Wednesday, November 19, 2008

तुम भी पूछना चाँद से

जब तुम
लौट जाओगे
मैं पलटूँगी
मौसम के पन्‍ने
यादों की चिट्‌ठी से
भर लूँगी
मुठ्‌ठी में बादल...

कुछ भीगे अक्षर
तपती देह पर रखकर
मैं खोलूँगी
रंगो की चादर...

पूछूँगी उनसे
हवाओं के दोष पर
बहते बादलों का पता
सूरज वाले मंत्र
और स्‍पर्श के
उन एहसासों को
जो जिंदा होगें
तुम्‍हारे सीने पर
'ओम' बनकर...

तुम भी पूछना
चाँद से
ताबूतों में बंद
हवाओं ने
कफ़न ओढा़ या नहीं...

Monday, November 10, 2008

दुहाई है! अय जिस्‍म से खेलने वाले इंसानों...

(दो कविताएं '३० अक्‍टू. २००८' एक न भुला सकने वाले दिन पर, जब एक के बाद एक छ: धमाकों से पूरी
गुवाहाटी हिल गई थी जिसके जख्‍म आज भी अस्‍पतालों में पडे़ सिसक रहे हैं।)

अभी तो ताजा थे जख्‍म
पिछले वर्ष के
जब इन्‍हीं सडकों पर निर्वस्‍त्र
घसीटी गई थी
घर की लाज

और आज
ठीक एक वर्ष बाद
एक और गहरा जख्‍म...?

एक के बाद एक
छ: मिनट में छ: धमाके
ओह! इतनी दरिंदगी...?
इतनी निर्दयता...?

रक्‍तरंजित सड़कों पर
बिखरी पडी़ हैं लाशें
क्षत-विक्षत अंगों का बाजार लगा है
क्रोध,आक्रोश, धुंआँ,बारूद, आगजनी
चारो ओर कैसा ये सामान सजा है...?

आह..! मन आहत है भीतर तक
क्‍यों मर गई हैं हमारी संवेदनाएं...?
क्‍यों मर गई है हमारी मानवता...?

मुझे मुआफ करना
अय दर्द में कराहते इंसानों
मुझे मुआफ करना
अय बारूद में जलकर तड़पते इंसानो
मैं शर्मींदा हूँ
क्‍यों मैंने मानव रुप में जन्‍म लिया
मैं शर्मींदा हूँ
क्‍यों मैंने इस धरती पर जन्‍म लिया...

दुहाई है!
अय मानव जिस्‍म़ से खेलने वाले इंसानो...!
दुहाई है
अय रब की बनाई दुनियाँ में
आग लगाने वाले इंसानो...!
दुहाई है तुम्‍हें
उन मासूम सिसकियों की
दुहाई है तुम्‍हें
उन मासूम आहों की...
जो आज तुम्‍हारी वजह से
यतीम कहलाये जा रहे हैं...
यह कैसी आजा़दी है?

अभी-अभी बम के धमाको़ से
चीख़ उठा है शहर
बच्‍चे, बूढे,जवान
खून से लथपथ
अनगिनत लाशों का ढेर
इस हृदय वारदात की
कहानी कह रहा है

ओह!
यह कैसी आजा़दी है
जो घोल रही है
मेरे और तुम्‍हारे बीच
खौ़फ, आग और विष का धुआँ?
हमारे होठों पे थिरकती हंसी को
समेटकर
दुबक गई है
किसी देशद्रोही की जेब में

और हम
चुपचाप देख रहे हैं
अपने सपनों को
अपने महलों को
अपनी आकांक्षाओं को
बारूद में जलकर
राख़ में बदलते हुए.

Wednesday, November 5, 2008

होंद के बचे हुए टुकडे ......

बरसों के फासले
बस अंगुलियाँ काटते रहे
समूची दानवता
आंगन की मिट्‌टी में
गीत लिखती
और मैं
रेत में सरकते रिस्‍तों को
घूँट घूँट पीती रही.....

दरारों से धुँए का एक गुब्‍बार सा उठता
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड जाता
पन्‍नों पर....

इक बेबुनियादी बहस
सोच में पिसती ...
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख्‍़मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्‍मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
सब्र कश्‍तियों में डूबने लगता
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्‍मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्‍यों और मान्‍यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती .....

बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्‍तों के पत्‍ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती

लफ्‍ज़ दम तोडते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्‍बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्‌टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्‍ते से चुपचाप
बह उठता....
पर....
मौत पास आकर रूठ जाती....


और फिर इक दिन
तेज सांसों ने कसकर पकडा था मेरा हाथ
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लांघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बंद मुठ्‍ठी खोल दी ...
आह......
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
वह सुर्ख गुलाब .....

मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी

मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्‍म़ से रस्‍सियाँ खोलने लगी.....
जो जंजीरें खुलीं

रात आसमां के घर नज्‍म़ मेहमां बनी
चाँदनी रातभर साथ जाम पीती रही
बादलों ने जिस्‍म़ से जंजीरें जो खोलीं
नज्‍म़ सिमटकर हुई छुईमुई,छुईमुई

ख्‍वाबों ने नज्‍मों का ज़खीरा बुना
हर्‌फ रातभर झोली में सजते रहे
नज्‍म़ टाँकती रही शब्‍द आसमां में
आसमां जिस्‍म़ पे गज़ल लिखता रहा

वक्‍त पलकों की कश्‍ती पे होके सवार
इश्‍क के रास्‍तों से गुज़रता रहा
तारों ने झुक के जो छुआ लबों को
नज्‍म़ शर्‌मा के हुई छुईमुई,छुईमुई
गीत चिता के


मैंने तसब्‍बुर में तराश्‌कर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्‌दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी

न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्‍ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज्‍म्
आंखों से शबनम बहा बैठी

मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी

झाड़ती रही जिस्‍म से
ताउम्र दर्‌द के जो पत्‍ते
उन्‍हीं पत्‍तों से मैं
घर अपना सजा बैठी

मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !
पत्‍थर होता इंसान

दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्‍म् है औ,
शब्‍द तार तार है

एक बूंद पीठ सेंककर
धुआं धुआं सी उड चली
वक्‍त की मुरदा उम्‍मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं

प्रेम,स्‍नेह,नीर पत्‍तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्‍तक धडकनों की बेकार है

घर,बाग,ठूंठ से जंगल
सर्द शुष्‍क बियाबान से हैं खडे
संघर्षो की इस आग में
पत्‍थर हुए इंसान हैं
एक ख़त इमरोज जी के नाम
(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज्‍म रुप में खत
मिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्‍हें अपनी इस नज्‍म में दिया है...)

इमरोज़
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्‍या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे का़गच की सतरों को
शापमुक्‍त करती रहीं...

शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्‍से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अरथियों में सजती रहती...

इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...


यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्‍फाज़ हैं
जो महोब्‍बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्‍जों के स्‍पर्श से
मैं रूह सी हल्‍की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्‍पर्श से
कली से फूल बन गई थी...

इमरोज़!
तुमने कहा है-
''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रौशनी भी''
तुम्‍हारे इन शब्‍दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि जिंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि जिंदगी सुख भी थी

हाँ इमरोज़!

लो आज मैं कहती हूँ
जिंदगी सुख भी थी …