Monday, March 28, 2011

ख़ामोशी चीरते सवाल ......

अभी होली से पहले के ज़ख्म भरे नहीं थे कि नामुराद सी कोई शुबह: पैगाम लिए आई ...कि फेस बुक की किसी मोहतरमा ने आपकी होली वाली ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ अपने नाम से प्रकाशित की हैं ....हमने आपत्ति जताई तो 'मोहतरमा' कहती हैं कि ''क्या आप मेहमानों को बताते हैं कि आप किस होटल से खाना लेकर आये हैं ....'' अब इन्हें कौन बताये कि मोहतरमा आप खाना कीमत चुका कर लाती हैं कि चुरा कर ...खैर अरविन्द त्रिपाठी जी का भला हो जिन्होंने इसे साहित्य की चोरी मानते हुए उस पोस्ट को ही हटवा दिया ... मैं इस बात से भी हैरान थी कि पहले भी नज़्म चोरी करने वाली 'मोहतरमा' ही थी और अब भी ...
एक गुज़ारिश आप सब से भी .... कि इस तरह की चोरी को जहाँ भी देखें पुरजोर विरोध करें ....

और अब फिर रहट की टूटती रस्सी का अंतर्नाद है ...कै
दी नज्में आँखों की नमी से सवाल करती हैं ....मिट्टी अपने हाथ खोलती है ....मेरे सामने बस में एक स्त्री ... इतने गर्म मौसम में भी हाथों में काले दस्ताने ... पैरों में काले मोज़े ... ज़िस्म को ऊपर से नीचे तक काले बुर्के से ढके बैठी ॥मुझे फिर वही सवाल पूछने पर मजबूर करती है .....



बस में सफ़र के दौरान मोबाईल से खींची तस्वीर


ख़ामोशी चीरते सवाल ......


त्थरों के फफोले
विडम्बनाओं की ज़मीं
उठाकर चल पड़े हैं .....
बिलकुल वैसे ही जैसे
तुम बाँध देते हो हवाओं को
और एक जलती लकीर खीँच देते हो
उसके ज़िस्म पर ....

नामुराद......
सिल पर पड़ी
ये तिजारत की धूप भी ......
अपनी देह से साँस लेने की
अनुमति मांगती है .....

एक ज़िन्दगीहीन
कारखाने की ख्राशज़दा साँसें
जिसकी चिमनी में ज़ख्मों का
धुआँ अटका पड़ा है .....

हवा तड़प उठी है
तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
अपनी जीत पर .....

मेरे सामने की मेज से
कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
तुम्हारे पैरों तले ...
अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..

सुनो.....
तुम्हारे पास कैंची हो तो
काट देना इसके पर
फिर ये फड़फड़ाएगी नहीं
ज़िन्दगी की तलाश में .....

न जाने क्यों...
फिजां में उठता ये धुआँ
मुझे
तस्कीन दे रहा है .....
मौसम के बदलने की ...

ये तुम्हारे चेहरे पर
प्यास के निशान क्यों उभर आये हैं ....?
सकपकाए से तुम्हारे शब्द
इतने विचलित क्यों हैं ......?
मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें
तुम्हें खुद मुझे बुर्के से आज़ाद करना होगा ...

इन विडम्बनाओं के पुल के नीचे
थका हुआ पानी अब .....
ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!


Friday, March 18, 2011

रोज पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा.....

होली हो और हुडदंग न हो ...तो होली का मज़ा नहीं रहता ...पिछले दिनों OBO परिवार ने जम कर होली खेली ....मिसरा था हुल्लड़ मुरादाबादी का .....
रोज पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा
2122 2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
बह्र थी सबकी जानी पहचानी -बहरे रमल मुसमन महजूफ

सबने जम कर मज़े लिए .....वीनस जी तो अभी तक पेट पकडे बैठे हैं ....
इस तरही मुशायरे में OBO परिवार के सदस्य तिलक जी , वीनस जी , शेष धर तिवारी जी , गणेश जी बागी, योगराज प्रभाकर जी , डॉ संजय दानी जी , धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी , प्रीतम तिवारी जी , अरुण कुमार पांडे जी , वीरेंद्र जैन जी , राजेश शर्मा जी , दिगम्बर नासवा जी , कमल वर्मा जी , अम्बरीश श्रीवास्तव , मुमताज़ जी , डॉ नूतन जी आदि ने शिरकत की ....

