Sunday, June 27, 2010

तेरा ख्याल .......

मैं हैरान थी ....रंगों ने पानी में कई सारी चूड़ियां सी बना रखी थीं ....मैंने छुआ तो हाथों को राह मिल गई ....ख्यालों ने रंगों की चूड़ियां पहनी और बदन खिल उठा ....मैंने ऊपर देखा ....सामने वही परिंदा था जिसे रात मैंने मुक्त किया था .....मुझे देख मुस्कुराने लगा ....मैंने उसे कलाइयों की चूड़ियां दिखलायीं ....वह चहकने लगा ....ख्वाबों ने कई साज़ तरन्नुम भरे छेड़ दिए .....रब्ब ने इक खामोश नदी में मोहब्बत का पत्थर फेंका .....इश्क़ ने धड़कना सीख लिया ...बस ये ख्याल थे जो एक-एक कर सामने आते रहे ......




()

तेरा ख्याल
कभी रुकता नहीं
मानसून के मिजाज़ सा
वक़्त बे वक़्त बेखौफ
भिगोने चला आता है
तेरा ख्याल .....!!

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सुब्ह उठती हूँ
तो लक्स की महक में
तारी होता है तेरा ख्याल
शाम होते ही .....
व्हाइट मिसचीफ सा
खिलखिला उठता है
तेरा ख्याल ......!!

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बड़ा ही बेहया है
तेरा ख्याल ...
जब भी तन्हा होती हूँ
शर्ट का ऊपरी बटन खोल
बेफिक्र चला आता है
तेरा ख्याल ......!!

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बड़ा ही बेअदब है
तेरा ख्याल .....
हजारों -लाखों की भीड़ में भी
सामने अकेला खड़ा ...
मुस्कुराता रहता है
तेरा ख्याल .....!!

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सड़क के किनारे लगे
बैनर , पोस्टरों से
इशारे करता है तेरा ख्याल
झिड़क देती हूँ तो
बड़ा मासूम सा .....
किसी लैम्प पोस्ट के नीचे
जा खड़ा होता है
तेरा ख्याल .......!!

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बिखरे हुए शब्दों से
अभी-अभी नज़्म बन
उतर आया है तेरा ख्याल
जरा सा छूती हूँ तो ....
गीत बन गुनगुनाने लगता है
तेरा ख्याल .......!!

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तपिश देती
गर्म हवाओं में भी
सर्द हवा का सा एहसास
दे जाता है तेरा ख्याल
बड़ा ही काज़िब* है
कहता है -" मैं नहीं आता
तेरे ही दिल में बसा है
मेरा ख्याल" ......!!


काज़िब- झूठा

Thursday, June 17, 2010

राजेंद्र जी का दिया हीर को तोहफा ........



बदल न सकी मैं हाथों की लकीरें
हाथ तो बहुत मिले खुशगवार ह्बीबों के ......


लकीरें तो नहीं बदलतीं ....पर हाँ पल दो पल की ये खुशियाँ बरसों की तल्खियात को कमोबेश कम तो कर ही देती हैं ....आज राजेंद्र जी का दिया ये तोहफा आप सब के साथ बांटना चाहती हूँ .....राजेंद्र जी से तो आप सभी परिचित हैं ही .....रब्ब ने मुसीकी में इन्हें अद्भुत हुनर बख्शा है ....खुद अपनी ही बनाई धुन पर ये गज़ब का गाते हैं .....आज हीर के लिए इन्होने ...."दर्द भरी सरगम हरकीरत " गाकर जो इज्जत बख्शी है ....हीर धन्य हुई ....रब्ब इन्हें और शोहरत दे ,और हुनर दे , जहाँ में इनका नाम फरोजां रखे ....सच्च इस तरह के तोहफे कई कीमती तोहफों से ज्यादा मायने रखते हैं ....जो मित्र इनकी खुशबू से परिचित नहीं हैं वो इनके ब्लॉग par जाकर इन्हें महसूस कर सकते हैं .....
नीचे की लिखी मेरी दो ग़ज़लों को इन्होंने अपना स्वर दिया है ....और ये तस्वीर भी इन्हीं की भेजी हुई है इसलिए इसे लगाने पर मैं मजबूर हुई .....

पेश है पहले राजेंद्र जी की गाई ग़ज़ल .....दर्द भरी सरगम हरकीरत ......

( जब राजेन्द्र ने हीर की बहुत सारी कविताएं पढ़ लेने के बाद उसकी अलग छवि महसूस की …)

(1)




दर्द भरी सरगम हरकीरत.......

दर्द भरी सरगम हरकीरत
लौ जलती मद्धम हरकीरत

क्यों पलकें हैं नम हरकीरत
बदलेगा मौसम हरकीरत


दिल पर अपने पत्थर रखले
पत्थर मीत – सनम हरकीरत



अश्क़ तेरे पी’ भीगा सहरा
सुलग उठी शबनम हरकीरत

हर इक शय यूं कब होती है
बेग़ैरत – बेदम हरकीरत

रब की दुनिया में तेरा भी
है हमग़म – हमदम हरकीरत


बेशक , चोट लगी है तुमको
तड़प रहे हैं हम हरकीरत

ज़ख़्म तेरे लूं पलकों पर , दूं
अश्कों का मरहम हरकीरत

इंसां ही बांटे इंसां के
दर्द मुसीबत ग़म , हरकीरत


- राजेन्द्र स्वर्णकार
इसे यहाँ सुन सकते हैं .....





(2)

दोहे ( राजेन्द्र ने हीर को उसके कंमेंट्स के आधार पर जितना जाना …)

हर कीरत , हर जानता , या कोउ साचा पीर !
निज छबि देखन जगत को , दी
हरकीरत ' हीर '
!!

