क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी
ब्लॉग जगत में मैंने सबसे पहले डा. अनुराग जी के ब्लॉग पे त्रिवेणी पढ़ी व परिचित हुई .....फिर अपूर्व जी ने हाल ही में अपने ब्लॉग पे लाजवाब त्रिवेणियाँ डालीं ......एक और उभरते हुए फनकार ' त्रिपुरारी कुमार शर्मा ' हैं पिछले दिनों उनके ब्लॉग पे बेहतरीन दस त्रिवेणियाँ देखने को मिलीं ......इसी श्रृंखला में मेरी इक नाकाम सी कोशिश ......पर ये त्रिवेणी नहीं उसी से मिलते-जुलते मेरे अपने 'त्रिशूल' हैं ......
(१)
उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म
अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता है ....
रब्बा! ये मोहब्बत के खून की क़िस्म इतनी कम क्यूँ बनाई थी ......??
(२)
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?
(३)
एक्वेरियम में कैद मछली को वह हर रोज़ डाल जाता है रोटी का इक टुकड़ा
और निकल पड़ता है फिर दरिया की सैर को इक नई मछली की तलाश में
घर के बाहर नाम की तख्ती पर लिखा था ........." प्रेम - निवास "
(४)
आज फिर मानसिक द्वन्द है कहीं भीतर
और इक डरी-सहमी आकृति मेरी पनाह में
आज फिर न जाने कितने ज़ज्बातों की हत्या होगी ......!!
(५)
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
77 comments:
बहुत खूब. हमेशा की तरह.
atulneey.....sadaiv kee bhati.....
"तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?"
एक नया अंदाज जो आज ही देख!
बहुत बढ़िया.......
कुंवर जी,
वाह...तीन पंक्तियों में पाठक तक मन के भाव पहुंचाना...कठिन तो है ही फिर भी इस विधा में आपका प्रयास सराहनीय है. मछली वाली त्रिवेणी में तंज बहुत तीखा है.
बहुत खूब. हमेशा की तरह.
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
very nice....
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
चिराग एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी है... कुछ करने के लिए जिस आग की जरुरत होती है वो उनके अन्दर है... हालाँकि मैं त्रिवेणी का जानकार नहीं पर उसकी त्रिवेनियाँ मुझे भी पसंद है. साथ ही उसके ब्लॉग में कुछ टेक्नीकल प्रॉब्लम है जिससे उसके फोल्लो करने वाले भी उसका अपडेट नहीं देख पाते और उसके ब्लॉग को पर्याप्त पाठक नहीं मिलते... कभी वो साहिर से प्रभावित लगता है कभी गुलज़ार से कभी निदा फाजली से तो कभी खुद से ही... पिछले दिनों हिंदुस्तान में रविवार को उसकी कविता छपी थी. बेहद व्यस्त भी रहता है और अब मेरे सामने बोलने लगा है... इधर अपूर्व और दर्पण भी इस फेन में माहिर निकले हैं.
आपकी त्रिवेनियों पर फिर से आता हूँ.
अच्छा लगा ....एक एक डुबकी लगाना .
उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म
अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता है ....
रब्बा! ये मोहब्बत के खून की क़िस्म इतनी कम क्यूँ बनाई थी ......??
बहुत बढ़िया.......
गुलज़ार जी की त्रिवेनियाँ बहुत बढ़िया लगी. प्रस्तुति के लिए आभार.
आज फिर मानसिक द्वन्द है कहीं भीतर
और इक डरी-सहमी आकृति मेरी पनाह में
आज फिर न जाने कितने ज़ज्बातों की हत्या होगी ......!!
bahut gehraai se likha hai sab kuch..!!!!
बहुत खूब! एक नए अंदाज़ में... और तीर बिल्कुल निशाने पर...
मुझे बड़ी पसंद है त्रिवेनियाँ और आपने तो जैसे उनका मकसद ही छु लिया| अब तो आप आल राउंडर हो हरकीरत जी| जबरदस्त!!
