Friday, January 22, 2010

कुछ क्षणिकाएं ............

कुछ क्षणिकाएं ......

(१)
जहरीला धुंआ ...

नज्में भी चीखतीं हैं
अपने जिस्म की परछाई देख
कितना जहरीला था वो धुंआ
जो तुम उगलते रहे ....!!

(२)
फासलों की रातें....

देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही....

आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!

(३)
बदलती औरत ...


न हवा ने मिन्नतें की
न क़दमों पे गिरी
न की ख़ुदकुशी के लिए
की रस्सी की तलाश
बस चुपके से ....
कानून के आँखों की
बंधी पट्टी
खोल दी ...!!

(४)
मौत की मुस्कराहट ...


रात वह फिर आई ख़्वाब में
चुपके से रख गई
कुछ लफ्ज़ गई झोली में
मैंने देखा ....
मौत की मुस्कराहट
कितनी हँसी थी ...!!

(५)
तब तुझे मानूं....

कुछ परिंदे उड़ गए थे
कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी
इसमें रज़ा कोई
अय खुदा ...!
किसी दिन
ज़िस्म की कैद से भी
आज़ाद कर
तब तुझे मानूं....!!

(६)
ख़ामोशी ...

कपड़ों से
दाग धोते-धोते
उसकी ख्वाहिशें भी
सफ़ेद हो गई थीं
वह अब ...
लफ़्ज़ों से भी ज्यादा
खामोश रहने लगी है ..!!

(७)
खलिश....

यूँ करीब से
न गुजरा कर
अय सबा
तेरे क़दमों की
आहट भी
खलिश दे जाती है

कभी मुहब्बत ...
मेरे दर आई जो नहीं ...!!

88 comments:

Mahfooz Ali said...

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

बहुत सुंदर .... हर त्रिवेनियाँ अपने आप में सम्पूर्ण है....
--
www.lekhnee.blogspot.com


Regards...


Mahfooz..

शोभना चौरे said...

न हवा ने मिन्नतें की , न क़दमों पे गिरी
न ख़ुदकुशी के लिए की रस्सी की तलाश
कानून ने आँखों की पट्टी खोल दी ......
nishabd hoo is anupam rachna par

डॉ महेश सिन्हा said...

मुहब्बत कभी मेरे दर आई जो नहीं ......


खूब

विनोद कुमार पांडेय said...

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

हरकिरत जी हमेशा की तरह लाज़वाब..

सुंदर त्रिवेणियाँ...बधाई!!

अनिल कान्त : said...

इन त्रिवेणियों को पढ़कर मन प्रसन्न हो गया .

Apanatva said...

न हवा ने मिन्नतें की , न क़दमों पे गिरी
न ख़ुदकुशी के लिए की रस्सी की तलाश

कानून ने आँखों की पट्टी खोल दी ......
bahut sunder !
sabhee triveneeya pad kar gahraee ka aabhas hua.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

क्या टिप्पणी दूं . हमेशा की तरह शानदार रचनायें. मार्मिक संवेदनशील.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कुछ परिंदे उड़ गए थे कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी इसमें रज़ा कोई
लाजवाब त्रिवेणियां खुद ही अपने भाव बयां कर रही हैं, किसी तारीफ़ की मोहताज नहीं.

नीरज गोस्वामी said...

हरकीरत जी ये विधा मुझे ग़ज़ल लेखन से भी मुश्किल लगती है लेकिन आप ने किस सरलता से इस पर महारत हासिल कर ली है...हैरान हूँ...कभी आपसे सीखना पड़ेगा...अद्भुत त्रिवेनियाँ...
नीरज

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर आप की त्रिवेनियां, लगता है गम की धुंध छटंने लगी है

आनन्द वर्धन ओझा said...

हीरजी,
तीन वेणियों में गूंथी गई इक्कीसों पंक्तियाँ बेमिसाल हैं ! कफस से छूटे परिंदे की खुदा को मानने की शर्त तो हतप्रभ कर गई ! और ये--
'कपड़ों से दाग धोते -धोते अब
उसकी ख्वाहिशें भी सफ़ेद हो गई हैं

वह अब लफ़्ज़ों से भी ज्यादा खामोश रहने लगी है .....'
वाह ! क्या बात है !! अब लफ़्ज़ों से भी ज्यादा...
साभिवादन--आ.