निर्मल मन हैं आप …ज्यों , बहता निर्मल नीर !
आप ख़ुशी - मुसकान हैं , धन
हरकीरत ' हीर ' !!

लफ़्ज़ - लफ़्ज़ में है शहद , मिसरी , अमृत , शीर !
शुक्राना रब ! जगत को , दी
हरकीरत ' हीर ' !!


हाल देख , रब ! रहम कर ! जग कितना बेपीर !
दी इक ही ; क्यों दी नहीं … लख
हरकीरत ' हीर ' !?

रब ! अब कर संसार की , तू ऐसी तक़दीर !
हर घर को तू बख़्शदे , इक
हरकीरत ' हीर ' !!

- राजेन्द्र स्वर्णकार

(3)

हीर की लिखी इस ग़ज़ल को भी स्वर दिए है राजेंद्र जी ने .......
रात पहलू में आ'कर कोई सो गया.....


रात पहलू में आ'कर कोई सो गया
दिल में आया कोई और मेरा हो गया

इक सितारे ने महफिल में चूमे क़दम
शर्म से चांद उठ' अपने घर को गया

ख़्वाब मेरे महकने लगे ; कौन ये
मोगरे की फसल सांस में बो गया

छा गया है ख़यालों में वो इस कदर
गीत ज़िंदा कोई नज़्म में हो गया

हो गई है मुहब्बत , बचा रब मेरे
दिल गया हाथ से , ये गया , वो गया

दिल लिया , दर्दे- दिल भी मेरा ले लिया
तब ज़रा - सा यक़ीं मुझको हो तो गया

हीर सच्ची मुहब्बत मुबारक तुझे
कोई है , प्यार में जो तेरे खो गया


इसे यहाँ सुन सकते हैं ......









(४)


और अब वो ग़ज़ल जो आप पहले भी पढ़ चुके हैं ...बस मत्ला बदला गया है .....

हमेशा चाहतों के सिलसिले...........

हमेशा चाहतों के सिलसिले क्यूं छूट जाते हैं
मुहब्बत से भरे मा'सूम दिल क्यूं टूट जाते हैं

नज़र हो मुंतज़िर कोई ; कभी हम लौट भी आते
उमीदों के घरौंदे ही तो अक्सर टूट जाते हैं

शज़र हम जो लगाते हैं , वो अक्सर सूख जाते हैं
मुहब्बत हम जहां करते , शहर वो छूट जाते हैं

जफ़ा देखी वफ़ा देखी , जहां की हर अदा देखी
नकाबों में , चमन ख़ुद बाग़बां ही लूट जाते हैं

हवाओं से बिखरती जा रही बेबस , वो कश्ती हूं
बहाना था वगरना दिल कहां यूं टूट जाते हैं

कभी तो मुस्कुरा कर भी सनम देते सदा मुझको
बहारें लौट आतीं , फिर… गिले सब छूट जाते हैं

घरौंदे साहिलों पर 'हीर' तुम बेशक बना लेना
बने हों रेत से घर …वो बिखर कर टूट जाते हैं

- हरकीरत 'हीर'
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इसे यहाँ सुन सकते हैं ......




Tuesday, June 1, 2010

त्रासदियों के बीच सुलगते सवाल .......

पिछली बार की कुछ टिप्पणियों ने सोचने पर मजबूर किया ....क्या औरत को भूख के लिए सिर्फ एक निवाला रोटी भर चाहिए .....? या जीने के लिए एक चारदीवारी ....? जहाँ त्रासदियों का आँगन अपनी दास्ताँ लिखता रहे और चुप्पियाँ एक-एक कर अपनी चूडियाँ तोडती रहे ......? मेरी लेखनी सिर्फ मेरा निजी दर्द नहीं है बल्कि उन तमाम औरतों के लिए भी है जहाँ उन्हें ब्याहने के बाद थूक दिया जाता है ....या चिन दिया जाता है .....उसके पास जीने के लिए उनकी खुद की ज़मीन नहीं होती है .....पिता के घर के खनकते घुंघरू पति के घर एक-एक कर टूटने लगते हैं ... उन टूटते घुंघरुओं के साथ -साथ उसकी सांसे धीरे-धीरे कफ़न के नीचे का सुख तलाशने लगती हैं ....आज फिर जलते हुए कुछ सवाल हैं .....

शायद ये दर्द मेरी सांसों में है ....इसलिए सवाल उठाने वाले क्षमा करें .....

(पिछली पोस्ट पर व्यस्तता के कारण सभी की पोस्ट नहीं पढ़ पाई ......अन्यथा लें ....)


(१)

त्रासदियाँ
.....

ऐसे बहुत सारे सवाल
जो अक्सर टूटने के बाद
चुप्पियों में पनपने लगते हैं
किताबों में दर्ज हो
आत्मकथात्मक शैली में
लिख जाते हैं 'रशीदी टिकट' पर
त्रासदियों की दास्ताँ ....!!


(२)

जिद्दी धुनें ........

जीवन क्या है ...?
उलझनों का द्वन्द
एक चक्रवात घूमता है
तुम्हारे लफ़्ज़ों की थरथराती ज़मीं पर
जब भी मैं पैर रखती हूँ ....
तुम कहीं भीतर बहुत गहरे में
गर्त हो जाते हो .....
झूठ के भी पैर हुए हैं भला ....?
बस कुछ जिद्दी धुने बजने लगती हैं
बेवजह .........!!


(३)

प्रेम ......

शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!


(४)

सुलगते सवाल .....

तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!