वाह जी!! बहुत आनन्द आया.
और लाईये.
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
-क्या बात है!
आज पहली बार इस त्रिवेणी की विधा से परिचय हुआ!!बहुत अच्छा लगा!सभी त्रिवेनियाँ एक से बढ़ कर एक है..बहुत बढ़िया.......!!!
गज़ब की त्रिवेणियाँ।
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
ये चिराग यूँ ही जलता रहे।
इक गुंजारिश .......
जैसा कि मैंने बताया त्रिवेणी में भाव छिपे हुए होते हैं ......अगर किसी को भाव पकड़ पाने में कठिनाई हो तो बेझिझक पूछ लें मुझे ख़ुशी होगी ....!!
पहली त्रिवेणी ...
उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म
अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता है ....
रब्बा! ये मोहब्बत के खून की क़िस्म इतनी कम क्यूँ बनाई थी ......??
यहाँ भाव हैं .....वह जान चूका है मोहब्बत मेरी रग़- रग़ में बसी है और वह उसी से मुझे वंचित रख तिल तिल कर मार रहा है ....फिर रब्ब से सवाल कि मोहब्बत करने वाले इन्सान इतने कम क्यों बनाये जो मेरे हिस्से में नहीं आये ....!!
दूसरी त्रिवेणी ......
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?
हाँ शायद पापा ने मुझे भी शब्दों से लड़ना सिखाया होता तो मैं भी बहस में जीत जाती ....पर पापा ने सिखाया था बेटियाँ बड़ों के आगे मुंह नहीं खोलतीं .....वे किसी और की गलती भी अपने सर मढ़ लेती हैं .....!!
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा
शब्दो से तारीफ बेमानी है. एक एहसास सी जो छूकर गुज़र जाती है.
इसमें विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।
HOW GULJAR DEFINE HIS TRIVENI........
बड़ी सीधी सी फ़ार्म है ,तीन मिस्रो क़ी .लेकिन इसमे एक ज़रा सी घूंडई है,हल्की सी,पहले दो मिस्रो मे बात पूरी हो जानी चाहिए,ग़ज़ल के शेर क़ी तरह वो मुकम्मिल होती है,तीसरा मिस्रा रोशान्दान क़ी तरह खुलता है.
उसके आने से पहले दो मीस्रे के महफ़ूम पर असर पड़ता है,उसके मानी बादल जाते है या उनमे इज़ाफ़ा हो जाता है. त्रिवेणी मे शोखी का एक अंग भी है,ये योगसान मै कर के दिखा सकता हूँ,ज़बानी समझा नही सकता.
त्रिवेणी मे एक त्रिवेणी उलटी गिर पड़ी थी जिसमे उपर का शेर नीचे आ गय.बदि कोशिश क़ी सीधा करने क़ी,हुई नही.{REVERSE -TRIVENI}
ya yun kahiye.......
GULZAR SAHEB NE "RAT PASHMINE KI"apni kitab me triveni ke bare me kya kaha hai,jara suniye....
TRIVENI NA TO MUSSALAS HAI,NA HAIKU,NA TEEN MISRO ME KAHI EK NAJM. IN TEENO FORMS ME EK KHYAAL AOR EK IMAGE KA TASALSUL MILTA HAI,LEKIN TRIVENI KA FARK ISKE MIZAZ KA FARK HAI.TEESRA MISRA PAHLE DO MISRO KE MAHFOOM KO KABHI NIKHAR DETA HAI, KABHI IJAFA KARTA HAI YA UN PAR COMMENT KARTA HAI.
