Friday, December 27, 2013

मुहब्बत का दरवाजा  …(इक नज़्म )

हर किसी को यही लगा था
 कि  कहानी खत्म हो गई
और किस्सा खत्म हो गया ……
पर कहानी खत्म नहीं हुई थी
शिखर पर पहुँच कर ढलान की ओर
चल पड़ी थी  …
जैसे कोई तरल पदार्थ चल पड़ता है
उस बहाव को न वह रोक पाई थी
 न कोई और  ....
हाँ ! पर मुहब्बत उस कहानी के साथ -साथ
चलती रही थी  …
कहानी थी इक दरवाजे की
जो मुहब्बत का दरवाजा भी था
और दर्द का भी  ....
जब मुहब्बत ने सांकल खटखटाई थी
वह हथेली की राख़ में गुलाब उगाने लगी थी
वह अँधेरी रातों में नज़में लिखती
इन नज़मों में  …
तारों की छाव थी
बादलों की हँसी
सपनों की खिलखिलाहट
खतों के सुनहरे अक्षर
अनलिखे गीतों के सुर
ख्यालों की मुस्कुराहटें
और सफ़हों पर बिखरे थे
तमाम खूबसूरत हर्फ़  ....
पर उस दरवाजे के बीच
एक और दरवाजा था
जिसकी ज़ंज़ीर से उसका एक पैर बंधा था
वह मुहब्बत के सारे अक्षर सफ़हे पर लिख
दरवाजे के नीचे से सरका देती
पर कागजों पर कभी फूल नहीं खिलते
इक दिन हवा का एक बुल्ला
अलविदा का पत्ता उठा लाया
दर्द में धुंध के पहाड़ सिसकने लगे
उस दिन खूब जमकर बारिश हुई
वह तड़प कर पूछती यह किस मौसम की बारिश है
हादसे काँप उठते  ....
बेशक मुहब्बत ने दरवाजा बंद कर लिया था
पर उसके पास अभी भी वो नज़में ज़िंदा हैं
वह उन्हें सीने से लगा पढ़ती भी है
गुनगुनाती भी है  ……

हीर   …

Monday, December 9, 2013

मुहब्बत कब मरी है …

मुहब्बत कब मरी है …

चलो आज लिख देते हैं
सिलसिलेवार दास्तान
तमाम उम्र के मुर्दा शब्दों की
जहां मुहब्बतों के कितने ही फूल
ख़ुदकुशी कर सोये पड़े हैं
कब्रों में …

तुम बताना स्याह लफ्ज़
पागल क्यों होना चाहते थे
टूटे चाँद की जुबान खामोश क्यों थी
कोई कैद कर लेता है बामशक्कत
मुहब्बतों के पेड़ों की छाँव
दो टुकड़ों में काटकर
फेंक देता है चनाब में ....

सुनो ....
मुहब्बत कब मरी है
वह तो ज़िंदा है कब्र में भी
कभी मेरी आँखों से झाँक कर देखना
उस संगमरमरी बुत में भी
वह मुस्कुराएगी …

यकीनन ....
वह फिर लिखेगी इतिहास
'कुबूल - कुबूल' की जगह वह नकार देगी
तुम्हारी हैवानियत की तल्ख़ आवाज़
बिस्तर पर चिने जाने से बेहतर है
वह खरोंच ले अपने ज़ख्म
और बुझे हुए अक्षरों से
फिर मुहब्बत लिख दे …!!

हीर …

Saturday, November 2, 2013

आज जलेंगे दीये उजाले के

आज जलेंगे दीये उजाले के
संग मेरे रौशनी का जहां होगा
जीत के जश्न की तैयारी कर लो
आज अंधेरों का ज़िक्र न यहाँ होगा


दीपावली की शुभकामनाओं सहित पेश हैं कुछ हाइकू ......
  
(१)
जलाया दीप
आँगन में साजन
तेरे नाम का
(२)

जलती रही
तेरे इन्तजार में
उम्रों की  बाती
(३)
कोई जला दे
अबके दिवाली में
मन दीपक
(४)
बुझी-बुझी सी
रौशनी दीपक की
बिन है तेरे
(५)
दीप जला न
 प्रीत के तेल बिन
रोये है बाती
(६)
यादों के दीप
जलाऊँ मन मीत
इस दिवाली
(७)

रूठे न कभी
दीपक से ये बाती
बंधे यूँ प्रीत
(८)
दूर कहीं जो
जलता देखूँ दीप
तुझे पुकारूँ

(९)

उदास रात
उजाले का दीपक
जला दो तुम
(१०)
घना  अंधेरा
गुनगुना दो तुम
गीत उजाला
(११)

माटी का दीप
अमावस की रात
बना प्रहरी
(१२)
मंगलमय
पावन दीपावली
मिटे अंधेरा

(१३)
आंधी से लड़ा

हँस -हँस के मिटा
अकेला दीया

(१४)

दीप जलाएं
तम हर कोने से
दूर भगाएं
(१५)

रख के पाँव
तम की छाती पर
दीपक जीता

हीर  …

Thursday, October 24, 2013

करवा चौथ पर दो नज्में ……

करवा चौथ पर दो नज्में  ……
(जो व्यस्तता के कारण उस दिन पोस्ट नहीं कर पाई )

(1)
एक कसक,एक बेचैनी
एक बेनाम सा दर्द
कुछ लिखा है वर्क दर वर्क
नमी में डूबे लफ्ज़
यादों के नगमें सुनाते
ख़ामोशी से उतर आये हैं
 थाली में …
चाँद तब भी था
चाँद  आज भी है
तन्हाइयाँ तब भी थीं
दूरियाँ अब भी हैं
पर दिलों में कुछ तो है
जो बांधे हुए है अब तक
आज के दिन कहीं भीतर
कुछ सालता है  …।

(२)

आज की रात
उफ़क पर निकल आया है चाँद
 तेरी सलामती का ….
इश्क का उड़ता पंछी
आ बैठा है मुंडेर पर
आँखों में उतर आई है
बरसों की दबी मोहब्बत
दीवानगी में चुपके से
चूम लेती हूँ तस्वीर तुम्हारी
 लम्बी उम्र की
दुआओं के साथ …

Monday, October 14, 2013

पहला ख़त …

पहला ख़त  …

क्या ऐसी ही
होती है मुहब्बत … ?
ख्याल कागज़ पर
लिखने लगते हैं नाम
रंग आखों में उतर आता है
ज़िन्दगी चुपके -चुपके
 लिखने लगती है नज़्म  ….

आँखों की बेचैनियाँ
खूबसूरती के सबसे सुंदर शब्द बन
मुस्कुराने लगती  हैं
रात बादलों की छाती पर
ओस कीबूंदें बन लिखती है गीत
ख़्वाबों  में कोई सुना जाता है
बहते झरने की मीठी कल -कल
उम्र घूँट -घूँट पी जाती है
दीवानगी की सारी हदें  ….

