ज़िन्दगी तेरा ज़िक्र अब ......रात के वजूद पर टिकी सुब्ह का सा है ...जिसे सूरज कहीं रख कर भूल गया है ....इंतजार के पन्ने अब सड़ने लगे हैं ....और दीवारे अभी बहुत ऊंची हैं .....बहुत ......
डालना कुछ और चाहती थी ....इक बड़ी प्यारी सी नज़्म उतरी थी ...पर शब्दों ने मुँह फेर लिया .....सागर की कविता (वही जिसपर हल्का सा विवाद हुआ था ) के एवज में भी कुछ लिखा था वह भी धरा रह गया ......शायद अगली बार ......
जाने कब
मिट्टी के ढेर को
उड़ा ले गयी थी सबा
कब्र की कोख से
उठने लगा था धुआं
रात....अभी बहुत
लम्बी है .....
तूने कभी पीया है
बीड़ी में डालकर
जहरीले अक्षरों का ज़हर ?
नहीं न ?
कभी पीना भी मत
फेंफडे बगावत कर उठेंगे ...
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
और फिर ...
३० नंबर की ये बीड़ी
प्रतिवाद स्वरूप
खड़ी हो जाती है
विल्स के एवज में .....!!
Friday, April 23, 2010
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65 comments:
क्या खूब कहा है ... औरत की सच्चाई!
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
कुछ अलग हट के लिखा है इस बार, एक अलग अंदाज !
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
एक औरत की संवेदना को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है !
निशब्द, स्तब्ध और हतप्रभ...
जय हिंद...
सुंदर कविता ...30 नम्बर बीड़ी ...विल्स के एवज में ...सुंदर प्रतीक ...गहरी पीड़ा ... बहुत खूब ।
क्या बात है जी बीडी भी ३० नमबरी
behad zabardast kavita...
आपकी रचनाओं में जिंदगी दिखाई देती है ....हर बार अलग अलग रूप में
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
---एक कड़वी सच्चाई !
बेरंग हकीकत को कुशलता से बयां करती है आप की यह नज़्म !
अद्भुत रचना!!! कोई शब्द नहीं!!
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
oh ! bahut hi badhiya prastuti ..in alfazoan me dard ko aapne bakhubi se chupaker pesh kiya hai "
" aapki lekhnee ko salaam "
------ eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
bhavuk rachna...
कब्र की कोख से
उठने लगा था धुआं
रात....अभी बहुत
लम्बी है .....
और फिर
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
जिन्दगी को करीबी से निहारना और फिर शब्दों के हारमाला से सजाना
सम्वेदना की हद कहाँ है (!)
चिंगारी को प्रतीक स्वरूप बखूबी उभारा है आपने।
उम्दा रचना।
30 नम्बर की बीडी तो गजब की है। बेहद सटीक प्रतीक।
तूने कभी पीया है
बीड़ी में डालकर
जहरीले अक्षरों का ज़हर ?
नहीं न ?
कभी पीना भी मत
फेंफडे बगावत कर उठेंगे ...
हरकिरत की बहुत दिनों से पढ़ता आ रहा हूँ आपकी क्षणिकाओं को बहुत सुंदर भाव होते है...आज की यह प्रस्तुति भी लाज़वाब...बेहतरीन अभिव्यक्ति ...बधाई
यह तेवर दमदार है।
..होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
वाह! सफल अभिव्यक्ति।
बधाई।
हाँ.....
बीड़ी का नम्बर बताने के लिए शुक्रिया।
bilkul taze ahsaas..........
बेचैन आत्मा जी ,
आपकी निगाह नंबर पर क्यूँ टिक गई .....??
औरत एक सस्ती बीड़ी ही तो है ..जिसे हर कोई फूंक कर पैरों तले मसल देता है .....!!
maarmik....
kunwar ji
बहुत नायाब, लाजवाब रचना.
रामराम.
लगा कि रचना किसे कहते हैँ ।
सभी परिस्थितियों में सन्तुलन बनाये रखना प्रसन्नता की चाबी है।
तूने कभी पीया है
बीड़ी में डालकर
जहरीले अक्षरों का ज़हर ?
नहीं न ?
कभी पीना भी मत
फेंफडे बगावत कर उठेंगे ...
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
औरत की ज़िन्दगी का बहुत ही मार्मिक चित्रण्…………………पीडा को शब्दों में बखुबी पिरोया है।
वाह!
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ....
अद्भुत सोच....मन की गहराई तक पहुंची....आपकी ये नज़्म जैसे ज़ेहन में बस गयी है....