चूँकि हम भी इस OBO परिवार के सदस्य हैं तो हमने भी कुछ कहने की कोशिश की ....
लीजिये पेश हैं इस मिसरे पर कुछ अशआर......हाँ मक्ते का शे'र आद. योगराज जी से मांग कर लिया है ये उन्हीं का लिखा हुआ है .....


छर्र... रर रर हुर्र...ररर, हो हा हा हो जायेगा
हर गली का आशिक आज कांहा हो जायेगा


उड़ा दिलों की दुश्मनियाँ तू फिजां में रंगों संग
लग जा गले सभी के, दूर गिला हो जायेगा


नजरें न मिला, लगाने गुलाल के बहाने यूँ
कुछ और ठहर गईं जो ,लवरिया हो जाएगा


पी नजरों से मेरी , छोड़ ये दारू का नशा
रोज़ पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जाएगा


चाँद उतरा सजा रंगों की थाली , आसमां में
आज फ़लक भी देख लाल,पीला हो जायेगा


कैसा खेल कुदरत का जापान में आज हुआ
इन्हीं रंगों में वो कहीं , गुमशुदा हो जायेगा


छोड़ अब धर्म के झगड़े प्रेम दिलों में रंग ले
क्या जाने कब कौन कहाँ फ़ना हो जायेगा


'हीर' से जो रंग बरसेंगे फ़लक पे हर तरफ,
ये जगत पूरे का पूरा राँझा सा हो जाएगा !


(ग़ज़ल बह्र से बाहर हो तो गुरुजन इस्लाह करें )

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इनका भी मज़ा लें ......

रंग का त्‍यौहार है छेड़ें न क्‍यूँकर लड़कियॉं
मुँह अगर काला हुआ तो क्‍या नया हो जायेगा। (तिलक राज़ जी)

हसीना अपनी जुल्फों को ज़रा महफूज़ रख
विग अगर सर से उड़ा तो बलवला हो जायेगा( राना प्रताप जी )

मत परेशां हो अगर गुझिया में कीड़ा गिर गया,

तल के निकलेगा तो वो भी कुरकुरा हो जाएगा |..(वीनस जी )

नालियों में ही पियक्कड क्यों गिरा, जब पी लिया
"शेष" गर ये राज खुल जाए तो क्या हो जाएगा . (शेष धर तिवारी )

रोज पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा,

जान से जायेगा पर सबका भला हो जायेगा( गणेश जी बागी )


मुँह रजाई में छुपा कर बीड़ियाँ चूसा ना कर,
वर्ना लंका दहन सा कोई हादसा हो जाएगा ! ( योगराज प्रभाकर )


भांग, शादी की मिठाई में डालो लड़कियों,
वरना वर का बाप दुल्हा बन खड़ा हो जायेगा। ( डॉ संजय दानी )


छोड़ दे तू राह जाती लड़कियों को घूरना,
वर्ना धरमिंदर से प्रेम चोपड़ा हो जाएगा !(
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ,)


/हाथ पीले आँख पीली गुर्दा बड़ा हो जायेगा ,

रोज़ पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा ( वीरेंद्र जैन )


लौंडिया के बाप से जब सामना हो जाएगा !
जोश तेरे इश्क का पल में हवा हो जाएगा !( योगराज प्रभाकर )


Friday, March 11, 2011

रोक सको तो रोक लो


रोक सको तो रोक लो ......

खुदाया .....! यह जो तुमने तोह्फ़ा दिया है ...इतनी शक्ति देना क़ि इसे पूरे आकार में जन्म दे सकूँ ....एक धुंधली सी सुब्ह छाती के आले पर रख ...लिख सकूँ सारे जहाँ की औरतों के हक़ में मुहब्बत का गीत ......


लो कर लो...
इन हवाओं का क़त्ल
रोक दो इनकी साँसे .....
काट डालो इनकी अंगुलियाँ
फिर तुम बाँट लेना
युद्ध में जीती इन हवाओं को
अपने अपने हिस्से में ....

