कुछ उदास सी चुप्पियाँ ....
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...
बिजलियों के टुकडे़
बरस कर
कुछ इस तरह मुस्कुराये
जैसे हंसी की खुदकुशी पर
मनाया हो जश्न
चाँद की लावारिश सी रौशनी
झाँकती रही खिड़कियों से
सारी रात...
रात के पसरे अंधेरों में
पगलाता रहा मन
लाशें जलती रहीं
अविरूद्ध सासों में
मन की तहों में
कहीं छिपा दर्द
खिलखिला के हंसता रहा
सारी रात...
थकी निराश आँखों में
घिघियाती रही मौत
वक्त की कब्र में सोये
कई मुर्दा सवालात
आग में नहाते रहे
सारी रात...
जिंदगी और मौत का फैसला
टिक जाता है
सुई की नोक पर
इक घिनौनी साजि़श
रचते हैं अंधेरे
एकाएक समुन्द्र की
इक भटकती लहर
रो उठती है दहाडे़ मारकर
सातवीं मंजिल से
कूद जाती हैं विखंडित
मासूम इच्छाएं
मौत झूलती रही पंखे से
सारी रात...
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...
Tuesday, December 30, 2008
Sunday, December 21, 2008
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:37 PM
दर्द के टुकड़े
फेंके हुए लफ़्ज
धूप की चुन्नी ओढे़
अपने हिस्से का
जाम पीते रहे
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
(प्रकाशित- 'पर्वत-राग' अक्टू.-दिसं.०८)
सं:गुरमीत बेदी
(२)
पत्थर होता जिस्म़
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
(प्रकाशित- 'सरिता' जुलाई-द्वितीय -०८ )
फेंके हुए लफ़्ज
धूप की चुन्नी ओढे़
अपने हिस्से का
जाम पीते रहे
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
(प्रकाशित- 'पर्वत-राग' अक्टू.-दिसं.०८)
सं:गुरमीत बेदी
(२)
पत्थर होता जिस्म़
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
(प्रकाशित- 'सरिता' जुलाई-द्वितीय -०८ )
Saturday, December 13, 2008
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:59 PM
प्रत्युत्तर
हाँ;
मैं चाहती हूँ
सारे आसमां को
आलिंगन में
भर लूँ...
हाँ;
मैं चाहती हूँ
चंद खुशियाँ
कुछ दिन और
समेट लूँ...
पर;
मेरे आसमां में
न कोई तारा है
न आफ़ताब...
वह तो रिक्त है
शुन्य सा
भ्रम है
क्षितिज सा...
मेरी कल्पनाओं का
कोई इमरोज नहीं
न ही कोई अन्य
चित्रकार...
कसूर
धड़कनों का नहीं
कसूर नजरों का था
कुछ तुम्हारी
कुछ मेरी...
इन बेवजह
धड़कती धड़कनों को
समेटना तो मुझे
बखूबी आता है...
बरसों से
मदिरा के प्यालों में
डूबो-डूबो कर
इन्हें ही तो
पीती आई हूँ...
हाँ;
इतना तो सच है
आज तुम्हारे ही लिए
मैंने इन शब्दों
को बाँधा है...
किसी
उपनाम से ही सही
तुम्हारे प्रत्युत्तरों को
ढूंढा करूँगी मैं
इन्हीं पन्नों में...
ताकि
उत्तर-प्रत्युत्तर के
इन्हीं सिलसिलों में
किन्हीं और शब्दों को
बाँध पाऊँ...
(काव्य- संग्रह 'इक- दर्द' से)
हाँ;
मैं चाहती हूँ
सारे आसमां को
आलिंगन में
भर लूँ...
हाँ;
मैं चाहती हूँ
चंद खुशियाँ
कुछ दिन और
समेट लूँ...
पर;
मेरे आसमां में
न कोई तारा है
न आफ़ताब...
वह तो रिक्त है
शुन्य सा
भ्रम है
क्षितिज सा...
मेरी कल्पनाओं का
कोई इमरोज नहीं
न ही कोई अन्य
चित्रकार...
कसूर
धड़कनों का नहीं
कसूर नजरों का था
कुछ तुम्हारी
कुछ मेरी...
इन बेवजह
धड़कती धड़कनों को
समेटना तो मुझे
बखूबी आता है...
बरसों से
मदिरा के प्यालों में
डूबो-डूबो कर
इन्हें ही तो
पीती आई हूँ...
हाँ;
इतना तो सच है
आज तुम्हारे ही लिए
मैंने इन शब्दों
को बाँधा है...