TRIVENI NAM ISLIYE DIYA GAYA THA KI SANGAM PAR TEEN NADIYA MILTI HAI,GANGA ,JAMUNA,SARASVATI,GANGA AOR JAMUNA KE DHARE SATAH PAR NAJAR AATE HAILEKIN SARASVATI TO TAKSHILA KE RASTE SE BAH KAR AATI THI,VAH JAMEEN DOJ HO CHUKI HAI,TRIVENI KE TESRE MISRE KA KAM SARASVATI DIKHANA HAI JO PAHLE DO MISRO ME CHUPI HAI.
आदाब ,
त्रिवेनिओं के बारे में मैं ज्यादा नहीं जानता मगर हाँ कुछ बातें ऐसी हैं
जिसमे ऊपर के दोनों लाइन एक दुसरे के पूरक होती हैं मगर तीसरी लाइन
में कुछ ऐसी बात आप कहते हो जो दोनों से भिन्न होते हुए भी उनक पूर्ण करती हैं मगर
उसका कुछ खास रिश्ता नहीं होता दोनों लाइन से , वो स्वतंत्र होता है ...
गंगा जमना तो हैं वो सरस्वती भी है तीनो में बात यही है के तीनो बस
नदियाँ हिन् होती हैं...
मेरे ख़याल से त्रिवेणी लिखना बहुत कठिन है ,....
सबसे अछि बात तो तब होती है जब आप त्रिवेणी को भी मुकम्मिल बहा'र
में लिखते हैं... वही बात हो जाती है के चार चाँद लग जाते हैं..
मगर आज कल स्वतंत्र लेखन का प्रचालन जो है ... :)
आपकी त्रिवेणी भी अछि लगी...
ब्लॉग में मुझे डाक्टर अनुराग अपनी त्रिवेनिओं से ज्यादा प्रभावित करते हैं
उसके बाद दर्पण है , सही कहूँ तो इन दोनों के आलावा ज्यादा लोगों को ब्लॉग पर बढ़ा नहीं ...
आज आप भी शामिल हैं...
अर्श
अनुराग जी ,
गुलजार भी कभी हमारे और आपकी ही तरह साधारण कवि रहे होंगे ....उन्होंने त्रिवेणी का प्रचलन किया ....कुछ उसी से मिलती जुलती इस विधा का मैं कोई और नाम रख दूँ .....?
इसकी शुरुआत मुझ से सही .....!
मेरा मानना है कि पंक्तियों में गहराई हो और आपके कहीं भीतर तक उतर जायें वही सार्थक लेखन है .....कुछ नाम सुझाइयेगा क्या रखूं .....!!
अर्श जी ,
मैंने अपनी इस विधा को अपना नाम दे दिए "त्रिशूल"....और मुझे उम्मीद है मैं इस विधा में अपनी एक पुस्तक तो जरुर निकालूंगी .....!!
बहुत खुब जी,
धन्यवाद
vaakay ..bahut bahut khub
आदरणीय हरकीरत जी, इज्जत बख्शने के लिये शुक्रिया, मगर मैं अभी खुद को अनुराग जी और आप जैसों की जमात मे शामिल हो पाने के काबिल नही समझता..आप सब को पढ़ कर कलम चलाने की कोशिश करता हूँ. मगर सच कहूँ तो मुझे भी नही पता कि मैने जो कुछ त्रिवेणीनुमा लिखा वह त्रिवेणियाँ हैं या नही?..हाँ दर्पण का भी त्रिवेणियों का हुनर खासा तस्लीमशुदा है..
इन बेहतरीन नक्काशियों के लिये शुक्रिया..पहली नजर मे त्रिवेणियाँ हमारे लेवल से कुछ ऊपर लगती हैं..मगर आपके कमेंट के रोशनी डालने के बाद उनकी खूबसूरती निखर कर आती है..खासकर बेटियों वाली त्रिवेणी..इतनी पुरअसर बात तीन लाइनों मे कह जाना हुनरमंद लोगों के बस की ही बात है..खासकर बीच मे दूसरी भाषा के शब्द इसे और कशिश देते हैं...हाँ चौथी वाली मे इन जज्बातों का कातिल कौन है थोड़ा समझ नही आया..!
