Friday, July 16, 2010

आग की लपटों में जलते रिश्ते........

पिछले दिनों ''हम सब साथ-साथ '' पत्रिका के संपादक किशोर श्रीवास्तव जी का sms आया ... जुलाई-अगस्त अंक के लिए रिश्ते -नातों पर केन्द्रिक रचनायें चाहिए ....उन्हीं दिनों ये नज़्म उतरी थी ....''आग की लपटों में जलते रिश्ते ''.....कुछ ऐसे वाकये आये दिन अख़बारों की सुर्खियाँ होते हैं जिन्हें पढ़ कर मन भीतर तक दहल जाता है ....ये रिश्ते सिर्फ खंडहर ही नहीं होते .....बल्कि अमानवीयता की आग में जलकर राख़ हो जाते हैं ..
...और हम सब दर्शक से ....मूक देखते रहते हैं सात जन्मों तक साथ निभाने वाले रिश्तों को ...चंद दिनों में दम तोड़ते हुए .....आग की लपटों में स्वाहा होते हुए ......
किशोर जी से मेरा परिचय पिछले वर्ष शिलोंग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में हुआ था .....बहुत ही हसमुख और मिलनसार ....दो दिन के कार्यक्रम के बाद जब हम तीसरे दिन चेरापूंजी पर्यटन के लिए गए.... किशोर की ने अपने गीतों और चुटकुलों से यात्रा को रोमांचमय बना दिया ...बीच-बीच में वे मुझे टोक देते ....हरकीरत जी सिर्फ मुस्कुरा भर देती हैं कुछ सुनाइए भी .....वे बहुत अच्छे कार्टूनिस्ट भी हैं ......
तो लीजिये पेश है उनके द्वारा मेल से भेजी मेरी रचना की स्केड प्रति ......


वह अंगुली पर थूक लगा
ज़िन्दगी के सारे पन्ने
एक ही बार पलट देती ...
कहानी शायद प्रेम के
उस छ्द्दमवेश से शुरू हुई थी
जहाँ सुब्ह की सडांध
और रात की दुर्गन्ध
धुआँ-धुआँ होते रिश्तों को
निर्ममता से क़त्ल कर
प्रतिवाद में खड़ी थी ........

एक सूखे उजाड़
क्वाटर की खिड़की से
वह अक्सर सामने के बगीचे को
एक तक निहारा करती .....

मेरी स्मृति में
आग की उलटी-सीधी लपटें
रिश्तों को धू-धू कर जलाने लगीं हैं
और चिंगारियों में ......
इक बेबस चीत्कार है .......

मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....

आज फिर
आसमां से इक
आग का गोला गिरा है
और डाल गया है
कई छाले मेरे ज़िस्म पर .....

पैरों के नीचे रिश्ते
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं
कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं
कोई गिद्ध नोच खाती है
देह से मांस मेरा .....

इक तेल का कनस्तर
चीखों के साथ लगाता है
मृत्यु पर ठहाके .....
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हें तालियाँ ....

और मैं .....
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को
देख रही हूँ....
जिनकी आत्माएँ कबकी
मर चुकी हैं .......!!

कृपया नज़्म को बड़ी करने के लिए तस्वीर पर दो बार क्लिक करें ......

इस नज़्म को आप मेरी आवाज़ में भी सुन सकते हें ....यहाँ........

74 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

कृपया नज़्म को बड़ी करने के लिए तस्वीर के ऊपर दो बार क्लिक कर लें ......!!

vandana gupta said...

जिनकी आत्मायें मर चुकी होती हैं उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है………………एक भयानक त्रासदी का सटीक चित्रण्………॥

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

रचना प्रकाशन पर बधाई

ढेर सारी शुभकामनाएं।

Avinash Chandra said...

bahut badhiya lagi
Badhai ho
Jyada saaf nahi dikh rahi waise...par thodi mehna t ke baad kaam chal jata hai..
aur mehnat safal hoti hai :)

Parul kanani said...

ye panktiyaan jindagi ka aaina hai!
jismein har kisi ka aks hai!!
aapko shubhkaamneyan!!

