औरत दर्द और चिता ......
वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में
उदासी का इक दरिया लिए
ज़िन्दगी को नए सिरे से
समझना चाहती है ....॥
अभी तो सलीके से उसने
जीना भी नहीं सीखा था
न उसे प्यार करना आया था
कि उग आयीं हाथों पे दर्द की
अनेकों आड़ी-तिरछी रेखाएं
मैंने छू कर देखा .....
उसकी हथेलियों में नमी थी .......
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
क्यूँ यह ज़िन्दगी
अधूरा सा किरदार
बनकर रह जाती है
जिसे नहीं मिलती
एक पूरी कहानी जीने को ....
कुछ अदृश्य रस्सियों की
जकड़न है चारों ओर .....
इक फनियर अपनी क्रूरता से
खत्म कर देना चाहता है
बुलबुल का कलरव .....
आँखों में भय की छाया लिए
कुछ शब्द गुलों को
दिखलाते है ज़ख्म ...
अचानक गिर आई दीवार के नीचे
दबकर टूटने लगता है
चप्पू की आवाज़ का तरन्नुम ...
मैं झील की आँखों को
सहलाने लगती हूँ
कुछ गिरे हुए हिस्से को
बचाने की खातिर
बैसाखियों का सहारा दे
ईंटें टिकाने लगती हूँ
देखती हूँ मन की परतों में
घिर आयीं हैं कितनी ही
गहरी दरारें ......
दर्द पत्थर की टेक लगा
हांफने लगा है ....
शायद वह
समाज के बनाये इन
नियमों पर
जिंदा चिता पर
लेट जाना चाहता है ......!!
ज़रीब- ज़मीं नापने की ज़ंजीर
65 comments:
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
हमेशा की तरह बहुत सुन्दर रचना. बधाई.
एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
aurat ki trasdi ko bahut hi sundar shabdon mein ukera hai.
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा
बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
सटीक सवाल...
बढ़िया रचना.
हरकीरत जी, नमस्कार,
आज बहुत दिन बाद नेट पर बैठा हूँ, और बैठते ही आपकी नयी रचना पढने को मिली, अच्छा लगा ,मैं तो कुछ पारिवारिक समस्याओं कि वजह से कई दिनों से न तो कुछ लिख पाया हूँ और न ही पढ़ पाया हूँ, आपकी कविता कि कुछ पंक्तियों ने दिल को छु लिया, कृपया स्त्री विषय से हटकर कुछ लिखें, धन्यवाद्
निलेश जी शुक्रिया आने का .....आकाशवाणी के प्रोग्राम की तस्वीरें शायद आपने नहीं देखी हों देख दीजियेगा ...ब्लॉग में डाली हैं .....
८ मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है ये रचना तभी लिखी थी डाली अब है .....!
आह ...यह बुद्धिजीवी समाज ...कब तक ...?
आह! गहरे दिल तक उतर रही है ....
आह ...यह बुद्धिजीवी समाज ...कब तक ...?
आह! गहरे दिल तक उतर रही है ....
दर्द पत्थर की टेक लगाकर पसर रहा है ...!!
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
....बेहद अच्छी नज़्म है. बधाई.
कुछ अदृश्य रस्सियों की
जकड़न है चारों ओर .....
इक फनियर अपनी क्रूरता से
खत्म कर देना चाहता है
पक्षियों का कलरव .....
ओह कैसे लिख जाती हैं आप...ऐसे सच..
गहरे अहसास से भरी बेहद अच्छी नज़्म
हीर जी, नमस्कार,
सर्वभाषा कवि सन्मेलन कि फोटो देखकर और उसके बारे में पढ़ कर अच्छा लगा, आपने मुझे याद रखा और कुछ शब्द मेरे लिए लिखे ये जानकार तो मुझे बहुत खुशी हुई, धन्यवाद्.
शायद यह ज़िन्दगी
बहुत बड़ी किरदार है
उसे नहीं मिलती इक पूरी कहानी
जीने को .......
वाह...क्या पंक्तियां है
बहुत सुंदर कविता
शायद यह ज़िन्दगी
बहुत बड़ी किरदार है
उसे नहीं मिलती इक पूरी कहानी
जीने को .......
बेहद संजीदा और सत्य को उकेरती रचना.
किरदार अधूरा है अगर उसे सही कहानी न मिले.
