Saturday, March 31, 2012

''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत ''इमरोज़ की बोलती दीवारें ......

''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत '' इमरोज़ की बोलती दीवारें ......

प्यार
समझ नहीं आता
पर प्यार समझ लेता है
उसके लिए जो हरकीरत भी है , नज़्म भी और हीर भी ......
इमरोज़ /२७/ /12

दूसरी पुस्तक के पन्ने पलटती हूँ ......

सब रब्ब हैं ....
हरकीरत भी रब्ब है
फिर
भी रब्ब समझा जाता है माना जाता है ...
इमरोज़ /२७/ /१२

चाँदनी चौक शीशगंज गुरूद्वारे के एक कमरे में बैठी मैं इमरोज़ की दी हुई इन पुस्तकों को लिए मन्त्र मुग्ध सी बैठी हूँ ...'' हरकीरत भी रब्ब है '' बार-बार पढ़ती हूँ .....''हरकीरत भला रब्ब कैसे हो सकती है .....? .रब्ब तो वहाँ बसता है जहाँ प्यार होता है पर हीर तो प्यार के लिए ताउम्र कब्रें टटोलती रही ...हाँ नज़्म हो सकती है जिसे पढ़ा जा सके ...मसला जा सके ...या फेंका जा सके ..पर रब्ब हरगिज नहीं ....पर मेरे लिए तो ये लिखत किसी देव पुरुष की लिखत थी ...उसकी हस्तलिपि में ...ताउम्र सहेज कर रखने के लिए ....तो क्या हुआ जो मैं कभी अमृता से नहीं मिल पाई उस पाक रूह से तो मिल लिया जो किसी रांझे ,महिवाल, या फ़रहाद से भी कहीं ऊपर मोहब्बत की साक्षात् मूरत थी .....
आज इमरोज़ जी से मिलने की दिली ख्वाहिश रब्ब ने पूरी की थी ......


अपनी ये दो पुस्तकें इमरोज़ जी २७ फरवरी प्रगति मैदान में हुए मेरे काव्य संग्रह '' दर्द की महक'' के विमोचन वाले दिन ही मुझे दे गए थे ..'.रिश्ते' और दूसरी 'जश्न जारी है ' ...साथ ही अपने मंदिर में आने का न्योता भी ....मैं तो इंतजार में थी ही ...मनु जी को तुरंत फोन लगाया वे भी तैयार थे ....हम करीब बजे उस बहुमंजिला ईमारत के नीचे थे ....अर्दली ने इंटर कॉम से उन्हें इत्तिला किया ''कोई हरकीरत हीर मिलने आई हैं ''...'' किसके लिए '' ...? उधर से उनकी बहु ने पूछा था
'' जी बाबा जी के लिए ''....
कुछ ही देर में इमरोज़ जी खुद नीचे उतर आये थे ....''अरे यहाँ क्यों खड़े हो ...सीधे ऊपर चले आना था .....?'' वे मुस्कुराते हुए बोले थे ....
कुछ ही देर में हम उस मंदिर में खड़े थे जहाँ बस रब्ब ही रब्ब था ....जहाँ मुहब्बत होती है रब्ब भी वही होता है ..... मैं सामने देख रही थी मुहब्बत की वे तमाम तस्वीरें ....वे तमाम यादगार पल जब - जब सांसें जिन्दा हुई थीं ...जब जब सोचों में हिसाब रुके ..जब-जब नज्में गदराई ..चिड़ियों ने डेरा डाला...माथे का नाम हटाया और भट्टियों की राख को तराश कर इमरोज़ मुहब्बत का बुत बनाते रहे ....उस मंदिर की हर दीवार एक नज़्म है ..और हर नज़्म एक दरिया ...जिसकी जितनी गहरई में हम उतरते गए उसे उतने ही करीब से महसूस करते रहे ....
इमरोज़ जी करीब तीन घंटे हमें उस दरिया की सैर कराते रहे ... इस दरिया का कोई मज़हब था कोई जात ...वे जिधर चल पड़ते मज़हब उनके साथ चलता ....खूबसूरत सोच को भला कब मजहबों की जरुरत पड़ी है ....किसी कानून का दखल नहीं ...कोई सवाल नहीं ....कोई जिरह नहीं .....एक खुला आकाश था और खुली उड़ान.....दोनों साथ साथ उड़ते फूल चुनते ..आशियाना सजाते ...ख्वाब बुनते....नहीं.. नहीं ख्वाब बनाते ...तिनके तिनके मुहब्बत जुडती रही ....पर कहा किसी ने नहीं .....वे दस वर्ष छोटे थे अमृता से ....अमृता कहती तुमने अभी दुनिया नहीं देखी पहले देख लो , समझ लो , सोच लो ......और इमरोज़ तो जब दस वर्ष के थे तभी से अपने पिता द्वारा अपने पलंग पर लगाई अमृता की तस्वीर पर मोहित हो चुके थे ...मुहब्बत उम्रें नहीं बांधती ..उन्होंने कभी अमृता के ज़िस्म से प्यार नहीं .किया ......ज़िस्म के साथ तो सिर्फ सोया जा सकता है पर इमरोज़ ज़िन्दगी भर उसके साथ जागते रहे ..उसके सुख-दुःख में उसकी खुशी में ,हँसी में , गम में , उसकी जीत में , हार में , जमाने के तानों और उठती ऊंगलियों के बीच से उसे बचाते हुए .. तमाम उम्र ज़िन्दगी की ऊंगलियों में ऊँगलियाँ डाले उस से पूछते रहे बता तेरी कौन सी ऊँगलियाँ है और मेरी कौन सी .....?

जाते ही उनकी बहु सरोज पानी और फिर चाय बिस्कुट ले आई थी ...पर मनु जी और मैं दोनों विस्मित से कभी सामने लगी तस्वीरों को देखते , कभी इमरोज जी के चेहरे पर छाई मुस्कराहट और आँखों की चमक को पढने की कोशिश करते तो कभी मंत्र -मुग्ध से उस मंदिर की पाक हवा को अपने भीतर समेटने की कोशिश करते ....जितने हम उत्साहित थे शायद इमरोज जी भी उतने ही उत्साहित थे हमें अमृता से जुड़े एक-एक किस्से को एक-एक पल को बताने के लिए ....इसी बीच गज़लकार मुफलिस जी (दानिश) का फोन आया मैंने मोबाईल मनु जी को पकड़ा दिया .... पूछने लगे इमरोज जी के घर पर हो ...? मनु जी ने कहा - '' नहीं मंदिर में हैं ....''

सही कहा था मनु जी ने जहाँ आपके चाहने वाले की मूरत बसी हो ..प्रेम बसा हो , ईमान बसा हो वह किसी खुदा के दरबार से कम नहीं होता ....इमरोज जी एक-एक तस्वीर और उससे जुड़े इक-इक किस्से को हमें बताते रहे...जब पहली बार अमृता ने उनके लिए खाना पकाया था उन्होंने झट से कैमरा सेट कर उस तस्वीर को कैद कर लिया था ..

.अमृता लिखती तो वे उसके लिए चाय बना कर लाते ...उसके लिखते वक़्त वे कभी उसके कमरे में नहीं जाते ...न ही किसी को जाने देते ...जब वे उठतीं दोनों मिलकर भोजन पकाते...इमरोज़ के पास एक ऐसी दुनिया थी जहाँ कोई नौकर नहीं कोई मालिक नहीं ..कोई रोक नहीं कोई टोक नहीं ...कोई डर नहीं कोई खौफ़ नहीं... तेरा -मेरा ... जो कुछ था साँझा ...अपनेपन से भरा हुआ ......एक बार अमृता ने कहा , '' मुझे अच्छा नहीं लगता कि मैं तुझसे मिलने आऊँ तो मुझे दरवाजे पे इंतजार करना पड़े ..'' .इमरोज़ झट से अन्दर गए और दूसरी चाबी लाकर उसके हाथों में थमा दी .........शब्दों में इतनी मिठास की अमृता सहज ही उनकी बात मान लेती ... वे उसे प्यार से 'माजा' कहते थे जिसका अर्थ था 'मेरी' . ज़िन्दगी यूँ ही गुजरती गई ....पर शब्दों ने कभी प्यार जाहिर नहीं किया ...एक दिन वो भी आया जब इमरोज़ जी को दिल्ली छोडनी पड़ी ...उन्हें मुम्बई में काम मिल गया था ....अमृता उदास हो गई और बोली ये तीन दिन तुम मेरे साथ गुजरना ....जाने से पहले के वो तीन दिन उन्होंने साथ साथ गुजारे ...वे रोज इक बगीचे के दरख्त के तले जाकर घंटों बैठे रहते ...बहारों का मौसम था दरख़्त पीले फूलों से से लदा हुआ ...वे चुपचाप पीले फूलों पर लेट एक दुसरे को निहारते ...जुबाँ खामोश रहती ..पर दरख्त रह-रह कर झूम उठता ...पीले फूल कभी सीने को , कभी होंठों को ,कभी पलकों को चूम लेते और ये तीन दिन उनकी ज़िन्दगी के रूह बन गए ....वे मुंबई गए पर कुछ ही दिनों में लौट आये ...अमृता बुखार से तप रहीं थी ...इमरोज़ के आते ही बिलकुल भली चंगी हो गई ....प्यार शब्दों का कभी मोहताज रहा ही नहीं ..... किसी वक़्त का और ही मज़बूरी का ....प्यार सबसे सरल और पाक इबादत है ...जिसे पढो तो सीधे रब्ब तक ले जाती है .....उस दिन ख़ामोशी ने धीरे से कहा -

'' जब तुम चले जाते हो ज़िन्दगी नज़्म हो जाती है और
जब तुम पास जाते हो नज़्म ज़िन्दगी हो जाती है ...''

इस तरह इक अनघडे पत्थर को तराश तराश कर इमरोज़ जी ने अपने लिए संभावनाएं पैदा कर ली और मुहब्बत जिन्दा होती गई ....

अपने मंदिर में उन्होंने साहिर को कोई स्थान नहीं दिया ....मेरी नज़रें उसे तलाशती रहीं पर वे कहीं थे ....पर इमरोज़ ने उनका ज़िक्र जरुर किया ....जब साहिर की किताब '' आओ ख्वाब बुने'' का कवर इमरोज़ जी के पास बनने आया ...हँसकर बोले तब मैंने कहा था -''साला ज़िन्दगी भर ख्वाब ही बुनता रहा कभी बनाया नहीं '' तब मैं और मनु जी भी हँस पड़े थे .... जाहिर है अमृता जी साहिर को पसंद करती थी पर साहिर जाने क्यों चाह कर भी अपनी जुबाँ से अपने प्यार का इज़हार कर सके ......

करीब तीन घंटे इमरोज़ जी अपने ज़िन्दगी के हिस्से हमें बांटते रहे ....कुछ स्कूली दिनों के किस्से.. जब ड्राइंग की कक्षा में शिक्षक ने उन्हें फूलों का चित्र बनाने के लिए कहा ...एक खूबसूरत लड़की जिसे वे पसंद किया करते थे उसने सिर्फ एक गुलाब बनाया ....भोजन अवकाश में उन्होंने उसकी कॉपी में लिखा ''सेल्फ-पोर्ट्रेट' '' जिस पर अब उन्होंने नज़्म लिखी है ....'खास'

इमरोज़ जी की मोहब्बत सिर्फ अमृता की खातिर नहीं थी आज भी परिवार के हर सदस्य का दिल जीतने का वे भरसक प्रयत्न करते हैं ....बहु के साथ उसके छोटे - मोटे कामों में हाथ बटाकर या फिर , नयी चद्दर ला कर उसके कमरे में बिछा देना और मना करने पर मुस्कुरा कर कहना इससे मुझे ख़ुशी मिलती है ..ये जरा-जरा सी बातें ज़िन्दगी बाँटती हैं ....इमरोज़ जी की ये मुहब्बत देख रिश्ते खुद उनके साथ चल पड़ते हैं ...उन्हें रिश्तों को बुलाने की जरुरत नहीं पड़ती ...सच अपनी जगह खुद बना लेता है ..ये तो हमारी कमजोरियां हैं जो रिश्तों में दरारें डाल देती हैं .....

उन्होंने एक फिल्म का हिस्सा भी सुनाया कैसे एक १०,१२ वर्ष का बालक अपनी मोहक अदा से सबका दिल जीत लेता है ...वह बालक एक विवाहित पुरुष के पास जाकर एक कागज का टुकडा उसे देता है जिस पर लिखा है - ''मेरी माँ कहती है तुम मेरे पिता हो .....'' पुरुष हैरान सा उसे देखे जा रहा है ....बालक फिर उसी मासूमियत से कहता है ''अगर ऐसा नहीं है तो मेरा पन्ना लौटा दो मै जाऊं ..'' ..पर पुरुष इतने प्यारे और मासूम बच्चे को खोना नहीं चाहता और घर ले आता है ..अपनी पत्नी से मिलवाता है और वह बालक अपने प्यार से सबका दिल जीत लेता है......बातों ही बातों में इमरोज़ जी ने यह भी जतला दिया कि प्यार से किसी का भी दिल जीता जा सकता है ...शायद इस किस्से से वे इस हीर की तस्वीर में भी रंग भरना चाहते थे ....तभी तो दुसरे दिन उन्होंने फोन करके पूछा -''कोई नज़्म लिखी...?'' मैंने कहा ,'हाँ'...वे बोले , ''अब कुछ बदलाव आया ?''.तब ये बात मेरी समझ में नहीं आई थी.....खैर .मैं इमरोज़ के रूप में प्यार की जीती जागती वह तस्वीर देख रही थी जो रिश्तों के खून या मज़हब से कहीं ऊपर थी ...मज़हब तो हमारी सोच को सिमित कर देते हैं ...इमरोज़ जी तो सभी मजहबों से परे सिर्फ प्यार का मज़हब बनाये हुए हैं ...और जहाँ प्यार होता है रब्ब भी वहीँ होता है .....वे किसी धर्म को नहीं मानते उनके लिए सभी धर्म बराबर हैं ....जब जैसी इच्छा होती है उसे मना लेते हैं ....

अमृता के अंतिम दिनों की याद ताजा करते हुए वे बोले ..अंतिम दिनों में वो मुझे अपने पास से हिलने नहीं देतीं थी ...तब उनका उठना -बैठना बोलना बिलकुल बंद हो चूका था , हमेशा हाथ पकडे रखती ...कहती थी मेरी अंतिम क्रिया गुरूद्वारे में मत करना ...जब मैं जीते जी गुरूद्वारे में नहीं गई तो मरने के बाद क्यों ..?...हाँ ..तब अमृता को देख एक ख्याल मेरे मन में बार-बार आता था कि हमें अपनी इच्छा से मौत लेने का हक़ क्यों नहीं ? जब पता हो कि अब वो ठीक नहीं हो सकता और मौत निश्चित है ऐसे में अपनी इच्छा से मरने का हक़ होना चाहिए .....मैंने भी इस बात पे उनकी सहमती जताई थी क्योंकि मैं भी अपने पिता ससुर की कैंसर से तड़पती मौत देख चुकी हूँ ...

अपने बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि मुझे बहुत सादा जीवन पसंद है ...मेरे पास सिर्फ एक जोड़ा जूते हैं और कुछ कपडे ...मैं कभी पैंट शर्ट नहीं पहनता .....वही पहनता हूँ जिसमें मैं सहज अनुभव करता हूँ ...ये कुर्ता - पैजामा और जर्सी ..बस...वे मुस्कुराते हुए बोले ....मेरे घर पर भी तुम्हें कोई फालतू सामान दिखाई नहीं देगा ..और फिर उन्होंने अपना सारा घर दिखलाया ....ड्राइंग रूम के साथ किचेन और उसके साथ उनका बेड रूम ...घर बहुत ही करीने और सादगी से सजा हुआ था ....बहु- बेटा ऊपर के फ़्लैट में रहते हैं ...उनका पलंग वही है जो हौज खास में अमृता के पास था ....कुछ चौकोर -चौकोर से बॉक्स पलंग के साथ रखे हुए थे ...संभवत:अमृता वहां बैठ लिखा करती हो ...मैं पूछ नहीं पाई थी ....बेड रूम में उन्होंने सिर्फ दो तस्वीरें लगा रखी थीं एक अमृता की और दूसरी एक छोटे से बच्चे की ..उन्होंने बताया , ये उनकी पोती है इस तस्वीर को उन्होंने इसलिए लगाया है क्योंकि इसमें इसकी आँखों की चंचलता मुझे बहुत आकर्षित करती है ....वे बिलकुल मासूम से होकर बोले थे ....वहीँ एक अलमारी के ऊपर कुछ किताबें पड़ी थी ..वे दिखाते हुए बोले, ' ये पूना से एक महिला आई थी .' ..मैंने कहा.'' जी रश्मि प्रभा ,मैं जानती हूँ उन्हें ' ..'.हाँ ...रश्मि उनके साथ उनकी बेटी भी थी , बहुत सारी तस्वीरें खीँच कर ले गई थी और फिर मुझे एक एल्बम बनाकर भेज दिया था ...' रश्मि जी का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा .....

अब समय काफी हो चुका था मैं अमृता को मिले वो तमाम सम्मान देखना चाहती थी पर इमरोज़ जी ने बताया वे सारे अलमारी में रखे हैं ....मैंने कहा, '' वो सांझी नेम प्लेट कहाँ है जो आप हौज खास से उतार कर लाये थे ....?'' उन्होंने दिखाई ड्राइंग रूम के बाहर दरवाजे के पास ऊपर लगाई हुई थी और वहीँ रखा था अमृता को मिला ज्ञानपीठ पुरूस्कार ....विदा लेने का मन तो नहीं हो रहा था पर फिर भी हमने विदा के लिए हाथ जोड़ दिए थे ...इमरोज़ जी ने हौले से जफ्फी में लेकर आशीर्वाद दिया और अपने हाथों से बना एक कैलेण्डर भी ....हम लौट पड़े.....पर मैं लौटते -लौटते यही सोच रही थी कि - ''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत ........''

अपने कमरे में आई तो वहीँ ये कुछ नज्में उतरी थीं ......

(1)

फ़रिश्ता ....

अमृता ...
मैं तुझसे तो
कभी मिल नहीं पाई
पर आज मैंने तुझे
इमरोज़ में ज़िंदा देखा है
उसकी सांसों में , उसकी बातों में ,
उसकी मुस्कराहट में , उसकी हँसी में
उसके जिस्म में , उसकी रूह में
वह अब भी तुझे जीता है
संवारता है , निहारता है ,पूजता है
क्या ये किसी रांझे के प्रेम से कम है ?
या किसी महिवाल की मुहब्बत से ?
अमृता....
तू हीर भी है , सोहणी भी और शीरी भी
पर इमरोज़.....
न राँझा है , न महिवाल,न फरहाद
वह तो मुहब्बत का...

फ़रिश्ता है .....

      (२)



हँसी के फूल .....

अमृता ....
वो तमाम किस्से
जो तुझसे जुड़े थे
इमरोज़ मेरे सामने बैठे
परत-दर-परत खोलते रहे
तुम्हारी तस्वीरों के साथ जुडा
इक-इक किस्सा
हँसी बिखेरता रहा
वह दरख़्त जहां ख़ामोशी ने
पहली बार फूल ओढ़े थे ....
रह-रह कर मुस्कुराता
और झूम कर कुछ फूल
बिखेर देता हथेलियों में
इमरोज़ इक-इक फूल
मेरी झोली में डालते रहे
 
अमृता....
मैंने वो सारे फूल पिरोकर
सीने में छुपा लिए हैं
रात जब दर्द तड़प कर उठेगा
इन्हीं फूलों से
उसे
 बहलाऊँगी  .....

(3)  


वसीयत .....

देख अमृता ...
तेरे बाद भी तेरी कलम
खामोश नहीं है ...
वह अब भी जिन्दा है
इमरोज़ के हाथों में
तेरी हर तस्वीर के साथ जुडी
इक-इक नज़्म में
सच्च ! मोहब्बत ही
संभाल सकती है वसीयत
अपनी मोहब्बत की ......                   
इमरोज़ जी का नया मकान N-13
                                                       
          इमरोज़ जी का बेड रूम                                                                            इमरोज़ जी और  मनु जी

                                                   इमरोज़ जी रश्मि प्रभा जी की पुस्तक दिखाते हुए
       इमरोज़ जी के  बनाये  कुछ चित्र                     अमृता जी की तस्वीर के बीच इमरोज़ जी की लिखी नज़्म

84 comments:

डॉ टी एस दराल said...

इमरोज़ अमृता की प्रेम कहानी तो हीर राँझा , शीरीं फरहद से भी ज्यादा रोमांटिक लगती है . कम से कम उन्हें साथ रहने का , एक दुसरे को महसूस करने का अवसर तो मिला .
ऐसी शक्सियत से मिलना वास्तव में बड़ा आनंददायक रहा होगा .
सुन्दर क्षणिकाएं पोस्ट में चार चाँद लगा रही हैं .
बधाई , अब ब्लॉग सही से खुल रहा है .

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आप इमरोज़ से मिल पायीं, अमृता के बारे में जन पायीं और उन भावों को शब्द दे देकर हम तक पहुँचाया ....भाग्यशाली हैं.... एक सहेजने योग्य पोस्ट प्रस्तुत की हीर जी.... आभार

डॉ. मोनिका शर्मा said...

*जान

हरकीरत ' हीर' said...

आप सभी को मेरी पोस्ट दिखाई नहीं दे रही थी इसलिए मैंने ये पोस्ट डिलीट कर तीसरी बार डाली है
पहली पोस्ट पे आये कमेन्ट भी उसी पोस्ट के साथ डिलीट हो गए कृपया अन्यथा न लें ....

सदा said...

नि:शब्‍द हूं ... इस पोस्‍ट को पढ़कर .. ऐसी शख्सियत से आप मिलीं और फिर हमें भी शामिल किया ... आभार ।

Dharminder Sekhon said...

ਹਰਕੀਰਤ ਜੀ.... ਮੁਹੱਬਤ ਨਾਲ ਲਬਰੇਜ਼ ਰੂਹ ਇਨਸਾਨ ਨੂੰ ਰੱਬ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ... ਤੁਸਾਂ ਰੱਬ ਦਾ ਦਿਦਾਰ ਕੀਤਾ.. ਤੇ ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਰਚਨਾਂ ਜਿਸ ਵਿੱਚੋਂ ਪ੍ਰੇਮ ਡੁੱਲ ਡੁੱਲ ਪੈਂਦਾ ਹੋਵੇ ਰੱਬ ਦੇ ਦਿਦਾਰ ਕਰਨ ਤੇ ਹੀ ਲਿਖੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ... ਸਾਝਾਂ ਕਰਨ ਲਈ ਸ਼ੁਕਰੀਆ...

रश्मि प्रभा... said...

जिसने तुझे देखा वो खुद खुदा सा हुआ
कोई अमृता तो कोई इमरोज़ हुआ

अशोक सलूजा said...

निशब्द और स्तब्द !
महसूस कर सकता हूँ ..बयाँ नही !!!
स्वस्थ रहो !

संजय कुमार चौरसिया said...

जिसने तुझे देखा वो खुद खुदा सा हुआ
bahut achchhi,

ANULATA RAJ NAIR said...

नशा सा हो गया हीर जी पढ़ कर.....
समझ सकती हूँ कि आपकी खुमारी उतरी ना होगी अब तक.....
रश्क होता है कि ऐसा इश्क हमने क्यूँ नहीं किया....
कोई इमरोज़ नहीं मिले.....या शायद हम ही अमृता नहीं थे...

आपने जो लिखा उसके एक एक लफ्ज़ के लिए आपका शुक्रिया....
अनु

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही खूबसूरत वृत्तान्त, सुन्दर काव्य अभिव्यक्ति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

हरकीरत जी ,
इमरोज से आपका मिलना ...पल पल का अनुभव और फिर भावनाओं को क्षणिकाओं में समेटना सभी तो अद्भुत है .... इस पोस्ट पर कुछ लिखा नहीं जा सकता बस महसूस किया जा सकता है ... आभार

ashish said...

प्रेम मंदिर से मत्था टेक कर आने की मुबारक वाद . बाकी सब तो हीरमय हो रहा है

Anonymous said...

.मज़हब तो हमारी सोच को सिमित कर देते हैं ...इमरोज़ जी तो सभी मजहबों से परे सिर्फ प्यार का मज़हब बनाये हुए हैं ...और जहाँ प्यार होता है रब्ब भी वहीँ होता है .....वे किसी धर्म को नहीं मानते उनके लिए सभी धर्म बराबर हैं ....जब जैसी इच्छा होती है उसे मना लेते हैं ....

सुन्दर संस्मरण है......मुहब्बत की पाकीजगी ऐसी ही होती है.....नज्मे भी बहुत खुबसूरत हैं ।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

हीर जी! आज बहुत बड़ी बात कह दी है आपने- "मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत"
साँस रोककर पूरा किस्सा पढ़ना पड़ा। हर्फ़-हर्फ़ एक रूहानी पवित्रता से भरा हुआ। अमृता ने बिन्दास ज़िन्दगी जी थी,पाखण्ड की दीवारों को तोड़ती हुयी... बड़े ही ख़ूबसूरत तारीके से।
हीर जी! आपने तो आज कमाल ही कर दिया।
एक-एक हर्फ़ कितनी जतन से तराशकर आज ये मन्दिर बनाया है आपने! आपकी कलम से आज सितार की धुन निकलती रही और मैं मंत्र मुग्ध सा सुनता रहा हूँ।
इस धुन को सहेज़ कर रखना होगा.....

daanish said...

मुहब्बत उम्रें नहीं बांधती ..
उन्होंने कभी अमृता के ज़िस्म से प्यार नहीं.किया ......
ज़िस्म के साथ तो सिर्फ सोया जा सकता है,, पर इमरोज़
ज़िन्दगी भर उसके साथ जागते रहे..उसके सुख-दुःख में उसकी खुशी में ,
हँसी में , गम में , उसकी जीत में , हार में ......

पढ़ते वक्त, ऐसे एक बार भी नहीं लगा
कि सिर्फ कोई प्रेम-कहानी ही पढ़ी जा रही हो....
कहीं, आध्यात्मिकता से ही साक्षातकार चल रहा था जैसे
उस भव्य मंदिर से, दिव्य होकर लौटना आपका सौभाग्य रहा ...
निसंदेह ही ....!!
और . . .
"मैंने वो सारे फूल पिरोकर
सीने में छुपा लिए हैं
रात जब दर्द तड़प कर उठेगा
इन्हीं फूलों से बहलाऊँगी उसे ....."
......
लगता नहीं है, कि कोई भी दिल ऐसा होगा
जो इन्हें महसूस कर, तड़प नहीं उट्ठेगा !!

बधाई स्वीकारें .

daanish said...

मुहब्बत उम्रें नहीं बांधती ..
उन्होंने कभी अमृता के ज़िस्म से प्यार नहीं.किया ......
ज़िस्म के साथ तो सिर्फ सोया जा सकता है,, पर इमरोज़
ज़िन्दगी भर उसके साथ जागते रहे..उसके सुख-दुःख में उसकी खुशी में ,
हँसी में , गम में , उसकी जीत में , हार में ......

पढ़ते वक्त, ऐसे एक बार भी नहीं लगा
कि सिर्फ कोई प्रेम-कहानी ही पढ़ी जा रही हो....
कहीं, आध्यात्मिकता से ही साक्षातकार चल रहा था जैसे
उस भव्य मंदिर से, दिव्य होकर लौटना आपका सौभाग्य रहा ...
निसंदेह ही ....!!
और . . .
"मैंने वो सारे फूल पिरोकर
सीने में छुपा लिए हैं
रात जब दर्द तड़प कर उठेगा
इन्हीं फूलों से बहलाऊँगी उसे ....."
......
लगता नहीं है, कि कोई भी दिल ऐसा होगा
जो इन्हें महसूस कर, तड़प नहीं उट्ठेगा !!

बधाई स्वीकारें .

rashmi ravija said...

'ख़ूबसूरत सोच वालों और कलाकारों का कोई मज़हब नहीं होता'
कितनी सुन्दर और सच्ची बात

आपकी इस आत्मीय मुलाकात के विवरण में ऐसा लगा हम भी संग-संग ही सब देख-सुन रहे हैं.

devendra gautam said...

बहुत गहराई में उतर कर लिखा गया यह संस्मरण.... मानों दिल से दिल तक का सफ़र करता हुआ. मन रोमांचित हो उठा.

डॉ टी एस दराल said...

हीर जी , इत्तेफाक से आज ही आपकी पुस्तक -- दर्द की महक -- की समीक्षा यहाँ छपी है .
tsdaral.blogspot.com
बेशक दर्द की महक फ़ैल रही है फिजाओं में . बधाई .

ANULATA RAJ NAIR said...

"डॉ साहब अभी -अभी 'पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी; शिलोंग से फोन आया है वे इस पुस्तक के लिए मुझे सम्मानित करना चाहते हैं ...ये आप सब का स्नेह ही है जो मैं ये पुस्तक निकाल पाई .....
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बहुत बहुत बधाइयाँ हीर जी.......
ये सिलसिला अनवरत चलता रहे.......

ढेर सा प्यार और शुभकामनाएँ.
अनु

डॉ टी एस दराल said...

'पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी; शिलोंग की ओर से आपके लिए सम्मान घोषित होने के लिए बहुत बहुत बधाई .

Madhuresh said...

कभी पढने का मौका नहीं मिला अमृता प्रीतम को, इच्छा है कि ढूंढ लूं वक़्त.
आपकी इन तीन रचनाओं ने inspire किया...
सादर

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल said...

अमृता जी की कहानी इस कहानी में परदे खुलते जायेंगे, नयी नयी तस्वीरें सामने आती रहेंगीं! आप का धन्यवाद इस दुनिया में ले जाने के लिए.

Maheshwari kaneri said...

निशब्द हूँ..बहुत ही खूबसूरत पोस्ट..हीर जी..

दीपिका रानी said...

वाकई बहुत दिल से लिखा है आपने.. पढ़कर अच्छा लगा। अमृता-इमरोज़ तो अब एक अमर दास्तान बन चुके हैं। कृपया पहली नज्म में फरिस्ता को फरिश्ता कर लें..

वृजेश सिंह said...
This comment has been removed by the author.
वृजेश सिंह said...

आपकी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी। जैसे हम आपके साथ एक सफर पर चल रहे थे। अचानक आपने कहा कि सफर पूरा हो गया। चलिए फिर मिलते हैं। एक ऐसी रचना जो अपने पाठक को अकेला नहीं छोड़ती। शुरू से आखिर तक उसके साथ रहती है। पढ़ने के बाद उसका हिस्सा बन जाती है। पढ़ते समय तमाम कलाकृतियां और रंगो की खुशबू से गुजरने का एहसास हो रहा था। बहुत-बहुत शुक्रिया हरकीरत "हीर" जी। स्वागत।

Khushdeep Sehgal said...

दर्द दीवाना है हीर का... हीर दीवानी है दर्द की...​
​​
दर्द वालों की ये बातें, दर्द वाले जानते हैं...​

​जय हिंद...

JC said...

हरकीरत जी जैसा आदेश हुआ मेंने आपका बकोग आज पहली बार पढ़ा... अच्छा लगा पढ़ कर, किन्तु अमृता प्रीतम जी का नाम तो सुना था किन्तु उनके बारे में अधिक पढने/ जानने की इच्छा कभी नहीं हुई थी... आपको पढ़ फिर अंतरजाल में एक और पोस्ट ज्योत्सना जी की पढने को मिली उनके बारे में थोड़ा बहुत जानने के लिए ( http://eveonearth.blogspot.in/2008/05/amrita-imroz-gospel-of-love.html )....
धन्यवाद! वैसे भारत में हिन्दुओं की मान्यता के विषय में सुनते आये थे कि विवाह वास्तव में आत्माओं के बीच होता है, और बाद में गीता में भी कृष्ण को सुना कि वास्तव में हम सभी आत्माएं हैं.... आदि, आदि....
आपको फिर से अनेकानेक बधाई सम्मान पाने पर!

Santosh Kumar said...

इमरोज, अमृता....और इसी कड़ी में आपका योगदान भी कम नहीं है. खुशी हुई आप इमरोज से मिल पायीं.

आभार.

रचना दीक्षित said...

स्तब्ध कर दिया हीर जी इस पोस्ट ने. कहने को शब्द नहीं, बस समझने की कोशिश कर रही हूँ.

दिगम्बर नासवा said...

उफ़ ... कितनी गहराई ... कितनी शिद्दत से महसूस किया है आपने ... ये प्रेम है ... चाहत है ... या अपने आप से किया कोई करार ... निःशब्द हूँ पढ़ने के बाद ...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

पोस्ट पढ़ा तो लगा हर कीरत हो गया।..बेहतरीन!

G.N.SHAW said...

हीर जी सुन्दर परिचय ...पढ़ते चला गया ! ऐसे लोगो से मिलकर अजीब ख़ुशी महसूस होती है ! बधाई

डॉ टी एस दराल said...

तस्वीरें देखकर और अच्छा लगा . ये इमरोज़ के साथ मनु जी हैं क्या ?
स्पैम भी चेक करते रहिये .

Coral said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति आपके जरिये इमरोज़जी को जान पाए धन्यवाद दीदी !

Dr Xitija Singh said...

आप पर रब्ब मेहरबान है जो आप इमरोज़ जी से मिल पायीं ... और उनमें बसी अमृता जी से ... रब्ब अपनी मेहर आप पर बनाये रखे ... :)

हरकीरत ' हीर' said...

@ ये इमरोज़ के साथ मनु जी हैं क्या ?

जी डॉ साहब यही मनु जी हैं .....!!

Naveen Mani Tripathi said...

imroj sahab se milana ye bade hi saubhagy ki bat thi .....

Manav Mehta 'मन' said...

Behad khoobsurat chitrit kiya hai..... Imroz ji aur unke andar basi hui amrita ji ke mohabbat ke baare me..... Sach me Ye ishq ruhani hai aur ve rabb.....

प्रेम सरोवर said...

सुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

Ayodhya Prasad said...

बहुत सुन्दर
आभार !

Dinesh pareek said...

सुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
http://vangaydinesh.blogspot.in/2012/02/blog-post_25.html
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/03/blog-post_12.html

sangita said...

इमरोज और अमृता को सही तरीके से संजोया है आपने बधाई. मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है .

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

आदरणीया हरकीरत हीर जी ..बहुत सुन्दर जानकारियां सार्थक लेख..अमृता प्रीतम जी की यादें और साहित्य की ये गति दिल को छू जाती है ..सुन्दर और प्यारा लेख
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण

Rakesh Kumar said...

आपकी सुन्दर भावपूर्ण धाराप्रवाह प्रस्तुति
से मन भावविभोर हो उठा है.

दिल से लिखी गई बातें बहुत कुछ कह रहीं हैं.

प्रेम सरोवर said...

''मुहब्बत कभी ज़िस्म नहीं होती और ज़िस्म कभी मुहब्बत ........''

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति । मुझे अभिप्रेरित करने के लिए धन्यवाद ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

ऐसे लोगो से मिलकर दिली ख़ुशी महसूस होती है !बधाई
वाह!!!!!!बहुत सुंदर रचना,अच्छी प्रस्तुति,..

MY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...

Unknown said...

अत्यंत ही भावपूर्ण ह्रदय से लिखी गयी ..ऐसी शक्शियत से रूबरू कराने के लिए आभार.....

Reena Pant said...

bahut achi post .abhar

आनंद said...

.न इस दरिया का कोई मज़हब था न कोई जात ...वे जिधर चल पड़ते मज़हब उनके साथ चलता ....खूबसूरत सोच को भला कब मजहबों की जरुरत पड़ी है ....किसी कानून का दखल नहीं ...कोई सवाल नहीं ....कोई जिरह नहीं .....एक खुला आकाश था और खुली उड़ान.....दोनों साथ साथ उड़ते फूल चुनते ..आशियाना सजाते ...ख्वाब बुनते....नहीं.. नहीं ख्वाब बनाते ...तिनके तिनके मुहब्बत जुडती रही ....पर कहा किसी ने नहीं ..
....

अमृता....
तू हीर भी है , सोहणी भी और शीरी भी
पर इमरोज़.....
न राँझा है , न महिवाल,न फरहाद
वह तो मुहब्बत का....
फरिस्ता है .....

वाह हीर जी एक काश मैंने उस दिन आपसे आपका फोन नम्बर लिया होता
मैं भी आपके साथ उस फ़रिश्ते के पास होता ...जिसके आसपास केवल मुहब्बत बसती है ..जिसकी शांत नज़रों में हमेशा प्यार का सागर हिलोरें मारता रहता है,
मुझे पता है वो आपको क्या मानते हैं ..और मैं भी, ... एक जीती जागती मोहब्बत!
सजदा करता हूँ आपको !

vandana gupta said...

मै तो पढने के बाद निशब्द हो जाती हूँ हीर जी ………क्या कहूँ? अपने आस पास ही महसूस करने लगती हूँ ।

अनुपमा पाठक said...

वाह!
पढ़ते हुए ही इतनी दिव्य अनुभूति हुई... आपने मंदिर का माहौल जीवंत कर दिया अपनी लेखनी से!!
आभार!

हरकीरत ' हीर' said...

आनंद जी ,
हर कोई इमरोज़ में बसे उस देव पुरुष को नहीं देख पाता ....
पर उसे आपकी नज़रों ने देखा ....मेरी नज़रों ने .देखा ...एक और ब्लोगर थे
जिन्होंने इमरोज़ जी से मिलने के बाद कुछ ऐसा ही ज़िक्र किया है
उन्हें देखने और समझने के लिए नज़रों में उतनी ही पाकीजगी का होना भी जरुरी है .....

dinesh gautam said...

अमृता....
मैंने वो सारे फूल पिरोकर
सीने में छुपा लिए हैं
रात जब दर्द तड़प कर उठेगा
इन्हीं फूलों से उसे
बहलाऊँगी .....
वाह! आपकी शैली अमृता की हिंदी में अनूदित कृतियों की तरह ही प्रवाहपूर्ण है। शब्द भी ऐसे जैसे अमृता जी लिखती थीं । इतनी खूबसूरती से लिखती हैं आप कि मन डूब जाता है भावनाओं की गहराइयों में। ऐसा लगा जैसे आपके साथ में सफर पर हम भी चल रहे हों, एकदम जीवंत!मेरी बधाई हरकीरत जी। मेरी नई पोस्ट पर भी आएं।

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा पढ़कर...इमरोज अमृता से जुड़े हर लेखन की रवानी ही जुदा होती है..

manu said...

जी..
सचमुच काफी अच्छा लगा उस दिन उधर जाकर...
बस इमरोज़ की चाय में मज़ा नहीं आया...

:)

Anonymous said...

हरकीरत जी.. क्या कहूँ मै तो मुग्ध हूँ.. इतना सुंदर प्रवाहपूर्ण शब्दचित्र पढ़ कर .. पहले भी आपकी रचनाएँ पढ़ कर अमृता जी का प्रभाव दिखता था आपकी रचनाओं पर. लेकिन आज तो लगता है मानो अमृता जी ने आपकी लेखनी को अपना आशीष विरासत के तौर पर दे दिया है...
सादर
मंजु

manu said...

और हाँ हरकीरत जी..

.''''भोजन अवकाश में उन्होंने उसकी कॉपी में लिखा''अकेला है पर खास है ''''

ऐसा नहीं...
इमरोज़ ने उस के बनाए फूल के नीचे लिखा था... ' सेल्फ-पोर्ट्रेट'
:)

manu said...

और हाँ हरकीरत जी..

.''''भोजन अवकाश में उन्होंने उसकी कॉपी में लिखा''अकेला है पर खास है ''''

ऐसा नहीं...
इमरोज़ ने उस के बनाए फूल के नीचे लिखा था... ' सेल्फ-पोर्ट्रेट'
:)

हरकीरत ' हीर' said...

ji manu ji yaad dilane ke liye shukariya .....

galti sudhar di jayegi .....:))

Dr.NISHA MAHARANA said...

lay me piroi gai rachana hir jee....sach dil khush ho gaya ....tere bin par aapka intjaar hai...

vikram7 said...

प्रभावशाली,बिलकुल सही कहा,वंदना जी नें , ''पढने के बाद निशब्द''

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

आपकी लेखन शैली ने विषय वस्तु को जीवंत कर दिया.

Rajesh Kumari said...

अमृता जी से तो नहीं मिल पाए ,इमरोज जी से भी नहीं मिल पाए पर आपके व्रतांत को पढ़कर लगा हम भी मिल लिए आपकी नज्म भी लाजबाब है बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना और एक भव्य प्रेम के विषय में पढना बहुत बहुत आभार हरकीरत जी

Naveen Mani Tripathi said...

'पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी; शिलोंग की ओर से आपके लिए सम्मान घोषित हुआ इसके लिए हृदय से आपको कोटिश : बधाई देता हूँ ......अच्छी पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार हीर जी |

Kavita Rawat said...

bahut hi sundar kshano ko sahej kar sundar dhang se hamare saath share karne ke liye dhanyavad...

div said...

माफ़ी चाहूंगी आप के ब्लॉग मे आप की रचनाओ के लिए नहीं अपने लिए सहयोग के लिए आई हूँ | मैं जागरण जगंशन मे लिखती हूँ | वहाँ से किसी ने मेरी रचना चुरा के अपने ब्लॉग मे पोस्ट किया है और वहाँ आप का कमेन्ट भी पढ़ा |मैंने उन महाशय के ब्लॉग मे कमेन्ट तो किया है मगर वो जब चोरी कर सकते है तो कमेन्ट को भी डिलीट कर सकते है |मेरा मकसद सिर्फ उस चोर के चेहरे से नकाब उठाने का है | आप से सहयोग की उम्मीद है | लिंक दे रही हूँ अपना भी और उन चोर महाशय का भी
http://div81.jagranjunction.com/author/div81/page/4/


http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.in/2011/03/blog-post_557.html

हरकीरत ' हीर' said...

दिव्या जी ,
कतई यह बात निंदनीय है ...
आप अपने ब्लॉग पे एक पोस्ट लिख कर लगा दें और उस महाशय का नाम पता और चित्र भी लगा दें ...
फिर लोगों से अपनी प्रतिक्रिया मांगें ....

Asha Joglekar said...

इमरोज की कलम में जिंदा है अमृता की कविता ।
फिर से कहूंगी आप भाग्यशाली हैं कि इमरोज जी को आपने जाना इतने नजदीक से ।

Naveen Mani Tripathi said...

heer ji gajab ki prastuti ....apko sadar badhai.

Rakesh Kumar said...

आप मेरे ब्लॉग पर अ

Rakesh Kumar said...

आप मेरे ब्लॉग पर आतीं है,
बहुत अच्छा लगता है मुझे.

समय मिलने पर मेरी नई पोस्ट
पर आईएगा.

Sonroopa Vishal said...

आपके साथ हम भी इमरोज अमृता की बेहद खूबसूरत और पाक मुहब्बत से बाबस्ता हुए ............आभार !

mridula pradhan said...

bahot sunderta ke saath aapne itna kuch bata diya....achcha laga.

Kailash Sharma said...

लाज़वाब प्रस्तुति...

प्रेम सरोवर said...

बहुत ही मार्मिक एवं सारगर्भित प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपके एक-एक शब्द मेरा मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ नई उर्जा भी प्रदान करते हैं । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

Anju (Anu) Chaudhary said...

यहाँ तक आने में देर जरुर हुई ...पर आपके पास आना सुखद रहा ....अमृता जी और इमरोज जी आपकी लेखनी से पढ़ना ...मन भा गया ...आभार आपका ....
कुछ भाव सिर्फ लिखे जा सकते हैं ...उन्हें बयाँ करना उतना ही मुश्किल होता हैं ...

vijay kumar sappatti said...

इमरोज़ रोज नहीं बनते है जी . वो तो बस मोहब्बत के शीर्ष पर है . मेरा सलाम उन्हें भी , उनकी मोहब्बत को भी और आपको भी .

कविता रावत said...

bahut sundar aalekh ke saath sundar rachnayen prastuti ke liye aabhar!

मेरा मन पंछी सा said...

बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन बात कही है आपने..
अमृता और इमरोज जी के बारे में बहुत ही अच्छी बाते batayi है.....
आपके नज्म भी बहुत ही सुन्दर है...
सुन्दर:-)

ਦਰਸ਼ਨ ਦਰਵੇਸ਼ said...

आपने ये ऐसा न भुलाने वाला लेख का अंछ लिखा है के दिल करता है इस को बार बार पढता रहूँ , मुझे ये कहने में भी कोई झिझक नहीं होनी चाहिए के अमृता जी के जाने के बाद या उनके होते हुए भी किसी पंजाबी लेखक ने भी ऐसा वृत चित्र लिखने की सोची भी नहीं[ मेरे याद है के उनका घर गिरा देने के बाद जब मैंने फेस बुक पर इस कोझी हरकत के बारे में लिखा था तो ८-१० लोगों के इलावा किसी ने भी इस हरकत को नाकारा नहीं था और उन में भी लेखक तो २-३ ही थे [

Anonymous said...

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