Saturday, March 31, 2012

''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत ''इमरोज़ की बोलती दीवारें ......

''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत '' इमरोज़ की बोलती दीवारें ......

प्यार
समझ नहीं आता
पर प्यार समझ लेता है
उसके लिए जो हरकीरत भी है , नज़्म भी और हीर भी ......
इमरोज़ /२७/ /12

दूसरी पुस्तक के पन्ने पलटती हूँ ......

सब रब्ब हैं ....
हरकीरत भी रब्ब है
फिर
भी रब्ब समझा जाता है माना जाता है ...
इमरोज़ /२७/ /१२

चाँदनी चौक शीशगंज गुरूद्वारे के एक कमरे में बैठी मैं इमरोज़ की दी हुई इन पुस्तकों को लिए मन्त्र मुग्ध सी बैठी हूँ ...'' हरकीरत भी रब्ब है '' बार-बार पढ़ती हूँ .....''हरकीरत भला रब्ब कैसे हो सकती है .....? .रब्ब तो वहाँ बसता है जहाँ प्यार होता है पर हीर तो प्यार के लिए ताउम्र कब्रें टटोलती रही ...हाँ नज़्म हो सकती है जिसे पढ़ा जा सके ...मसला जा सके ...या फेंका जा सके ..पर रब्ब हरगिज नहीं ....पर मेरे लिए तो ये लिखत किसी देव पुरुष की लिखत थी ...उसकी हस्तलिपि में ...ताउम्र सहेज कर रखने के लिए ....तो क्या हुआ जो मैं कभी अमृता से नहीं मिल पाई उस पाक रूह से तो मिल लिया जो किसी रांझे ,महिवाल, या फ़रहाद से भी कहीं ऊपर मोहब्बत की साक्षात् मूरत थी .....
आज इमरोज़ जी से मिलने की दिली ख्वाहिश रब्ब ने पूरी की थी ......


अपनी ये दो पुस्तकें इमरोज़ जी २७ फरवरी प्रगति मैदान में हुए मेरे काव्य संग्रह '' दर्द की महक'' के विमोचन वाले दिन ही मुझे दे गए थे ..'.रिश्ते' और दूसरी 'जश्न जारी है ' ...साथ ही अपने मंदिर में आने का न्योता भी ....मैं तो इंतजार में थी ही ...मनु जी को तुरंत फोन लगाया वे भी तैयार थे ....हम करीब बजे उस बहुमंजिला ईमारत के नीचे थे ....अर्दली ने इंटर कॉम से उन्हें इत्तिला किया ''कोई हरकीरत हीर मिलने आई हैं ''...'' किसके लिए '' ...? उधर से उनकी बहु ने पूछा था
'' जी बाबा जी के लिए ''....
कुछ ही देर में इमरोज़ जी खुद नीचे उतर आये थे ....''अरे यहाँ क्यों खड़े हो ...सीधे ऊपर चले आना था .....?'' वे मुस्कुराते हुए बोले थे ....
कुछ ही देर में हम उस मंदिर में खड़े थे जहाँ बस रब्ब ही रब्ब था ....जहाँ मुहब्बत होती है रब्ब भी वही होता है ..... मैं सामने देख रही थी मुहब्बत की वे तमाम तस्वीरें ....वे तमाम यादगार पल जब - जब सांसें जिन्दा हुई थीं ...जब जब सोचों में हिसाब रुके ..जब-जब नज्में गदराई ..चिड़ियों ने डेरा डाला...माथे का नाम हटाया और भट्टियों की राख को तराश कर इमरोज़ मुहब्बत का बुत बनाते रहे ....उस मंदिर की हर दीवार एक नज़्म है ..और हर नज़्म एक दरिया ...जिसकी जितनी गहरई में हम उतरते गए उसे उतने ही करीब से महसूस करते रहे ....
इमरोज़ जी करीब तीन घंटे हमें उस दरिया की सैर कराते रहे ... इस दरिया का कोई मज़हब था कोई जात ...वे जिधर चल पड़ते मज़हब उनके साथ चलता ....खूबसूरत सोच को भला कब मजहबों की जरुरत पड़ी है ....किसी कानून का दखल नहीं ...कोई सवाल नहीं ....कोई जिरह नहीं .....एक खुला आकाश था और खुली उड़ान.....दोनों साथ साथ उड़ते फूल चुनते ..आशियाना सजाते ...ख्वाब बुनते....नहीं.. नहीं ख्वाब बनाते ...तिनके तिनके मुहब्बत जुडती रही ....पर कहा किसी ने नहीं .....वे दस वर्ष छोटे थे अमृता से ....अमृता कहती तुमने अभी दुनिया नहीं देखी पहले देख लो , समझ लो , सोच लो ......और इमरोज़ तो जब दस वर्ष के थे तभी से अपने पिता द्वारा अपने पलंग पर लगाई अमृता की तस्वीर पर मोहित हो चुके थे ...मुहब्बत उम्रें नहीं बांधती ..उन्होंने कभी अमृता के ज़िस्म से प्यार नहीं .किया ......ज़िस्म के साथ तो सिर्फ सोया जा सकता है पर इमरोज़ ज़िन्दगी भर उसके साथ जागते रहे ..उसके सुख-दुःख में उसकी खुशी में ,हँसी में , गम में , उसकी जीत में , हार में , जमाने के तानों और उठती ऊंगलियों के बीच से उसे बचाते हुए .. तमाम उम्र ज़िन्दगी की ऊंगलियों में ऊँगलियाँ डाले उस से पूछते रहे बता तेरी कौन सी ऊँगलियाँ है और मेरी कौन सी .....?