RaniVishal said...

कुछ परिंदे उड़ गए थे कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी इसमें रज़ा कोई

किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं.....

Wah! kya baat hai, bada hi ruhani ahsaas hai....

Udan Tashtari said...

कुछ परिंदे उड़ गए थे कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी इसमें रज़ा कोई

किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं.....


--बहुत उम्दा त्रिवेणियाँ हैं. आनन्द आ गया.

shikha varshney said...

नज्में भी चीखतीं हैं देख
अपने ज़िस्म परछाई अब

कितना जहरीला था वह धूवाँ जो तुम उगलते रहे
wah ye sabse jyada pasand aai..vaise to sab lajabab hain.

योगेश स्वप्न said...

behatareen, 5, 6 ,7 no. wah wah wah.

ललित शर्मा said...

रात वह फिर आई चुपके से
कुछ लफ्ज़ डाल गई झोली में

मौत की मुस्कराहट भी कितनी हँसी होती है न .....?

वाह! हरकीरत जी, आपने तो हकीकत मे त्रिवेणी संगम पर गंगा जमना सरस्वती बहा रखी है। आभार

वाणी गीत said...

मौत की मुस्कराहट भी कितने हसीं होती है ना ....
किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं.....
बहुत मुश्किल है एहसासों का फना होना ...
लफ़्ज़ों में पिरो कर भी लफ़्ज़ों से ज्यादा खामोश ...
हमेशा की तरह बेहतरीन ...उम्दा ...बहुत खूब ....और क्या कहूँ ...!!

खुशदीप सहगल said...

वक्त इंसान पे ऐसा भी कभी आता है,
राह में साया भी छोड़ के चला जाता है,
दिन भी निकलेगा कभी,
तू रात के आने पर न जा.
दिल की आवाज़ भी सुन, मेरे तराने पे न जा,
मेरे ज़ख्मों की तरफ देख, मुस्कुराने पे न जा...

जय हिंद...

ताऊ रामपुरिया said...

सुंदरतम.

रामराम.

sangeeta swarup said...

आपकी सारी त्रिवेणियाँ एक से बढ़ कर एक हैं....और सबकी एक अलग व्यथा है....मन भीग गया....

रंजना [रंजू भाटिया] said...

अलग रंग अलग अंदाज़ हर लफ्ज़ का पर दिल के सब बहुत करीब ...बहुत सुन्दर बेहतरीन ..

गिरिजेश राव said...

आप की शायरी में जैसा रंग है वैसा कहीं नहीं।

ये बताइए क्या त्रिवेणी की तीनों पंक्तियाँ भी अलग अलग अपने आप में पूर्ण नहीं होनीं चाहिए? - यह एक नई विधा है, अधिक नहीं जानता इसलिए पूछ रहा हूँ। कोई और बात नहीं है।
हाइकू का विधान दिमाग में आ रहा है।

Ravi Rajbhar said...

Adbhut........
shabd nahi mere pass ...kuchh kahne ko.

"अर्श" said...

त्रिवेनियाँ कहना .... ब्लॉग जगत में कुछ लोग ही हैं मेरे पसंदीदा में और उनमे से एक आप भी हो ...
साri त्रिवेनियाँ कमाल की ... बधाई कुबूलें जी ...



अर्श

संध्या आर्य said...

आंसू,
जब तेजाब बन जाते है तो
तब ऐसी नज़्मे अपने आप
बह जाती है ,

मन की दरिया से है ना?

हरकीरत ' हीर' said...

गिरिजेश जी सभी त्रिवेणियाँ अपने आप में पूर्ण ही तो हैं ....कैसे ये आपको पूर्ण नहीं लगीं ....??

गहराई में उतर के देखिये .....इसमें तीसरी पंक्ति ऊपर की दो पंक्तियों की पूरक होती है और बहुत गहरी ....विस्तार से डा. अनुराग जी बता सकेंगे ......!!

Priya said...

न हवा ने मिन्नतें की , न क़दमों पे गिरी
न ख़ुदकुशी के लिए की रस्सी की तलाश

कानून ने आँखों की पट्टी खोल दी ......

ultimate

Sheena said...

