गणतंत्र दिवस की आप सब को ढेरों शुभकामनाएं...! पर मन में बीते दिनों के... दर्दनाक हादसों से उठे कई सवालात हैं... जो रह-रह कर मन को कचोटते हैं ....कि आखिर क्यों हम बेजूबां हो जाते हैं....??
पेश है... ये नज़्म... "बेजूबां हैं क्यूँ लोग यहाँ....??"
बेजूबां हैं क्यूँ लोग यहाँ......
फिजां में उठ रही लपट सी क्यों है
ये भगदड़ सी क्यों शहर में मची है
ये ताज क्यूँ जला आज आग में
यहाँ इंसानियत क्यों दिलों में मरी है.....
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है.....
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है.....
आदमी ही आदमी का दुश्मन बना क्यों
बीच चौराहे पे क्यूँ ये गोली चली है
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है......!?!
Sunday, January 25, 2009
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43 comments:
बहुत सुंदर ब्लॉग है आपका और उतनी ही दिलकश आप की रचनाधर्मिता... अब आना जाना लगा रहेगा.. चाहे देर सवेर हो जाए.
bahut acchi rachana
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है.....
bahut achchee abhivykti hai ..
sach mein kayee sawaal bejuban ho jatey hain to bhi unka jawab nahin milta..ya kahiye...kuchh sawaal sirf sawaal rah jatey hain..
-गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है......!?!
hamne dekha hai kayi aise khudaaon ko yahaan..
saamne jinke ki sachmuch kaa khuda kuch bhi nahin.......!!(kisi aur kee panktiyaan...)
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है.....
ताजा हालत को बयान करती रचना मजबूर करती है सोचने को की यह कैसा गणतंत्र है, क्यूँ इंसान इंसान का दुश्मन बना है.
उद्वेलित करती रचना
हकीर जी
सामयिक और एक उमड़ ग़ज़ल के लिए धन्यवाद.
ये शेर भी अच्छा लगा .
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है.?
-विजय
बहुत गहरे भाव लिये है आप की यह रचना,
आप को भी गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं!!
ओह!! रचना बहुत उम्दा और अपनी बात कहने में सफल रही.
वाह और आह भी -एक सशक्त रचना ! आपको मेरे अग्रज गणतंत्र की शुभकामनाएं !
वाह, बहुत खूब सच को क्या उकेरा है
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है...
bahut khoob.
बहुत सुंदर.... गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...!
वाह अच्छी कविता हरकीरत जी...
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है....."
वाह! अप्रतिम अभिव्यक्ति व्याकुल मन की ....शब्दों में बांधना असंभव प्रतीत हो रहा है प्रसंशा को ! बहुत खूब !
बाकी....आपकी उत्साहवर्द्धक टिपण्णी के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। सागरनामा को विशेष कविताओं के लिए ही निर्मित किया है ताकि सहृदय पाठक उन्ही परिधिओं में रहकर कवि मर्म तक पहुँच सकें ...! फिरभी- यदा कदा परिस्थियों अनुसार कुछ अभिव्यक्तियाँ यहाँ भी पोस्ट कर सकूं ऐसा प्रयास अवश्य ही करूंगा ।
पुनश्च:धन्यवाद....
(गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं)
निदा फाज़ली ने कभी कुछ कहा था आपको पढ़कर याद आ गया ...
नज्म बहुत आसान थी पहले
घर के आगे
पीपल की शाखों से उछल के
आते-जाते बच्चों के बस्तों से
निकल के
रंग बरंगी
चिडयों के चेहकार में ढल के
नज्म मेरे घर जब आती थी
मेरे कलम से जल्दी-जल्दी
खुद को पूरा लिख जाती थी,
अब सब मंजर बदल चुके हैं
छोटे-छोटे चौराहों से
चौडे रस्ते निकल चुके हैं
बडे-बडे बाजार
पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं
नज्म से मुझ तक
अब मीलों लंबी दूरी है
इन मीलों लंबी दूरी में
कहीं अचानक बम फटते हैं
कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं
मजहब और सियासत मिलकर
नये-नये नारे रटते हैं
बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर
नज्म मेरे घर जब आती है
इतनी ज्यादा थक जाती है
मेरी लिखने की टेबिल पर
खाली कागज को खाली ही छोड के
रुख्ासत हो जाती है
और किसी फुटपाथ पे जाकर
शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर
आँसू बन कर
सो जाती है।
Waah...! Anurag ji Nida Fazli ji ki in paktiyon ko pesh karne ke liye bhot bhot sukriya...!
सवालों के साथ दर्द के भाव से भरी रचना।
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है.....
सच अब जागने और पूछने का समय आ गया है अगर अब भी देर कर दी तो .........।
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है......!?!
सच गजब लिख दिया।
बेज़ुबानी के पीछे ही तो अपनी डाल गलती है
जो जुबान कोलते हैं,उन्हें खामोश कर दिया
जाता है,आज के दिन आपने एक बहुत सशक्त विचार दिया
काश ! मस्तिष्क तक पहुंचे और दिल तक
बहुत सुंदर.... गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...!
