अंगारों के बुझने तक जीने दे........!!
अय ज़िन्दगी !
इक अजीब सा जिंदगीनामा है ये
जो तू लिख रही है नसीब पर
मेरे दर्द को आबाद करती
कल जब जुबां में
फ़िर इक कड़वा सच लिए
तू सामने खड़ी थी
मेरी रूह तेरे कहे लफ़्जों से
भीतर तक घायल होती रही
धुंएँ का इक गहरा गुब्बार
सीने को चीरता
कहीं अन्दर उतर गया
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
Sunday, March 22, 2009
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57 comments:
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे ....
सुन्दर भावाभिब्यक्ति.
बेहतरीन रचना। मैं सोचता हूं कि जब तक जिंदगी रहे तब तक अंगारे दहकते रहें सीने में।
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
bahut umda, dard se labrez, asha ki kiran.
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
yahi to jindgi hai.stabdh si ,apahij si ,gum si
............jindgi ke dard ko bahut hi badhiya jama pahanaya hai......bahut khub
main kuchh kahane ke laayak nahi is rachana pe... dard ka ye pahalu...uffff...
arsh
तुम मिले
तो कई जन्म मेरी नजम मे धड़के
फिर मेरी साँस ने तुमारि सांस का घुट पिया
तब मस्तक मे कई काल पलट गए
महान लोगों को पढ़ने का मौका मिल रहा है, और क्या कहूं। जिन्दगी पर आज ही दो शानदार नज्में जो पढ़ी। कहां से मिलती है इतनी ऊर्जा आप लोगों को। जब छोटा सा तब उस्तादों को पढ़ा था। आज अपने सामने पाता हूं तो हैरान होता हूं।
जिन्दगी दर्द को हिन् तो आबाद करने की मशीन है, जाने कब इसके कल-पुर्जे बिखरेंगे और कब इस दर्द से निजात मिलेगी.
इस दर्द के लिए 'बधाई' कहना ठीक रहेगा क्या?
बस इतनी दुआ है
अय खुदा
अंगारों के बुझने तक
जीने दे
बहुत लाजवाब बात कही जी आपने।
पूरी कविता में से कुछ पंक्तियाँ चुनना , भला ये काम मैं क्यों करू? और आपको पढ़ कर मुझे कोई दूसरा शायर याद आ जाये भला इतने गए गुजरे भी नहीं आपके तौर तरीके... और ऐसा भी नहीं कि परवीन शाकिर और गुलजार जैसों की किताबें मिलना बंद हो गयी है कह तो मैं भी सकता हूँ कि उन्होंने कब क्या कहा! पर बात जब ईमानदारी से लेखन कि हो या फिर हरकीरत हकीर की हो तो इससे जुदा मेरे शब्द नहीं होते आप हमेशा अच्छा लिखती हैं जो दिल को कहीं ना कहीं से छू जाता है.
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
बेहतरीन रचना .. बहुत लाजवाब..
हूँ ! अव्यक्त पीडा की अकथ कहानी को अभिव्यक्त करते मार्मिक शब्द !
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
.........
bhawon me doobi rachna
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
बहुत ही सुंदर और लाजवाब. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
सुन्दर प्रस्तुति। वाह। कहते हैं कि-
बाँटी हो जिसने तीरगी उसकी है बन्दगी।
हर रोज नयी बात सिखाती है जिन्दगी।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत सुन्दर मनो-दर्शन
---
चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!!!!
Jindgi se rubru hona aapke himmat aur jazbaat ki khoobsurti hai....!!!
hi......ur blog is full of good stuffs.it is a pleasure to go through ur blog...
by the way, which typing tool are u using for typing in Hindi...? recently i was searching for the user friendly Indian language typing tool and found ... " quillpad " do u use the same...?
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Jai..HO....
Harkirat Haqeer ji ,
धुंएँ का इक गहरा गुब्बार
सीने को चीरता
कहीं अन्दर उतर गया
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही
bahut achchhi lagi.
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
" ye panktiyan anayas hi dil ko chu gyi....ek ummid ki kiran smete hain ye panktiyan.."
Regards
bade hi sundar lafzo ko batora hai aapne...badha ho
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ... आपको पढना अच्छा लगा।
आपको परफैक्ट मैन बनना है या परफैक्ट वुमैन, हरिकीर्तन ‘लकीर के फकीर’ जी !
दर्द से रूबरू करा दिया आपने
सारी ही रचना साँस रोककर पढ़ती चली गई... बहुत खुबसूरत रचना ...कुछ पंक्तियाँ दिल को छू गई...
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
दर्द को और जिंदगी से किये उल्हाने को, बेबसी को बेहतरीन तरीके से उतारा है आपने इस रचना में. जिंदगी से जिंदगी को रोशन रखने की, जिन्दगी के अंगारों को बुझने की प्रतीक्षा करती बहूत सुन्दर अभिव्यक्ति
pata nahin aapne apna takhllus haqeer kyon rakha hai. blog ke aane se itna to hua ke aap jaise partibhayen saamne aa rhi hain.
दर्द दिल के करीब हो तो लफ्जों में सांस होती है, ग़मों को जिन्दगी बना कर लिखी हर नज्म ख़ास होती है
सजदा कर जब रूह में उतर जाएँ गम-ऐ-जिन्दगी,
तब तू, तेरी दुआ औ इबादत खुदा के कुछ पास होती है
हरकीरत जी रचना भावपूर्ण एवं सुन्दर है, अगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा ...
