Monday, May 5, 2014

दीवारों के पीछे की औरत .....

कभी इन दीवारों के पीछे झाँककर देखना
तुम्हें औरत और मर्द का वो रिश्ता नज़र आयेगा
जहां बिस्तर पर रेंगते हुए हाथ 
जेहनी गुलामी के जिस्म पर
लगाते हैं ठहाके ……
दर्द दोनों हाथों से बाँटता है तल्खियाँ
और,....
 समय की क़ब्र में दबी सहमी
अपने ज़िस्म के लहू लुहान हिस्सों  पर
उग आये ज़ख्मों को कुरेदने लगती है
दीवारों के पीछे की औरत …
 
बाजुओं पर कसा हुआ हाथ
दबी ख़ामोशी के बदन पर से उतारता है कपड़े
वह अपने बल से उसकी देह पर लिखता है
अपनी जीत की कहानी .... 
उस वक़्त वह वस्तु के सिवाय कुछ नहीं होती
सिर्फ एक जिन्दा जानदार वस्तु
 ज़िन्दगी भर गुलामी की परतों में जीती है मरती है
एक अधलिखि नज़्म की तरह
ये दीवारों के पीछे की औरत  ……

जब -जब वह टूटी है
कितने ही जलते हुए अक्षर उगे हैं उसकी देह पर
जिन्हें पढ़ते हुए मेरे लफ़्ज़ सुलगने लगते हैँ
मैं उन अक्षरों को उठा -उठाकर  कागज पर रखती हूँ
बहुत लम्बी फ़ेहरिस्त दिखाई देती है
सदियों पुरानी लम्बी …
जहाँ बार -बार दबाया जाता रहा है उसे
कुचला जाता रहा है उसकी संवेदनाओं को ,
खेल जाता रहा है उसकी भावनाओं से
लूटी जाती रही है उसकी अस्मत
अपनी मर्जी से
एक बेटी को भी जन्म नहीं दे पाती
दीवारों के पीछे की  औरत  ……

वह देखो  आसमां में ....
मेरी नज़्म के टुकड़े हवा मैं उड़ने लगे हैँ
घूँघट , थप्पड़ ,फुटपाथ , बाज़ार , चीख  , आंसू 
ये आग के रंग के अक्षर किसने रख दिए हैं मेरे कानोँ पर
अभी तो उस औरत की दास्ताँ सुननी बाकी है
जो अभी -अभी अपना गोश्त बेचकर आई है 
 एक बोतल शराब की खातिर अपने मर्द के लिये
अभी तो उस चाँद तारा की हँसी सुननी बाकी
है जो अभी- अभी जायका बनकर आई है
किसी अमीरजादे की बिस्तर की   ....
तुमने कभी किसी झांझर की मौत देखी है ?
कभी चूड़ियों का कहकहा सुना है ?
कभी जर्द आँखों का सुर्ख राग सुना है ?
कभी देखना इन दीवारों के पीछे की औरत को
जिसका हर ज़ख्म गवाही देगा
पल -पल राख़ होती उसकी देह का   ……

अय औरत ! मैँ लिख रही हूँ
 दीवारों के पार की तेरी कहानी
गजरे के फूल से लेकर पैरों की ज़ंज़ीर तक
जहाँ तड़पती कोख का दर्द भी है
और ज़मीन पे बिछी औरत की चीख भी
ताबूतों में कैद हवाओं की सिसकियाँ भी हैं
और जले कपड़ों में घूमती रात की हँसीं भी
इससे पहले कि तेरे जिस्म के अक्षरों की आग राख हो जाये
मैं लिख देना चाहती हूँ आसमां की छाती पर 
''कि अय आसमां ! औरत तेरे घर की
जागीर नहीं  … !!''
-- हरकीरत 'हीर'

17 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आओ आसमां की छाती पर लिख दें
''औरत तेरी जागीर नहीं … !!''
सब नही लिख पाती हैं
जो नही लिख पाती है
वो बिक जाती है
सादर
आप बहुत ही अच्छा लिखती हैं

दिगम्बर नासवा said...

मार्मिक और बहुत ही संवेदनशील ...
निःशब्द हूँ आपकी कलम के पैनेपन पर ...

सदा said...

नि:शब्‍द करती अभिव्‍यक्ति ..... आपकी लेखनी को नमन
सादर

सदा said...

नि:शब्‍द करती अभिव्‍यक्ति ..... आपकी लेखनी को नमन
सादर

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

शुरू से आख़िर तक एक औरत की ज़िन्दगी की दास्तान लिखी है जो ख़ुद में एक तेज़ाब की नदी से कम नहीं! आज एक साथ गुलज़ार साहब की नज़्म "आले भरवा दो मेरी आँखों के" और शंकर के उपन्यास "जन अरण्य" की याद आ गई!! दिल को झकझोरती नज़्म हरकीरत जी!!

सुशील कुमार जोशी said...

झिंझोड़ती हुई रचना ।

Himkar Shyam said...

कमाल की नज़्म, गजब का आक्रोश। संवेदना के स्वर सीधे पाठकों के हृदयस्थल को छू लेते हैं। आपकी सोच और लेखनी को सलाम।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-05-2014) को "खो गई मिट्टी की महक" (चर्चा मंच-1604) पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Shikha Kaushik said...

bahut sateek v sarthak rachna .aabhar

ओंकारनाथ मिश्र said...

मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है यह रचना.

Akhil said...

जहाँ तड़पती कोख का दर्द भी है
और ज़मीन पे बिछी औरत की चीख भी
ताबूतों में कैद हवाओं की सिसकियाँ भी हैं
और जले कपड़ों में घूमती रात की हँसीं भी

uff. nishabd..marmik, katu satya..sarthak srijan ke liye bahut bahut badhai.

Ek arse baad aapki rachnaye padhne ka saubhagya praprt hua hai..beech ke waqt me jo kuch bach gaya use bhi padhne ka pryaas rahega..abhinandan aapka.

कालीपद "प्रसाद" said...

दिल दिमाग को झकझोर देने वाली बेबाक दास्ताँ | एक औरत ही इस पीड़ा को अनुभव कर सकती है ...कलम की पैनिपन को सलाम !
New post ऐ जिंदगी !

Dr.R.Ramkumar said...

जब -जब वह टूटी है
कितने ही जलते हुए अक्षर उगे हैं उसकी देह पर जिन्हें पढ़ते हुए मेरे एहसास सुलगने लगते हैँ मैं उन अक्षरों को उठा -उठाकर कागज पर रखती हूँ बहुत लम्बी फ़ेहरिस्त दिखाई देती है सदियों लम्बी …


लाजवाब अभिव्यक्ति..सुन्दर सुगठित नज्म


मुकेश कुमार सिन्हा said...

संवेदना पूर्ण .......... बेहतरीन !!

Sadhana Vaid said...

आपकी नज़्मों की धार ह्रदय को चाक कर देती है और एहसासों की आग दिल दिमाग को सुलगा जाती है ! जी करता है इस मशाल से समाज में व्याप्त वह सब कुछ जला कर राख कर दें जहाँ औरत को जागीर समझा जाता है ! सुलगाती दहकाती धधकाती रचना !

Sonali said...
This comment has been removed by the author.
Sonali said...

आपने काफी सुन्दर लिखा है...
इसी विषय Muslim women in India से सम्बंधित मिथिलेश२०२०.कॉम पर लिखा गया लेख अवश्य देखिये!