’त्रिशूल’ नाम मस्त मगर खासा खतरनाक लगा..और किताब की ’सान’दार सफ़लता के लिये हमारी शुभकामनाएं ;-)
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
ख़ुशी हुई जानकर।
बहुत सुन्दर त्रिवेणियाँ हैं ये ।
आदरणीय दराल जी ,
अब आप भी कृपया इन्हें त्रिवेणी तो न कहें ....अब इस शब्द से वितृष्णा सी होने लगी है .....!!
अपूर्व जी , चौथा त्रिशूल है .....
आज फिर मानसिक द्वन्द है कहीं भीतर
और इक डरी-सहमी आकृति मेरी पनाह में
आज फिर न जाने कितने ज़ज्बातों की हत्या होगी ......!!
सभी की पृष्ठभूमि में सम्बन्ध स्त्री पुरुष से ही है ....कई बार स्त्री को इतने अधिक मानसिक द्वन्द से गुजरना पड़ता है की वह अपने तमाम ज़ज्बातों की हत्या कर परस्थितियों से समझौता कर लेती है ....और दिमाग अपनी पनाह में ले उसे समझाता है कि शायद तुझे अब इन्हीं स्थितियों में जीना है ....!!
एक्वेरियम में कैद मछली को वह हर रोज़ डाल जाता है रोटी का इक टुकड़ा और निकल पड़ता है फिर दरिया की सैर को इक नई मछली की तलाश में
घर के बाहर नाम की तख्ती पर लिखा था ........." प्रेम - निवास "
सही इशारा है तुहाडा, मुहब्बत दा मतबल बन्दे नु बांधना नी सीगा!
बहुत भावपूर्ण त्रिवेणियाँ... मैं अभी तक अपूर्व जी या त्रिपुरारी जी की रचना नही पढ़ पाया हूँ. पर आपके माध्यम से पढ़ी गई रचना की एक नई विधा बहुत अच्छी लगी..सुंदर और भावपूर्ण...बधाई हरकिरत जी
त्रिवेणी हो या त्रिशूल दमदार हैं.
कुछ तो दिल में समा गईं--
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?
----इस नदी में सभी को तैरना खुद ही सीखना पड़ता है।
एक्वेरियम में कैद मछली को वह हर रोज़ डाल जाता है रोटी का इक टुकड़ा
और निकल पड़ता है फिर दरिया की सैर को इक नई मछली की तलाश में
घर के बाहर नाम की तख्ती पर लिखा था ........." प्रेम - निवास "
----यह एक करारा सामाजिक व्यंग्य है।
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
---यह आशा का संचार करता है।
--बधाई।
कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं है ...अलफ़ाज़ ग़ुम हो गए है
मन को छूने वाली रचना
अद्वितीय
' हीर ' जी,
त्रिवेणी कहें या त्रिशूल नाम में क्या रखा है .भाव महत्वपूर्ण हैं,जो की आपकी हर विधा में मिलते हैं. वैसे मैं नए प्रयोगों ,अनुप्रयोगों का स्वागत करता हूँ.
और आपका प्रयोग सार्थक भी है और सहज भी.
बधाई!
सारी त्रिवेणियाँ बहुत बढ़िया ...प्रेम निवास और स्विमिंग पूल वाली बहुत खास लगीं....बधाई
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ..
ये या फिर मछली वाला .... या शबनम वाली .... बहुत ही कमाल की त्रिवेनिया प्रस्तुत की हैं आपने .... लाजवाब ... आप भी माहिर हैं इस विधा में ...
wah heer ji..
har ek trishul lajawaab hai..
sab apne alag ehsaas me.
ye koshish b aapki kabile tareef hai.
PANKTIYAN achhi lagi.. theme thik nahi lag raha blog ka...
Namaste :)
Bahut dinn baad aapka blog dekh paayi hu main...