किसी
उपनाम से ही सही
तुम्हारे प्रत्युत्तरों को
ढूंढा करूँगी मैं
इन्हीं पन्नों में...
ताकि
उत्तर-प्रत्युत्तर के
इन्हीं सिलसिलों में
किन्हीं और शब्दों को
बाँध पाऊँ...
(काव्य- संग्रह 'इक- दर्द' से)
Sunday, December 7, 2008
क्षणिकाएँ
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:44 PM
क्षणिकाएँ.......
मित्रो मेरी ये क्षणिकाएँ हिन्द-युग्म की नवंबर माह की यूनी कवि प्रतियोगिता में प्रथम दस में स्थान बनाने में कामयाब हुई हैं वहीं से
संग्रहित हैं ये क्षणिकाएँ....
मेरे आंगन के फूल बडे़ संवेदनशील हैं .......
यूनिकवि प्रतियोगिता की अगली रचना की ओर बढ़ते हैं। युवा कवयित्री हरकीरत कलसी 'हक़ीर' असाम में रहती हैं। और हिन्दी के लिए ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह से सक्रिय हैं। सितम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी कविता प्रकाशित हुई थी। नवम्बर माह की प्रतियोगिता के लिए इन्होंने कुछ क्षणिकाएँ भेजी थी, जिन्हें निर्णायकों ने खूब पसंद किया। क्षणिकाओं ने छठवाँ स्थान बनाया। इस महीने की हंस (राजेन्द्र यादव द्वारा प्रकाशित) पत्रिका में भी इनकी एक कविता 'वज़ूद तलाशती औरत' प्रकाशित हुई है।
पुरस्कृत कविता- क्षणिकायें
(१) जख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...
(२) दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा...
(३) टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
जख्मो को
जाने और कितना
रुलायेंगे...
(४) शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।
(५) सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...
(६) वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
(७) गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...
(८) दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म...
(९) तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...
(१०) तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...
(११) किस उम्मीद में...
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रौशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...
(१२) सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰७५
औसत अंक- ६॰६२५
स्थान- तीसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३॰५, ६॰६२५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰७०८३३३
स्थान- तीसरा
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
मित्रो मेरी ये क्षणिकाएँ हिन्द-युग्म की नवंबर माह की यूनी कवि प्रतियोगिता में प्रथम दस में स्थान बनाने में कामयाब हुई हैं वहीं से
संग्रहित हैं ये क्षणिकाएँ....
मेरे आंगन के फूल बडे़ संवेदनशील हैं .......
यूनिकवि प्रतियोगिता की अगली रचना की ओर बढ़ते हैं। युवा कवयित्री हरकीरत कलसी 'हक़ीर' असाम में रहती हैं। और हिन्दी के लिए ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह से सक्रिय हैं। सितम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी कविता प्रकाशित हुई थी। नवम्बर माह की प्रतियोगिता के लिए इन्होंने कुछ क्षणिकाएँ भेजी थी, जिन्हें निर्णायकों ने खूब पसंद किया। क्षणिकाओं ने छठवाँ स्थान बनाया। इस महीने की हंस (राजेन्द्र यादव द्वारा प्रकाशित) पत्रिका में भी इनकी एक कविता 'वज़ूद तलाशती औरत' प्रकाशित हुई है।
पुरस्कृत कविता- क्षणिकायें
(१) जख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...
(२) दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा...
(३) टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
जख्मो को
जाने और कितना
रुलायेंगे...
(४) शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।
(५) सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...
(६) वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
(७) गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...
(८) दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म...
(९) तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...
(१०) तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...
(११) किस उम्मीद में...
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रौशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...
(१२) सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰७५
औसत अंक- ६॰६२५
स्थान- तीसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३॰५, ६॰६२५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰७०८३३३
स्थान- तीसरा
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
Tuesday, December 2, 2008
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:16 PM
मित्रो मन भारी है हमने कई जांबाजों को खोया है। २६ नवंबर, २००८ एक न भुला सकने वाला दिन...जब
फिर एक बार देश का दिल जख्मी हुआ,मुंबई के ए टी एस प्रमुख हेमंत करकरे, एन काउंटर स्पेलिस्ट
विजय सालेस्कर तथा अशोक आम्टे शहीद हुए और भी न जाने कितने जांबाजों ने जा गवांई...मेरा शत-शत नमन है उन जांबाजों को उनके परिवार के दर्द में आइए हम सब शामिल हों...
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा....