आज मैंने
सीने  में छुपा ली है
सोहणी महिवाल की तस्वीर
चनाब आतुर है कोई घड़ा
उतर आये पानी में
आज मेरी कलम के सारे शब्द
टूटे तारे से मुराद मांगने
आसमां की ओर निकल पड़े है   ….

बर्फ सी भीगी हवा
उड़ा ले गई है छाती से दुपट्टा मेरा
लोक गीतों का कोई स्वर
झड़ने लगा है हर सिंगार बन
चलो आज की रात
झील की गहराई में उतार दें
चाँद की सारी हँसी
और लिख दें एक दुसरे के नाम
मुहब्बत का पहला ख़त  …. !

हीर ….

Wednesday, September 18, 2013

हल्दी घाटी का महाराणा प्रताप संग्रहालय और श्रीमाली जी …

हल्दी घाटी का महाराणा प्रताप संग्रहालय और श्रीमाली जी  …

जैसा कि फेस बुक से आप सब को पता चल ही गया होगा  कि हल्दी घाटी में मुझे राष्ट्रीय साहित्य , कला और संस्कृति परिषद् द्वारा साहित्य रत्न राष्ट्रिय सम्मान दिया गया। . जिस संग्रहालय में हमें ये सम्मान दिया गया आइये उसके बारे में थोड़ी सी जानकारी आप सब को दूँ   ….

सब से पहले मिलवाती हूँ उस संग्रहालय से जहां हमारा कार्यक्रम आयोजित हुआ और जिसका निर्माण श्री मोहन लाल श्रीमाली जी ने अपने बल बूते पे किया । जिसके लिए वे राष्ट्रपति  के हाथों सम्मानित भी हो चुके हैं ……
‘‘मंजिलें उनको मिलती हैं, जिनके सपनों में जान होती है, पंख से कुछ नहीं होता, हौंसलें से उड़ान होती है’’

उदयपुर के एक शिक्षक मोहनलाल श्रीमाली ने अकेले दम एक पूरा संग्रहालय बनाकर इन दो पंक्तियों को पूरी शिद्दत से साकार कर दिखाया है। 
                                              डॉ अमर सिंह वधान जी के साथ बैठे हुए श्रीमाली जी  ….

झीलों की इस खूबसूरत नगरी में आने वाले देश विदेश के मेहमान हल्दीघाटी संग्रहालय जरूर जाते हैं और श्रीमाली की मेहनत और जज्बे की दाद दिए बिना नहीं रहते.
श्रीमाली ने विषम परिस्थितियों में इस बेहतरीन संग्रहालय को आकार दिया है जो यहां आने वालों को इतिहास के गर्भ में छिपी बहुत सी कहानियों की दास्तान सुनाता है. 
सूत्रों के अनुसार मोहन लाल श्रीमाली ने अध्यापक की नौकरी से अनिवार्य सेवानिवृत्ति लेने के बाद राज्य सरकार से मिली पूंजी से संग्रहालय का तिनका तिनका बटोरना शुरू कर दिया. उनकी साधना रंग लाई और हल्दीघाटी संग्रहालय आकार सजने संवरने लगा.
हल्दीघाटी संग्रहालय, भक्ति और स्वाभिमान के प्रतीक राष्ट्रनायक महाराणा प्रताप के जीवन की घटनाओं और दृष्टान्तों को विविध रूपों में संजो कर ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर संरक्षण का एक अनूठा प्रयास है. 



संग्रहालय में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के जीवन की यादों को इस तरह से संजोया गया है कि उन्हें देखने वाला इतिहास के पन्नों में गुम हो जाता है.
यहां आने वालों का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर से साक्षात्कार होता है. यह संग्रहालय महाराणा प्रताप और मानसिंह के बीच हुए युद्ध की साक्षी रही हल्दी घाटी पहुंचने वाले सैलानियों विशेष तौर से युवा पीढी को देशभक्ति का संदेश और प्रेरणा देता है.
संग्रहालय में मेवाड़ का राज्यचिन्ह, पन्ना धाय का बलिदान, गुफाओं में महाराणा प्रताप की अपने मंत्रियों से गुप्त मंत्रणा, शेर से युद्ध करते प्रताप, भारतीय संसद में स्थापित महाराणा प्रताप की झांकी की प्रतिमूर्ति, मानसिंह से युद्ध करते महाराणा प्रताप, महाराणा प्रताप एवं घायल चेतक घोड़े का मिलन, महाराणा प्रताप का वनवासी जीवन के साथ-साथ उनसे जुड़े अन्य प्रसंगों को यहां आकर्षक माडल, चित्र और झांकी के रूप में प्रदर्शित किया गया है.
संग्रहालय में कृष्ण दीवानी मीरा, महाराणा अमर सिंह, महाराणा उदय सिंह, महाराणा संग्राम सिंह राणा सांगा महाराणा कुम्भा और महाराणा बप्पा रावल के बड़े-बड़े चित्र बडी सुन्दरता से प्रदर्शित किए गए हैं.
ऐतिहासिक विरासत का सजीव प्रस्तुततीकरण कलाकृतियों और मूर्तियों के रूप में किया गया है.

१६ वर्ष पूर्व प्रारंभ किया गया संग्रहालय निर्माण कार्य तेजी से आगे बढ रहा है और आज काफी विकसित रुप में यहां आने वाले सैलानियो की पहली पसन्द बन गया है। 
                    संग्रहालय के बाहर ऊंटों की सवारी भी मौजूद रहती है हल्दी घाटी घुमने के लिए  ….


संग्रहालय में महाराणा प्रताप के जन्म से लेकर मृत्यु तक के घटनाक्रम को आकर्षक मुर्तियों के मॉडल, चित्रों झांकियों के रूप में आकर्षक रूप में पदर्शित किया गया है। एक मिनी थियेटर में महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित फिल्म का पदर्शन भी किया जाता हैं। साथ ही राजस्थान से लुप्त हो रही संस्कृति, कुंए से पानी बाहर निकालने के लिए रहट, पिराई लिए कोल्हू, तेल की घाडी, रथ, बैलगाडी, गाडिया लौहार, कृषि यंत्र, वाद्य यंत्र, वेश भूषा आदि का प्रदर्शन भी किया गया है। आने वालों के लिए मनोरंजन हेतु कृत्रिम झील का निर्माण कर बोटिंग की सुविधा उपलब्ध कराई गई है। हस्तशिल्प को प्रचलित करने की दृष्टि से हस्तशिल्प यहां मौजूद है। श्रीमाली का ही प्रयास है कि अब हल्दीघाटी आने वालों को प्रताप के घोडे चेतक की समाधी, रक्त तलाई के साथ-साथ यह संग्रहालय देखने को मिलता है

