Friday, July 23, 2010

बता, मैं अपनी ही कब्र पर चिराग कैसे रखूं......?

अपना तो दर्द का दामन है ,कोई साथ चले न चले
गिला नहीं अय ज़िन्दगी , तू अब मिले न मिले

पेश हें फिर कुछ क्षणिकाएँ ......

(१)

नजरिया ......

उसकी नज़रें देख रही थीं
रिश्तों की लहलहाती शाखें .....
और मेरी नज़रें टिकी थी
उनकी खोखली होती जा रही
जड़ों पर .......!!

(२)

ख़ामोशी ....

पता न था ...
मेरी ख़ामोशी के साथ
चलते चलते ....
वह भी यूँ ....
खामोश हो जायेगा ....
इक दिन .......!!

(३)

मजबूरियां ......

वह......
कुछ दूर तक
चला था .....
मेरी ख़ामोशी के साथ ...
कुछ कदम चलकर
लौट आया अपनी
मजबूरियों के साथ .......!!

(४)

दम तोडती चीखें .....

यहाँ तो ....
पाक आवाजें भी
दम तोड़ देती हें
चीखने के बाद .....
फिर मेरी चीखें तो यूँ भी
खामोश थीं ........!!

(५)

नसीहतें .....

वे अपने लफ़्ज़ों से
हर रोज़ गैरों को
देते हें नसीहतें ....
खुद अपने आप को
नसीहत .....
कौन दे पाया है भला ........!?!

(६)

घरौंदे .....

उसने कहा :
तुम तो शाख़ से गिरा
वह तिनका हो .....
जिसे बहाकर कोई भी
अपने संग ले जाये .....
मैंने कहा :
शाख़ से गिरे तिनके भी तो
घरौंदे बन जाते हें
किसी परिंदे के .......!!

(७)

राँग नंबर .....

उसने फोन उठाया ....
और धीमें से कहा , ''हैलो !
आप कौन बोल रहीं हें ?
किस से मुखातिब होना चाहती है ?
मैंने हंसकर कहा ......
किसी से नहीं ...
बस यूँ ही जरा
गम को बहलाना चाहती थी .....!!

(८)

चिराग .....

हर कोई
रख आता है चिराग
किसी अपने की कब्र पर
बता, मैं अपनी ही कब्र पर
चिराग कैसे रखूं......?

*********************

इन नज्मों को आप मेरी आवाज़ में भी सुन सकते हें यहाँ .......

Friday, July 16, 2010

आग की लपटों में जलते रिश्ते........

पिछले दिनों ''हम सब साथ-साथ '' पत्रिका के संपादक किशोर श्रीवास्तव जी का sms आया ... जुलाई-अगस्त अंक के लिए रिश्ते -नातों पर केन्द्रिक रचनायें चाहिए ....उन्हीं दिनों ये नज़्म उतरी थी ....''आग की लपटों में जलते रिश्ते ''.....कुछ ऐसे वाकये आये दिन अख़बारों की सुर्खियाँ होते हैं जिन्हें पढ़ कर मन भीतर तक दहल जाता है ....ये रिश्ते सिर्फ खंडहर ही नहीं होते .....बल्कि अमानवीयता की आग में जलकर राख़ हो जाते हैं ..
...और हम सब दर्शक से ....मूक देखते रहते हैं सात जन्मों तक साथ निभाने वाले रिश्तों को ...चंद दिनों में दम तोड़ते हुए .....आग की लपटों में स्वाहा होते हुए ......
किशोर जी से मेरा परिचय पिछले वर्ष शिलोंग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में हुआ था .....बहुत ही हसमुख और मिलनसार ....दो दिन के कार्यक्रम के बाद जब हम तीसरे दिन चेरापूंजी पर्यटन के लिए गए.... किशोर की ने अपने गीतों और चुटकुलों से यात्रा को रोमांचमय बना दिया ...बीच-बीच में वे मुझे टोक देते ....हरकीरत जी सिर्फ मुस्कुरा भर देती हैं कुछ सुनाइए भी .....वे बहुत अच्छे कार्टूनिस्ट भी हैं ......
तो लीजिये पेश है उनके द्वारा मेल से भेजी मेरी रचना की स्केड प्रति ......