साथ ही मेरी पोस्ट पर आपकी उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए आभार ....
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
एक बहुत ही सुंदर रचना के लिये आप का धन्यवाद
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
-बड़ी ही खूबसूरती से शब्दों को 'कविता में अभिव्यक्ति देने उतार दिया है.
वाह! ati सुन्दर!
एक और खूबसूरत दर्द!
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
ख्यालों में उतरती रही
भाव-व्यक्ति की अच्छी मिसाल , सुन्दर रचना.......................
चन्द्र मोहन गुप्त
'बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!'
- यह बेबसी क्यों ?
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
jeevan ki adbhut lalak dikhai di in panktiyon me. bahut sundar kavita.
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें.
nirashaon ke madhya ashaon kee roshnee dikhatee ye panktiyaan apke ashavadee drishtikon kee parichayak hain
kavita ne bahut samay tak svyam mein duboye rakha.
दर्द भरी, जिदंगी के करीब की यह रचना अपने साथ बाहा ले गई।
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
मेरे वश में नही कुछ कहना शब्दों और भावों की जादूगर आप है मैं नहीं।
हर कीरत जी,,,,,
हमेशा की तरह लाजवाब,,,,,,
मुझे कुछ मिला hi नहीं नया कमेंट करने के लिए,,,,
आपका स्तर बहुत ही ऊंचा है,,,
कमेंट सदा इतने ऊंचे नहीं हो पाते,,,,,
शुक्र है के आपके पास ऐसी कोई क्वालिटी नहीं है,,, के पल पल
,,आपको अपना रंग hi बदलना पड़े,,,,,
बहुत से लोग होते है,,, के जो भी देखा उसी पर लिख मारा,,,,जैसा मर्जी,,,,
पर आपके लिखे को हर बार पढ़ना अछा लगता है,,
नए दर्द को उकेरती है आपकी कलम,,
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली
bahut hi dard bhara ahsas hai...nazam pathak k bhitar tak utar jati hai...amarjeet kaunke
I love every positive poems...
This one is really cute
अंगारों के बुझने तक जीने दे ...
और उसके बाद भी मुझे जीने दे...
alfaz gum n the, aapne to shabdon se adhik kah diya. vah kya kavita hai! chhoo gai gahre tak
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
बहुत सुन्दर अभिव्यक्तियाँ...बधाई !!
________________________________
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
well crafted....beautiful lines...so much positive feeling inspite of those wounds...encourageous....you are such a gem writer ...
हरकीरत जी ,
आपके हर शब्द ...हर वाक्य..को बार बार कई बार पढने का मन होता है ...
भीतर कहीं इक
नासूर सा रिसता रहा
और रात
दहलीज़ पे बैठी
सिसकियाँ भरती रही
सुबह ने भी जैसे
चुप की चादर ओढ़ ली
बहुत ..कुछ सोचने को मजबूर करने वाली पंक्तियाँ .
हेमंत कुमार
हम्म्म्म्म...क्या कहूँ सोच रहा हूँ
सोच रहा हूँ ये दर्द-दर्द जो आप उड़ेलती रहती हैं उस पर कुछ कहूँ
सोच रहा हूँ इस जिंदगीनामे के सारे वरक एक झटके में पढ़ लूँ
...फिर अल्फ़ाज़ सारे गुम हो जाते हैं
harkirat ,
i think this is your original composition style ,let me say.. ki bahut dino ke baad ,phir se aapki kalam me wahi purani baat nazar aayi hai .. specially last ke 3 paragraphs:
मैं स्तब्ध थी !
हैरां थी !
हाथों में सत्य लिए
अपाहिज सी खड़ी थी
पर अल्फाज़ कहीं
गुम थे
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
बस इतनी दुआ है
अय खुदा !
अंगारों के बुझने तक
जीने दे ......!!!
is baar shabd ji uthe hai aur composition bhi thoughtful flow me move hoti hai ..
good ..very good work of words..
wah ..
dil se badhai sweekar karen ..
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लाग पर आकर। दिल को छू लेनेवाली मार्मिक रचना के लिये बधाई स्वीकारें।
Wah...........
बहुत ख़ूब! लिखती रहिये।
bas itni dua hai....ay khuda ....angaaron ke bujhne tak jeene de....
Atyant sunder bhaav liye hai ye panktiyan....yuhi man ke bhavon ko panno per ootarte rahiye.....
Badhai
kitna kuch to kah diya sab ne. fir bhee tareef kam hee hai. aapke lekhan ka ehsas sirf mahsoos hee kiya ja sakta hai.
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इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
Harkirat Ji,
सब्ज़ पत्ते zaroor खिलखिलायेगें..
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bahut khoob...
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
kumar zahid
जानती हूँ
इक और कड़ा
इम्तिहां है यह तेरा
जिस शाख से टूटी हूँ मैं
इक दिन सब्ज़ पत्ते यहीं
खिलखिलायेगें
पीड़ा के अतिरेक में
कोई पसली सी टूटी
और मैं ;
घंटों बिस्तर पर औंधी पड़ी
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