कपड़ों से दाग धोते -धोते अब
उसकी ख्वाहिशें भी सफ़ेद हो गई हैं

वह अब लफ़्ज़ों से भी ज्यादा खामोश रहने लगी है .....

lafzo ki khamoshi ka bayaan bahut khoob kiya aapne

-Sheenaa

वन्दना said...

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

behad umda, khoobsoorat dil mein utarti triveniyan..........kis kis ki tarif karoon..........sach kai baar to aapko padhkar aisa lagta hai jaise ek khamosh saGAR mein na jaane kitna gahra toofan chupa huaa hai...........aur aaj ki triveniyon ne to na jaane kaun sa jadoo kar diya hai abhi to jaldi hai dobara aaungi padhne ke liye.

ओम आर्य said...

ये त्रिवेनियाँ अपने खामोश लफ्जों में न जाने क्या-क्या कह गयीं...कान कुछ भारी से हो गए हैं.

psingh said...

हीर जी
बेहतरीन नज्में हर नज़्म की जुबां है
आपकी लेखनी की जीतनी तारीफ करूँ कम है
बहुत बहुत आभार ..............

SACCHAI said...

" bahut hi badhiya nazme dil jeet liya her alfaz ne ...aur ye to

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

waaah ! kya baat hai ..aapki lekhni ko salam .

----- eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

अमिताभ मीत said...

यूँ करीब से न गुजरा कर अये सबा
तेरे क़दमों की आहट भी खलिश दे जाती है

मुहब्बत कभी मेरे दर आई जो नहीं ......

kya baat hai !!

sada said...

यूँ करीब से न गुजरा कर अये सबा
तेरे क़दमों की आहट भी खलिश दे जाती है

मुहब्बत कभी मेरे दर आई जो नहीं .....

हर एक पंक्ति अपने आप में लाजवाब ।

Mithilesh dubey said...

इन त्रिवेणियों को पढ़कर मन खुश हो गया ....

neera said...

निशाँ छोड़ती हैं दिल पर यह त्रिवेनियाँ ... गहरे और गंभीर!

डॉ टी एस दराल said...

लाज़वाब ।
लेकिन बेहद गंभीर।

ह्रदय पुष्प said...

किस की तारीफ़ करें किसको छोड़े - कशमकश, आपकी लेखनी को फिर-फिर सलाम करते हैं.

श्रद्धा जैन said...

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

ahaaa kya baat kahi hai

न हवा ने मिन्नतें की , न क़दमों पे गिरी
न ख़ुदकुशी के लिए की रस्सी की तलाश

कानून ने आँखों की पट्टी खोल दी ......
nishabd


रात वह फिर आई चुपके से
कुछ लफ्ज़ डाल गई झोली में

मौत की मुस्कराहट भी कितनी हँसी होती है न .....?

waah


कुछ परिंदे उड़ गए थे कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी इसमें रज़ा कोई

किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं.....

bahut dard

कपड़ों से दाग धोते -धोते अब
उसकी ख्वाहिशें भी सफ़ेद हो गई हैं

वह अब लफ़्ज़ों से भी ज्यादा खामोश रहने लगी है .....

stabdh

(७)

यूँ करीब से न गुजरा कर अये सबा
तेरे क़दमों की आहट भी खलिश दे जाती है

मुहब्बत कभी मेरे दर आई जो नहीं ......

bahut kboosurat dhang se har baat har dard har soch aur uski gahrayi bayan ki hai
aap waqayi kamaal hai

rashmi ravija said...

सारी त्रिवेनियाँ एक से एक नायाब....दिल की गहराइयों तक उतरती हुई..

अविनाश वाचस्पति said...

सुंदर
अद्भुत
बेहतरीन

त्रिवेणी यह भी है।

अलीम आज़मी said...

bahut sunder bhao ke saath vyaqt kiya ....man moh liya....ati sunder..

संजय भास्कर said...

शुक्रिया...बहुत पवित्र एहसास....

मनोज कुमार said...

रात वह फिर आई चुपके से
कुछ लफ्ज़ डाल गई झोली में

मौत की मुस्कराहट भी कितनी हँसी होती है न .....?
अद्भुत!!!

