मुरझाये फूल .....
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कभी चाहतों के धागे से
लिखा था मुहब्बत का पहला गीत
इक हर्फ़ बदन से झड़ता
और इश्क़ की महक फ़ैल जाती हवाओं में
देह की इक-इक सतर गाने लगती
रंगों के मेले लगते
बादलों की दुनियाँ बारिशों के संग गुनगुनाने लगती
आस्मां दोनों हाथों से
आलिंगन में भर लेता धरती को …
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कभी चाहतों के धागे से
लिखा था मुहब्बत का पहला गीत
इक हर्फ़ बदन से झड़ता
और इश्क़ की महक फ़ैल जाती हवाओं में
देह की इक-इक सतर गाने लगती
रंगों के मेले लगते
बादलों की दुनियाँ बारिशों के संग गुनगुनाने लगती
आस्मां दोनों हाथों से
आलिंगन में भर लेता धरती को …
कभी उम्र के महल में
हुस्नों के दीये जलते थे
रात भर जागती रहती आँखों की मुस्कराहट
शहद सा भर जाता होठों में
इक नाजुक सा दिल
छुपा लेता हजारों इश्क़ के किस्से करवटों में
रात घूँट -घूँट पीती रहती
इश्क़ का जाम ....
आज बरसों बाद
दर्द का एक कटोरा उठाकर पीती हूँ
रूह के पानी से आटा गूँधती हूँ
ग़म की आँच पर सेंकने लगती हूँ
अनचाहे रिश्तों की रोटियाँ
और उम्र के आसमान पर उगते सफेद बादलों में
ढूंढने लगती हूँ टूटे अक्षरों की कोई मज़ार
जहाँ रख सकूँ बरसों पहले मर गए
देह के खुशनुमा अक्षरों के
मुरझाये फूल …
हीर ……
हुस्नों के दीये जलते थे
रात भर जागती रहती आँखों की मुस्कराहट
शहद सा भर जाता होठों में
इक नाजुक सा दिल
छुपा लेता हजारों इश्क़ के किस्से करवटों में
रात घूँट -घूँट पीती रहती
इश्क़ का जाम ....
आज बरसों बाद
दर्द का एक कटोरा उठाकर पीती हूँ
रूह के पानी से आटा गूँधती हूँ
ग़म की आँच पर सेंकने लगती हूँ
अनचाहे रिश्तों की रोटियाँ
और उम्र के आसमान पर उगते सफेद बादलों में
ढूंढने लगती हूँ टूटे अक्षरों की कोई मज़ार
जहाँ रख सकूँ बरसों पहले मर गए
देह के खुशनुमा अक्षरों के
मुरझाये फूल …
हीर ……
16 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (04-06-2015) को "हम भारतीयों का डी एन ए - दिल का अजीब रिश्ता" (चर्चा अंक-1996) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह!
बहुत दिनों के बाद ।
एक लाजवाब रचना ।
वक्त गुजर ही जाता है ! वक्त को रोक लो ...
वही चिर परिचित अंदाज़ ! ब्लॉगिंग के पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गई !
समय बीत जायेगा, मन न बीतेगा।
बहुत ख़ूब! लाजवाब नज़्म, हमेशा की तरह...
अरसे बाद आपको यहाँ पढना अच्छा लगा, इस बीच कई चक्कर लगाये... कभी मेरे ब्लॉग पर भी आयें और मेरा मार्गदर्शन करें.
बहुत खूब !!! दर्द पर बहुत खूब लिखती हैं आप ... बहुत दिनों के बाद फिर से पढना अच्छा लगा।
बहुत खूब !!! दर्द पर बहुत खूब लिखती हैं आप ... बहुत दिनों के बाद फिर से पढना अच्छा लगा।
लाजवाब
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
क्या खूबसूरती है,क्या दर्द है सब कुछ लाजवाब
सुन्दरपंक्तियाँ
इक हर्फ़ बदन से झड़ता
और इश्क़ की महक फ़ैल जाती हवाओं में
देह की इक-इक सतर गाने लगती
रंगों के मेले लगते
बादलों की दुनियाँ बारिशों के संग गुनगुनाने लगती
आस्मां दोनों हाथों से
आलिंगन में भर लेता धरती को …
वाह ये भाव सुंदर लगे वैसे दर्द में आपकी महारत है ही।
अच्छी अभिव्यक्ति
bahut khubsurat ...Harkeerat ji
इक हर्फ़ बदन से झड़ता
और इश्क़ की महक फ़ैल जाती हवाओं में
देह की इक-इक सतर गाने लगती
रंगों के मेले लगते
बादलों की दुनियाँ बारिशों के संग गुनगुनाने लगती
आस्मां दोनों हाथों से
आलिंगन में भर लेता धरती को ....
बहुत सुन्दर चित्र उकेरा है आपने .... मुहब्बत का नाजुक सा उफान !
आपके लिखे को पढ़ बस आह सी निकल जाती है .
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