कविताएँ सभी सुरक्षित मिल गई थीं, रमणिका जी को भेज दी हैं।
इच्छा थी कि उस विशेषांक में कुछ नए नाम और (विशेषत: पंजाबी में भी लिखने वाले)सम्मिलित हों। मूल हिन्दी व हिन्दी में अनुवाद वाले दोनों खंडों के लिए नाम प्रस्तावित किया था, अब रमणिका जी फ़ाईनल निर्णय जो लेंगी,अंक में दीखेगा। अग्रिम बधाई!
हरकीरत जी --एक सवाल !
क्या औरत के नसीब में सिर्फ दर्द ही होता है ?
दराल जी ,
जिसे जो मिला वह तो उसी का बयां करेगा न ....आस-पास भी वही देखती हूँ ....एक समाज सेवा संस्था है हमारी ...महिलाएं जब रो-रो कर अपना दर्द बताती हैं तो आंसू निकल आते हैं सुन ....!!
क्या दुनिया की सभी ऒरते हमेशा दुखी ही रहती है?? क्या सभी पुरुष निर्दयी होते है??
बहुत ही सटीक और सत्य को उकेरती रचना.
रामराम.
हरकिरत जी आपकी क्षणिकाएँ बहुत ही खूबसूरत भाव से भरी होती है एक से एक बढ़ कर...आज भी बढ़िया प्रस्तुति..बधाई
gahre bhav liye gahan rachna. bahut umda.
विचारोत्तेजक!
अभी अभी परवीन शाकिर की नज्मे बाँट कर आ रहा हूँ.....इस नज़्म को पढने के बाद किसी कविता की याद आ रही है ....उसे लेकर इस पोस्ट पर वापसी होगी....
राज़ जी , मेरे ख्याल से ७० प्रतिशत
पुरुष निर्दयी होते हैं ......!!
कविता जी बहुत बहुत शुक्रिया ....आपने इन नज्मों को एहमियत दी ......!!
वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में...उदासी का इक दरिया लिए....
ज़िन्दगी को नए सिरे से.....समझना चाहती है ...
.................उग आयीं हाथों पे दर्द की....अनेकों आड़ी-तिरछी रेखाएं
..उसकी हथेलियों में नमी थी ...
.....मैं झील की आँखों को......सहलाने लगती हूँ....
शब्दों के इस चक्रव्यूह में फंसकर भी कितना सुखद अहसास होता है...
क्या कहें....सिर्फ़ मुबारकबाद???
अभी तो सलीके से उसने
जीना भी नहीं सीखा था
न उसे प्यार करना आया था
कि उग आयीं हाथों पे दर्द की
अनेकों आड़ी-तिरछी रेखाएं
मैंने छू कर देखा .....
उसकी हथेलियों में नमी थी .
हीर जी ,मन को छूने वाली पंक्तियां
मनोभावों को इस तरह काग़ज़ पर उतारना हर किसी के बस की बात नहीं ,
बधाई हो
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
-बहुत गहन अभिव्यक्ति!! सुन्दर!! भावपूर्ण.
बहुत अच्छी नज़्म है ।
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
bahut marmsparshi abhivayakti hai.....lagbhag sabhi auraton ke man me yah sawal kabhi utha hi jaata hai ...bahut ghari baate shabdo ki mala me piro kar rakhi hai aapane...Dhanywaad.
क्या कहूं...
सूरज को दियासिलाई की रौशनी दिखाऊं तो दिखाऊं कैसे..
जय हिंद...
ati sunder abhivykti.......
aurat to hameshe hee ek na ek katghare me khadee kar dee jatee hai............:)
निशब्द कर देने वाली रचना है यह ..बधाई बेहतरीन की गिनती में आती है यह ..शुक्रिया
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
एक गहरी पीड़ा है इन शब्दों में....मन को छूने वाली सुन्दर अभिव्यक्ति
मैंने छू कर देखा .....
उसकी हथेलियों में नमी थी ....
------------
मैं झील की आँखों को
सहलाने लगती हूँ'
-----
***कैसे लिखती हैं इतना गहरा जो पढने वाले को साथ ले डूबता है...भावों के दरिया में...
**समय लगता है उबरने में हरकीरत जी!**
aapki kavitaayein bahut achhi hain...
main bachpan se kavi banna chahta tha lekin ban nahi paya..... abhi engg kar raha hoon kabhi kabhi likhta hoon....
aapse bahut prerna mili hai......
http://i555.blogspot.com/
yeh mera blog hai.. naya hi shuru kiya hai...
aapse margdarshan ki ummed rakhta hoon.....