सुशील कुमार छौक्कर said...

आज क्या कहूँ हरकीरत जी? अद्भुत, ...........

manu said...

हरकीरत जी,
त्रिवेणी का नाम...सबसे पहले ..अपने ..दर्पण के मुंह से सुना था....
दर्पण तो हो गया मेरा.. ..पर त्रिवेणियाँ...अभी पक रही हैं....

आखिरी कि दो बहुत ही अच्छी लगीं....दूसरी भी बहुत सही लगी..


ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....



अभी नहीं जानते हैं ..कुछ ख़ास...
:(

अनामिका की सदाये...... said...

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....
kitni gehri baat kitni sadgi se keh di.
किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं...
jab tum kaid chahoge to koi kaid bhi na hone dega...intzaar uski raja tak ka to karna padega na.
कपड़ों से दाग धोते -धोते अब
उसकी ख्वाहिशें भी सफ़ेद हो गई हैं

वह अब लफ़्ज़ों से भी ज्यादा खामोश रहने लगी है.
bahut hi bheetar tak ye sher dil k paar ho gaya.
तेरे क़दमों की आहट भी खलिश दे जाती है

मुहब्बत कभी मेरे दर आई जो नहीं ..
bahut khoob pura dil hi nichod diya.

श्याम कोरी 'उदय' said...

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां
...bahut sundar !!!!!

सुभाष नीरव said...

हीर जी, आपकी ये त्रिवेणियां बहुत सुन्दर हैं। बधाई !

दिगम्बर नासवा said...

यूँ करीब से न गुजरा कर अये सबा
तेरे क़दमों की आहट भी खलिश दे जाती है

मुहब्बत कभी मेरे दर आई जो नहीं ....

अफ .......... कितनी लाजवाब त्रिवेणियाँ हैं ......... तीसरी लाइन पढ़ते हुवे हर त्रिवेणी पर वाह वाह ..... कमाल, लाजवाब और सुभान अल्ला निकलता है .......... बहुत ही खूबसूरत .........

गौतम राजरिशी said...
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abcd said...

"किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं"

इन लाइन्स को पड कर एक किस्सा याद आ गया,
फ़रिदुद्दिन-अत्तर के नाम से ग्याराहवी शताब्दी मे एक शायर थे,सुफ़ी थे और फ़ारसी मे लिख्ते थे /
’रुमी ’ पे उन्का असर माना जाता है , कुछ केह्ते है कि रुमी उन्से मिले भी थे ,कुछ इसे नही मान्ते /

तो .....अत्तर का मकाम बहुत उन्चा है,खास्कर उन्कि रचना मे सिमुर्घ चिडीया /

तो किस्सा यू है कि जब अत्तर काफ़ी बुडे हो चले थे,तो एक बार बाज़ार मे वो एक इत्र कि दुकान पर खडे थे ,और उन्होने इत्र कि शिशी खोली तो ....इत्र ने उडना था..... सो उड भी गया ...तो उन्होने इस पर से कुछ फ़ल्सफ़ा कहा / तो एक व्यक्ती जो कि पास ही मे खडा था ,उस्ने जवाब दिया कि यदि रुह भी इत्र जैसी ही है तो ,इसे भी शरीर से उडा कर दिखाइऎ , तो माने !

अत्तर बीच बाजार मे लेटे और शरीर छॊड दिया , सचमुच मे ही रुह को आजाद कर दिया,जैसे बोतल से इत्र उडाया जाता है !!
:-)

अपूर्व said...

ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां

फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

फ़ासलों की रात का यह मुस्तकबिल एक बेमौसम, बेहिस, मुकम्मल अकेलापन होता है; एक मुसलसल दिन, जिसका कोई फ़र्दा नही होता..वर्ना वक्त तो बस घड़ी के काँटों के कुछ गिने हुए चक्करों का नाम है.

प्रकाश पाखी said...

कुछ परिंदे उड़ गए थे कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी इसमें रज़ा कोई

किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं.....
BEHTREEN HAI!

अनुपम अग्रवाल said...

सभी एक से बढकर एक हैं.

1 और 5 तो सब से ज्यादा अच्छी लगीं

हरकीरत ' हीर' said...
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डॉ .अनुराग said...
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Saloni Subah said...