रवि धवन said...

ये मात्र एक रचना नहीं...समाज की सच्चाई प्रस्तुत की है आपने।

नीरज गोस्वामी said...

दो बार क्लिक करने पर भी बड़ी मुश्किल से पढ़ पाए..लेकिन पढ़ कर पढने में की गयी महनत का प्रसाद मिल गया...अद्भुत रचना है...बधाई..
नीरज

Udan Tashtari said...

मरी हुई आत्माएँ..बहुत शानदार रचना..

सोचने को विवश करती.

बहुत बधाई...

समयचक्र said...

सटीक प्रस्तुति.... पढ़वाने के लिए शुर्क्रिया ....

Vinay said...

वाह कितनी खूबसूरत रचना है

shikha varshney said...

रचना साफ़ नहीं देख रही ..पर प्रकाशन पर ढेरों शुभकामनायें.

Alpana Verma said...

बहुत अच्छी नज्म लिखी है .
चित्र को सेव कर के पढ़ी गयी है.अन्यथा अक्षर साफ़ नहीं दिखाई दे रहे.पत्रिका में प्रकाशन पर बधाईयाँ .

देवेन्द्र पाण्डेय said...

किंकर्तव्यविमूढता की स्थिति भी आग की लपटों में जलने के समान ही होती है.
..बेहतरीन नज्म.

डॉ टी एस दराल said...

आह ! फिर इक दर्द सा उठा है
फिर किसी ने जख्म कुरेदे हैं ।

मानवीय पीड़ा को अभिव्यक्त करने में आपका ज़वाब नहीं ।
बहुत दर्दनात्मक सच को दर्शाती रचना ।

रश्मि प्रभा... said...

bahut bahut badhaai

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

आपको बहुत बहुत बधाई... मैं अब थोडा फ्री हो गया हूँ... अबसे रेगुलरली आऊंगा,..... उम्मीद करता हूँ कि आप ठीक होंगी...

rashmi ravija said...

प्रकाशन की बधाई...रचना बड़ी मुश्किल से पढ़ पायी...बिलकुल सटीक रचना

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत वेदना से भरी रचना ...........सच्चाई बयां करती......

राज भाटिय़ा said...

पधने मै बहुत कठिनाई होती है, लेकिन बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना.कृप्या लेख का रंग बदल दे ओर फ़ंट थोडे बडे कर दे तो आप की मेहरबानी होगी.
धन्यवाद... अरे बधाई तो ले ले...आप को बहुत बहुत बधाई प्रकाशन पर जी

हरकीरत ' हीर' said...

राज़ जी ,

इसके फॉण्ट तो बड़े नहीं हो सकते ...कहें तो दोबारा फिर लिख दूँ .....?
वैसे कठिनाई से ही सही पढ़ तो हो जाती है .....!!

और रही प्रकाशन की बात तो कई रचनायें प्रकाशित होती रहती हैं ....ये इसलिए छापी की किशोर जी ने ऐसे ही मुझे मेल कर दी थी .....सोचा उनका भी मान रह जायेगा .....!!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर रचना. मगर मैने तो ठीक से पढी. कई बार क्लिक करने से फ़ॉन्ट भी बड़े हो गये.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत मार्मिक.....पढ़ कर मन सिहर उठा.....

वाणी गीत said...

किंकर्तव्यविमूढ़-सा ही रह जाना पड़ता है कई बार ...
आज की नज़्म /कविता में कुछ अलग सा रंग है ...प्रेम से जुदा ...जिंदगी की कडवी हकीकत के करीब ...!

राजकुमार सोनी said...

अक्सर होता यही है कि हम लोग भीड़ से उम्मीद लगा लेते हैं.
सच तो यह है कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता
और विवेक तो होता ही नहीं है
बेहतर रचना

और हां... रचना को पढ़कर टिप्पणी कर रहा हूं

हा.. हा.. हा...

इस्मत ज़ैदी said...