                                 पीछे तस्वीर में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से सम्मानित होते श्रीमाली जी …


इस संग्रहालय के निर्माण के लिए श्रीमाली ने अपनी वी.आर.एस. का एक-एक पैसा, पुश्तैनी जमीन, जेवर व मकान बेच कर पूरा पैसा इसमें लगा दिया। प्रारंभ में बैंको ने कर्जा देने से मना कर दिया परन्तु जब संग्रहालय निर्माण का कार्य तेजी पर नजर आया तो बैंकों ने ऋण भी उपलब्ध कराया। संग्रहालय का निर्माण ही नहीं वरन् संग्रहालय के लिए जमीन भी उन्होंने अपने रूपयों से खरीदी। संग्रहालय के निर्माण के लिए कोई आर्किटेक्ट नहीं मिला तो इन्होंने संपूर्ण कल्पना को स्वयं ही अपनी इच्छा शक्ति के साथ साकार किया। हल्दीघाटी संग्रहालय की स्थापना से पूर्व यहां वर्ष में करीब २५ हजार पर्यटक यहां आते थे जबकि अब प्रति वर्ष ४ लाख से अधिक पर्यटक यहां आने लगे हैं।



             हमारे कार्यक्रम में भी श्रीमाली जी को सम्मानित किया गया  …. 


हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप की पावन स्मृति में प्रताप संग्रहालय के निर्माता श्री मोहनलाल श्रीमाली को "राष्ट्र गौरव के प्रतीक" की उपाधि से अलंकृत किया गया।
आप भी कभी हल्दी घाटी जाएँ तो ये संग्रहालय जरुर देखें …
अगली बार हल्दी घाटी के कुछ अन्य ऐतिहासिक स्थलों की जानकारी दूंगी …. !!

Friday, August 30, 2013

बाकी बची उम्र …

                           जन्मदिन पर आदरणीय राजेन्द्र स्वर्णकार जी की भेंट ये तस्वीर


नामुराद सांसें भी आईं कुछ इस तरह अहसान से आज
चलते - चलते ज़िन्दगी जो उम्र का इक पन्ना फाड़ गई ….!
!

बाकी बची उम्र   …
 
हर रोज घटती हैं रेखाएं 
उम्र के साथ -साथ
एक जगह से उठाकर
रख दी जाती हैं दूसरी जगह
बार-बार दोहराये जाते हैं शब्द,
तारीखें बदल जाती हैं
दर्द थपथपा कर देता है तसल्ली
पार कर लिया है उम्र का
एक पड़ाव  ….
बंधे हुए गट्ठरों में 
अब कुछ नहीं बचा बिखर जाने को
तुम चाहो तो रख सकते हो
मेरी चुप्पी के कुछ शब्द
छटपटाते हुए
ओस की बूंदों में लिपटे
उतर आयेंगे तुम्हारी हथेलियों पर
रात की बेचैनियों का खालीपन
दर्द की लहरों के संग
खड़ा मिलेगा तुम्हें
अकेला और बेचैन ….
तुम्हें यकीं कैसे दिलाऊँ
बेशक सांसें अभी ज़िंदा हैं
पर खुशियों की एक भी उम्र
बाकी नहीं है इनमें …
जीने की कोशिश में आँखों की रेत
बहती जा रही है कोरों से …
आओ …
आज की रात ले जाओ
बांह पकड़कर  …. 
फ़िक्र के पानियों से दूर
बादलों इक टुकड़ा ढूँढता हुआ
आया है तुम्हारे पास
आओ कि अब
उदासियों में बाकी बची उम्र
सुकून की तलाश में
कब्रें खोदने लगी है …!!

हीर  ….

Tuesday, August 20, 2013

रक्षा बंधन की शुभ कामनाएं ....

1-रक्षाबन्धन

आज सुबह मेल खोली तो आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की  ये मेल आई हुई थी … 
परम प्रिय बहन !
आज के दिन आपको रक्षाबन्धन की विशेष  शुभकामनाएँ !
आपका जीवन प्रतिपल सुखमय हो !
1
भले दो तन
पावन एक मन
भाई -बहन ।
2
आँच न आए
जीवन में ज़रा-सी
भाई की दुआ ।
-0-
सम्मान और स्नेह के साथ
आपका भाई
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

वे मुझे बहन तो कहते थे पर इस तरह इतना मान देंगे सोचा न था.…. उन्हीं को समर्पित ये चंद  हाइकु   …….


(१)


भेजा है धागा
बाँध कलाई पर
मान रखना 

(२)

धागा नहीं ये
पावन से रिश्ते में
प्यार बाँधा है 

(३)
छूटे न कभी
रिश्ता ये तेरा मेरा
नेह से भरा 

(४)

तेरी दुआ से
दर्द से लड़ने का
बाँधा साहस 

(५)
लम्बी उम्र की
दुआ है बहना की
भईया मेरे 



हीर  …

Wednesday, July 31, 2013

दुआओं का फूल …

इमरोज़ की इक नज़्म का जवाब ….


दुआओं का फूल …

सोचें सच होती होगीं
पर हीर की सोचें कभी कैदो ने
 सच नहीं होने दीं
इक खूबसूरत शायरा की मुहब्बत
वक़्त की कीलियों पर टंगी
मजबूर खड़ी है ….

इस पीर की कसक
तूने भी सुनी होगी कभी
कब्रों पर
सुर्ख गुलाब नहीं खिला करते
अपनी पागल सी चाहत
रंगीली चुन्नियों के ख़्वाब
मैंने अब चुप्पियों की ओट में
छिपा दिए हैं …
मुहब्बत की लकीरें
कैनवास पर उतरती होंगी
हथेलियों पर लकीरें
तिड़क जाती हैं …

चल तू यूँ जख्मों पर
रेशमी रुमाल न फेरा कर
रात आहें भरने लगती है
बेजान हुए सोचों के बुत
पास खड़े दरख्तों से
ख़ामोशी के शब्द तलाशते हैं
सपनों के अक्षर पत्थर हो
धीमे से समंदर में
उतर जाते हैं ….

देख आज मेरी नज़्म भी
सहमी सी खड़ी है
आ आज की रात
इसकी छाती पर कोई
दुआओं का फूल रख दे …!!

हीर …

Thursday, July 18, 2013

कुछ सेदोका ....


यही सेदोका २६ - ७ -१३ के दैनिक भास्कर समाचार- पत्र में भी ……



कुछ सेदोका ....


(सेदोका हाइकु की ही तरह काव्य की एक विधा है जो कि ५ + ७ +७ + ५ + ७+७  के क्रम में लिखे जाते हैं ....)


(१)
खूंटी पे  टंगा
हंसता है विश्वास
चौंक जाती धरा भी
देख खुदाया !
 तेरे किये हक़ औ'
नसीबों के हिसाब ...!