अब न जाने कितना गम़ उन्हें पीना होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्तो किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा
अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग - गुलाल होगा
खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा
गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा
रातों को हुई होगी जो सन्नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्ता उन्हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्हें निगाहें
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा
फिर एक बार देश का दिल जख्मी हुआ,मुंबई के ए टी एस प्रमुख हेमंत करकरे, एन काउंटर स्पेलिस्ट
विजय सालेस्कर तथा अशोक आम्टे शहीद हुए और भी न जाने कितने जांबाजों ने जा गवांई...मेरा शत-शत नमन है उन जांबाजों को उनके परिवार के दर्द में आइए हम सब शामिल हों...
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा....
अब न जाने कितना गम़ उन्हें पीना होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्तो किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा
अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग - गुलाल होगा
खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा
गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा
रातों को हुई होगी जो सन्नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्ता उन्हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्हें निगाहें
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा
Wednesday, November 19, 2008
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
8:54 PM
तुम भी पूछना चाँद से
जब तुम
लौट जाओगे
मैं पलटूँगी
मौसम के पन्ने
यादों की चिट्ठी से
भर लूँगी
मुठ्ठी में बादल...
कुछ भीगे अक्षर
तपती देह पर रखकर
मैं खोलूँगी
रंगो की चादर...
पूछूँगी उनसे
हवाओं के दोष पर
बहते बादलों का पता
सूरज वाले मंत्र
और स्पर्श के
उन एहसासों को
जो जिंदा होगें
तुम्हारे सीने पर
'ओम' बनकर...
तुम भी पूछना
चाँद से
ताबूतों में बंद
हवाओं ने
कफ़न ओढा़ या नहीं...
जब तुम
लौट जाओगे
मैं पलटूँगी
मौसम के पन्ने
यादों की चिट्ठी से
भर लूँगी
मुठ्ठी में बादल...
कुछ भीगे अक्षर
तपती देह पर रखकर
मैं खोलूँगी
रंगो की चादर...
पूछूँगी उनसे
हवाओं के दोष पर
बहते बादलों का पता
सूरज वाले मंत्र
और स्पर्श के
उन एहसासों को
जो जिंदा होगें
तुम्हारे सीने पर
'ओम' बनकर...
तुम भी पूछना
चाँद से
ताबूतों में बंद
हवाओं ने
कफ़न ओढा़ या नहीं...
Monday, November 10, 2008
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
9:38 PM
दुहाई है! अय जिस्म से खेलने वाले इंसानों...
(दो कविताएं '३० अक्टू. २००८' एक न भुला सकने वाले दिन पर, जब एक के बाद एक छ: धमाकों से पूरी
गुवाहाटी हिल गई थी जिसके जख्म आज भी अस्पतालों में पडे़ सिसक रहे हैं।)
अभी तो ताजा थे जख्म
पिछले वर्ष के
जब इन्हीं सडकों पर निर्वस्त्र
घसीटी गई थी
घर की लाज
और आज
ठीक एक वर्ष बाद
एक और गहरा जख्म...?
एक के बाद एक
छ: मिनट में छ: धमाके
ओह! इतनी दरिंदगी...?
इतनी निर्दयता...?
रक्तरंजित सड़कों पर
बिखरी पडी़ हैं लाशें
क्षत-विक्षत अंगों का बाजार लगा है
क्रोध,आक्रोश, धुंआँ,बारूद, आगजनी
चारो ओर कैसा ये सामान सजा है...?
आह..! मन आहत है भीतर तक
क्यों मर गई हैं हमारी संवेदनाएं...?
क्यों मर गई है हमारी मानवता...?
मुझे मुआफ करना
अय दर्द में कराहते इंसानों
मुझे मुआफ करना
अय बारूद में जलकर तड़पते इंसानो
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने मानव रुप में जन्म लिया
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने इस धरती पर जन्म लिया...
दुहाई है!
अय मानव जिस्म़ से खेलने वाले इंसानो...!
दुहाई है
अय रब की बनाई दुनियाँ में
आग लगाने वाले इंसानो...!
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम सिसकियों की
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम आहों की...
जो आज तुम्हारी वजह से
यतीम कहलाये जा रहे हैं...
(दो कविताएं '३० अक्टू. २००८' एक न भुला सकने वाले दिन पर, जब एक के बाद एक छ: धमाकों से पूरी
गुवाहाटी हिल गई थी जिसके जख्म आज भी अस्पतालों में पडे़ सिसक रहे हैं।)
अभी तो ताजा थे जख्म
पिछले वर्ष के
जब इन्हीं सडकों पर निर्वस्त्र
घसीटी गई थी
घर की लाज
और आज
ठीक एक वर्ष बाद
एक और गहरा जख्म...?