हीरजी
आपने तो निशब्द कर दिया |धरती तो वही रहती है नापने वाले ही उसे टुकड़े टुकड़े करने में अपने अहम ki तुष्टि करते है |
अभी अभी मै मै सोच रही थी एक व्यथा के बारे में जिसमे नायक बेटेने अपनी माँ को खलनायिका बनाकर अपनी पढ़ी लिखी और कमाऊ पत्नी को नापने के साथ तोलना भी shuरु कर दिया है |बहूत से विचार आ जा रहे थे तभी आपकी इस नज्म ने झिंझोड़ कर रख दिया |नज्म कि तारीफ करती हूँ तो सिर्फ ज़रीब ही दिखाई देती है |
अंतर्मन को बेधती नज्म
भीतर तक छूती, गहरी और सुंदर कविता...
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
साढ़े तीन पंक्तियों से दुनिया की तमाम औरतों की सच्चाई का सागर बह निकला...
Wo din duur nahi jab isi 'zareeb' se purush bhi naapa jayega !
awaiting the day !
Smiles ..
bahut hi sunder abhivyakti ek baar phir ....hamesha ki trah ...mubarakbaad
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
.....लाजवाब,बेहतरीन अभिव्यक्ति,बधाई !!!!
thik se padh nai paa rahaa rang mishran me kuchh takniki pareshaani hai kya?
arsh
कर कर सवाल खुद से
वो रोज मरती रही,
अपने दर्द को
शब्दों के बर्तन भरती रही,
कुछ लोग आए
कहकर कलाकारी चले गए
और वो बूंद बूंद बन
बर्तन के इस पार झरती रही।
खुशियाँ खड़ी थी दो कदम दूर,
लेकिन दर्द के पर्दे ने आँखें खुलने न दी
वो मंजिल के पास पहुंच हौंसला हरती रही।
उसने दर्द को साथी बना लिया,
सुखों को देख कर दिए दरवाजे बंद
फिर सिकवे दीवारों से करती रही।
औरत की अंतरव्यथा का बहुत ही सजीव चित्रण
राज जी..
हरकीरत जी...
काहे बेकार बाते करते हैं आप लोग....?
दुखी तो कोई भी हो सकता है.....और निर्दय भी कोई भी हो सकता है...
इसमें औरत मर्द की कोई बात ही नहीं होनी चाहिए..
निर्दयी...और दुखी...
दोनों ही होते हैं....
अपने अपने ढंग से...
@ कुलवंत जी हर नज़्म के साथ इक टिपण्णी सहे ज रही थी ...इस बार आपकी सहेजने लायक है ......!!
@ मनु जी , औरत पुरुष पर हाथ नहीं उठाती ....औरत पुरुष पर पाबंदियां नहीं लगती .....उसे अपने इशारों पे चलने के लिए मजबूर नहीं करती .....और हजारों बातें जो मैं नहीं कहना चाहती ....सिर्फ और सिर्फ औरत होकर समझी जा सकतीं हैं .....उस स्थिति से गुजर कर समझी जा सकती हैं .....!!
निर्दयी...
और दुखी...
दोनों ही होते हैं....
अपने अपने ढंग से...
):
Manuji ka sawaal
apne dhng se...
aapka jawaab
apne dhng se...
aakhir samjhaa kaun !!
आह
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
शायद यह ज़िन्दगी
बहुत बड़ी किरदार है
उसे नहीं मिलती इक पूरी कहानी
जीने को .......
बहुत ही क्रुणिक शब्दों मे औरत का दर्द और समाज का चेहरा बुन दिया हमेशा की तरह लाजवाब रचना। शुभकामनायें
आप शब्द और भावों की जादूगर हैं...लाजवाब रचना...और क्या कहूँ समझ नहीं पा रहा..
