काफी अर्सा दूर रही आपसे...कुछ संपादिका की जिम्मेदारी कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझी रही ....इस बीच अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के हिसाब-किताब में मिट्टी डोलते देखी ...ज़िन्दगी को भला कोई खरीद पाया है .....?...मौत उसे कब शिकस्त दे दे पता नहीं ...डर गई हूँ ...ज़िन्दगी और मौत से ज्यादा मुहब्बत से .....इसलिए तो दाँत भींचे बैठी हूँ ...न जाने खुदा कब लिबास उतार दे .....
(१)
मुहब्बत के पत्ते .....
बरसों ....
आग की चिंगारियों में
जलाया है ज़िस्म
अब .....
झुलस जाते हैं पत्ते भी
मेरे छूने भर से .....
अय हवाओ ...!
ये मुहब्बत के पत्ते
मेरे आँगन में मत
फेंका कर ....!!
(२)
झूठ .....
झूठ .....
कुछ यूँ टँगा रहता है
लोगों की जुबाँ पर
के हर रोज़ उतारती हूँ
ज़िस्म के ....
टुकड़ों के साथ ......!!
(३)
इक और दर्द.....
पूरी कायनात का दर्द
जैसे सिमट गया था
धरती में ...
और धरती ......
कल ही दफ़्न हुई थी
मेरे सीने में ....
पियूष की एक बूंद
लब तक आकर ठहर गई
और मैं देखती रही उसे
बूंद से पत्थर होते हुए ......!!
(४)
भईया .....
कमरे में जलती
लाल-हरी बत्ती की तरह
तुम्हारी साँसें भी ...
जलती-बुझती सी
इस सलाईन की लगी बोतल से
पल-पल ज़िन्दगी मांगती हैं
तुम्हारी जर्द आँखों में
आज मैंने बचपन देखा है .....!!
(अस्पताल से - जर्द हुए भाई के लिए )
(५)
मौत .....
वह ....
उतरती रही
आँखों से देह तक
देह से हड्डियों तक
हड्डियों से साँसों तक
दर्द की करवटों में
ओह पापा ....!
मुझे मुआफ करना
मैंने मौत से आँखें चुराई हैं .....!!
( कैंसर से जूझते पिता -ससुर के लिए )
Sunday, May 29, 2011
Subscribe to:
Posts (Atom)