(२)

स्याह से लफ़्ज
दुआएं मांगते हैं
जर्द सी ख़ामोशी में
लिपटी रात
उतरी है छाती में
आज दर्द के साथ ....!

(३ )

आग का रंग
मेरे लिबास पर
लहू सेक रहा है
कैद सांसों में
रात मुस्काई  है
कब्र उठा लाई  है ....

(४)

दागा जाता है
इज्जत के नेजे पे
बेजायका सी देह
चखी जाती है
झूठी मुस्कान संग
दर्द के बिस्तर पे .....

(५)

कैसी आवाजें
बदन को छू गईं
अँधेरे की पीठ पे
नज़्म उतरी
तड़पकर आया
आज ख़याल तेरा ...!

(६)
कुछ चीखते
 जिस्मों की कहानियाँ
उतरी है पन्नो में
हर घर में
मरती  है औरत
आज भी पिंजरों में

(७ )

उधड़ा दर्द
बुनती है औरत
उलझे फंदे सारे
पंजे समेट
आया है चुपके से
टूटे धागे हैं सारे .

Thursday, July 11, 2013

यादें ......

आज पेश है यादों में उलझी-सुलझी इक नज़्म .....

यादें ......
 
गुलाबी सी सपनों की चादर
जलता सा  ख़्वाब ज़हन में
इक आग का  दरिया  है औ'
 इक कम्पन सी बदन  में
आज भूली बिसरी बातों की
यादें साथ आई हैं  ....
धड़कती सी ज़िन्दगी की
कुछ नज्में याद आई हैं  ....

वक़्त के सीने में सिमटी
कुँवारी सी हसीन कहानी
इश्क़ के पानियों पर  लिखी
बीज  की इक जिंदगानी
सुलगती सी रात ये
नुक्ते पर सिमट आई है ...

धड़कती सी ज़िन्दगी की
कुछ नज्में याद आई हैं  ....


दीवानी सी हर गली थी
हँसती थी तन्हाई  में
अक्षर-अक्षर जश्न मनाती 
रात गुजरती शहनाई में
हवा दे रही हिचकोले
 चनाब चढ़-चढ़ गदराई  है ...

धड़कती सी ज़िन्दगी की
कुछ नज्में याद आई हैं  ....


बावरी सी कोई महक ये
भीगती है मेरे  संग संग
 कौन रख गया है आज
यादों में इक खुशनुमा रंग
देह में रौशनी की इक
लकीर सी कुनमुनाई है ...

धड़कती सी ज़िन्दगी की
कुछ नज्में याद आई हैं  ....


वह सोहणी थी  या सस्सी
साहिबां थी या कोई हीर
इश्क़ में डूबी जीती-जागती
मोहब्बत की थी कोई ताबीर
पूरे  आसमान में इक
 खलबली सी मच आई  है ...

धड़कती सी ज़िन्दगी की
कुछ नज्में याद आई हैं  ....


आज चाँद की छाती में फिर से
प्यार की इक हूक  उठी
सितारों की चादर में किसने
बादलों  की नज्म लिखी
आज वादियों से तेरे नाम की
सदा उठ -उठ आई है ....

भूली बिसरी बातों की
यादें साथ आई है ....
धड़कती सी ज़िन्दगी की
कुछ नज्में याद आई हैं  ....



हीर ......

Monday, July 1, 2013

उत्तराखंड की त्रासदी पर कुछ हाइकु ....

१६  जून २०१३ को उत्तराखंड में भारी बारिश से आई तबाही पर
 कुछ हाइकु ....


महाकाल के
आगोश में समाया
उत्तराखंड

(२)

फटा बादल
उमड़ा यूँ सैलाब
आया प्रलय

(३)

कुदरत ने
कहर बरपाया
मची तबाही
(४)

प्रकृति रोई
लगा लाशों का ढेर
डूबे शहर

(५)

डूबी बस्तियां
केदारनाथ अब
बना श्मशान

(६)

मत खेलना
कभी प्रकृति से,थी
ये चेतावनी

(७)

मिट्टी  बांधते
पेड़ - पौधे जड़ों से
न काटो इन्हें

(८)
कटते पेड़
उफनती नदियाँ
भू-स्लखन


१६  जून २०१३ को उत्तराखंड में भारी बारिश से आई तबाही पर.....
रोया केदारनाथ ....

इक तबाही
कयामत भरी रात में
ले डूबी हजारों सपने
हजारों ख्वाहिशें , हजारों ख्वाब
बह गई बस्तियां
उजड़ गए घर बार
टूटे पहाड़ , आया सैलाब
टूटे संपर्क , रूठी जिंदगियां
खौफनाक चीखें और मलबे का ढेर
लाशों का मंज़र , कुदरत का कहर
जल का तांडव बचा न कोई 

मची तबाही हाल बेहाल
बंद आँखों में हजारों सवाल

देव भूमि में  बरपा आज कहर
लील ले गई उफनती लहर
सूने हो गए घर के चिराग
कैसी ये विभीषिका
कैसा या सैलाब .....?

उजड़ा उत्तराखंड 
रोया केदारनाथ ....

Sunday, June 16, 2013

पितृ दिवस पर कुछ कवितायेँ .......

 पितृ दिवस पर कुछ कवितायेँ .......
(१)
सूखती जड़ें  ....

 न जाने कितनी   
फिक्रों तले सूखे हैं ये पत्ते
दूर-दूर  तक बारिश की उम्मीद से
भीगा है इनका मन
शब्द अब मृत हो गए हैं
जो पिघला सकें इनकी आत्मा
लगा सकें रिश्तों में पैबंद
कांपते पैर अब जड़ों में
कम होती जा रही नमी
देख रहे हैं .....!!
(२)
बौने होते बुजुर्ग ...


एक कमरे में
 पड़े चुपचाप
याद आते हैं वो हंसी
जवानी के दिन खुशहाल
बदल जाता है  वक़्त
बूढ़े हो जाते हैं दिन
झड़  जाते हैं पत्ते
इक कोने में समेट दिया जाता है इन्हें
घर की बड़ी-बड़ी चीजों के आगे
बौने हो जाते हैं अपने ही
घर के बुजुर्ग अब  ...

(३)
खामोश होते पिता ...

सबकी फरमाइशें
पूरी करने वाले पिता
खामोश रहते हैं अब
वो नहीं पूछते बेटे से
दवाइयां न लाने की वजह
चश्मे का फ्रेम न बन पाने का कारण
फटे जूतों की ही तरह
 सी ली है उन्होंने अब
अपनी जुबान  भी .....
(४)
सयाने बेटे ...

वे बुढ़ापे में  हमें
अब बेसमझ लगने लगे हैं
और हम उनसे कहीं अधिक सयाने
इसलिए अब उन्हें
घर आये मेहमानों के सामने
आने की मनाही थी ....
५) 
उपाय ....

