Friday, May 24, 2013

इक कोशिश ....

इक कोशिश ....

ज़ख़्मी जुबान 
मिटटी में नाम लिखती है
कोई जंजीरों की कड़ियाँ तोड़ता  है
दर्द की नज़्म लौट आती है समंदर से
दरख्त फूल छिड़क कर
मुहब्बत का ऐलान करते हैं
मैं रेत से एक बुत तैयार करती  हूँ
और हवाओं से कुछ सुर्ख रंग चुराकर
रख देती हूँ उसकी हथेली पे
मुझे उम्मीद है
इस बार उसकी आँखों  से
आंसू जरुर बहेंगे ....!!

हरकीरत हीर ..

Sunday, May 12, 2013

मातृ दिवस पर कुछ हाइकु .........

मातृ दिवस पर कुछ हाइकु .........

(१)

संग है रोई
हर दर्द मेरे माँ
दूजा  न कोई

(२)

माँ की ममता
त्याग,तप,क्षमा की 
 रब्ब सी मूरत 

(३)

इतनी प्यारी
उसके आँचल में
ज़न्नत सारी
(४)

गीत ग़ज़ल
सबपर लुटाती
प्रेम निश्छल 

(५ )

माँ का कर्ज़
चुकाना है तुझको
निभा के फ़र्ज़

(६)


माँ का दर्ज़ा
भगवान से बड़ा
दुनिया माने 


(७)


तेरी दुआएं 
सदा साथ मेरे
माँ
राह दिखाती 

(८)
 

मोल नहीं माँ
चुका सकता कोई
तेरे दूध का 


(९)


ये रिश्ता जैसे 
 
तपती रेत पर
शीतल छाया 


(१०)


 जन्मी 'हीर' जो 
तुझ जैसी कोख से
धन्य हुई माँ
 

(11)

रोई है बेटी
आज भीगा होगा माँ
तेरा भी मन ?

(12)


कटे हैं पंख
भरूं उडारी कैसे
तुझ तक माँ ?

(13)


कैसा बंधन
टूटे हैं मन धागे
जोडूँ माँ कैसे ?


(14)

बंद द्वारों में
दम घुटता है माँ
पास बुला ले 


(15)


तकदीरों के
उलझे पन्ने
फिर

सुलझा दो माँ 
 
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माँ पर लिखी इक पंजाबी कविता का अनुवाद भी ....


माँ .....

माँ बोलती तो कहीं
गुफाओं से
गूंज उठते अक्षर
मंदिर की घंटियों में घुल
लोक गीतों से गुनगुना उठते
माँ के बोल ...

माँ रोती 

तो उतर आते
आसमां पर बादल
कहीं कोई बिजली सी चमकती
झुलस जाती डालें
कुछ दरख्त अडोल से खड़े रह जाते ....

माँ पर्वत नहीं थी
पानी और आग भी नहीं थी
वह तो आंसुओं की नींव पर उगा 
दुआओं का फूल थी 
आज भी जब देखती हूँ
भरी आँखों से माँ की तस्वीर
उसकी आँखों में उग आते हैं
दुआओं के बोल .....
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Wednesday, May 1, 2013

मजदूर दिवस पर एक कविता .......

मजदूर दिवस पर एक कविता .......

भारत का मजदूर ....

वह आता है
सड़कों पर ठेले में
बोरियां लादे
भरी दोपहर और तेज धूप में
पसीने से
तर -बतर
जलती है देह 

ठेले पर नहीं है पानी से भरी
कोई बोतल .....

वह आता है
 कमर झुकाए
कोयले की खदानों से
बीस मंजिला इमारत में
चढ़ता है बेधड़क
गटर साफ़ करने झुका
वह मजदूर ...

वह खड़ा है चौराहे पर

एक दिन की खातिर बिकने के लिए
दिन भर ढोयेगा ईंट, मिटटी , रेत
पेट में जलती आग लिए ..
डामर की टूटी सड़कों पर
 उढ़ेलेगा  गर्म तारकोल
कतारबद्ध, तसला, गिट्टी ,बेलचा
जलते पैरों से होगा हमारी खातिर
 तब इक सड़क का निर्माण ...

वह दिन भर
धूप में झुलसेगा
एक पाव दाल
एक पाव चावल
एक किलो आटा
एक बोतल मिटटी के तेल की खातिर
काला पड़ गया है बदन
फटी एड़ियाँ
खुरदरे  हाथ
दुर्गन्ध में कुनमुनाता
बोझ से दबा हुआ
 धड़ है जैसे सर विहीन ....

वह सृजनकर्ता है 

दुख सहके भी सुख बांटता
भूख को पटकनी देता
वह हमारी खातिर तपता है
दसवीं मंजिल से गिरता है
वह भारत का मजदूर   ...
वह भारत का मजदूर   ...!!