Wednesday, May 19, 2010

खौफ़ ....ज़ंजीर....और पिंजरा .......

खौ ....ज़ंजीर....और पिंजरा ...अक्सर औरत और चिड़िया अपने नसीबों में मेहँदी के साथ इनका नाम भी लिखा लाती हैं .....और मौत ....जी भर दर्द पीने भी नहीं देती के हक़ जताने खड़ी होती है ....उजाला बेशक रास्ता भूल जाये ...पर कम्बखत ये नहीं भूलती ......औरत का दर्द नंगे पाँव चलकर आता है ....जब साँस उखड़ने लगती है तो वह पी लेना चाहती है एक ही बार में सारे गम ......पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है .....
रब्बा अपनी दुनियाँ में इक हँसी का जंगल उगाना ......जहाँ रूहें अपने पंख पसार खुले आसमां में बेखौफ उड़ सकें ......


(१)

झुलसे पंख

मासूम सी
इक दिन महानगर के
इक विशाल दरख़्त पे जा बैठी
अचानक पत्तों ने इक आग सी उगली
और उसके पंख झुलस गए
अब वह उड़ती नहीं .......!!

(२)

खौफ़

चानक
इक खौफनाक
धमाके की आवाज़ हुई
वह जहाँ थी वहीँ सिकुड़ गई
खौफ़ ने उसे उड़ना भुला दिया .....!!

(३)

ज़ंजीर

सने बड़ी उम्मीद से
आसमां की ओर देखा
पंख फड़फड़ाये .....
उडारी भरने की कोशिश में
औंधे मुँह जा गिरी
उसने झुककर नीचे देखा
इक ज़ंजीर पैरों से बंधी थी .......!!

(४)

पिंजरा

.....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है .......!!

(५)

प्यास

प्यासी थी
पर प्यास उसे पानी की न थी
वह पी लेना चाहती थी
उसके होंठों से
अपने हिस्से के
तमाम दर्द .....!!

Saturday, May 8, 2010

हथेलियों पे लगा इक खुशनुमा रंग है .............मुहब्बत
खूबसूरती का महकता एहसास है ..................मुहब्बत
अँधेरे से रौशनी की ओर चलता ख्याल है .....मुहब्बत
उदास चेहरों पर खिली मुस्कान है ............. ...मुहब्बत
जन्मों - जन्मों की इक तलाश है .............. ...मुहब्बत
मुहब्बत मिट्टी के वजूद पर खिला इक सुर्ख गुलाब है ............

पेश हैं कुछ क्षणिकाएं ....जो आज फिर मुहब्बत के दरवाजे पे दस्तक दे रही हैं ........


(१)

प्रेम .....

ऊंचाई से लुढ़क के
पेड़ों के झुरमुटे में
कहीं अटका पड़ा था प्रेम
मैंने उसे उठाकर खड़ा किया
धूल झाड़ी और कहा.....
अभी तुझे चलना है
मित्र ......!!


(२)

अनकहे शब्द ......


तु .....
मेरी लिखी नज्मों में
ढूंढते रहे अपने लफ्ज़
मैं तेरी लिखी सतरों में
ढूंढती रही कुछ छूटे हर्फ़
ज़िन्दगी यूँ ही तेरे
अनकहे शब्दों के
इंतजार में
कटती गयी ......!!

(३)


तेरा ज़िक्र .....

बार पलटी हूँ
मुहब्बत के दर से खाली हाथ
इसलिए नहीं देती मैं
तेरी चाहत को
इश्क़ का नाम
तेरा ज़िक्र ....
उस पाक नाम से
कहीं ऊपर है .......!!

(४)

सुर्ख होते पत्ते .......

दीवाना खरीद लाया
इश्क़ के गहने मेरे लिए
जो मैंने पहने ....
तो बदन के ज़र्द पत्ते
सुर्ख हो गए ......!!

(५)

मुहब्बत का रंग .....

तु आना ....
मैं आसमां के सारे रंग
उड़ेल दूंगी तुम्हारे पैरों पर
तुम बस इक रंग मुहब्बत का
मेरे लबों पे सहेज जाना .....!!

(६)


मुहब्बत के रस्ते ....


-जब ....
मुहब्बत की ऊँगली में
इश्क़ ने अंगूठी पहनाई
उम्रों के पत्ते कट गए ...
रब्बा....!
ये मुहब्बत के रस्ते
मौत की कगार से
क्यूँ चलते हैं .....!?!

Saturday, May 1, 2010

खूंटियों पर टंगी श्लीलता .......

कविता अगर आपके मानसपटल पर बज्रपात नहीं करती तो महज आपके विचारों का तहखाना बनकर रह जाती है ....पिछले दिनों ब्लॉग जगत के कुछ युवा रचनाकारों ने सर्जना के प्रांगण में नए धरातलों को छूने का प्रयास किया है .... मुद्दत बाद पिछले दिनों चेतना - मंथन वाली कुछ ऐसी ही कवितायें ब्लॉग जगत में पढने को मिलीं ....उन्हीं में से इक कविता थी सागर (लेखनी जब फुर्सत पाती है ) की ....मुझे लगा इस लम्बी कविता को नोटिश में लिया जाना चाहिए ....कविता थी... " कवि कह गया है -7" कविता समाज के ह्रास होते विवेक पर गोली-बारी करती हुई मानों शोकगीत लिख देती है ....व्यक्तिवाद की क्रूरता,दगाबाजी, स्वार्थलोलुपता के यह कविता कपड़े उतारती प्रतीत होती है .....हल्का सा प्रतिवाद भी हुआ इस पर शब्दों को लेकर ....पर कविता चेतना को कचोटती है इस लिए कवि बधाई का पात्र है .....
उसी कविता से उपजी है यह कविता ...." खूंटियों पर टंगी श्लीलता ...."


द्धिम है रौशनी
पर जलते अंगारे
अभी बुझे नहीं हैं
तपती रेत से
उठते बगुल
गढ़ते हैं परिभाषा
कविता की .....


खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....


अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....


कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....


शायद तभी
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!