न तुम
नौकरी छोड़ सकती  हो
और न मैं ...
देखो अब एक ही उपाय बचा है
क्यूँ न हम पिता जी को
वृद्ध आश्रम में छोड़ दें ....

Monday, June 10, 2013

कैद मुहब्बत ....

कैद मुहब्बत ....

तीखे दांतों से
काटती है रात ....
तेरे बिना जकड़ लेती है उदासी
बेकाबू से हो जाते हैं ख्याल
खिड़की से आती हवा
सीने में दबे अक्षरों का
 पूछने लगती है अर्थ
बता मैं उसे कैसे बताऊँ
मुहब्बत की कोई सुनहरी सतर
रस्सियाँ तोड़ना चाहती है ....

हीर ....

(२)

दरारें ....

आज शब्द ...
फिर कड़कड़ाये जोर से
उछाल कर फेंके गए चाँद की ओर
कोई बूंद छलक के उतरी
दरारें और गहरी हो गईं ....

.हीर ..........

Friday, May 24, 2013

इक कोशिश ....

इक कोशिश ....

ज़ख़्मी जुबान 
मिटटी में नाम लिखती है
कोई जंजीरों की कड़ियाँ तोड़ता  है
दर्द की नज़्म लौट आती है समंदर से
दरख्त फूल छिड़क कर
मुहब्बत का ऐलान करते हैं
मैं रेत से एक बुत तैयार करती  हूँ
और हवाओं से कुछ सुर्ख रंग चुराकर
रख देती हूँ उसकी हथेली पे
मुझे उम्मीद है
इस बार उसकी आँखों  से
आंसू जरुर बहेंगे ....!!

हरकीरत हीर ..

Sunday, May 12, 2013

मातृ दिवस पर कुछ हाइकु .........

मातृ दिवस पर कुछ हाइकु .........

(१)

संग है रोई
हर दर्द मेरे माँ
दूजा  न कोई

(२)

माँ की ममता
त्याग,तप,क्षमा की 
 रब्ब सी मूरत 

(३)

इतनी प्यारी
उसके आँचल में
ज़न्नत सारी
(४)

गीत ग़ज़ल
सबपर लुटाती
प्रेम निश्छल 

(५ )

माँ का कर्ज़
चुकाना है तुझको
निभा के फ़र्ज़

(६)


माँ का दर्ज़ा
भगवान से बड़ा
दुनिया माने 


(७)


तेरी दुआएं 
सदा साथ मेरे
माँ
राह दिखाती 

(८)
 

मोल नहीं माँ
चुका सकता कोई
तेरे दूध का 


(९)


ये रिश्ता जैसे 
 
तपती रेत पर
शीतल छाया 


(१०)


 जन्मी 'हीर' जो 
तुझ जैसी कोख से
धन्य हुई माँ
 

(11)

रोई है बेटी
आज भीगा होगा माँ
तेरा भी मन ?

(12)


कटे हैं पंख
भरूं उडारी कैसे
तुझ तक माँ ?

(13)


कैसा बंधन
टूटे हैं मन धागे
जोडूँ माँ कैसे ?


(14)

बंद द्वारों में
दम घुटता है माँ
पास बुला ले 


(15)


तकदीरों के
उलझे पन्ने
फिर

सुलझा दो माँ 
 
***************

माँ पर लिखी इक पंजाबी कविता का अनुवाद भी ....


माँ .....

माँ बोलती तो कहीं
गुफाओं से
गूंज उठते अक्षर
मंदिर की घंटियों में घुल
लोक गीतों से गुनगुना उठते
माँ के बोल ...

माँ रोती 

तो उतर आते
आसमां पर बादल
कहीं कोई बिजली सी चमकती
झुलस जाती डालें
कुछ दरख्त अडोल से खड़े रह जाते ....

माँ पर्वत नहीं थी
पानी और आग भी नहीं थी
वह तो आंसुओं की नींव पर उगा 
दुआओं का फूल थी 
आज भी जब देखती हूँ
भरी आँखों से माँ की तस्वीर
उसकी आँखों में उग आते हैं
दुआओं के बोल .....
******************************

Wednesday, May 1, 2013

मजदूर दिवस पर एक कविता .......

मजदूर दिवस पर एक कविता .......

भारत का मजदूर ....

वह आता है
सड़कों पर ठेले में
बोरियां लादे
भरी दोपहर और तेज धूप में
पसीने से
तर -बतर
जलती है देह 

ठेले पर नहीं है पानी से भरी
कोई बोतल .....

वह आता है
 कमर झुकाए
कोयले की खदानों से
बीस मंजिला इमारत में
चढ़ता है बेधड़क
गटर साफ़ करने झुका
वह मजदूर ...

वह खड़ा है चौराहे पर

एक दिन की खातिर बिकने के लिए
दिन भर ढोयेगा ईंट, मिटटी , रेत
पेट में जलती आग लिए ..
डामर की टूटी सड़कों पर
 उढ़ेलेगा  गर्म तारकोल
कतारबद्ध, तसला, गिट्टी ,बेलचा
जलते पैरों से होगा हमारी खातिर
 तब इक सड़क का निर्माण ...

वह दिन भर
धूप में झुलसेगा
एक पाव दाल
एक पाव चावल
एक किलो आटा
एक बोतल मिटटी के तेल की खातिर
काला पड़ गया है बदन
फटी एड़ियाँ
खुरदरे  हाथ
दुर्गन्ध में कुनमुनाता
बोझ से दबा हुआ
 धड़ है जैसे सर विहीन ....

वह सृजनकर्ता है 

दुख सहके भी सुख बांटता
भूख को पटकनी देता
वह हमारी खातिर तपता है
दसवीं मंजिल से गिरता है
वह भारत का मजदूर   ...
वह भारत का मजदूर   ...!!

Tuesday, April 16, 2013

खामोश चीखें ....

मित्रो , बेहद ख़ुशी की बात है आज मेरा पंजाबी का काव्य संग्रह .''खामोश चीखां '' ( खामोश चीखें ) छप कर आ गया है ....जोकि दिल्ली 'शिलालेख प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ है .....इस पुस्तक के प्रकाशन का सम्पूर्ण श्रेय इमरोज़ जी को जाता है ...'शिलालेख प्रकाशन' से अब तक अमृता-प्रीतम की पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं इमरोज़ जी ने मेरा यह काव्य संग्रह भी वहीँ से प्रकाशित करवाया ...इस पुस्तक में इमरोज़ जी के बनाये ३० चित्र हैं ....कवर पृष्ठ भी उन्हीं का बनाया हुआ है ... ....समर्पित है -'दुनिया के तमाम उन शख्सों को जो मुहब्बत को देह नहीं समझते ' ......
इस काव्य संग्रह की एक छोटी सी  नज़्म आप  सब  लिए .....

