Wednesday, November 5, 2008

एक ख़त इमरोज जी के नाम
(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज्‍म रुप में खत
मिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्‍हें अपनी इस नज्‍म में दिया है...)

इमरोज़
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्‍या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे का़गच की सतरों को
शापमुक्‍त करती रहीं...

शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्‍से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अरथियों में सजती रहती...

इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...


यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्‍फाज़ हैं
जो महोब्‍बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्‍जों के स्‍पर्श से
मैं रूह सी हल्‍की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्‍पर्श से
कली से फूल बन गई थी...

इमरोज़!
तुमने कहा है-
''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रौशनी भी''
तुम्‍हारे इन शब्‍दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि जिंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि जिंदगी सुख भी थी

हाँ इमरोज़!

लो आज मैं कहती हूँ
जिंदगी सुख भी थी …

3 comments:

muflis said...
This comment has been removed by the author.
muflis said...

palkoN ke kono mei ubharte aansuoN ke kuchh sachche qatroN ka mitti ke `paakeeza zarroN` se mel karvaa pana, dard ke sulagte izhaar ko muqaddas alfaaz ka singaar de pana, aur lafzo ki khaamosh rooh se zindgi ko talaash kr ek kavita ka khoobsurat roop de pana...bus Harkirat `Haqeer` ki hi qalam ka kamaal ho sakta hai...salaam ! Aap khushnaseeb haiN, aapko IMROZ jaisi azeem shakhshiyat ka khuloos (sneh) milaa hai...badhaaii . "MUFLIS"

रश्मि प्रभा... said...

पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि जिंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
जिंदगी सुख भी थी
ye heer hi likh sakti hai, kabhi amrita kabhi harkeerat kabhi sohni ban sakti hai.....