दिल ओ दिमाग़ को झिंझोड़ती हुई रचना
बहुत कुछ सोचने को विवश करती है ,
आप की नज़्में मन को स्पर्श करती हैं
बधाई

सदा said...

पैरों के नीचे रिश्‍ते,
सूखे पत्‍ते से कसमसाने लगे हैं,

गहराई लिये हुये हर शब्‍द, बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

स्वप्निल तिवारी said...

इक तेल का कनस्तर
चीखों के साथ लगाता है
मृत्यु पर ठहाके .....
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हैं ताली ....



is hisse ki pratikatmkta ne rongte khade kar diye ...zabardast lagi kavita aap ki ..

Anonymous said...

बढिया रचना!

Satya Vyas said...

udwelit kartee rachnaa

दिगम्बर नासवा said...

मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....

Rishte jahaan mahakti hava ka jhonka hain vaheen jahreele kaanton ki tarah jism mein gadi keelen bhi hain jo hamesha sard deti hain ...

Rachna rishton ke maayne khojti hai ...

Shabad shabad said...

खूबसूरत रचना...
प्रकाशन पर आप को बहुत बहुत बधाई....

Dr.Ajmal Khan said...

बेहतरीन,संजीदा नज्म..
इसके प्रकाशन पर बधाई क़ुबूल किजिये.

हरकीरत ' हीर' said...

@ वाणी गीत said...

किंकर्तव्यविमूढ़-सा ही रह जाना पड़ता है कई बार ...
आज की नज़्म /कविता में कुछ अलग सा रंग है ...प्रेम से जुदा ...जिंदगी की कडवी हकीकत के करीब ...!

वाणी जी ,
इस तरह की रचनायें अधिकतर पत्रिकाओं के लिए ही लिखती हूँ ........
ब्लॉग में नहीं डालती अक्सर .....आज डाल दी .....!!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

हरकीरत जी...
आपके पास अमूल्य शब्दों का भंडार है.
रचना गहरा असर छोड़ने में सफल है.

Deepak Shukla said...

Hi..

Nazmön ko teri jab bhi..
Padhte hain hum kabhi jo..
Ek dard aisa uthata..
Bheencha kisi ne dil ko..
Ek aag si utarti..,
seene main jaati jalti..
Ankhon main dard dekar..
Man bhav-vihal karti..

Bahut dard bhari rachna..hamesha ki tarah..

Deepak

Avinash Chandra said...

माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हैं ताली ....


in baignee rango ka jaadoo virla hai...inhe padhne fir fir aana padta hai.

dekha is baar aapne type bhi kar diya.

aisa likhne ka shukriya

Razi Shahab said...

behtareen

Anonymous said...

"और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!"

आज संवेदनशील की होने की शायद नियति है
आभार

Neelam said...

और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!"
harkeerat jee..behadd marmik rachna..yahi samaaj ki sachhai hai. aur aapne ise bakhubi ujaagar kiya hai apne shabdon se.
badhai sweekar karen.

Neelam said...

और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!"
harkeerat jee..behadd marmik rachna..yahi samaaj ki sachhai hai. aur aapne ise bakhubi ujaagar kiya hai apne shabdon se.
badhai sweekar karen.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

हरकीरतजी
आदाब !
नमस्कार !!
सतश्रीअकाल !!!
प्रथमतः हार्दिक बधाई …
एक और विलक्षण काव्य रचना के लिए ।
…और , मैं बधाई देना चाहूंगा
हम सब साथ साथ पत्रिका के संपादकजी को !
हीरजी की रचना
किसी ब्लॉग पर ,
किसी पत्रिका ,
किसी संकलन में सम्मिलित है
तो उनके लिए भी गर्व और सम्मान की बात है ।
…पूरी रचना आद्योपांत हरकीरतजी की पहचान स्वयं है ।

और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!


साधु साधु !
अस्सीम शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

mai... ratnakar said...

bahoot khoob, maree huee aatmaon ke daur men halat ka behatareen aur sajeev chitran kiya hai aapne.

चैन सिंह शेखावत said...

शुभम....