जाते ही उनकी बहु सरोज पानी और फिर चाय बिस्कुट ले आई थी ...पर मनु जी और मैं दोनों विस्मित से कभी सामने लगी तस्वीरों को देखते , कभी इमरोज जी के चेहरे पर छाई मुस्कराहट और आँखों की चमक को पढने की कोशिश करते तो कभी मंत्र -मुग्ध से उस मंदिर की पाक हवा को अपने भीतर समेटने की कोशिश करते ....जितने हम उत्साहित थे शायद इमरोज जी भी उतने ही उत्साहित थे हमें अमृता से जुड़े एक-एक किस्से को एक-एक पल को बताने के लिए ....इसी बीच गज़लकार मुफलिस जी (दानिश) का फोन आया मैंने मोबाईल मनु जी को पकड़ा दिया .... पूछने लगे इमरोज जी के घर पर हो ...? मनु जी ने कहा - '' नहीं मंदिर में हैं ....''

सही कहा था मनु जी ने जहाँ आपके चाहने वाले की मूरत बसी हो ..प्रेम बसा हो , ईमान बसा हो वह किसी खुदा के दरबार से कम नहीं होता ....इमरोज जी एक-एक तस्वीर और उससे जुड़े इक-इक किस्से को हमें बताते रहे...जब पहली बार अमृता ने उनके लिए खाना पकाया था उन्होंने झट से कैमरा सेट कर उस तस्वीर को कैद कर लिया था ..

.अमृता लिखती तो वे उसके लिए चाय बना कर लाते ...उसके लिखते वक़्त वे कभी उसके कमरे में नहीं जाते ...न ही किसी को जाने देते ...जब वे उठतीं दोनों मिलकर भोजन पकाते...इमरोज़ के पास एक ऐसी दुनिया थी जहाँ कोई नौकर नहीं कोई मालिक नहीं ..कोई रोक नहीं कोई टोक नहीं ...कोई डर नहीं कोई खौफ़ नहीं... तेरा -मेरा ... जो कुछ था साँझा ...अपनेपन से भरा हुआ ......एक बार अमृता ने कहा , '' मुझे अच्छा नहीं लगता कि मैं तुझसे मिलने आऊँ तो मुझे दरवाजे पे इंतजार करना पड़े ..'' .इमरोज़ झट से अन्दर गए और दूसरी चाबी लाकर उसके हाथों में थमा दी .........शब्दों में इतनी मिठास की अमृता सहज ही उनकी बात मान लेती ... वे उसे प्यार से 'माजा' कहते थे जिसका अर्थ था 'मेरी' . ज़िन्दगी यूँ ही गुजरती गई ....पर शब्दों ने कभी प्यार जाहिर नहीं किया ...एक दिन वो भी आया जब इमरोज़ जी को दिल्ली छोडनी पड़ी ...उन्हें मुम्बई में काम मिल गया था ....अमृता उदास हो गई और बोली ये तीन दिन तुम मेरे साथ गुजरना ....जाने से पहले के वो तीन दिन उन्होंने साथ साथ गुजारे ...वे रोज इक बगीचे के दरख्त के तले जाकर घंटों बैठे रहते ...बहारों का मौसम था दरख़्त पीले फूलों से से लदा हुआ ...वे चुपचाप पीले फूलों पर लेट एक दुसरे को निहारते ...जुबाँ खामोश रहती ..पर दरख्त रह-रह कर झूम उठता ...पीले फूल कभी सीने को , कभी होंठों को ,कभी पलकों को चूम लेते और ये तीन दिन उनकी ज़िन्दगी के रूह बन गए ....वे मुंबई गए पर कुछ ही दिनों में लौट आये ...अमृता बुखार से तप रहीं थी ...इमरोज़ के आते ही बिलकुल भली चंगी हो गई ....प्यार शब्दों का कभी मोहताज रहा ही नहीं ..... किसी वक़्त का और ही मज़बूरी का ....प्यार सबसे सरल और पाक इबादत है ...जिसे पढो तो सीधे रब्ब तक ले जाती है .....उस दिन ख़ामोशी ने धीरे से कहा -