नीरज
बेहतरीन रचना।
औरत की सहनशीलता के बराबर पुरुष कुछ भी नहीं। मैं तो बोलता हूं, जो ज्यादा टें-टें करे, उसे नमस्ते कर देनी चाहिए। भई वेले क्यों दुख सहते रहे।
इस दर्द का अंत कब कैसे होगा कभी कभी सोचने लगता हूँ। आपके ब्लोग पर आकर हर बार यही सोचता हूँ कि आप कैसे इतना दर्द देख और लिख लेती है। कुछ दिनों पहले मेरी ही गली में एक आदमी ने अपनी पत्नी को सरेआम इतना बुरी तरह से मारा कि मैं कांप गया। और फिर वो भाग गया। रात को सोचता रहा अगले दिन भी दिमाग में वही दृश्य घुमाता रहा। और आज फिर से याद आ गई उस दिन की। बीच में भूल गया था भुल्लकड जो हूँ। खैर आपकी रचना पसंद ना आए ऐसा नही हो सकता।
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
आह.....!
आह.....!
कठघरे में खड़ा करने के लिए जो नितांत आवश्यक है साधुवाद
...मन की परतों में
घिर आयीं हैं कितनी ही
गहरी दरारें ......
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बड़ी गहरी संवेदना है......आप को इस रचना के लिये बहुत बहुत बधाई....
कुछ अदृश्य रस्सियों की
जकड़न है चारों ओर .....
इक फनियर अपनी क्रूरता से
खत्म कर देना चाहता है
बुलबुल का कलरव .....
दर्द पत्थर की टेक लगा
हांफने लगा है ....
शायद वह
समाज के बनाये इन
नियमों पर
जिंदा चिता पर
लेट जाना चाहता है ......!!
अदृष्य रस्सियों की जकड़न, कलरव का खात्मा और दर्द का पत्थर से टिकना...
कविता में आप महीन बुनावट करती हैं और इस तरह कि पोर पोर उभर आए...
बधाई
शायद यह ज़िन्दगी
बहुत बड़ी किरदार है
उसे नहीं मिलती इक पूरी कहानी
जीने को ......
mere khayaal se aisa hona chaahiye
kyu ye zindgi
adhura sa kirdar
ban kar rah jati hai
jise nahi milti ek puri kahani jine ko.
बैसाखियों का सहारा दे
ईंटें टिकाने लगती हूँ
देखती हूँ मन की परतों में
घिर आयीं हैं कितनी ही
गहरी दरारें ......
ha.n man ki dararo ko bharna jyada jaruri hai..shareer ko baisakhiya khud-b-khud mil jayengi.
दर्द पत्थर की टेक लगा
हांफने लगा है ....
शायद वह
समाज के बनाये इन
नियमों पर
जिंदा चिता पर
लेट जाना चाहता है ......!!
di...niyamo par nahi shayed ye shabd niyamo ki hoga..
ya fir niyamo par k baad break
bahut gehri baat likhi hai.
badhayi.
koi baat buri lagi ho to maafi chahungi.
harkirat ji kuchh kahane ko baaki nahi raha.sivay isake ki------
आह.....!
ये बुद्धिजीवी समाज
कबतक औरत और ज़मीं को
ज़रीब * से नापता रहेगा ....
शायद यह ज़िन्दगी
बहुत बड़ी किरदार है
उसे नहीं मिलती इक पूरी कहानी, poonam
जीने को .......
अनामिका जी शुक्रिया .....
आपकी लिखी पंक्तियाँ लगा दी हैं .....
नीचे की पंक्ति में ' पर ' ही होगा ...समाज ने जो नियम बनाये हैं वह उन पर जिन्दा लेट अपनी आहुति देना चाहता है ......
वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में
उदासी का इक दरिया लिए
ज़िन्दगी को नए सिरे से
समझना चाहती है ....॥
kya kahun, dil ka kaun sa kona jaga hai
सदियों से समाज के नियमों में छटपटाती स्त्री को कब मुक्ति मिलेगी .....
बहुत ही सजीव चित्रण किया है आपने ....
बहुत खूब...
क्यूँ यह ज़िन्दगी
अधूरा सा किरदार
बनकर रह जाती है
जिसे नहीं मिलती
एक पूरी कहानी जीने को ....
हीर जी आप बहुत अच्छा लिखती है ।शब्दो मे इतनी गहराई की शब्द नही है मेरे पास इस को अभिव्यक्त करने के लिए ....
harkeeratji.
tareef kay liye sahi lafz nahin mil paa rahey.badhai-nirmal
tareef kay liye sahi lafz nahin mail paa rahey.badhai-nirmal
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