इस बार तो एक अलग ही अंदाज़ में आप सामने आई हैं। बहुत ही अद्भुत लिखा है आपने, ख़ासकर ये आख़िरी पंक्तियां तो बहुत ही उम्दा हैं -
और फिर ...
३० नंबर की ये बीड़ी
प्रतिवाद स्वरूप
खड़ी हो जाती है
विल्स के एवज में .....!!
एक अनकही वेदना आैर आक्रोश को बहुत ही सटीक बिंबों से चित्रित किया है। बहुत बधाई।
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
बहुत सुन्दर.
@ राज़ जी,
आपका ब्लॉग नहीं खुलता ...कई बार कोशिश की है ....!!
@ विनोद जी ,
बहुत दिनों से क्षणिकाएं नहीं लिख पाई ...लिखती हूँ जल्द ही ....!
तूने कभी पीया है
बीड़ी में डालकर
जहरीले अक्षरों का ज़हर ?
नहीं न ?
कभी पीना भी मत
फेंफडे बगावत कर उठेंगे ...
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
Sach mein bas waah hee kah saktaa hoon !
नया अंदाज़ है.बहुत खूब.
-एक कड़वी सच्चाई !
बेरंग हकीकत को कुशलता से बयां करती है आप की यह नज़्म
आपकी रचना पता नहीं क्यों दो बार से अधिक पढ़ता हूँ ? एक बार स्वयं और एक बार मन कहता है ।
वाह !!!!!!!!! क्या बात है..... बहुत जबरदस्त अभिव्यक्ति, बिलकुल नयी . सच है बीडी है तो धुवाँ तो उठना ही है
आपकी आकलन क्षमता,
कल्पनाशक्ति और
अभिव्यक्ति की सामर्थ्य
अद्भुत है।
pranam, bahut arse baad blog par aaya hun...aur aate hi aapki itni badiya nazm se rubaru mouka mila........
'हीर' जी, अपने तो मेरे ब्लॉग पर बहुत टिप्पणियां छोड़ी हैं... लेकिन मैं आपके ब्लॉग पर पहली बार आया... अब सोच रहा हूँ कि मुझे बहुत पहले आपके ब्लॉग का भ्रमण कर लेना चाहिए था, क्योंकि न जाने कितनी शानदार रचनाओं का पठन मिस कर दिया... खैर! देर से ही सही... अब मैं लगातार आपके ब्लॉग पर आता रहूँगा... आपको शुभकामनाएं!!!
Plz Visit :
http://dhentenden.blogspot.com
"रामकृष्ण"
"तूने कभी पीया है
बीड़ी में डालकर
जहरीले अक्षरों का ज़हर?"
अति मार्मिक प्रस्तुति.
"औरत एक सस्ती बीड़ी ही तो है ..जिसे हर कोई फूंक कर पैरों तले मसल देता है .....!! - आपके इस व्यक्तव्य पर सादर अपनी असहमति दर्ज करना चाहूँगा.
अफ ... कुछ कहने के काबिल नही रक्खा इस रचना ने ... सलाम है आपकी कलाम को ....
औरत पीती है
हर रोज़ अंधेरी रातों में
मल कर हाथों की लकीरों में छिपी व्यथा
यह सोचती
कि कल ये झुलसी मिलेंगी
मगर कम्बख्त
फीनिक्स की तरह राख के ढेर से निकल कर
नई लकीरों का जाल बन
फिर से खड़ी हो जाती हैं सामने.
.
अनगिनत भारतीय नारियों की व्यथा को छुआ है आपने..
३० नंबर की बीडी ... कुछ नई नई सी सोच ... कभी गुनगुनाती कभी धुएं में उडाती जिन्दगी ...
जो नज़्म शब्दों में न ढल सकी उसका भी इन्जार रहेगा
"औरत की दशा जो कि -अक्सर दुर्दशा होती है- का मार्मिक वर्णन, अनसोचे बिम्बों के ज़रिये..."
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
lagta hai amrita ji ko hi padh rahi hun
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई...
वही अपना अलग अंदाज़...और बस...वाह
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
....Gahre bhav sundar bimbon ke saath ek aurat kee peedha kee yatharthparak jindagi prastut ki hai aapne...
Bahut badhai
bahut badhiya kavit!laga jaise koi jakham apna hi kured kar dikha diya.badhai ho!
pare bidiyan aale prateekan nu chhad ke hor kuj ni labhya? bidi,jarda,tambaku jehe bhede prateek aapan na bartiye tan e theek hai.
