Tuesday, December 30, 2008

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ ....

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ ....

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...

बिजलियों के टुकडे़
बरस कर
कुछ इस तरह मुस्‍कुराये
जैसे हंसी की खुदकुशी पर
मनाया हो जश्‍न

चाँद की लावारिश सी रौशनी
झाँकती रही खिड़कियों से
सारी रात...

रात के पसरे अंधेरों में
पगलाता रहा मन
लाशें जलती रहीं
अविरूद्ध सासों में
मन की तहों में
कहीं छिपा दर्द
खिलखिला के हंसता रहा
सारी रात...

थकी निराश आँखों में
घिघियाती रही मौत
वक्‍त की कब्र में सोये
कई मुर्दा सवालात
आग में नहाते रहे
सारी रात...

जिंदगी और मौत का फैसला
टिक जाता है
सुई की नोक पर
इक घिनौनी साजि़श
रचते हैं अंधेरे

एकाएक समुन्‍द्र की
इक भटकती लहर
रो उठती है दहाडे़ मारकर
सातवीं मंजिल से
कूद जाती हैं विखंडित
मासूम इच्‍छाएं

मौत झूलती रही पंखे से
सारी रात...

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...

Sunday, December 21, 2008

दर्द के टुकड़े

फेंके हुए लफ्‍़ज
धूप की चुन्‍नी ओढे़
अपने हिस्‍से का
जाम पीते रहे
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्‌टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...

(प्रकाशित- 'पर्वत-राग' अक्‍टू.-दिसं.०८)
सं:गुरमीत बेदी

(२)

पत्‍थर होता जिस्‍म़

तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्‌टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्‍म़ मेरा
पत्‍थर होता रहा...

(प्रकाशित- 'सरिता' जुलाई-द्वितीय -०८ )

Saturday, December 13, 2008

प्रत्‍युत्तर

हाँ;
मैं चाहती हूँ
सारे आसमां को
आलिंगन में
भर लूँ...

हाँ;
मैं चाहती हूँ
चंद खुशियाँ
कुछ दिन और
समेट लूँ...

पर;
मेरे आसमां में
न कोई तारा है
न आफ़ताब...

वह तो रिक्‍त है
शुन्‍य सा
भ्रम है
क्षितिज सा...

मेरी कल्‍पनाओं का
कोई इमरोज नहीं
न ही कोई अन्‍य
चित्रकार...

कसूर
धड़कनों का नहीं
कसूर नजरों का था
कुछ तुम्‍हारी
कुछ मेरी...

इन बेवजह
धड़कती धड़कनों को
समेटना तो मुझे
बखूबी आता है...

बरसों से
मदिरा के प्‍यालों में
डूबो-डूबो कर
इन्‍हें ही तो
पीती आई हूँ...

हाँ;
इतना तो सच है
आज तुम्‍हारे ही लिए
मैंने इन शब्‍दों
को बाँधा है...

किसी
उपनाम से ही सही
तुम्‍हारे प्रत्‍युत्तरों को
ढूंढा करूँगी मैं
इन्‍हीं पन्‍नों में...

ताकि
उत्तर-प्रत्‍युत्तर के
इन्‍हीं सिलसिलों में
किन्‍हीं और शब्‍दों को
बाँध पाऊँ...

(काव्‍य- संग्रह 'इक- दर्द' से)

Sunday, December 7, 2008

क्षणिकाएँ

क्षणिकाएँ.......

मित्रो मेरी ये क्षणिकाएँ हिन्‍द-युग्‍म की नवंबर माह की यूनी कवि प्रतियोगिता में प्रथम दस में स्‍थान बनाने में कामयाब हुई हैं वहीं से
संग्रहित हैं ये क्षणिकाएँ....

मेरे आंगन के फूल बडे़ संवेदनशील हैं .......
यूनिकवि प्रतियोगिता की अगली रचना की ओर बढ़ते हैं। युवा कवयित्री हरकीरत कलसी 'हक़ीर' असाम में रहती हैं। और हिन्दी के लिए ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह से सक्रिय हैं। सितम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी कविता प्रकाशित हुई थी। नवम्बर माह की प्रतियोगिता के लिए इन्होंने कुछ क्षणिकाएँ भेजी थी, जिन्हें निर्णायकों ने खूब पसंद किया। क्षणिकाओं ने छठवाँ स्थान बनाया। इस महीने की हंस (राजेन्द्र यादव द्वारा प्रकाशित) पत्रिका में भी इनकी एक कविता 'वज़ूद तलाशती औरत' प्रकाशित हुई है।

पुरस्कृत कविता- क्षणिकायें


(१) जख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...

(२) दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा...

(३) टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
जख्मो को
जाने और कितना
रुलायेंगे...

(४) शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।

(५) सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...

(६) वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...

(७) गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...

(८) दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म...

(९) तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...

(१०) तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...

(११) किस उम्मीद में...
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रौशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...

(१२) सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰७५
औसत अंक- ६॰६२५
स्थान- तीसरा



द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३॰५, ६॰६२५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰७०८३३३
स्थान- तीसरा



पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति

Tuesday, December 2, 2008

मित्रो मन भारी है हमने कई जांबाजों को खोया है। २६ नवंबर, २००८ एक न भुला सकने वाला दिन...जब
फिर एक बार देश का दिल जख्‍मी हुआ,मुंबई के ए टी एस प्रमुख हेमंत करकरे, एन काउंटर स्‍पेलिस्‍ट
विजय सालेस्‍कर तथा अशोक आम्‍टे शहीद हुए और भी न जाने कितने जांबाजों ने जा गवांई...मेरा शत-शत नमन है उन जांबाजों को उनके परिवार के दर्‌द में आइए हम सब शामिल हों...


आज मोहब्‍बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा....


अब न जाने कितना गम़ उन्‍हें पीना होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्‍तो किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा

अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्‍दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग - गुलाल होगा

खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्‍नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा

गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्‌द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा

रातों को हुई होगी जो सन्‍नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्‍ता उन्‍हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्‍हें निगाहें
आज मोहब्‍बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा