हाल ही में विमोचित मेरी पुस्तक ‘दर्द की महक’ के फ़्लैप (Blurb) पर प्रकाशित प्रसिद्ध समीक्षक श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ का समीक्षात्मक अभिमत कुछ यूँ रखे हैं ....
दर्द की एक दौलतमंद कवयित्री....
प्रेम की तृष्णा, उपेक्षा, एकाकीपन-जनित नैराश्य, संघर्ष का सातत्य, टूटन, बिखराव, दर्द, आँसू, आहें, कराहें- ये सब ब्लॉग-जगत की सुपरिचित कवयित्री हरकीरत ‘हीर’ के काव्योत्पाद के आधारभूत अवयव हैं। वस्तुतः वे ‘दर्द’ की एक दौलतमंद कवयित्री हैं; दर्द जैसे बरस पड़ा हो, काग़ज़ पर! उनके दर्द की यह बरसात शब्द-देह धारणकर कभी नज़्म, तो कभी क्षणिका बन जाती है...जिनसे गुज़रना आँसुओं के काव्यानुवाद से गुज़रना है। साथ ही, सिसकियों के समूचे समुच्चय का श्रवण-साक्षी बनना भी। रचनान्त में पाठक के मुँह से पीड़ा की सघनानुभूति से सनी एक गहरी ‘आह’ निकल पड़ती है! तदनन्तर वह महसूस करने लगता है- ‘कोई शीशा कहीं गहरे में टूटा है...!’
यहाँ प्रसंगतः पी.बी. शेली याद आ जाते हैं- ‘...अवर स्वीटेस्ट सॉन्ग्ज़ आर दोज़, दैट टेल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट।’ कवयित्री के पीराक्रान्त हृदय की यह अभिव्यक्ति किसी को मिठास-युक्त लगेगी, तो किसी को नैराश्य-युक्त! बहरहाल हरकीरत के लिए तो यह पीर-पगी काव्याभिव्यक्ति कुछ पल की राहत का साधन है...‘पीर का निकासमार्ग’ है। दूसरे शब्दों में कहें... तो कविता, कवयित्री के अश्रुस्नात ‘दर्द’ की एकल ग्राहक है, जिसकी सन्निधि में वह स्वयं को हल्का कर लेती है। बक़ौल हरकीरत, ‘इस बदलते वक़्त में हर चीज़ बिकती है...बस दर्द नहीं बिकता!’ ऐसे में कविता अपने ममतामयी आँचल में कवयित्री की आँख से झरते अश्रुकणों को थाम लेती है। स्त्री-विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर उसके अश्रुकण नारी-वर्ग की प्रतिनिधिक व्यथा-कथा भी लिखते नज़र आने लगते हैं, जिसमें शोषण-उत्पीड़न, आकांक्षाओं का दमन और इतस्ततः विद्रोही तेवर भी साफ़ झलकते हैं।
सारतः अगर जीवन में ‘दर्द’ है, तो फिर कितना भी ‘दमन’ किया जाय... उसे कितना भी छिपाया जाय, अन्ततः उसकी ‘महक’ फ़िज़ाओं में आ ही जाती है। हरकीरत हीर के पुर-अश्क ‘दर्द की महक’ नज़्मों के एक ख़ूबसूरत गुलदस्ते के रूप में संग्रहीत होकर पाठकों के बीच यथोचित समादर पायेगी, इसी आदमक़द शुभकामना के साथ....
-जितेन्द्र ‘जौहर’
(समीक्षक/स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’)
पत्राचार : आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र-18 (उप्र)
कार्यस्थल : अंग्रेज़ी विभाग, ए.बी.आई. कॉलेज।
मोबाइल : +91 9450320472
समीक्षक एवं स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’
(त्रैमा. ‘अभिनव प्रयास’, अलीगढ़, उप्र)
(संपा. सलाहकार: त्रैमा. ‘प्रेरणा’, शाहजहाँपुर, उप्र)
(संपा. सलाहकार: ‘साहित्य-ऋचा’, ग़ाज़ियाबाद, उप्र)
(अतिथि संपा: त्रैमा. ‘सरस्वती सुमन’/मुक्तक विशेषांक, देहरादून)
(अतिथि संपादक: ‘आकार’/मुक्तक विशेषांक, मुरादाबाद, उप्र)
34 comments:
आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप है यह. सुन्दर.
यर्थाथ, सादर।
harkeerat ji, main ye kitaab khareedna chaahti hoon. marg-darshan karen.
बहुत सुन्दर और संवेदनशील समीक्षा है....
बिना भावनाओं के..सम्वेद्नाओं के, आपको कोई परिभाषित करे भी तो कैसे....
स्नेह और आदर सहित...
वंदना जी आप पहली महिला हैं जिसने पुस्तक खरीदने की इच्छा जाहिर की ....शुक्रिया ...
मुझ तक भी अभी तक नहीं पहुंची ....पुस्तक मेले में ये बिक रही थी ....
अब तो प्रकाशक शैलेश जी (हिंद -युग्म) से ही ये पुस्तक ली जा सकती है
आप शैलेश जी से फोन पर बात कर सकती हैं ...या फिर 'हिंद-युग्म ' पर जाकर भी अपनी बात कह सकती हैं ...
शैलेश भारतवासी जी का न .....
09873734046, 09911692735
शुक्र है की ये पोस्ट आप सब को दिखाई दे रही है .....
वर्ना नीचे की पोस्ट जिसमें मैंने विमोचन की तस्वीरें डाल रखी हैं ब्लॉग पे दिखाई नहीं दे रही थी .....
जितेंद्र जौहर साहब ने बिलकुल सही टिपण्णी की है.
हीरे की परख जौहरी को ही होती है
अच्छी और सच्ची समीक्षा
अब मेर सवाल भी वही है जो वंदना का है कि कैसे मिलेगी किताब ??
@ इस्मत ज़ैदी said...
अब मेर सवाल भी वही है जो वंदना का है कि कैसे मिलेगी किताब...?
जैदी साहिबां आपने ऊपर मेरा कमेन्ट नहीं पढ़ा शायद ...
मैंने प्रकाशक शैलेश जी का न दे रखा है आप पुस्तक के लिए उनसे संपर्क कर सकती हैं ....
waise किताबों को ऑनलाइन बेचने वाली कंपनी प्लिपकार्ट की वेबसाइट पर विक्रय के लिए yah पुस्तक उपलब्ध करा दी गयी हैं। uska pta है ....
http://www.flipkart.com/author/harkeerat-heer
यथार्थ अभिमत ....
जौहर जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में पुस्तक की भूमिका लिखी है .
दर्द की महक हीर जी के लफ़्ज़ों से ही आ सकती थी . दर्द के अहसास को इतने खूबसूरत अंदाज़ में लिखती हैं की बार बार पढने का मन करता है .
इंतजार तो हमें भी है पुस्तक को पढने का .
पिछली पोस्ट अब दिखाई दे रही है .
"दर्द की महक " कस्तूरी सी हो . जोहरी के अभिमत से सहमत . फ्लिप्कार्ट को अभी बोलते है .
सटीक समीक्षा ... आपकी नज्मों का दर्द अक्सर दूसरों के सीने मैं अपने आप ही उतर जाता है ...
ऐ लो जी . हमारी टिप्पणी गई स्पैम के अन्दर .
हुण कड्डो जी .
bhaut achcha laga......mubarak ho aapko.
सटीक समीक्षा…………बधाई।
"दर्द की महक " सब महसूस करें पर एक सुकून के झोंके की तरह ....
शुभकामनाएँ!
मुबारक हो!
पीड़ा सृजन का बड़ा आधार रहा है..हरकीरत जी के लेखन में यह आधार नित बल पाता है..
जी ...सच भी यही है..... अच्छा लगा पढ़कर
बधाई हीर जी.. बिल्कुल सटीक समीक्षा है। मैंने आपकी किताब तो नहीं देखी.. लेकिन ब्लॉग पर जितना पढ़ा है, उन में भी 'दर्द की महक' है।
thanks harkeerat ji.main aaj hee shailesh ji se baat karti hoon. no. save kar liya hai maine. harkeerat ji meri dili ichchha rahti hai ki hmare beech se jis kee bhi pustak prakaashit ho, vo mere paas ho, aur main use khareed ke hee padhoon. maan badhaane ke liye shukriya :)
जी हरकीरत जी मैं ने कमेंट करने के बाद आप का जवाब पढ़ा जो वंदना के लिये लिखा गया था :)
बहर हाल बहुत बहुत शुक्रिया नं. और पते के लिये
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
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यथा सृजन तथा समीक्षा
आदरणीया हरकीरत 'हीर' जी की भावप्रवण रचनाओं पर जब से मैंने ग़ौर करना शुरू किया , तब से मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं ।
शुरूआत में जब आपकी रचनाओं ने एक-दो बार हृदय में हलचल का एहसास कराया तो आपके ब्लॉग की पुरानी पोस्ट्स सहित कविताकोश पर आपकी कविताओं को खंगाला ।
… नतीज़े में पलकों पर नमी और कई दिन तक दिल में गहन उदासी का तोहफ़ा पाया ।
आपकी रचनाओं के दर्द की महक मेरी रूह में जज़्ब हो गई …
अवश्य ही हीर जी के पाठकों को हीर जी को समर्पित मेरी इस ग़ज़ल की स्मृति होगी …
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दर्द भरी सरगम हरकीरत
लौ जलती मद्धम हरकीरत
क्यों पलकें हैं नम हरकीरत
बदलेगा मौसम हरकीरत
दिल पर अपने पत्थर रखले
पत्थर मीत – सनम हरकीरत
अश्क़ तेरे पी’ भीगा सहरा
सुलग उठी शबनम हरकीरत
हर इक शय यूं कब होती है
बेग़ैरत – बेदम हरकीरत
रब की दुनिया में तेरा भी
है हमग़म – हमदम हरकीरत
बेशक , चोट लगी है तुमको
तड़प रहे हैं हम हरकीरत
ज़ख़्म तेरे लूं पलकों पर , दूं
अश्कों का मरहम हरकीरत
इंसां ही बांटे इंसां के
दर्द मुसीबत ग़म , हरकीरत
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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पुस्तक प्रकाशन पर पुनः हार्दिक बधाई !
हार्दिक शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुंदर समीक्षा।
सुन्दर, सामयिक और सार्थक पोस्ट, आभार.
हरकीरत जी , आज पहली बार आपके ब्लॉग पे आया. काफी साडी क्षणिकाएं पढ़ी.
काफी दर्द बिखरा मिला मगर जिन्दगी से लड़ने के होसले भी कम न थे . बहुत
अच्छा लिखा है .
बहुत ढूंढा ....
कई बंद दरवाजे खटखटाए
झाड़ियों के पीछे ...
बाज़ारों में , दुकानों में ...
मेले में ....
उस मोंल में भी
जो अभी-अभी .....
चिड़िया घर के सामने खुला है
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आपको बहुत-बहुत बधाई ... जितेन्द्र जौहर जी का आभार ।
आपकी रचनाओं की प्रभावोत्पादकता के तो हम कायल हैं ही, जौहर जी ने जैसे समीक्षा की है, निःशब्द ही कर दिया..
अति सार्थक सटीक व मोहक समीक्षा की है उन्होंने..साधुवाद है उनका..
और हाँ, आपको ढेरों बधाइयाँ पुस्तक के लिए..
शुभकामनाये.... जीतेन्द्र जौहर जी ने बहुत ही अच्छी समीक्षा की है...
mubarak ho harkeerat
badhaiya bahut sari madam ji !!
हरकीरत जी,
धन्यवाद कि आपने अपनी पुस्तक के फ़्लैप पर दर्ज मेरे अल्फ़ाज का उपयोग इस ब्लॉग पर भी कर लिया...!
सभी शुभचिंतकों/मित्रों का आभारी हूँ...यहाँ सराहना-भरे शब्द पढ़कर लग रहा है कि मेरा श्रम सार्थक हुआ...!
आपकी पुस्तक मेरे हाथों में है। सदाशयता के लिए आभार...! शैलेश भारतवासी की मेहनत और सोच उनकी प्रस्तुति-शैली से साफ़ झलक रही है। बहुत कम प्रकाशक ऐसा सुन्दर गेट-अप दे पाते हैं...!
हरकीरत जी,
धन्यवाद कि आपने अपनी पुस्तक के फ़्लैप पर दर्ज मेरे अल्फ़ाज का उपयोग इस ब्लॉग पर भी कर लिया...!
सभी शुभचिंतकों/मित्रों का आभारी हूँ...यहाँ सराहना-भरे शब्द पढ़कर लग रहा है कि मेरा श्रम सार्थक हुआ...!
आपकी पुस्तक मेरे हाथों में है। सदाशयता के लिए आभार...! शैलेश भारतवासी की मेहनत और सोच उनकी प्रस्तुति-शैली से साफ़ झलक रही है। बहुत कम प्रकाशक ऐसा सुन्दर गेट-अप दे पाते हैं...!
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