हरकीरत 'हीर'जी
व्यस्तताओं के कारण विलंब से पहुंचा हू ।
"शस्वरं" पर मेरी रचनाओं की ऑडिओ रिकॉर्डिंग भी लगाई है कल । ( सुनने आइए न !)
"३० नंबर की बीड़ी…" पर अब कुछ भी कहूंगा तो किसी न किसी को दुहराना ही होगा । हां , इस नज़्म की भूमिका भी कई नज़्मों पर भारी है -
"ज़िन्दगी तेरा ज़िक्र अब … रात के वजूद पर टिकी सुब्ह का सा है … जिसे सूरज कहीं रख कर भूल गया है …"
वाह वाह ! क्या बात है !
मंगलकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई-----शानदार।.....
-दर्द बहुत थे,
भुला दिये सब;
भूल न पाये,
वे बह निकले,
गज़लें बनकर---
speechless...!!
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ...
क्या बात है...बहुत ही बेहतरीन रचना
kabita me bahut gahrai hai
acchhi kabita bhaw purn hai.
acchha laga
kabita me bahut gahrai hai
acchhi kabita bhaw purn hai.
acchha laga
होशो-हवास अपने सलामत रहे 'जिगर',
मंजिल से पूछ लूंगा कहाँ जा रहा हूँ मैं...
ये नज्में
यूँ ही नहीं उतरती
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
Bhavya....Kya Baat Hai!
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
ek sach :(
-Shruti
antim pankti .....puri kavita ka sabse special punch hai......"30 number ki bidi" ufff......!!
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gahri peera
lekin arth purn!!
kabhi dekhen.....
mere jindagi ka canvess!!
jindagikeerahen.blogspot.com
30 No. ki bidee....
kabhi pee nahin...
to kyaa kahein...??
Manu ki baat mt maaniye...
ek number ka..
sachchaa hai ....
phir kuchh naa kehnaa ...kyooooooN ??
पहले भी आया था..मगर भूमिका पढ़ कर ही लौट गया था..आगे नही बढ़ पाया था...खयालों के इन काटों की बाड़ पार कर जज़्बात के जंगलों मे घुसना कितना मुश्किल होता है..और सशक्त कविता...कब्र की कोख ही बहुत ’हांटिंग’ किस्म की बात लगती है..कोख किसी चीज को जज्ब नही करती..सहेज के रखती है..तय वक्त के बाद उसे जिंदगी के हवाले कर देने के लिये...ऐसे मे कब्र की कोख का ख्याल एक नये किस्म का सवाल खड़ा करती है..
..फिर नज़्मों का यह दिलफ़िगार पैकर...एक मुसलसल जलन है..जो हर्फ़ों के बेचैन होंठों पर सुलगने लगती है..किसी बीड़ी की तरह..बस कुछ पल मे राख हो जाने के लिये..हमेशा के लिये..
रफ्ता-रफ्ता धुएँ में
तलाशनी पड़ती है
अपनी परछाई
३० नम्बर का कोई पोशीदा मतलब है क्या यहाँ?
bahut hi khubsurat rachna...
aapko padhkar achha laga..
yun hi likhte rahein...
mere blog par aane ka shukriya...
-------------------------------------
mere blog par is baar
तुम कहाँ हो ? ? ?
jaroor aayein...
tippani ka intzaar rahega...
http://i555.blogspot.com/
हरकीरत जी आपने बहुत ही सुन्दर रचना लिखी है!
चर्चा मंच की इस पोस्ट में आपकी ही चर्चा है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/135.html
aapka mere blog par aane ka shukriya aur comments karne ke liye bhi...........
rahi punjabi ki baat to punjabiyat to hmare ragon mein basi hui hai ji....ham 'punjabi khatri' hain........aur vaise maine graduation tak punjabi padhi hai...
aapko meri punjabi mein likhi kalam pasand aayi iske liye shukriya, aap jaisi mahan lekhika is naacheez ki kalam pasand kare is se badi khushi ki baat kya ho sakti hai mere liye....
achhe rachna hai .......
kahs kar ke nazm ko itne pahloon me talashna
औरत की कहानी कलम की जुबानी ।
behtareen kavita...soch ko jhakjhorti hui
औरत पीती है
हर रोज़ अँधेरी रातों में
कुछ हथेली पे मल के
होंठों तले दबा लेती है
कुनैन की तरह
ज़िन्दगी को ......
खामोश दर्द..
दिल को छू गया..
सुन्दर अभिव्यक्ति,
भावपूर्ण.
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