आज़ादी से पहले कुछ सवाल ....
जब मैं यहाँ लिख रही थी
आज़ादी की कविता
तुम वहाँ बुन रहे थे साज़िशों जाल
किस तरह रचा जाये शब्दों का चक्रव्यूह
जिसमें कैद होकर
मेरी कविता ख़ुद -ब ख़ुद दम तोड़ दे
शायद तुम भाँप गए थे
कमजोर होती मेरी
शब्दों की जमीं …
सहसा गिर कर
टूटने लगे थे मेरे शब्द
काले लिबास में कसमसाती भावनाएं
आँखों से बह निकली थीं
एक गुलमोहर जिसे बरसों से पानी डाल -डाल
मैंने हरा किया था अपनी देह में
सहसा कट गयी थी उसकी शाखें
मैं रोकना चाहती थी उसे
आत्महत्या करने से
एक पूरी किताब लिख देना चाहती थी
उसकी देह पर
पर मौन हो चुके थे
उसके शब्द …
ऐ स्त्री !आज भी हैं
तुम्हारे पास ऐसे कई सवाल
जो अभी तक हरे हैं तुम्हारी देह में
अब से नहीं , तब से , जब से
आज़ादी का ज़श्न मनाया जाता रहा है
जो लिखे जाते रहे हैं ज़ख़्मों के साथ तुम्हारी रूह पर
कभी तुम गुलामी की अँधेरी सुरंगों में दफ़्न रही
कभी नैतिकता ,अनैतिकता के सारे शब्द
टिका दिए गए तुम्हारी देह पर
पता नहीं स्त्री तुम अपनी देह में
ऐसा क्या लेकर जन्म लेती हो
जो तुम्हारी देह के सामने
संवेदना और उसकी आत्मा से जुड़े
सारे सवाल बौने जाते हैं ....
बदल दिए जाते हैं
तुम्हारे लिए आज़ादी के अर्थ
सज़ायाफ़्ता क़ैदी की तरह
स्वछंदता और स्वतंत्रता में कर दिया जाता है फ़र्क
सामाजिक बंधनों, मान्यताओं और सोच पर
लगा दी जाती हैं बंदिशें
तुम आज भी कभी अपने गर्भ में लिए जगह ढूंढती हो
तो कभी अपने अस्तित्व के लिए
साहित्य के बाज़ार में स्त्री विमर्श का
एक झुनझुना बजा दिया जाता है हर वर्ष
जिसपर स्त्री यौनिकता के नाम पर
एक निरंकुश देहवादी विमर्श चलता है
पुरुष मानसिकता में रचा बसा
एक दूसरे दर्जे का स्त्री विमर्श …
आज न जाने क्यों
अट्हास कर उठी है मेरी कविता
डरी, सहमी हुई वह कातर नज़रों से
खींचती है तिरंगे की डोर
और पूछती है उससे
आज़ादी के सही मायने …!!