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निर्मला कपिला said...

हीर जी जैसा कि मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि आपकी रचनाओं पर निशब्द हो जाती हूँ। किस किस क्षनिका की तारीफ करूँ एक से एक कमाल है बहुत बहुत शुभकामनायें

Ravi Rajbhar said...

Bahut khub har line apne aap me adbhut jo mai pahle bhi kah chuka hun...shabd hi nahi milta aapki tarif ko..

Prem Farukhabadi said...

रात वह फिर आई ख़्वाब में
चुपके से रख गई
कुछ लफ्ज़ गई झोली में
मैंने देखा ....
मौत की मुस्कराहट
कितनी हँसी थी ...!!
Sundar bhav.Badhai!

दिगम्बर नासवा said...

यूँ करीब से
न गुजरा कर
अय सबा
तेरे क़दमों की
आहट भी
खलिश दे जाती है

कभी मुहब्बत ...
मेरे दर आई जो नहीं ...

एक बार फिर से दिल चीर ले गयी ये क्षणिका ............ आभार ..........

डॉ .अनुराग said...

कुछ दिनों से याद कर रहा था . आपको .ओर देखिये आप फिर सफ्हो पे इस तरह नज़र आयी .....अलबत्ता ऊपर त्रिवेणी लिखा है ....जानती है अमृता की भी यही खासियत थी आखिरी लाइनों में बहुत कुछ उड़ेल देती थी ....

देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही

मसलन...... यहाँ देखिये ..

आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!


ओर मेरी पसंद में ये भी शामिल है .....


कुछ परिंदे उड़ गए थे
कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी

.खास तौर से ये मुझे बड़ा अपील किया ....अमृता सा टच ..

इसमें रज़ा कोई
अय खुदा ...!
किसी दिन
ज़िस्म की कैद से भी
आज़ाद कर
तब तुझे मानूं....!!


सबसे बेहतरीन ....

यूँ करीब से
न गुजरा कर
अय सबा
तेरे क़दमों की
आहट भी
खलिश दे जाती है


ओर इस वार्ड खलिश ने .....जैसे आखिरी टुकड़े में जान फूंक दी है .......

कभी मुहब्बत ...
मेरे दर आई जो नहीं ...!!

Arvind Mishra said...

या खुदा इस दुनिया में क्या तूने दुःख दर्द ही दे रखा है ?

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण क्षणिकाएं!!बधाई।

रंजना said...

देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही
आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!

और.....
"तब तुझे मानूं "

ये दोनों क्षणिकाएं तो बिंध ही गए ह्रदय में...

यूँ तो सभी के सभी क्षणिकाएं आह निकाल देने लायक हैं...पर ये दोनों तो विस्मृत करने योग्य नहीं....

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर हृदयहारी रचनाएँ....

Yogesh Verma Swapn said...

देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही
आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!

wah wah wah wah wah.....................................................nishabd.

बाल भवन जबलपुर said...

behad utkrisht
aabhar

प्रिया said...

जहरीला धुंआ ...

नज्में भी चीखतीं हैं
अपने जिस्म की परछाई देख
कितना जहरीला था वो धुंआ
जो तुम उगलते रहे ....!!

ye to aisi hakikat baya ki aapne

badalti aurat to lajawaab hai

tab tujhe maanu - Ek spritual feel deta hai


aur Khalish ke liye - Lillah

Akhil said...

कपड़ों से
दाग धोते-धोते
उसकी ख्वाहिशें भी
सफ़ेद हो गई थीं
वह अब ...
लफ़्ज़ों से भी ज्यादा
खामोश रहने लगी है ..!!
..kamaal ki nazm hai..bahut sundar..yun to sabhi ek se badhkar ek hain par ye khas taur par kuch andar tak utar gayi...badai sweekar karen..

वन्दना अवस्थी दुबे said...

नज्में भी चीखतीं हैं
अपने जिस्म की परछाई देख
कितना जहरीला था वो धुंआ
जो तुम उगलते रहे ....!!
बहुत-बहुत सुन्दर.

Dr. Tripat Mehta said...

