Sunday, January 26, 2014

२६ जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर …

२६ जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर …

आज का ही दिन था
जब रंगों से खेलता वह
माँ की कोख से उतर आया था
और ज़िन्दगी भर रंग भरता रहा
मुहब्बत के अक्षरों में ....



कभी मुहब्बत का पंछी बन गीत गाता
कभी दरख्तों के नीचे हाथों में हाथ लिए
राँझा हो जाता ....
दुनिया देखने के लिए
कमरे के ही सात चक्कर लगा
मुहब्बत के सामने खड़ा हो मुस्कुरा उठता ,
मैं दुनिया देख आया अमृता
तेरे सिवाय कहीं कुछ नहीं
मेरा कैनवस भी तू है
और मेरे रंग भी ....
आ इक दूजे के ख्यालों में
रंग भर लें और एक हो जाएं

वह आज का ही दिन था
जब इक सोच ने पैदा होकर
मज़हबों का दरवाजे की सांकल तोड़
मुहब्बत की नज़्म लिखी थी
इक आज़ाद नज़्म
जो उम्र , जाति के बंधनों से परे
मुहब्बत के मज़हब पर खड़ी
हवाओं से पूछती बता तेरी जात क्या है
खुशबू की जात क्या है
पानी की जात क्या है
वही मेरी जात है …

वह आज ही का दिन था इमरोज़
जब तूने जन्म लिया था
और सोच के एक नए रंग को जन्म दिया था
और वह था सिर्फ मुहब्बत का रंग
सिर्फ मुहब्बत का रंग ....

हीर ....

Friday, January 24, 2014

आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें …

आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें  …
जिस दिन मैंने
  नज़्म को जन्म दिया था
वो अपंग नहीं थी
न ही आसमान में कुचले हुए
उसके मासूम ख्याल थे
वक़्त के थपेड़ों के साथ-साथ
अंग विहीन होती गई उसकी देह …

कई बार नोचे गए उसके पंख
रेत  दिए गए कंठ में ही उसके शब्द
किया गया बलात्कार निर्ममता से
छीन लिए गए उसके अधिकार
दीवारों में चिन दी गई उसकी आवाजें
लगा दी गई आग , अब
जले कपड़ों में घूमती है उसकी परछाई
वह कमरा जहाँ कभी उसने बोया था
प्रेम का खूबसूरत बीज
आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
अँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध  …

अब कोई वज़ूद नहीं है
इन कागज के टुकड़ों का
महज सफ़हों पर उतरे हुए कुछ
सुलगते खामोश से सवाल हैं
और मिटटी में तब्दील होती जा रही है
मरी हुई पाजेब की उठती सड़ांध
देखना है ऐसे में नज़्म कितने दिन
ज़िंदा रह पाती है …
आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें  …!!