तुम और मैं ....

तुमने  तो ..
कई बार मेरा हाथ पकड़ा 
बुलाया भी 
मैं ही हवाओं का 
मुकाबला न कर सकी 
वे मेरा घर भी उजाड़ गईं 
और तुम्हारा भी ....!!





Monday, April 1, 2013

'अभिनव इमरोज़' पत्रिका के अप्रैल अंक में मेरे कुछ हाइकू ......

'अभिनव इमरोज़' पत्रिका  के अप्रैल अंक में मेरे कुछ हाइकू ......




कुछ अन्य हाइकु .......


1
बिन रोए ही 
बहे आँखों से आँसू 
जख्मों की रात 
2
आँखों में बसी 
इक आग इश्क की 
प्यार ये कैसा ?
3
यह तो बता 
ऐ ! ठहरी ज़िन्दगी -
‘जिऊँ  मैं कैसे ?’ 
4
बता तो ज़रा -
भेजूँ कहाँ पैगाम 
तुझे ज़िन्दगी ?
5
आधी रात में 
रोया दस्तक दे -दे 
दिल का पंछी  ।
6
लूट ले गए 
मीठे -मीठे बोल वो 
पलों में दिल  ।
7
आ अए दिल !
घड़ी बैठ, सुनाऊँ 
दर्द के किस्से 
8
दे न सकी मैं 
यकीं मुहब्बत का 
टूटे बुत को  ।
9
क्यों बजती है 
बाँसुरी-सी रातों में 
यहीं  है  राँझा  ।
***************

कुछ माहिया भी देखें ...

(१)
 
आँखों में ख्व़ाब उगा  
 वक़्त कहे  हर दम
 उल्फ़त की पौध लगा
-

 (२)

अहसासों को जी ले
सपनों की चादर
अरमानों से सी ले 

(3)

 थीं इश्क-पगी बातें
 अब तो बीत रही
 रो-रो के सब रातें 

(4)

कसम तेरे नाम की
साँसों में उठती
 तड़प तेरे प्यार की

(५)

 आज हवा 
है बहकी 
इश्क-झरोखे पर
 
इक चिड़िया है चहकी   
-0-


Tuesday, March 26, 2013

उड़ा गुलाल ...........

 होली पर कुछ हाइकू ....

उड़ा गुलाल ...........

उड़ा गुलाल
फिर आसमान में
 आई रे होली  ..!

2

रंग -रंगोली
मन हुआ फागुनी
भांग की गोली

 रंग प्रेम का
मिल सारे रंग लो
भुला दो बैर ।


दगाबाज तू
खेलूँ न तुझ संग
बैरी मैं होरी  ..!
( एक अज़ीज़ मित्र के लिए )

मन रंग दे
तन रंग दे मोरा
आई रे होली  ..!॥


अखियाँ ढूंढें
तुझको, तुझ बिन
कैसी ये होली  ..?

मीत बिना, न
रंग सुहाए,सूनी
सूनी होली रे ..!


भीगी अखियाँ
भीगा है तुझबिन
मन होली में ।



भीगे - चूनर
गली -गली में खेले
नन्द किशोर 

Sunday, March 10, 2013

महिला - दिवस' एक वेश्या की नज़र से ....

'महिला - दिवस' एक वेश्या की नज़र से     ....

देर रात ....
शराब पीकर लौटी है रात
चेहरे पर पीड़ा के गहरे निशां
मुट्ठियों में सुराख
.चाँद के चेहरे पर भी
थोड़ी कालिमा है आज
उसके पाँव लड़खड़ाये
आँखों से दो बूंद हथेली पे उतर आये
भूख, गरीबी और मज़बूरी की मार ने
देह की समाधि पर ला
खड़ा कर दिया था उसे
वह आईने में देखती है
अपने जिस्म के खरोचों के निसां
और हँस देती है ...
आज महिला दिवस है .....

हरकीरत हीर

Thursday, February 28, 2013

'नव्या' पत्रिका में मेरी तीन कवितायेँ ....

'नव्या' पत्रिका में मेरी तीन कवितायेँ ....
FEB-APRI-13 MAIN

'हीर' की तीन कविताएँ

27 Feb. 2013
ART-MOON
(1)       पत्थर  हुई औरत ....

अनगिनत प्रार्थनाएं
अनगिनत स्वर
पर कोई भी शब्द स्पष्ट नहीं
अर्थहीन शब्द तैर रहे हैं हवाओं में
एक दिव्य गुंजन
क्या है ये ....?
जड़ या चेतन ....?

वह सब भूल गई है
अपना अतीत
अपना वर्तमान
ह्रदय का स्पंदन
आँख , कान श्वास -प्रश्वास
सब कुछ शून्य  मुद्रा में नि:शब्द है
रात सुब्ह  के ब्रह्म मुहूर्त की प्रतीक्षा में बैठी  है
वह आज पावन कुम्भ के जल से
कर लेना चाहती है आचमन* ...

द्विधाओं के संजाल से
मुक्त करेगा कोई चमत्कारिक दृश्य
जलावृत में तैरती अमृत बूंदें
बुराइयों का कर  तर्पण
गरुड़ पंखों से
आस्थाओं के पुंज को
शायद  जीवित कर दे
अरे ! यह क्या ...?
उसके गालों में आंसू ....?
आह ! आज बहने दूँ इन्हें
शायद उसकी चेतना से
 शून्य लौट जाए  ......!!

आचमन* -शुद्धि के निमित्त मुंह में जल लेना 

WINDOW-K

(2)   बंद खिड़कियाँ ....


अंधेरों को चीरकर
दो रौशनी के धब्बे
ठहर गए हैं मेरे घर के सामने
मुसलाधार बारिश में
क्रुद्ध हवाएं
एक चमकदार अंगुली से
बजाती हैं घंटी
कोई रोशनदान से झांकता है
नीली, पीली, हरी बत्तियां
बदहवासी से दौड़ी चली आती हैं ...

 कितने जालों से घिरी है ज़िन्दगी
सोचती हूँ खो न दूँ तुम्हें कहीं
वृक्षों से गिरती बूंदों की मानिंद

इक चिड़िया तिनका लिए चहकती है
लेकिन स्वतंत्रता पंख फड़फड़ा रही है
बंद खिड़कियों के भीतर

आह ! कोई दर्द  मोम की तरह
जमता जा रहा है अंतड़ियों में
तमाम मर्यादाएं ,नैतिकताएं बाँध दी गई हैं
मेरे कदमों से ....
मैं खो चुकी हूँ अपना संतुलन
इससे पहले कि उफनते ज्वालामुखी से
झुलस जाएँ तुम्हारे पर
जाओ चिड़िया उड़ जाओ
तुम अपना घर कहीं
और बसा लो .....