कपड़ों से
दाग धोते-धोते
उसकी ख्वाहिशें भी
सफ़ेद हो गई थीं
वह अब ...
लफ़्ज़ों से भी ज्यादा
खामोश रहने लगी है ..

wah wah..aapki yahi ada mujhe kheech lati hai baar baar aapke blog par


http://sparkledaroma.blogspot.com/
http://liberalflorence.blogspot.com/

neera said...

धुआँ, फासले, मौत, खामोशी सभी करीब आ गए ...
एक से बढ़ कर एक ...क्या कहूँ?

Razi Shahab said...

bahut sundar lagi aap ki rachna
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
बनाती रही अपना मकां
फासलों की रात हँसी नहीं बाँटती .....

न हवा ने मिन्नतें की , न क़दमों पे गिरी
न ख़ुदकुशी के लिए की रस्सी की तलाश
कानून ने आँखों की पट्टी खोल दी ......

कुछ परिंदे उड़ गए थे कफ़स की कैद से
शायद खुदा की भी थी इसमें रज़ा कोई

किसी दिन ज़िस्म की कैद से भी आज़ाद कर तो तुझे मानूं.....

bahut achcha

सुशीला पुरी said...

हरकीरत जी अभी ''हंस '' के फरवरी के अंक में आपको पढ़ा .........मेरी हार्दिक बधाई .

मनोज भारती said...

सुंदर क्षणिकाएँ ...मन को भीगो कर रख दिया !

सागर said...

नज्में भी चीखतीं हैं
अपने जिस्म की परछाई देख
कितना जहरीला था वो धुंआ
जो तुम उगलते रहे ....!!

बहुत खूब.....तारीफ के दायरों को लांघ कर कुछ और आगे बढती रचनाएँ ! बहुत बहुत अच्छा लगा !

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दरता के साथ व्‍यक्‍त हर पंक्ति अनुपम ।

Harshvardhan said...

najm achchi lagi......aajkal aapse koi samapark nahi hai.. mere blog par bhii aapka aagman nahi hota hai...

महावीर said...

देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही
आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!
बहुत सुंदर.
महावीर शर्मा

रजनीश 'साहिल said...

नज्में भी चीखतीं हैं
अपने जिस्म की परछाई देख
कितना जहरीला था वो धुंआ
जो तुम उगलते रहे ....!!

......अद्भुत !

देखते ही देखते
एक-एक कर ढहती गई
हंसी की दीवारें
ख़ामोशी ईंट दर ईंट
अपना मकां बनाती रही....
आह.....!
ये फासलों की रातें .....!!

भीतर की दरकन को बहुत ही ख़ूबसूरती से बाँधा है आपने... सिर्फ बेहतरीन कह देना कतई काफी नहीं हो सकता... ख़ासकर इन पंक्तियों के लिए तो...

कपड़ों से
दाग धोते-धोते
उसकी ख्वाहिशें भी
सफ़ेद हो गई थीं
वह अब ...
लफ़्ज़ों से भी ज्यादा
खामोश रहने लगी है ..!!

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

हर क्षणिका पढ़ते ही वाह ही निकलता रहा......

Betuke Khyal said...

हम तो कायल हो गए हैं आपकी लेखन के

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मुझे विश्वास है कि एक दिन नई पोस्ट भी आयेगी..ख़ामोशी टूटेगी.
आज निर्मला जी के ब्लॉग में एक कहानी पढ़ी उसका सन्देश मुझे अच्छा लगा-
संवाद से समस्या का समाधान हो जाता है.

Reetika said...

faaslon ki raatein.. ek thandi khamosh doori kyun dil mein hi sahi par aag to paida karti hai... ek anokha sach par behad khoobsoorat tareeke se bayan hua...

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

यूँ करीब से
न गुजरा कर
अय सबा
तेरे क़दमों की
आहट भी
खलिश दे जाती है

कभी मुहब्बत ...
मेरे दर आई जो नहीं ...

kaafi dino ke baad aaya..aur bahut khushi hui aaker..aapsa touch liye hue aapki khanikayen...awesome..all of them

संजय भास्‍कर said...

Maaf kijiyga kai dino busy hone ke kaaran blog par nahi aa skaa

संजय भास्‍कर said...

सुंदर क्षणिकाएँ ...मन को भीगो कर रख दिया !