Sunday, May 31, 2009

वह लाल दुपट्टा .....

वह लाल दुपट्टा .....


(१)

बरसों पहले
जो तुम
इक धूप का टुकड़ा
मेरे आँगन में
रोप गए थे
अब उसमें
मुहब्बत के बीज
उगने लगे हैं
शायद अबके
नागफनी खिल उठे .......!!


(२)

आज
न जाने क्या बात हुई
छितरे बादल
आवारा टुकडियों में
चाँद से
अटखेलियाँ करते रहे
मैंने रोशनदान से झाँका
रात भी करवट बदल
सोने का बहाना
कर रही थी ......!!


(३)

आज ये
दोपहर की
लम्बी सांसें
न जाने क्यों
उम्मीद के धागे
बुनने लगीं है
रब्बा....!
वह लाल दुपट्टा आज भी कहीं
मेरे पास पड़ा है ....!!

Monday, May 25, 2009

शिलांग की एक साहित्यिक यात्रा ....

सबसे पहले इस बार की पोस्ट में देरी के लिए क्षमा चाहती हूँ ....यहाँ शिलांग में तीन दिन का एक साहित्यिक कार्यक्रम था जिसमें भाग लेने सुअवसर मुझे इन दिनों मिला ....अपनी पुस्तक ' इक दर्द ' के लिए सम्मान-पत्र , कुछ राशि और शाल से मुझे भी सम्मानित किया गया ....जिसकी कुछ तस्वीरें मैं निचे दे रही हूँ ....इस कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी मैं फ़िर दूंगी इस समय कंप्यूटर भी साथ नही दे रहा और कुछ तीन दिनों की थकावट भी है ....हाँ चेरापूंजी की यात्रा हमेशा के लिए स्मरणीय रहेगी जिसमें नमिता राकेश , डाक्टर हरीश अरोड़ा व् 'हम साथ साथ' के संपादक किशोर श्रीवास्तव ने अपने गीतों , चुटकुलों यात्रा को इतना मनोरंजक बना दिया कि ८,९ घंटे की लम्बी यात्रा का जरा भी आभास ही नहीं हुआ .......लीजिये पेश हैं वहीं की कुछ तस्वीरें........


शाल व् सम्मान -पत्र लेते हुए

मेरे साथ बैठे हैं मुंबई के गज़लकार सरदार मुजावर और महिला हैं दिल्ली की 'हम साथ साथ हैं ' पत्रिका की संपादिका शशी श्रीवास्तव साथ में उनके पुत्र हैं .


चेरापूंजी की एक गुफा के बाहर

चेरापूंजी की एक ढलान से ऊपर चढ़ते हुए

Saturday, May 16, 2009

कशमकश......

ई बार ज़िन्दगी.... ऐसे मोड़ पे लाकर खड़ा कर देती है .....जहां हम चाह कर भी .....सही निर्णय नहीं ले पाते.....दिल कुछ कहता है ......दिमाग कुछ ....जानते हुए भी कि इस रास्ते पर मंजिल नहीं ....हम चल पड़ते हैं ....और अचानक सामने रास्ता खत्म हो जाता है...........इन्हीं हालातों में उपजी है ये नज़्म ........." कशमकश "



इक अजीब सी
कशमकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ

लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ ...



बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....



चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....!!

Sunday, May 10, 2009

हथेली पे उगा सच ......

थेलियों पर उगे कुछ ऐसे सच ......जो चाह कर भी एक सुकून भरा साँस नहीं लेने देते .......कई बार लगता सहर रात की खिड़की पर खड़ा उजाले का हाथ बढ़ा रहा है ......और मैं हिम शिखरों को फलांगती बहुत दूर ...आसमान छूने का प्रयत्न कर रही हूँ......तभी अचानक सच सामने आ ....गोली सी दाग देता है .....और मैं ....वहीं पत्थर सी जड़ हो जाती........!!



फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है
मुट्ठी में पिघलता यथार्थ
घुसपैठी लहरों से
सीपियों सा
टूटने लगा है
फरेबी बादल
उड़ेल देता है
ढेर सारी स्याही
आकाश में ......


मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है
समय की खोह में
कहीं गुम हुआ मन
दरारों भरे आईने से
कई - कई सूरतों में
बंटकर

उड़ाता है हंसीं ......


किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़

गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ


बूढ़ा मल्लाह मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाफ़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए

मुझे हैरानी से
देखती हैं .....


तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!


Sunday, May 3, 2009

रब्बा ! यह कैसा इंसाफ है तेरा......

ई बार हादसे एक के बाद एक यूँ घटित होते हैं कि संभलने का मौका ही नहीं मिलता......इस नज़्म को लिखते वक्त न जाने कितनी बार आँखें नम हुई होंगीं.....अभी कल ही की तो बात थी जब मैं उससे अंधेरों के बाद आने वाले सहर का ज़िक्र करती ......क्या पता था कि अब ये अंधेरे ही हमेशा के लिए उसे रास आने वाले हैं ........आह ! ...रब्बा ! यह कैसा इंसाफ है तेरा......?


ब्बा !
यह कैसा इंसाफ है तेरा
आज जब एक सतायी हुई औरत
मुर्दा आंखों में
अन्तिम सांसें ले रही थी
तब भी तुम वहीँ
खामोश खड़े थे
उसकी देह की निचुड़ी दीवारें
अपने अन्दर
दफ़्न कर ले गयीं थीं
वे सारे सवालात
जो अब मेरे सीने में
धधक रहे हैं

जानती हूँ ;
धीरे-धीरे कैसे टूटी थी वो
कई बार जब हम मिलते
मैं पूछती : "...कैसी हो तुम ? "
वह हंस देती "....जैसी तुम हो ! "
हम दोनों मुस्कुरा जातीं


मुखालिफ़* स्थितियों से लड़ना
परिस्थितियों से समझौता करना
जिसमें न जाने कितनी बार
धराशायी होकर गिरी थी वह
क्रूर झोंका जब भ्रम तोड़ता
उसकी किरचें
संभाले नहीं संभलती
हर क्षण उसके अन्दर
जैसे कुछ दरक जाता


ज़िन्दगी के
कितने ही पैने रूप
देखे थे उसने
नित छलनी कर देने वाली
भाषा के सलीबों पे चढ़ती
बड़ी बड़ी इमारतों सी
ढह जाती


रात भर

करवटें बदलती
पीड़ा से कराहती
आंखों में उगी वितृष्णा
रिक्तता , अकेलापन
उसे भीतर तक
खोखला कर जाता
एक गहरी अकूबत
सीने में भरभरा उठती


और इक दिन
हथियार डाल दिए थे उसने
उसने नहीं देह ने
कभी ज्वर
कभी थकावट
कभी सर दर्द
कभी उल्टी
कभी.......!
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी


और फ़िर
एक दिन पता चला
उसे कैंसर है
ब्रेन कैंसर
वह भी अन्तिम स्टेज पर
वह खुश थी
बेहद खुश
उसकी उखड़ी सांसों में
इक सुकून सा घुल गया था


रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!


१) मुखालिफ़ - विरोधी ,२) अकूबत -पीड़ा , ३) मग्लूब-पराजित , ४) ज़बह-वध