मार्मिकता की हद है यह तो॥

प्रस्तुत बिम्ब कितनी सजगता से उकेरे गए हैं...सुंदर

एक ह्रदय-स्पर्शी रचना के लिये बधाई....

Rohit Singh said...

आप को दूसरा अमुता प्रीतम कहना शुरु करना पड़ेगा। हर शब्द को दर्द से पिरो कर निकालती हैं। शब्दों से मर्म पर चोट करती हैं। पर रिश्ते नाते, भावनाओं को जो लोग नहीं समझते उनका क्या करें। न ही कभी समझे हैं वो लोग। न ही समझेंगे।

प्रतुल वशिष्ठ said...

सुबह की सडांध / और रात की दुर्गन्ध / धुआँ-धुआँ होते रिश्तों को / निर्ममता से क़त्ल कर / प्रतिवाद में खड़ी थी ........ एक सूखे उजाड़ / क्वाटर की खिड़की से / .... ...... पैरों के नीचे रिश्ते / सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं / कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं / कोई गिद्ध नोच खाती है / देह से मांस मेरा ..... इक तेल का कनस्तर / चीखों के साथ लगाता है / मृत्यु पर ठहाके ..... माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग / खिलखिलाकर बजाते हैं ताली ....
@ कमाल के बिम्ब. इन बिम्बों से एक अजीब से बीभत्स दृश्य को उकेर दिया है आपने, चित्रकारों, कार्टूनिस्टों को ही ये चित्रात्मकता नहीं भायेगी बल्कि प्रत्येक कल्पनाशील को आनंदित करेगी. यह कविता वीभत्स का अच्छा उदाहरण मानी जायेगी. हिंदी साहित्य में इस रस के अपेक्षाकृत कम उदाहरण हैं.

प्रतुल वशिष्ठ said...
This comment has been removed by the author.
manu said...

भावपूर्ण रचना ..

manu said...

कार्टून भी अच्छा बन पडा है...

रजनीश 'साहिल said...

Behtareen.... jabardast..... iske siway aur kuchh kahna muhal hai. badhai.

शोभना चौरे said...

पैरों के नीचे रिश्ते
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं
कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं
कोई गिद्ध नोच खाती है
देह से मांस मेरा .....
aaj ke rishto ki sahi vykhaya .
mnko udvelitkarti hue rachna

शरद कोकास said...

सचमुच अच्छी रचना है , अच्छा लगा इस पढ़कर

Science Bloggers Association said...

रिश्तों की आग को आपने बहुत करीब से महसूस किया है।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?

रचना दीक्षित said...

बहुत गहरे अहसास, लाजवाब!!! मार्मिक कविता. पर सत्य आज के समय का

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) said...

बहुत खुबसूरत रचना ||
लाजवाब प्रस्तुती ........

सुधीर राघव said...

sann kar dene vali kavit, sochane ko majboor karti hai.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

दिन-ब-दिन बढ़ती गईं, उस हुस्न की रानाइयां
पहले गुल, फिर गुलबदन, फिर गुलबदाना हो गए

… … … … …
हीरजी !
क्या बात है !
पहले रचना की स्केड प्रति लगाना …
फिर , दोबारा लिखने की तक़्लीफ़ करना …
और ,
अब नज़्म को आपकी ख़ूबसूरत आवाज़ में भी सुनने का अवसर देना …
शुक्रिया !

लब ख़ामोश होना चाहते हैं ,
क्योंकि कान और दिल मुसलसल मशरूफ़ होना चाहते हैं ,
कुछ हसीन दर्द भरे एहसास के लिए …

कथ्य पढ़ूं , भाव चुनूं !
कुछ उधेड़ूं … कुछ बुनूं !
शब्दों की पीर गुनूं …!
अब स्वर का दर्द सुनूं !!

… … … … …
… … … … …
… … … … …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

ज्योति सिंह said...

एक सूखे उजाड़
क्वाटर की खिड़की से
वह अक्सर सामने के बगीचे को
एक तक निहारा करती .....