Inn lines ne mere mann ko chooh liya
-- हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
-- और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
-- रब्बा! ये मोहब्बत के खून की क़िस्म इतनी कम क्यूँ बनाई थी ......??
Bahut hi umdaah!
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने की विधा है ये त्रिवेणी
और गुलजार जी की शायरी तो अपने आप मे पूर्ण है
आप तो हमेशा की तरह लाजवाब.......
सभी एक से बढ़ कर एक बहुत सुन्दर ,बहुत पसंद आई शुक्रिया
mujhe abhi kaafi seekhnaa hai.
Mera urdu gyaan kam hai. Meri ikshaa hai urdu me likhun. Uske liye abse main aapki rachnaayon padhaa karungaa.
Mera urdukavita ka blog hai- http://pratul-urdukavita.blogspot.com/
jo urdu shabdkosh ki madad se bad rahaa hai.
please guide karen.
bahut umda ji ....maza agaya..
हमने माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक।
सुना है सात दिन तक डाक की हड़ताल रहनी है।
ज्ञानीजनों से निवेदन है कि मुझ अज्ञानी को यह बतायें कि अगर ग़ालिब साहब आज के ज़माने में होते और उपर दिये अनुसार तीन मिसरे कहते तो वह त्रिवेणी होगी या नहीं?
त्रिवेणी पर प्रामाणिक जानकारी का कोई स्रोत बता सकें तो आभारी रहूँगा।
सुभानाल्लाह ......!!
तिलक जी आपकी त्रिवेणी पढ़ तो तबियत खुश हो गयी ...!!
दाद कबूल करें ....!!
अर्ज है ....
वो आये एक ठहरी हुई शाम लेकर
गए तो दो बूंदें फ़ैल गयीं हथेली पे
कहीं आज मानसून आने वाला तो नहीं ....
मैंने जर्द पत्तों पर शबनम की बूंदें भेजी थीं
उसने गुलाब की पत्तियों पर भेजा है पैगाम
हवाओं से बुझता चिराग फिर जी उठा .......!!
adbhut aur khoobsurat ,hamesha ki tarah .
तो ये आपके त्रिशूल है.. :) बहुत नुकीले है बाकी गुलज़ार जी की त्रिवेणी के बारे मे आपको यहा भी कुछ मिल जायेगा.. चन्द वीडियोज़
http://pupadhyay.blogspot.com/2009/11/blog-post_09.html
हरकीरत जी
पहले औपचारिक टिप्पणी दी थी। लेकिन जब कुछ मन शांत हुआ और आपके ज़ज्बातों को जिस आकार में ढला पाया, बेहद... लाजवाब करने वाला था। कम शब्दों में इतने गहरे ज़ज्बात काबिले तारीफ़ हैं.
हरकीरत जी हम तो विधाओं के बारे में जानते ही नहीं
क्या त्रिवेणी क्या ख्याल
बस जो दिल से लिखा हो किसी ने वही करता हैं इस दुनिया में कमाल
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?
मुझे इस त्रिशूल के भाव नहीं समझ आ रहें, कृपया व्याख्या कर दे
इसमें जो बात छुपी हैं वो बताये
यशवंत जी ,
मैं ऊपर बता चुकी हूँ इसका भाव भी ......कल डा. अनुराग जी से त्रिवेणी को लेकर ख़त द्वारा कुछ बातचीत हुई ....इसलिए मैं दोनों विधाओं को अलग अलग ही रखना चाहती हूँ......जैसा कि अर्श जी ने कहा 'त्रिवेणी' बहर में अच्छी लगती है पर 'त्रिशूल' में गद्यात्मक पंक्तियों में शदीद प्रहार होगा ....जैसा कि आपके पूछे त्रिशूल में है .....
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?