एक के बाद एक
छ: मिनट में छ: धमाके
ओह! इतनी दरिंदगी...?
इतनी निर्दयता...?
रक्तरंजित सड़कों पर
बिखरी पडी़ हैं लाशें
क्षत-विक्षत अंगों का बाजार लगा है
क्रोध,आक्रोश, धुंआँ,बारूद, आगजनी
चारो ओर कैसा ये सामान सजा है...?
आह..! मन आहत है भीतर तक
क्यों मर गई हैं हमारी संवेदनाएं...?
क्यों मर गई है हमारी मानवता...?
मुझे मुआफ करना
अय दर्द में कराहते इंसानों
मुझे मुआफ करना
अय बारूद में जलकर तड़पते इंसानो
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने मानव रुप में जन्म लिया
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने इस धरती पर जन्म लिया...
दुहाई है!
अय मानव जिस्म़ से खेलने वाले इंसानो...!
दुहाई है
अय रब की बनाई दुनियाँ में
आग लगाने वाले इंसानो...!
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम सिसकियों की
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम आहों की...
जो आज तुम्हारी वजह से
यतीम कहलाये जा रहे हैं...
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
7:05 PM
यह कैसी आजा़दी है?
अभी-अभी बम के धमाको़ से
चीख़ उठा है शहर
बच्चे, बूढे,जवान
खून से लथपथ
अनगिनत लाशों का ढेर
इस हृदय वारदात की
कहानी कह रहा है
ओह!
यह कैसी आजा़दी है
जो घोल रही है
मेरे और तुम्हारे बीच
खौ़फ, आग और विष का धुआँ?
हमारे होठों पे थिरकती हंसी को
समेटकर
दुबक गई है
किसी देशद्रोही की जेब में
और हम
चुपचाप देख रहे हैं
अपने सपनों को
अपने महलों को
अपनी आकांक्षाओं को
बारूद में जलकर
राख़ में बदलते हुए.
अभी-अभी बम के धमाको़ से
चीख़ उठा है शहर
बच्चे, बूढे,जवान
खून से लथपथ
अनगिनत लाशों का ढेर
इस हृदय वारदात की
कहानी कह रहा है
ओह!
यह कैसी आजा़दी है
जो घोल रही है
मेरे और तुम्हारे बीच
खौ़फ, आग और विष का धुआँ?
हमारे होठों पे थिरकती हंसी को
समेटकर
दुबक गई है
किसी देशद्रोही की जेब में
और हम
चुपचाप देख रहे हैं
अपने सपनों को
अपने महलों को
अपनी आकांक्षाओं को
बारूद में जलकर
राख़ में बदलते हुए.
Wednesday, November 5, 2008
होंद के बचे हुए टुकडे ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:05 PM
बरसों के फासले
बस अंगुलियाँ काटते रहे
समूची दानवता
आंगन की मिट्टी में
गीत लिखती
और मैं
रेत में सरकते रिस्तों को
घूँट घूँट पीती रही.....
दरारों से धुँए का एक गुब्बार सा उठता
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड जाता
पन्नों पर....
इक बेबुनियादी बहस
सोच में पिसती ...
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख़्मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
सब्र कश्तियों में डूबने लगता
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्यों और मान्यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती .....
बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
लफ्ज़ दम तोडते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्ते से चुपचाप
बह उठता....
पर....
मौत पास आकर रूठ जाती....
और फिर इक दिन
तेज सांसों ने कसकर पकडा था मेरा हाथ
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लांघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बंद मुठ्ठी खोल दी ...
आह......
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
वह सुर्ख गुलाब .....
मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी
मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्म़ से रस्सियाँ खोलने लगी.....
बस अंगुलियाँ काटते रहे
समूची दानवता
आंगन की मिट्टी में
गीत लिखती
और मैं
रेत में सरकते रिस्तों को
घूँट घूँट पीती रही.....
दरारों से धुँए का एक गुब्बार सा उठता
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड जाता
पन्नों पर....
इक बेबुनियादी बहस
सोच में पिसती ...
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख़्मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
सब्र कश्तियों में डूबने लगता
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्यों और मान्यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती .....
बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
लफ्ज़ दम तोडते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्ते से चुपचाप
बह उठता....
पर....
मौत पास आकर रूठ जाती....
