गीत चिता के
मैंने तसब्बुर में तराश्कर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी
न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज्म्
आंखों से शबनम बहा बैठी
मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी
झाड़ती रही जिस्म से
ताउम्र दर्द के जो पत्ते
उन्हीं पत्तों से मैं
घर अपना सजा बैठी
मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !
Wednesday, November 5, 2008
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3 comments:
मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी
झाड़ती रही जिस्म से
ताउम्र दर्द के जो पत्ते
उन्हीं पत्तों से मैं
घर अपना सजा बैठी
अति सुंदर अभिव्यक्ति
कैसे आते हैं आपको इतने अच्छे विचार
मैंने तसब्बुर में तराश्कर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी
न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज्म्
आंखों से शबनम बहा बैठी
लगता है जैसे सफ्हे जिंदा होकर बयान दे रहे है....superb
very nice
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