक नए मर्द के साथ .....
दर्द लगाता है उसके रिश्ते पर
कहकहा ......
और ज़िस्म झूठी मुस्कान ओढ़े
देखता है रिश्तों को हवा में उड़ते हुए
नोटों की गठ्ठियों के साथ ......!!

(२)

पहचान .....

सका रिश्ता था
दीवारों की ख़ामोशी से ,
सलाखों से झांकते चाँद से ,
सफ़ेद लिबास में संग लेटी तन्हाई से
उसकी नज़रें अक्सर सन्नाटे में
तलाशा करती अपने रिश्ते की
पहचान .......!!

(३)

रिश्तों कि परिभाषा .....

दम-दर-कदम
रिश्तों में चिंगारियां सी
उठने लगीं हैं .....
मोहब्बत उदासी का पैरहन ओढ़े
ज़िस्म से फाड़ती है कपडे ....
न कोई मीठी बोली आवाज़ लगाती है
न मुस्कुराहटें दरवाज़ा खोलतीं हैं
रात आंसुओं के वजूद पर
बांटती हैं रिश्तों की
परिभाषा .......!!

(४)

दम तोड़ते रिश्ते ......

रिश्तों की गहराई
कभी अदालत में जाकर देखना
जहाँ हररोज़, न जाने कितने रिश्ते
जले कपड़ों में .........
दम तोड़ते हैं .......!!

(५)

मर्सिया .....

जाने
कितने रिश्ते
हररोज़ .....
सफ़ेद लिबासों में
दर्द की चादर ओढ़े
पढ़ते हैं .......
अपने-अपने नाम का
मर्सिया ......!!

(६)

कैद में रिश्ते .....

रिश्ते ...
सीमेंट और ईटों की
मज़बूत दीवारों में
कैद होकर नहीं पनपते
न ही रिश्ते .....
बंद खिड़की -दरवाज़ों में
साँस ले पाते हैं .....
उन्हें जीने के लिए
खुली बाँहों का
आकाश चाहिए ......!!

(७)

मिट्टी का साथ .....

ज़िस्म के खात्में पर
जो चीज़ साथ देती है
वह सिर्फ मिट्टी होती है
ये इंसानी रिश्ते तो
वक़्त की सीढियों के साथ
बदलते रहते हैं .....!!