और फिर इक दिन
तेज सांसों ने कसकर पकडा था मेरा हाथ
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लांघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बंद मुठ्ठी खोल दी ...
आह......
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
वह सुर्ख गुलाब .....
मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी
मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्म़ से रस्सियाँ खोलने लगी.....
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हरकीरत ' हीर'
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9:40 PM
जो जंजीरें खुलीं
रात आसमां के घर नज्म़ मेहमां बनी
चाँदनी रातभर साथ जाम पीती रही
बादलों ने जिस्म़ से जंजीरें जो खोलीं
नज्म़ सिमटकर हुई छुईमुई,छुईमुई
ख्वाबों ने नज्मों का ज़खीरा बुना
हर्फ रातभर झोली में सजते रहे
नज्म़ टाँकती रही शब्द आसमां में
आसमां जिस्म़ पे गज़ल लिखता रहा
वक्त पलकों की कश्ती पे होके सवार
इश्क के रास्तों से गुज़रता रहा
तारों ने झुक के जो छुआ लबों को
नज्म़ शर्मा के हुई छुईमुई,छुईमुई
रात आसमां के घर नज्म़ मेहमां बनी
चाँदनी रातभर साथ जाम पीती रही
बादलों ने जिस्म़ से जंजीरें जो खोलीं
नज्म़ सिमटकर हुई छुईमुई,छुईमुई
ख्वाबों ने नज्मों का ज़खीरा बुना
हर्फ रातभर झोली में सजते रहे
नज्म़ टाँकती रही शब्द आसमां में
आसमां जिस्म़ पे गज़ल लिखता रहा
वक्त पलकों की कश्ती पे होके सवार
इश्क के रास्तों से गुज़रता रहा
तारों ने झुक के जो छुआ लबों को
नज्म़ शर्मा के हुई छुईमुई,छुईमुई
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हरकीरत ' हीर'
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9:39 PM
गीत चिता के
मैंने तसब्बुर में तराश्कर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी
न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज्म्
आंखों से शबनम बहा बैठी
मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी
झाड़ती रही जिस्म से
ताउम्र दर्द के जो पत्ते
उन्हीं पत्तों से मैं
घर अपना सजा बैठी
मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !
मैंने तसब्बुर में तराश्कर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी
न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज्म्
आंखों से शबनम बहा बैठी
मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी
झाड़ती रही जिस्म से
ताउम्र दर्द के जो पत्ते
उन्हीं पत्तों से मैं
घर अपना सजा बैठी
मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !
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हरकीरत ' हीर'
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12:56 AM
पत्थर होता इंसान
दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्म् है औ,
शब्द तार तार है
एक बूंद पीठ सेंककर
धुआं धुआं सी उड चली
वक्त की मुरदा उम्मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं
प्रेम,स्नेह,नीर पत्तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्तक धडकनों की बेकार है
घर,बाग,ठूंठ से जंगल
सर्द शुष्क बियाबान से हैं खडे
संघर्षो की इस आग में
पत्थर हुए इंसान हैं
दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्म् है औ,
शब्द तार तार है
एक बूंद पीठ सेंककर
धुआं धुआं सी उड चली
वक्त की मुरदा उम्मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं
प्रेम,स्नेह,नीर पत्तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्तक धडकनों की बेकार है
घर,बाग,ठूंठ से जंगल
सर्द शुष्क बियाबान से हैं खडे
संघर्षो की इस आग में
पत्थर हुए इंसान हैं
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हरकीरत ' हीर'
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12:37 AM
एक ख़त इमरोज जी के नाम
(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज्म रुप में खत
मिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्हें अपनी इस नज्म में दिया है...)
इमरोज़
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे का़गच की सतरों को
शापमुक्त करती रहीं...
शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अरथियों में सजती रहती...
इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...
यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं
जो महोब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से
मैं रूह सी हल्की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्पर्श से
कली से फूल बन गई थी...
इमरोज़!
तुमने कहा है-
''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रौशनी भी''
तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि जिंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि जिंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
जिंदगी सुख भी थी …
(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज्म रुप में खत
मिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्हें अपनी इस नज्म में दिया है...)
इमरोज़
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे का़गच की सतरों को
शापमुक्त करती रहीं...
शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अरथियों में सजती रहती...
इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ...
यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं
जो महोब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से
मैं रूह सी हल्की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्पर्श से
कली से फूल बन गई थी...
इमरोज़!
तुमने कहा है-
''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रौशनी भी''
तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि जिंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि जिंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
जिंदगी सुख भी थी …
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