वह अंगुली पर थूक लगा
ज़िन्दगी के सारे पन्ने
एक ही बार पलट देती ...
कहानी शायद प्रेम के
उस छ्द्दमवेश से शुरू हुई थी
जहाँ सुब्ह की सडांध
और रात की दुर्गन्ध
धुआँ-धुआँ होते रिश्तों को
निर्ममता से क़त्ल कर
प्रतिवाद में खड़ी थी ........

एक सूखे उजाड़
क्वाटर की खिड़की से
वह अक्सर सामने के बगीचे को
एक तक निहारा करती .....

मेरी स्मृति में
आग की उलटी-सीधी लपटें
रिश्तों को धू-धू कर जलाने लगीं हैं
और चिंगारियों में ......
इक बेबस चीत्कार है .......

मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....

आज फिर
आसमां से इक
आग का गोला गिरा है
और डाल गया है
कई छाले मेरे ज़िस्म पर .....

पैरों के नीचे रिश्ते
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं
कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं
कोई गिद्ध नोच खाती है
देह से मांस मेरा .....

इक तेल का कनस्तर
चीखों के साथ लगाता है
मृत्यु पर ठहाके .....
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हें तालियाँ ....

और मैं .....
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को
देख रही हूँ....
जिनकी आत्माएँ कबकी
मर चुकी हैं .......!!

कृपया नज़्म को बड़ी करने के लिए तस्वीर पर दो बार क्लिक करें ......

इस नज़्म को आप मेरी आवाज़ में भी सुन सकते हें ....यहाँ........

Tuesday, July 6, 2010

तेरी होंद ..मुहब्बत...और ...ज़ख़्मी सांसें......

मुहब्बत इक ऐसा खूबसूरत ख्याल है जिसे.... सिर्फ लफ़्ज़ों से भी महसूस किया जा सकता है ....मैंने वो तमाम लफ्ज़ जो कभी जुबाँ की दहलीज़ लाँघ सके ....इन नज्मों में पिरो दिए हैं ....इसमें सांसें तो हैं पर रंगत नहीं ....नूर नहीं ....बस एहसास है ....क्या जीने के लिए इतना काफी नहीं .......?
आप सब की फरमाइश पर फिर कुछ मुहब्बत भरी नज्में ......


(१)

तेरी होंद .....

तेरे जिक्र की खुशबू
बिखेर जाती है
चुपके से सबा
मेरे करीब कहीं ....
तेरी होंद हर पल
मेरे जेहन पर
खीँच जाती है
शाद की लकीरें
ऐसे में तू ही बता
मैं चुप्पियों की ज़मीं पर
कैसे चलूं .......!?!

()

ज़ख़्मी साँसें .....

तेरे अनकहे लफ्ज़
बार-बार चले आते हैं
तेरा पैगाम लेकर
पर न जाने क्यों
तेरी कलम अभी खामोश है ....
मेरी सांसें बहुत ज़ख़्मी हैं
कहीं उडीक का पल
अस्त न हो जाये
तेरे आने तक ......!!

()

मुहब्बत का आखिरी गीत ......

मैं अपनी उम्र की
आधी चाँदनी से ....
तुम्हारे आधे डूबे सूरज पर
लिख देना चाहती हूँ
मुहब्बत का आखिरी गीत
तुम फलक की ओर
मुँहकर आवाज़ देना
मैं उतर आऊँगी ...
तुम्हारी हथेलियों पर
सुर्ख फूल लिए ......!!

()

चनाब की गहराई .....

अय मोहब्बत ...!
आ मुझे इश्क़ की नदी में
डुबो दे .........
मैं नापना चाहती हूँ ...
अपने ज़िस्म के
इक-इक कतरे से
चनाब की गहराई .....!!

(५)

रा ठहर अय चाँद ......

रा ठहर अय चाँद .....
बड़ी मुद्दतों बाद
आज मेरी कलम से
मुहब्बत का गीत उतरा है
जरा सी रौशनी तो कर
तुझे पढ़ के सुना दूँ .....
कहीं नामुराद....
दम न तोड़ दे
सहर* होने तक .......!!

सहर - सुब्ह