'' जब तुम चले जाते हो ज़िन्दगी नज़्म हो जाती है और
जब तुम पास जाते हो नज़्म ज़िन्दगी हो जाती है ...''

इस तरह इक अनघडे पत्थर को तराश तराश कर इमरोज़ जी ने अपने लिए संभावनाएं पैदा कर ली और मुहब्बत जिन्दा होती गई ....

अपने मंदिर में उन्होंने साहिर को कोई स्थान नहीं दिया ....मेरी नज़रें उसे तलाशती रहीं पर वे कहीं थे ....पर इमरोज़ ने उनका ज़िक्र जरुर किया ....जब साहिर की किताब '' आओ ख्वाब बुने'' का कवर इमरोज़ जी के पास बनने आया ...हँसकर बोले तब मैंने कहा था -''साला ज़िन्दगी भर ख्वाब ही बुनता रहा कभी बनाया नहीं '' तब मैं और मनु जी भी हँस पड़े थे .... जाहिर है अमृता जी साहिर को पसंद करती थी पर साहिर जाने क्यों चाह कर भी अपनी जुबाँ से अपने प्यार का इज़हार कर सके ......

करीब तीन घंटे इमरोज़ जी अपने ज़िन्दगी के हिस्से हमें बांटते रहे ....कुछ स्कूली दिनों के किस्से.. जब ड्राइंग की कक्षा में शिक्षक ने उन्हें फूलों का चित्र बनाने के लिए कहा ...एक खूबसूरत लड़की जिसे वे पसंद किया करते थे उसने सिर्फ एक गुलाब बनाया ....भोजन अवकाश में उन्होंने उसकी कॉपी में लिखा ''सेल्फ-पोर्ट्रेट' '' जिस पर अब उन्होंने नज़्म लिखी है ....'खास'

इमरोज़ जी की मोहब्बत सिर्फ अमृता की खातिर नहीं थी आज भी परिवार के हर सदस्य का दिल जीतने का वे भरसक प्रयत्न करते हैं ....बहु के साथ उसके छोटे - मोटे कामों में हाथ बटाकर या फिर , नयी चद्दर ला कर उसके कमरे में बिछा देना और मना करने पर मुस्कुरा कर कहना इससे मुझे ख़ुशी मिलती है ..ये जरा-जरा सी बातें ज़िन्दगी बाँटती हैं ....इमरोज़ जी की ये मुहब्बत देख रिश्ते खुद उनके साथ चल पड़ते हैं ...उन्हें रिश्तों को बुलाने की जरुरत नहीं पड़ती ...सच अपनी जगह खुद बना लेता है ..ये तो हमारी कमजोरियां हैं जो रिश्तों में दरारें डाल देती हैं .....