(3) विकल्प ...

खामोश सन्नाटा
 सांस रुन्धकर अटकने लगी है
भयातुर आँखें
आक्रामकता से आक्रांत
विसंगतियों और क्रूरताओं से भरा यह समाज
समय की गांठों में उलझा हुआ ...

खुद से खुद को बचाने की खातिर
 लड़ता है कवि ज़िन्दगी के
 खतरनाक शब्दों से
जबकि प्रेम मुट्ठियों में बंद है
सच कपडे उतारे  सामने खड़ा है
अपने हिस्से की सारी जमीन
 खोद डालता है वह
खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए ....

कितना त्रासद
कितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
जहां तेवरों  में ढह जाते हैं
आंतरिकता के शब्द
चलो इन मरे हुए शब्दों के विरुद्ध
खड़े कर दे हम बीज रूप में
मुस्कानों के फूल ..
और हंसी का कोई विकल्प रख दें ....


http://www.dil-punjab.com/parvaaz-a-kalmparvaaz-a-kalm

Thursday, February 14, 2013

मुहब्बत का दिन ....

रात इमरोज़ जी का फोन आता है  संग्रह में दो नज्में कम हो रही हैं ( मेरा पंजाबी का काव्य संग्रह वे छाप रहे हैं ) तुरंत लिख कर भेजो ...आज रात सोना मत ....रात भर सोचती रही क्या लिखूं ..? .अचानक ध्यान आया आज तो वेलेंटाइन डे है और रात इन नज्मों का  जन्म हुआ ...ये मूल पंजाबी में लिखी गईं थीं यहाँ पंजाबी से अनुदित हैं .....


14 फ़रवरी ....(वेलेंटाइन डे पर विशेष )


मुहब्बत का दिन ....

तुमने कहा-
आज की रात सोना मत
आज तूने लिखनी हैं नज्में
मेरी खातिर ...
क्यूंकि ...
आज मुहब्बत का दिन है ..
लो आज की रात
मैं सारी की सारी हीर बन
आ गई हूँ तुम्हारे पास
चलो आज की रात हम
नज्मों के समुंदर में
डूब जायें .....!!



(2)
प्यास ....

अभी मेरे लिखे हर्फों की
कोई नज्म बनी भी न थी
कि तुम सारे के सारे उतर आये
मेरे सफहों पर ....
पता नहीं आज के दिन, प्यास
तुम्हें थी , मुझे थी
या सफहों को ....
पर किनारों पे बहती नदी
अशांत सी थी ....
मैंने लहरों को कसकर चूमा
और दरिया के हवाले
कर दिया .....!!



(3)

हार .....

उम्रों के ....
बूढ़े हुए जिस्मों को लांघकर
अगर कभी हम मिले , तो
उस वक़्त भी मेरी ठहरी हुई इन आँखों में
मुस्कुरा रही होगी तुम्हारी मुहब्बत
तुम्हें जीतने के लिए
मैंने कभी कोई बाज़ी नहीं खेली थी
अपने आप ही रख दी थीं
सारी की सारी नज्में तुम्हारे सामने
मुहब्बत तो हारने का
नाम है .....!!

Sunday, February 3, 2013

यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने

पेश है इक ग़ज़ल जिसे सजाने संवारने का काम किया है चरनजीत मान जी ने ...... 
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने .....


 मेरे दिल के अरमां  रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते


यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते

लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते

  तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
 
चलें चल कहीं और टहलते -टहलते 

अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी  जख्म खाने कई चलते-चलते

है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी  पड़ेगी , संभलते  -संभलते


ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ  ढलते- ढलते 


जवाब आया न तो मुहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते -जलते

न घबरा तिरी जीत  ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते 



१२२ १२२ १२२ १२२ 
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन   
(बह्र: मुतकारिब मुसम्मन सालिम)

Tuesday, January 29, 2013

26 जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर उन्हें भेजी गई एक नज़्म .......

26 जनवरी इमरोज़ के जन्मदिन पर उन्हें  भेजी गई  एक नज़्म .......

इक दिन
इक कोख ने तुझे
हाथों में रंग पकड़ा
आसमां  के आगे कर दिया
पर तूने सिर्फ
इक बुत पर रंग फेरा
और अपनी मुहब्बत के सारे अक्षर
उसमें बो  दिए ....

तल्ख़ मौसमों को जैसे
राह मिल गई
जख्मों के पुल
उम्र पार कर गए ...
उसके हाथ जलती आग थी
और तेरे हाथ मुहब्बत का पानी
वह नज्मों से सिगरेटों की राख़ झाड़ती
और तुम मुहब्बतों के कैनवास पर
ज़िन्दगी के रंग भरते
वह माझा थी
तेरे ख़्वाबों की माझा *...
इक बार माँ ने तुझे जन्म दिया था
और इक बार माझा ने
अपनी मुहब्बत की आग से ...

पता नहीं क्यों इमरोज़
सोचती हूँ ...
यदि तुम एक बार
मेरी नज्मों की राख़  पर
  हाथ फेर देते तो शायद
उनके बीच  की मरी हुई मुहब्बत
मुड़ ज़िंदा हो जाती
यकीन मानों
मैं तुम्हारे रंगों को
किसी तपती आग का स्पर्श नहीं दूंगी
बस इन जर्द और ठंडे  हाथों से
इक बार उन्हें छूकर
हीर होना चाहती हूँ .....

माझा *-  इमरोज़ अमृता को माझा  बुलाते थे .

**************************

(२)

इक आज़ादी वाले दिन
माँ ने रंगों की कलम पकड़ा
उतार दिया था धरती पर
और वह ज़िन्दगी भर
कलम पकडे
भरता रहा
दूसरों की तकदीरों में
रौशनियों के रंग .....

कभी मुहब्बत बन
कभी नज्म बन
कभी राँझा बन ...

इक दिन मिट्टी ने सांस भरी
और  बिखरे हुए रिश्तों पर
लिख दिए तेरे नाम के अक्षर
और अमृता बन ज़िंदा हो गयी ..
पीले फूल  कभी सुर्ख हो जाते
तो कभी गुलाबी ....
धरती फूलों से लद गई
झूले  सतरंगी हो झुलने लगे ....

बता वह कौन सी धरती है
जहाँ  तू मिलता है ...?
मैं भी अपने जख्मों में
 भरना चाहती हूँ तेरे रंग
उन खूबसूरत पलों को
हाथों की लकीरों पर अंकित कर
टूटती  सांसों को ...
तरतीब देना चाहती हूँ ....
आज मैं भी रंगना चाहती हूँ
बरसों से बंद पड़े
दिल के कमरों को
मुहब्बत के रंगों से ...

इमरोज़ .....
क्या तुम मुझे आज के दिन
कुछ रंग उधार दोगे ....?