मेरी स्मृति में
आग की उलटी-सीधी लपटें
रिश्तों को धू-धू कर जलाने लगीं हैं
और चिंगारियों में ......
इक बेबस चीत्कार है .......
dil aur dimag pe gahri chhap chhod gayi ,aapki kalam ko salaam karti hoon .

Udan Tashtari said...

आपकी आवाज में सुनना अद्भुत रहा!!

Rohit Singh said...

आपने तारीफ कर दी मेट्रो कविता की। बल्ले बल्ले हो गई जी। हम भी अब अपने सीना ठोक के कवि कहेगे।

RAJ SINH said...

पहले ही कितना कह दिया है सबों ने .अब और क्या कहूं ?
बस यह कि...........कविता की अनुभूति को आपकी आवाज़ , उदास ही सही , एक ऐसी गहराई दे जाती है कि वह दर्द मन को , ' हीर ' की पीर से सीधे दिल तक उतर जाने का सीधा रास्ता बता देती है .

शब्द बिना सुर साजों के ही वेदना के स्वर में पीड़ा को श्रृंगार दे गए.
अनुपम प्रयोग ......शब्द और स्वर का .

विनोद कुमार पांडेय said...

मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....

जिंदगी,रिश्ते,प्रेम,नफ़रत हर बातों का बड़े ही सूक्ष्म लाइनों में पर प्रभावशाली वर्णन....हर एक नज़्म दिल को छू जाती है..
हरकिरत जी सुंदर रचना के लिए बधाई..

nilesh mathur said...

और मैं .....
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को
देख रही हूँ....
जिनकी आत्माएँ कबकी
मर चुकी हैं .......!!

बेहतरीन नज़्म है, बहुत मार्मिक!
बहुत दिनों से टूर पर था, इसलिए नहीं आ पाया था! माफ़ी!
हीर जी, मेरा बचपन तो राजस्थान में ही बीता है किस्मत यहाँ ले आई, बाकी विस्तार में कभी मिलने पर बताऊंगा!

विजयप्रकाश said...

बहुत खूब...स्वर और भावों का अनूठा संगम.
जितनी पीड़ा आपकी इस नज्म में है उसे आपने उतने ही भावपूर्ण स्वर में गाया भी है.

Akshitaa (Pakhi) said...

आपकी यह कविता तो मैंने भी देखी थी...बढ़िया है.
***********************

'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.

admin said...

ऐसे रिश्तों का तो शायद जल जाना ही बेहतर होता है।

डॉ टी एस दराल said...

आपकी आवाज़ सुनी ।
सुनते ही रह गए ।
बहुत मधुर है ये ।
नज़्म से मेल खाती ।
जाने क्यों पाकीज़ा की मीना कुमारी याद आ गई ।
अभी राजेंद्र जी का गीत सुनकर आ रहे हैं ।
आज तो डबल ट्रीट हो गई ।

Satish Saxena said...

पहली बार आपको सुना ...गज़ब की कशिश और बेहतरीन भाव हैं आपकी इस रचना में ! सादर

Satish Saxena said...

पहली बार आपको सुना ...गज़ब की कशिश और बेहतरीन भाव हैं आपकी इस रचना में ! सादर

अरुणेश मिश्र said...

त्रासदी का मर्मस्पर्शी चित्रण ।
प्रशंसनीय ।

Pawan Kumar said...

अच्छी रचना.....हीर जी ! रिश्ते नातों का मनोविज्ञान बहुत गहरे से समझती हैं आप !

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मर्मस्पर्शी कविता।
………….
ये ब्लॉगर हैं वीर साहसी, इनको मेरा प्रणाम

डॉ .अनुराग said...

सिर्फ आवाज में सुनने की खातिर आया था......निराश नहीं हुआ .....

Asha Lata Saxena said...

सुन्दर भाव लिए क्षणिका |बधाई
आशा

Rohit Singh said...

कितना बढ़िया लिखती हैं आप.....शब्द कहां कहां से निकल आते हैं जेहन से सही में.....आप शब्दों की चितेरी और दर्द की चितेरी हैं..