Monday, December 28, 2009

लाशें ...........

लाशें ......

(१)


दूर पहाड़ी से निकलता धुआँ आसमन में विलीन होता जा रहा है ....धुएँ में कई आकृतियाँ बनती बिगडती हैं .....और फिर धीरे- धीरे अँधेरे में गुम हो जातीं हैं ....मैं अँधेरे में छिपे मन को तलाशती हूँ तो सपनों की कई लाशें मिलती हैं .....और शब्द शोकाकुल ......


आसमां का इक नुकीला सा कोना
चुभने लगा है सांसों में
निरुपाय सी मैं देखती रहती हूँ
रौशनी को अँधेरे में घुलते हुए .....


सामने दो बांसों के बीच जलती हुई रस्सी
खामोश है ......
अन्धा कुंआं और डरावना हो गया है ......


सहसा पानी की सतह पे तैर जाते हैं
मन की लाशों के निशाँ ....
एक वाद्ययंत्र बजने लगता है
शब्द आहिस्ता-आहिस्ता
मौन साध खड़े हो जाते हैं .....!!
(२)


इससे पहले कि शब्द भी धुल जायें ....

रब्बा तेरी बनाई मोहब्बतों की मूरतें क्यों इंसानी मोहब्बत से महरूम रह जातीं हैं .....? क्या तुमने उनके लिए कोई और जहां बनाया है ....? बनाया है तो बता न ....मैं हाथों में कफ़न लिए खड़ी हूँ......


तुमने कहा था मैं आऊंगा
अपने छोटे से नये घर से
देर रात गए
तेरी बिखरी सांसों का
माथा सहलाने .....


रात भर शब्दों में छीना-झपटी
चलती रही .....
कभी एक सामने आ खड़ा होता
कभी दूसरा .....


धीरे धीरे आस साथ छोडती गई
कुछ स्याह उम्मीदें
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
ताबूतों में चली गईं ....


मैंने कुछ पन्ने साथ बाँध लिए हैं
तुम आना पढने ....
इससे पहले कि शब्द भी
धुल जायें ......!!

Monday, December 21, 2009

कुछ क्षणिकाएं .........

कुछ क्षणिकाएं .........

(१)
बलात्कार के बाद .....

कुछ आवारा बादल
गली के उस पार
भागते हुए निकल गए
मैंने खिड़की से बाहर झाँका
चाँद उकडूं बैठा सिसक रहा था
अफवाह ने करवट बदली
हिन्दू - मुस्लिम दंगे भड़कने लगे ....!!

(२)
गरीबी .....

अच्छा हुआ वक़्त ने
नहीं पूछा ख़ामोशी का राज़
वर्ना उसकी आँखों में
चूल्हे की बुझी राख देख ...
फिर बरस पड़ते बादल .....!!

(३)

खंडहर होता इश्क़ ......

बेखौफ मदहोश सी ...वह फाड़े जा रही है इश्क़ की पाक चुनरी चनाब की देह पर ......

सब लिबास उधेड़ दिए
इश्क़ की जात ने
शराब में मदहोश
दूर सूखी घास पर
अधजले टुकड़े सी
खंडहर हुई जा रही है
इश्क़ की चादर .....!!
(४)

शबाब बखेरती तितलियाँ .....

भूमिगत कब्रिस्तान से
अंकुरित तितलियाँ
पौधों की जड़ों से चूस लेती हैं खून
इंसानी सोच का .....
बहुरंगी भाषाओँ से खुशबू बिखेरती हैं
शबाब की इस दाखिली पर
झुक जाता है चेहरा ...
शर्म से .....!!

Saturday, December 12, 2009

सुन अमृता क्या तूने भी ओढ़ी थी मोहब्बत में झूठ की चादर......

वह समुंदर में पांसे फेंकती
पूरे चाँद की रात ....
हुस्न का मुजरा करती
घुंघरूओं की रुनझुन
छलने लगती बुर्के की ओट में
मोहब्बत की ज़मीं ....

मेरे सामने के पहाड़
एक-एक कर ढहते गए ....

बेवफा चांदनी ...
गढ़ने लगती जुबां की सेज ....
नित नए 'स्वाद ' की चूरी
तोड़ डालती जिस्म की प्यास
उमर की जुंबिश उड़ा ले गई
शर्म की चुनरी .....

सुन अमृता
क्या तूने भी ओढ़ी थी
मोहब्बत में झूठ की चादर .....?

सोचती हूँ
ख़ामोशी के बाद भी
मैं क्यों दे पाई तुझे तलाक ....

आज ...
बेआबरू सी मैं
रख कर चल देती हूँ
अपने ही कंधे पे हया की लाश ......

नहीं रांझिया
मैं तेरी मोहब्बत को यूँ ......
शर्मसार होने दूंगी
देख मैंने बाँध लिया है इसे गठरी में
ले जा मुझे और कब्र बना दे .....!!