बहस के दरम्यां औरतें अक्सर खामोश रहना उचित समझती हैं ....और पुरुष शब्दों के सहारे जीत जाते हैं ....शायद माता पिता के दिए ये संस्कार ही होते हैं कि औरतें मझधार में ही अपनी हार मान लेती हैं ...पापा से मैं वही सवाल करती हूँ ....मुझे शब्दों के सहारे तैरना क्यों नहीं सिखाया था ......!!
Tisri panki ke nirnay bahut hi sunder
Tisri panki ke nirnay bahut hi sunder
भाई पंकज उपाध्याय जी ने उनके ब्लॉग का जो लिंक दिया उसपर गुलज़ार साहब को त्रिवेणी की व्याख्या करते हुए सुना। गुलज़ार साहब ने इस विधा को जन्म व नाम दिया है तो विवादास्पद स्थितियों से बचने के लिये सही व्याख्या उन्हीं से कराना उचित होगा।
गुलज़ार साहब ने गंगा जमना और सरस्वती की बात कही है। स्पष्ट है कि आशय संगम से है। अब संगम की तरह देखें त्रिवेणी को तो गंगा का अपना रंग है, जमना का अपना और सरस्वती छुपी है लेकिन त्रिवेणी में तीनों परस्पर समबद्ध हैं। इस तरह से त्रिवेणी के तीनों मिसरे स्वतंत्र होते हुए भी एक ऐसी स्थिति बनती है कि गंगा जमुनी मिसरे मिलकर एक दिखें और उनमें तीसरे मिसरे की बात छुपी हो। साथ ही यह भी जरूरी हो जाता है कि सरस्वती गंगा के साथ हो तो गंगा का रंग लिये हो और जमना के साथ हो तो जमना का रंग लिये हो। अगर ऐसा है तो तीसरा मिसरा पहले मिसरे के बाद आने पर एक पूर्ण शेर बनाता हो और तीसरा मिसरा दूसरे मिसरे के पहले आने पर भी एक पूर्ण शेर बनाता हो; ऐसा जरूरी होना चाहिये। यह ऐसा हो गया कि तीन मिसरों में आपको तीन शेर कहने हैं जो परस्पर सम्बद्ध हों। यही कोशिश मैनें पिछली टिप्पणी में गालिब साहब का मशहूर शेर लेकर की थी। मैं तो चाहूँगा कि आपके ब्लॉग की इस पोस्ट पर टिप्पणी देने वाले सभी सुधिजनों का विचार इसपर जाना जाये।
जी तिलक जी ,
शायद जो इस विधा से आज तक अनभिज्ञ हैं वे भी आज ये हुनर सीख सकें ....मैं डा. अनुराग जी , दर्पण, त्रिपुरारी शर्मा और आपसे अनुरोध करुँगी कि कुछ और उदाहरण देकर इस पर प्रकाश डालें .....कुछ गुलजार जी कि त्रिवेणियाँ मैं प्रस्तुत कर रही हूँ .....
(१)
उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?
(२)
सब पे आती है सब की बारी से
मौत मुंसिफ़ है कम-ओ-बेश नहीं
ज़िंदगी सब पे क्यों नहीं आती ?
(३)
कौन खायेगा ? किसका हिस्सा है
दाने-दाने पे नाम लिख्खा है
सेठ सूद चंद, मूल चंद जेठा
(4)
भीगा-भीगा सा क्यों है अख़बार
अपने हॉकर को कल से चेंज करो
"पांच सौ गाँव बह गए इस साल"
(५)
चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा
राख हो जाएगा जब फिर से अमावस होगी
(६)
गोले, बारूद, आग, बम, नारे
बाज़ी आतिश की शहर में गर्म है
बंध खोलो कि आज सब "बंद" है
(७)
रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था -
चाँद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना
त्रिवेणी कहें या त्रिशूल मेरे लिए प्रमुख है विषय और भाव:
उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म
अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता है ....
रब्बा! ये मोहब्बत के खून की क़िस्म इतनी कम क्यूँ बनाई थी ......??