पर याद रखना ...
मैं तब भी अपनी कब्र पे
लिखती रहूंगी यही सवाल
तुम्हें सुननी होंगी मेरी चीखें
मैं अपने खूँ की स्याही से
तुम्हारे इन सफेद कुर्तों के
इक-इक धागे पे ....
लिख जाऊंगी तुम्हारे
ज़ुल्म की दस्ताने
....

पर ठहरो ..!
पहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे भी उगाने हैं
तुम्हारे
कद के
बराबर के खेत* .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...

देखो ......
इक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!

( *किसी धार्मिक पुस्तक में स्त्री के बारे ऐसा लिखा गया है कि स्त्री तुम्हारे घर की खेती है इसे जैसे चाहो काट लो )

Tuesday, March 1, 2011

इक औरत .....

पिछले दो महीने पत्र-पत्रिकाओं में खूब नज्में छपीं ....बहुत से फोन काल्स ...ख़त ...पत्रिकाएँ ....नज्मों की मांग ....
इनमें से दो खतों (मेल) ने ज्यादा खुशी दी ...एक तो 'सिल्ली सिल्ली आंदी है हव़ा ' गीत लिखने वाले अमरदीप जी का ख़त और दुसरे निर्मेश ठक्कर जी का जिनका गिनीज बुक में नाम है ....
सबसे ज्यादा नज्में पसंद की गई दृष्टिकोण में छपी नज्में ....पहचान, तूफ़ान ,कॉल गर्ल ,साज़िश हवस ...'दृष्टिकोण' के संपादक नरेंद्र जी का बहुत -बहुत आभार...शुक्रिया जिन्होंने मुझे रचनाओं के लिए दो बार ख़त लिख आग्रह किया ..... इसके अलावा ...अविराम , अभिनव-प्रयास ,पुष्पगंधा ,समकालीन भारतीय -साहित्य ,कथासागर आदि में भी रचनायें छपी ....
अब पेश है इक नज़्म ....' इक औरत ''



इक औरत

सुप्त सी ...
अनसिये ज़ख्मों तले
लिपटा ली जाती है देह मेरी
जहाँ ज़िस्म की गंध उतरती है  
कभी दूसरी,कभी तीसरी .....
तो कभी चौथी बन ....

रात गला काटती है
कई ज़ज्बात मरते हैं  
इक ज़हरीली सी कड़वाहट
उतर जाती है हलक में ..... 
 तुम नहीं खड़ी हो सकती 
 अपने हक़ की खातिर
  मेरी बराबरी पर .....
तुम्हारा वजूद .....
ज़ुल्म सहने ,तिरस्कार झेलने
और बुर्के की ओट में कैद है
तुम्हारी नस्ल को....
तालीम हासिल करने का हक नहीं 
 तुम्हारा गुनाह है ...
तुम लड़की होकर में पैदा हुई ....
तुम जिन्दा रहोगी
तो मेरे रहमोकरम पर ..... 
 उफ्फ़ .... 
इन शब्दों का खौफ
डराता है मुझे .....
ये किसकी अर्थी है ...
पत्ते सी  झूलती हुई .....
ये कौन लिए जा रहा है
मेरे मन की लाशें ......

''औरत तुम्हारी खेती है
इसे जैसे चाहो इस्तेमाल करो''
ओह ....!
 
ये कैसा धर्म है ...?
ये कैसा ईमान है ....?
ये कैसी जहालतें हैं ...?  
ये कैसा कानून है ...?
मेरे ज़िस्म पर मेरे खाविंद का 
 मालिकाना हक़ है ...  
मेरे विचारों पर फतवे हैं ... 
 मेरी सोच पर लगाम है ...
यकसां....
ये 'तलाक' का
तीन बार कहा गया शब्द 
 मेरे सामने चीखने लगा है ......  
मेरे अन्दर कोई पौधा कैक्टस बन  
उग आया है 
 ये पत्थर हुई औरतें

क्यूँ रोशनदानों की ओर झाँकने लगी हैं ?
 चुप्पी की चादर ताने ये सुरमई अँधेरा
किस उडीक में है ......?

अधिकार
के सारे शब्द तुम्हारे हाथों में .....
और मेरे हाथों में सारे कर्तव्य ?

अय
खुदा ...!
बता मैं कटघरे में क्यों हूँ ? 
 मैं औरत क्यों हूँ ...?
मुझे औरत होने से गुरेज है ... 
 मुझे औरत होने से गुरेज है ......!!