उन्होंने एक फिल्म का हिस्सा भी सुनाया कैसे एक १०,१२ वर्ष का बालक अपनी मोहक अदा से सबका दिल जीत लेता है ...वह बालक एक विवाहित पुरुष के पास जाकर एक कागज का टुकडा उसे देता है जिस पर लिखा है - ''मेरी माँ कहती है तुम मेरे पिता हो .....'' पुरुष हैरान सा उसे देखे जा रहा है ....बालक फिर उसी मासूमियत से कहता है ''अगर ऐसा नहीं है तो मेरा पन्ना लौटा दो मै जाऊं ..'' ..पर पुरुष इतने प्यारे और मासूम बच्चे को खोना नहीं चाहता और घर ले आता है ..अपनी पत्नी से मिलवाता है और वह बालक अपने प्यार से सबका दिल जीत लेता है......बातों ही बातों में इमरोज़ जी ने यह भी जतला दिया कि प्यार से किसी का भी दिल जीता जा सकता है ...शायद इस किस्से से वे इस हीर की तस्वीर में भी रंग भरना चाहते थे ....तभी तो दुसरे दिन उन्होंने फोन करके पूछा -''कोई नज़्म लिखी...?'' मैंने कहा ,'हाँ'...वे बोले , ''अब कुछ बदलाव आया ?''.तब ये बात मेरी समझ में नहीं आई थी.....खैर .मैं इमरोज़ के रूप में प्यार की जीती जागती वह तस्वीर देख रही थी जो रिश्तों के खून या मज़हब से कहीं ऊपर थी ...मज़हब तो हमारी सोच को सिमित कर देते हैं ...इमरोज़ जी तो सभी मजहबों से परे सिर्फ प्यार का मज़हब बनाये हुए हैं ...और जहाँ प्यार होता है रब्ब भी वहीँ होता है .....वे किसी धर्म को नहीं मानते उनके लिए सभी धर्म बराबर हैं ....जब जैसी इच्छा होती है उसे मना लेते हैं ....

अमृता के अंतिम दिनों की याद ताजा करते हुए वे बोले ..अंतिम दिनों में वो मुझे अपने पास से हिलने नहीं देतीं थी ...तब उनका उठना -बैठना बोलना बिलकुल बंद हो चूका था , हमेशा हाथ पकडे रखती ...कहती थी मेरी अंतिम क्रिया गुरूद्वारे में मत करना ...जब मैं जीते जी गुरूद्वारे में नहीं गई तो मरने के बाद क्यों ..?...हाँ ..तब अमृता को देख एक ख्याल मेरे मन में बार-बार आता था कि हमें अपनी इच्छा से मौत लेने का हक़ क्यों नहीं ? जब पता हो कि अब वो ठीक नहीं हो सकता और मौत निश्चित है ऐसे में अपनी इच्छा से मरने का हक़ होना चाहिए .....मैंने भी इस बात पे उनकी सहमती जताई थी क्योंकि मैं भी अपने पिता ससुर की कैंसर से तड़पती मौत देख चुकी हूँ ...

अपने बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि मुझे बहुत सादा जीवन पसंद है ...मेरे पास सिर्फ एक जोड़ा जूते हैं और कुछ कपडे ...मैं कभी पैंट शर्ट नहीं पहनता .....वही पहनता हूँ जिसमें मैं सहज अनुभव करता हूँ ...ये कुर्ता - पैजामा और जर्सी ..बस...वे मुस्कुराते हुए बोले ....मेरे घर पर भी तुम्हें कोई फालतू सामान दिखाई नहीं देगा ..और फिर उन्होंने अपना सारा घर दिखलाया ....ड्राइंग रूम के साथ किचेन और उसके साथ उनका बेड रूम ...घर बहुत ही करीने और सादगी से सजा हुआ था ....बहु- बेटा ऊपर के फ़्लैट में रहते हैं ...उनका पलंग वही है जो हौज खास में अमृता के पास था ....कुछ चौकोर -चौकोर से बॉक्स पलंग के साथ रखे हुए थे ...संभवत:अमृता वहां बैठ लिखा करती हो ...मैं पूछ नहीं पाई थी ....बेड रूम में उन्होंने सिर्फ दो तस्वीरें लगा रखी थीं एक अमृता की और दूसरी एक छोटे से बच्चे की ..उन्होंने बताया , ये उनकी पोती है इस तस्वीर को उन्होंने इसलिए लगाया है क्योंकि इसमें इसकी आँखों की चंचलता मुझे बहुत आकर्षित करती है ....वे बिलकुल मासूम से होकर बोले थे ....वहीँ एक अलमारी के ऊपर कुछ किताबें पड़ी थी ..वे दिखाते हुए बोले, ' ये पूना से एक महिला आई थी .' ..मैंने कहा.'' जी रश्मि प्रभा ,मैं जानती हूँ उन्हें ' ..'.हाँ ...रश्मि उनके साथ उनकी बेटी भी थी , बहुत सारी तस्वीरें खीँच कर ले गई थी और फिर मुझे एक एल्बम बनाकर भेज दिया था ...' रश्मि जी का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा .....