हरकीरत 'हीर' 

Wednesday, January 23, 2013

कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनायें .....


समकालीन भारतीय साहित्य के दिसं -जनवरी  अंक और गर्भनाल के फरवरी अंक में प्रकाशित मेरी कुछ रचनायें .....
एक खुशखबरी और समकालीन भारतीय साहित्य की कवितायेँ पढ़ दिल्ली के अशोक गुप्ता जी ने मुझे ये ख़त लिखा .....

मान्यवर हरकीरत जी,
नमस्कार. 16th दिसंबर 2012 को  दिल्ली में हुए एक सामूहिक बलात्कार कांड से समाज में जो आक्रोश उपजा है उससे जुड कर मैंने एक पुस्तक संपादित करने के काम हाथ में लिया है जिसमें यौन उत्पीडन से जुड़े आलेख, कहानिया तथा कानून विशेषज्ञों के आलेख लेने का मेरा मन है. उस पुस्तक के फ्लैप पर मैं आपकी दो कविताएं लेना चाह रहा हूँ.मैंने इस कविताओं को समकालीन भारतीय साहित्य के ताज़ा अंक (नवंबर-दिसंबर २०१२) में पढ़ा है. सचमुच यह बहुत ही मर्मस्पर्शी और अनुकूल सन्देश को प्रेषित करती कविताएं हैं. यथा प्रस्ताव चयनित कविताएं हैं, 1 तथा 7 .


बहुत बहुत धन्यवाद.
अशोक गुप्ता 
Mobile 09910075651 / 09871187875    

दुआ है ये नज्में उस आक्रोश को बढ़ाने में कामयाब हों ......

और अब पंजाबी से अनुदित एक नज़्म आप सबके लिए .....

मुहब्बत ...

वह रोज़
दीया जला आती है
ईंट पर ईंट रख 
शब्दों की कचहरी में खड़ी हो
पूछती है उससे
मजबूर हुई मिटटी की जात
रिश्तों की  धार  से छुपती
वह उसे आलिंगन में ले 
गूंगे साजो से करती है बातें ....

पिंजरे से परवाज़ तक 

वह कई बार सूली चढ़ी थी
इक- दुसरे की आँखों में आँखें डाल 
साँसों के लौट आने तक
ज़िन्दगी के अनलिखे रिश्तों की
पार की कहानी लिखते 
  वे भूल गए थे 
मुहब्बतें अमीर  नहीं हुआ करती   .....
यदि धरती फूलों से ही लदी  होती
तो दरिया लहरें न चूम लेते ...?

इक दिन वह

कुदरत की बाँहों में झूल गया था 
और अक्षर-अक्षर हो
पत्थर बन गया था
मोहब्बत का पत्थर ....

गुमसुम खड़ी हवाएं

दरारों से आहें भरती रहीं
कोई रेत का तिनका
आँखों में लहू बन जलता रहा
घुप्प अँधेरे की कोख में
वह दीया  जला लौट आती है
किसी और जन्म की 
उडीक में .....!!

हरकीरत 'हीर'

Thursday, January 10, 2013

कुछ हाइकू

कुछ हाइकू पंजाबी से अनुदित .....

(१)
लम्बी लगती
वापसी ऐ रांझे
कब आओगे ...?
(੨)
पंछी प्रीत का
उड़ गया कहीं है

 संग हवा के ...
(੩)
बिछड़े -मिले   

द्वारे  ज़िन्दगी के
आँख-मिचौली
(੪)
सारी उम्र न 
शज़र  दो लफ़्जों का
खिला ऐ रब्बा ..!
(5)
धर्म वही  है
पहन के जिसको
बने तू बंदा

(6)

तेरी महक
हो अक्षर -अक्षर
बनी नज़्म है

(7)

बहते पानी
ने पूछा वजूद है
खड़े पानी का ?

(8)

रखी ग्रंथों में
तहज़ीब संभाली 
खुद किसी ना 

(9)

रब्ब जैसी है
उडीक अय रांझे
वक्त आखिरी
(1੦)
बंद हो गई
उमरों की खिड़की
तुम ना आये  


**************
(१)
खामोशियाँ हैं
आवाजों में सासों की
गुमनाम सी
(२)
क्षणभंगुर
जीवन की ये डोर
मौत का शोर
(३)

रात ख़ामोशी
संग टूट के रोई
दर्द हंसा था
(४)
दर्द की रात
छलकी है आँखों
अक्षर राये
(५)
जाने कैसे ये
गुज़रे फिर रात
छाती में आग
(६)
खो गई कहीं
है ज़िन्दगी की हँसी
नज्म रूठी है
(७)
उधड़ गईं
सुर्ख कतरने, है
स्याह अन्धेरा
(८)
कब्रें रोती  हैं
शापित समय की
मौन बुत सी
(९)

फटा है अब्र
आसमां में दर्द का
बरसे आंसू
(१०)
खुदाया ! जाने
कैसी तलब तेरी 

आज आँखों में ..!!

(११)

 सात रंगों की
आँख से टपकी है
दर्द की धूप 

(१२ )
नहीं जानती
तुम थे या था भ्रम
ख़्वाबों में  संग
(१३)
इक  दर्द था
जो  जला रात भर
संग  मेरे
था

कुछ हाइकु पर्यावरण पर ....
रोया पत्ता  .....

पत्ता रोया
बंद हैं रोम सब
लूँ साँस कैसे ?

(२)
 
 कैसे दूँ पानी
पालिथिन हैं बस
मेरे सीने में .

(३)
दमा साँस में
फेफड़ों में  कैंसर
कैसी ये हवा ?

(४)
चलो न कहीं
दम घुटता यहाँ
बोला शज़र

(५)
खड़े बुत से
सूखे पत्तों संग,ये
 रोते शज़र
.....................


दिल्ली में ५ साल की बच्ची के साथ हुए रेप केस पर कुछ हाइकु  

Manoj Shah who has been accused of brutally raping a five-year-old girl in Delhi

rape























(१)भोली सूरत
अपराधी प्रवृत्ति
कृत्य घिनौना


(२)
इक गुड़िया  की
फिर लूटी इज्ज़त
जड़ है दिल्ली
(३)
चीखें थीं मेरी
औ' देह तुम्हारी,मैं
अस्मत हारी


(४)
थे दो दरिन्दे
लूट ले गए नन्ही
मासूम हँसी


(५)
रेप शब्द है 
बना खिलौना ,हर
दिन घटना


(६)
गहरा ज़ख्म
ज़िन्दगी भर का,दे
गये  दरिंदे 


(७)
अब आई है
'बड़ी गलती ' याद
 ओ ! बदजात .?



(८)
खींच लो जुबां
कर दो नंगा इन्हें
सरे -बाज़ार


(९)
अदालत दे
न दे ,रब्ब देना तू
सजा रूह की