सुन्दर ब्लॉग...सुन्दर रचना...बधाई !!
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60 वें गणतंत्र दिवस के पावन-पर्व पर आपको ढेरों शुभकामनायें !! ''शब्द-शिखर'' पर ''लोक चेतना में स्वाधीनता की लय" के माध्यम से इसे महसूस करें और अपनी राय दें !!!
हम सब के दिल की यही मनोभावनाएं हैं जिन्हे आपने अपनी इस रचना के माध्यम से व्यक्त किया है।
हमेशा की तरह एक सुंदर रचना के लिए साधुवाद.
'रात मेरी तो…'
बहुत सुन्दर और सारगर्भित।
बधाई
आदमी ही आदमी का दुश्मन बना क्यों
बीच चौराहे पे क्यूँ ये गोली चली है
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है
बहुत सुंदर नज़्म है...बहुत ही सामयिक बात कही है आपने.
ऐसी ही एक कविता मैंने अपने ब्लॉग पर आज पोस्ट किया है.
कुछ अंश ---
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...............................
काटकर मानव गला नृशंसता से ,
मद भरा, मत-अंध मानव
रक्त से स्नान कर
करता हुआ अभिषेक दानव का अहम् के,
मनुजता के वक्ष पर रख पैर
तांडव कर रहा
भर रहा हुँकार प्रतिपल।
...................................
...................................
wah...........
bahut khoob....
bahut pyari rachana he..apni dairy me utar kar sanjo kar rakhne jesi..
dhanyvad
इस ’क्यूं’ का तो कोई जवाब नहीं है मैम...
बेहद सामायिक और अच्छी कविता. सवाल बहुत हैं... लेकिन इनके जवाब भी हमें ही तलाश करने पड़ेंगे.
बहुत ही सुंदर रचना है आपकी. गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें..
हरकीरत जी,
नज़्म या गज़ल की बात बाद में करेंगे .............
पहले वहाँ लौट आइये दोबारा जहाँ से आप उठ के आयीं हैं........आपका तो मालूम नहीं ...पर हमने आपसे बहुत कुछ सीखा है.............
हाँ, मैं अपने ब्लॉग की बात नहीं कर रहा .......मैं युग्म की बात कर रहा हूँ............
लोगों की कवितायें , गज़लें आपकी टिपण्णी के इंतज़ार में हैं....
मैं भी ................
और मैं फ़िर कभी भी आपसे असहमत हो सकता हूँ ...मेरी मर्ज़ी......मेरा दिल..मेरा मूड.....
पर आप ऐसे नहीं जायेंगी.........
ना छोड़ कर ....ना रूठ कर..........
harek ke dil me uthnewale prashno ko aapne badi sachhai ke sath shabdo me dhala hai....
heart touching....
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behatareen haqeer jee aapaki nazmon ka koee jod naheen hai
bahut sundar likha hai aapane .
harkirat ji
is baar aapne bahut achai nazm likhi hai .aazadi , ek nai soch ko janam dete hai ..
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है......!?!
ye kuch sochne par mazboor karti hai ..
aapko badhai ..
dhanywad.
vijay
bahut achhi rachna hai. kya main apne akhbaar main aapki kkoi nazam chhap sakta hoon
हरकीरत जी ,
आपकी कविता ,ग़ज़ल में जो आग है
उसे बनाये रखियेगा .भाषा की सरलता
सहजता भी बनाये रहिएगा .मेरी शुभकामनायें
हेमंत कुमार
Harkeerat ji,
sabse pahle to mere blog par ane ke liye dhanyavad sveekaren.Apkee gajal vakayee bahut hee sundar bhav ke sath ek vidroh apne andar samete hai.badhai.
Poonam
बे ज़ुबानी की ज़िक्र पर याद आया:
कुछ न बोला तो शुजा'अ* अंदर से तू मर जाएगा
और कुछ बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा.
*खावर शुजा'अ
पहले तो लगता था की आप इंट्रोवर्ट है,इस रचना से लगा कि
आप समाज और मानवता का दर्द भी समेटे हुए है,बहुत खूब.
म् हाश्मी
khoobsurat rachna ,na sirf khoobsurat dhero sawal puchti hai kuch ke javaab deti hai..jaise...raat meri kat jayegi sajde me par tere gharki khidki bhi khuli hai
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है.....
बहोत सुंदर भावः...
सहज और सुंदर लेखनी है आपकी,
ऐसे ही लिखते रहिये ।
कितनी आसानी से सरे काम ख़त्म हो गए,
कफ़न उठाया और हम दफ़न हूँ गए...
Aaj holi hai, ghar mein hi hun,aapki sari ki sari kavitayen parhi hain,apne bheetar itna lamba bhi koi jhaank sakta hai, aapki nazmon se mehsoos hua hai,shabad ki aatma ke saath insaaf karte hue aapne parde peechhe ki tanhai ko bakhoobi uukera hai,mubarak....
Darshan Darvesh
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