अब समय काफी हो चुका था मैं अमृता को मिले वो तमाम सम्मान देखना चाहती थी पर इमरोज़ जी ने बताया वे सारे अलमारी में रखे हैं ....मैंने कहा, '' वो सांझी नेम प्लेट कहाँ है जो आप हौज खास से उतार कर लाये थे ....?'' उन्होंने दिखाई ड्राइंग रूम के बाहर दरवाजे के पास ऊपर लगाई हुई थी और वहीँ रखा था अमृता को मिला ज्ञानपीठ पुरूस्कार ....विदा लेने का मन तो नहीं हो रहा था पर फिर भी हमने विदा के लिए हाथ जोड़ दिए थे ...इमरोज़ जी ने हौले से जफ्फी में लेकर आशीर्वाद दिया और अपने हाथों से बना एक कैलेण्डर भी ....हम लौट पड़े.....पर मैं लौटते -लौटते यही सोच रही थी कि - ''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत ........''

अपने कमरे में आई तो वहीँ ये कुछ नज्में उतरी थीं ......

(1)

फ़रिश्ता ....

अमृता ...
मैं तुझसे तो
कभी मिल नहीं पाई
पर आज मैंने तुझे
इमरोज़ में ज़िंदा देखा है
उसकी सांसों में , उसकी बातों में ,
उसकी मुस्कराहट में , उसकी हँसी में
उसके जिस्म में , उसकी रूह में
वह अब भी तुझे जीता है
संवारता है , निहारता है ,पूजता है
क्या ये किसी रांझे के प्रेम से कम है ?
या किसी महिवाल की मुहब्बत से ?
अमृता....
तू हीर भी है , सोहणी भी और शीरी भी
पर इमरोज़.....
न राँझा है , न महिवाल,न फरहाद
वह तो मुहब्बत का...

फ़रिश्ता है .....

      (२)



हँसी के फूल .....

अमृता ....
वो तमाम किस्से
जो तुझसे जुड़े थे
इमरोज़ मेरे सामने बैठे
परत-दर-परत खोलते रहे
तुम्हारी तस्वीरों के साथ जुडा
इक-इक किस्सा
हँसी बिखेरता रहा
वह दरख़्त जहां ख़ामोशी ने
पहली बार फूल ओढ़े थे ....
रह-रह कर मुस्कुराता
और झूम कर कुछ फूल
बिखेर देता हथेलियों में
इमरोज़ इक-इक फूल
मेरी झोली में डालते रहे
 
अमृता....
मैंने वो सारे फूल पिरोकर
सीने में छुपा लिए हैं
रात जब दर्द तड़प कर उठेगा
इन्हीं फूलों से
उसे
 बहलाऊँगी  .....

(3)  


वसीयत .....

देख अमृता ...
तेरे बाद भी तेरी कलम
खामोश नहीं है ...
वह अब भी जिन्दा है
इमरोज़ के हाथों में
तेरी हर तस्वीर के साथ जुडी
इक-इक नज़्म में
सच्च ! मोहब्बत ही
संभाल सकती है वसीयत
अपनी मोहब्बत की ......                   
इमरोज़ जी का नया मकान N-13
                                                       
          इमरोज़ जी का बेड रूम                                                                            इमरोज़ जी और  मनु जी

                                                   इमरोज़ जी रश्मि प्रभा जी की पुस्तक दिखाते हुए
       इमरोज़ जी के  बनाये  कुछ चित्र                     अमृता जी की तस्वीर के बीच इमरोज़ जी की लिखी नज़्म