इसलिए पाचों की जितनी तारीफ़ उतनी कम एक से बढ़कर एक - बेमिशाल - आपको और आपकी सोच को सजदा.
वाह!
लगता है त्रिवेणी की भी कक्षा लगने वाली है..मस्त है! विद्यार्थियों मे हमारा नाम भी लिख लिया जाय!
' हीर ' जी ,
आपने इस विधा और प्रयोग से बड़ी सार्थक बातें पढ़वा दीं टिप्पणिओं द्वारा .खास कर तिलक जी ,ज्योतिजी और खुद आपकी त्रिवेन्णिओन से .
दरालजी और आपकी आपसी टिप्पणिओं की नोंक झोंक का अलग ही मजा रहा .अनुराग जी ने गहरायी से लिखा .
तिलकजी ने तो रंग ही जमा दिया ग़ालिब के शेर की त्रिवेणी बना और फिर जो सिलसिला चला तो मनोरंजन और शायिरी के ज्ञान से हम जैसे अज्ञानियों के ज्ञान में भी इजाफा हुआ .
बहुत ही सार्थक रहा .
और तिलक जी आप के लिए ......
तारीफ करून क्या उसकी जिसने तुम्हें नवाज़ा.
बेहतरीन, खास तौर से
"उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म
अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता है ...."
वाह!
जब ग़ज़ल तक हो न पाए क्या कहें तिरवेणी की.....?
कह्त का ऐसा तो मंज़र आज तक देखा नहीं...
'बे-तखल्लुस' क्या कभी फिर 'फॉर्म' में आ पायेगा.....?
इसे त्रिवेणी कहिये...त्रिशूल...लठ.. या भाला....
मगर दिल की बात है..
और लगभग लगभग...बह्र में है....
सभी त्रिवेनियाँ बहर में हैं,
कुछेक गीत भी बहर में है.
बहर लगी न ज़िन्दगी सी बस.
अदभुत।
क्या ज़रूरी है क हर बात कहें लफ़्ज़ों में
दिल की हर बात इशारों में समझ आती है
आज हम कुछ न कहेंगे, ये त्रिशूल अच्छा है
जब समझ आये न एहसास का मतलब कुछ भी
दिल की धड़कन को सताने का भी मतलब क्या है
झूठ दर्पण ने कहा है, तो बुरा क्या इसमें
ho sake to please background change kaiyega..............
ho sake to please background change kaiyega..............
तुम फिर तैर गए थे शब्दों के सहारे
और मेरे शब्द मझधार में ही दम तोड़ गए थे
पापा! तूने मुझे स्विमिंग क्यूँ नहीं सिखलाई थी ....?
बहुत खूब, कहकर शायद मैं मुक्त नहीं हो सकती, इनके भावों का परिचय दिल को छू गया बधाई के साथ शुभकामनायें ।
"आज फिर मानसिक द्वन्द है कहीं भीतर
और इक डरी-सहमी आकृति मेरी पनाह में
आज फिर न जाने कितने ज़ज्बातों की हत्या होगी !"
बेहतरीन लगी ये पंक्तियाँ
उसने मेरी नब्ज़ काटकर ढूंढ ली है खून की किस्म
अब वह हर रोज़ मुझे तिल-तिल कर मारता ...बहुत दिन बाद आना हुआ तुम्हारे ब्लॉग पर लेकिन खुशनसीब हूँ बेतरीन सा सब कुछ छूट जाता ,,,लाजवाब
सुंदर त्रिवेणियाँ ...त्रिशूल ... बेहद रोचक
आपके त्रिशूल बड़े अहिंसक हैं. ये किसी को चोट नहीं पहुंचाते बल्कि आनंदित करते हैं.
naazuk...khoobsoorat...
vah vah
क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी
bahut dino baad blogs par aaya ...
aapki yeh rachna waqai me kabil e tareef hai ....
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